Itihaas ka wah sabse mahaan vidushak - 29 books and stories free download online pdf in Hindi

इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 29

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लेकिन कौन संन्यास ले रहा है?

राजा कृष्णदेव राय के दरबारी तेनालीराम को नीचा दिखाने की कोशिश करते थे, पर तेनालीराम की चतुराई के कारण हर बार उन्हें मुँह की खानी पड़ती। आखिर हारकर उन्होंने महारानी के कान भरे।

एक पुराने दरबारी रंगाचार्य का गाँव की रिश्तेदारी के नाते महारानी से कुछ परिचय था। बस, उसे तेनालीराम से अपनी खुंदक निकालने का अच्छा मौका मिल गया। देर तक वह महारानी से तेनालीराम को लेकर बहुत कुछ उलटा-सीधा कहता रहा। फिर बोला, “महारानी जी, तेनालीराम अपने सामने किसी को नहीं गिनता। कह रहा था, राजा तो मुझे इतना चाहते हैं कि महारानी की बात भले ही टाल दें, मेरी बात कभी नहीं टालते।”

सुनकर महारानी को बहुत क्रोध आया। बोलीं, “अच्छा, ऐसा कहा तेनालीराम ने? उसकी इतनी हिम्मत...?”

“अरे महारानी जी, उसकी हिम्मत की बात न पूछो। वह एक नहीं, बीसियों से यह बात कह चुका है। और कहे भी क्यों न, राजा का मुँहलगा जो है। राजा कृष्णदेव राय ने तारीफ कर-करके उसका दिमाग खराब कर दिया है। अब वह किसी को अपने आगे कुछ समझता ही नहीं।”

“हूँ...! ठीक है, तुम जाओ। मैं देखती हूँ, कब तक उसका दिमाग सही नहीं होता।” महारानी ने अपने गुस्से पर किसी तरह काबू पाकर कहा।

उसी समय महारानी ने तय कर लिया कि चाहे जो हो, तेनालीराम को राजदरबार से निकालना ही होगा।

अब राजा कृष्णदेव राय जब महल में आते, महारानी किसी न किसी तरह तेनालीराम की बुराई करके, उसे राजदरबार से निकालने के लिए कहतीं। राजा ने उन्हें बहुत समझाया, “देखो महारानी, तेनालीराम बुरा नहीं है। वह खरी बात कहता है और हमेशा प्रजा के हित की बात कहता है, इसलिए बहुत से दरबारी उससे चिढ़ते हैं। पर वह मेरा दाहिना हाथ है।”

पर महारानी पर कोई असर नहीं पड़ा। उनकी जिद खत्म होने में ही नहीं आती थी। बार-बार एक ही बात कहतीं, “आप तेनालीराम को राजदरबार से निकाल बाहर कीजिए। बस, मैं आपसे कुछ और नहीं माँगती।”

राजा कृष्णदेव राय काफी परेशान हो गए। आखिर वे बिना बात तेनालीराम को राजदरबार से कैसे बाहर निकाल दें, जबकि उनका सबसे ज्यादा उसी पर भरोसा था? पर महारानी की जिद बरकरार रही।

एक दिन राजा महल से दरबार जा रहे थे। तभी महारानी पास आकर बोलीं, “क्या आप मेरी यह छोटी सी इच्छा पूरी नहीं कर सकते?”

राजा ने परेशान होकर कहा, “पर उसकी जगह कौन लेगा? उस जैसा बुद्धिमान हमारे राज्य में कोई और नहीं है।”

सुनकर महारानी एक क्षण चुप रहीं। फिर कहा, “अच्छा, उससे आप कहें कि वह मुझे बुलाकर दरबार में ले आए। अगर वह इसमें कामयाब हो गया, तो मैं उसे चतुर मान लूँगी।”

राजा ने चुपचाप ‘हाँ’ में सिर हिलाया और दरबार की ओर चल दिए।

दरबार में आकर राजा ने तेनालीराम से कहा, “तुम अभी राजमहल में चले जाओ। जाकर महारानी को दरबार में बुला लाओ।”

तेनालीराम को लगा कि राजा मजाक कर रहे हैं, पर उनकी गंभीर मुखमुद्रा देखकर वह परेशान हो गया।

“पर...पर महाराज, महारानी जी दरबार में क्या करेंगी?” तेनालीराम भौचक्का होकर बोला, “वे तो कभी दरबार में आती नहीं हैं।”

“तुमने सुन लिया न, कि मैंने क्या कहा है?” राजा कृष्णदेव राय किंचित रोष में आकर बोले। फिर उन्होंने दोहराया, “तुम अभी राजमहल में चले जाओ और महारानी को दरबार में बुलाकर ले आओ।”

सुनकर तेनालीराम चकराया, आज महाराज ऐसी बात क्यों कह रहे हैं? वह समझ गया कि जरूर इसके पीछे दरबारियों की कोई नई चाल है। पर अब कुछ न कुछ तो करना होगा।

तेनालीराम उसी समय राजमहल की ओर चल दिया। वह रास्ते में यही सोचता जा रहा था कि क्या महारानी दरबार में आने को राजी होंगी? उन्हें क्या कहकर दरबार में आने के लिए राजी किया जाए?

आखिर तेनालीराम महल में पहुँचा। महारानी को देखते ही रोनी सूरत बनाकर बोला, “महारानी जी...महारानी जी, सब कुछ खत्म हो गया। अब तो आप ही कुछ कर सकती हैं। अगर आप बचा सकतीं हैं तो बचा लें। नहीं तो...?”

“क्या? क्या खत्म हो गया तेनालीराम?...मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा।” तेनालीराम की बात सुनते ही महारानी का दिमाग चकरा गया। बोलीं, “बात क्या है तेनालीराम? तुम बताते क्यों नहीं हो? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा!”

तेनालीराम उसी तरह करुण स्वर में बोला, “महारानी जी, राजा संन्यास ले रहे हैं। उन्होंने अभी थोड़ी देर पहले हम सबसे कहा है कि अब संसार में मेरा मन नहीं लगता। यहाँ हर आदमी केवल अपने स्वार्थ की बात करता है। कोई सच्चा नहीं है, इसलिए मैं संन्यास ले रहा हूँ। अब तो जंगल में जाकर तपस्या करूँगा।”

महारानी ने अधीरता से कहा, “ऐसी क्या बात हो गई? शायद सुबह मैंने जो बात कह दी थी, वह उन्हें चुभ गई। पर...पर इसका मतलब यह तो नहीं कि वे राजपाट छोड़कर संन्यास ले लें। यह तो कोई बात नहीं हुई।”

फिर एकाएक हड़बड़ी में बोलीं, “नहीं...नहीं, मैं उन्हें संन्यास नहीं लेने दूँगी। जरा रुको तेनालीराम। मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ, राजा को समझाऊँगी। शायद वे मेरी बात मान लें।”

तेनालीराम अकुलाकर बोला, “जल्दी करें महारानी जी, कहीं ऐसा न हो कि वे जंगल की ओर निकल जाएँ। फिर तो...!”

महारानी झटपट तैयार होकर तेनालीराम के साथ चल दीं। उनके मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे।

पर जैसे ही वे दरबार में पहुँचीं, चौंक उठीं। राजा कृष्णदेव राय तो बिल्कुल ठीक-ठाक और प्रसन्न बैठे थे। दरबारियों से बातचीत कर रहे थे।

महारानी वहाँ जाकर बोलीं, “महाराज, आप कृपया संन्यास न लें। अगर आपको मेरी जिद बुरी लगती है तो मैं तेनालीराम को निकालने की बात नहीं कहूँगी। आगे से राजकाज में मैं बिल्कुल दखल नहीं दूँगी। लेकिन आप संन्यास लेने की बात मन से निकाल दें। मैं आपको संन्यास नहीं लेने दूँगी।” कहते-कहते उनका स्वर दुख से पसीज गया।

“कैसा संन्यास!...कौन संन्यास ले रहा है?” राजा कृष्णदेव राय चौंके। बोले, “मैंने तो संन्यास लेने की बात नहीं कही, महारानी जी।”

तभी अचानक उन्हें समझ में आया कि तेनालीराम आखिर क्या कहकर महारानी को दरबार में लाया होगा।

बस, अब कुछ भी समझना बाकी नहीं था। तेनालीराम की चतुराई ने उन्हें मुग्ध कर दिया। राजा हँसकर बोले, “महारानी जी, मैं कोई संन्यास नहीं ले रहा। पर तेनालीराम आपको दरबार में ले ही आया। अब तो आपको जिद छोड़ देनी होगी।”

सुनकर महारानी पसीने-पसीने हो गईं। फिर हँसकर बोलीं, “वाकई तेनालीराम, तुम्हारा जवाब नहीं। तुम जीते, मैं हारी। अब मैं कभी दूसरे दरबारियों के कहने में आकर तुम्हें दरबार से निकालने की बात नहीं कहूँगी।”

सुनकर मंत्री और रंगाचार्य समेत सभी चापलूस दरबारियों के चेहरे उतर गए। बेचारे इधर-उधर मुँह छिपा रहे थे। दूर खड़ा तेनालीराम चुप-चुप मुसकरा रहा था। उसने एक बार फिर अपनी चतुराई से चापलूस दरबारियों को मात दे दी थी।

अगले दिन महारानी के दरबार में आने की बात देखते ही देखते पूरे विजयनगर की प्रजा में फैल गई। सबके होंठों पर यही सवाल था कि भला महारानी को दरबार में आने की क्या जरूरत थी? पर जब लोगों को पता चला कि इसके लिए तेनालीराम को कैसा विचित्र नाटक करना पड़ा, तो सब हँसते-हँसते लोटपोट हो गए।