Ek tha Thunthuniya - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

एक था ठुनठुनिया - 2

2

मेले में हाथी

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ठुनठुनिया अभी छोटा ही था कि एक दिन माँ के साथ होली का मेला देखने गया।

गुलजारपुर में होली के अगले दिन खूब बड़ा मेला लगता था, जिसमें आसपास के कई गाँवों के लोग आते थे। पास के शहर रायगढ़ के लोग भी आ जाते थे। सब बड़े प्रेम से एक-दूसरे से गले मिलते।

साल भर जिनसे मिलने को तरस जाते थे, वे सब इस मेले में मिल जाते थे। इसलिए सब उमंग से भरकर इस मेले में आते थे।

ठुनठुनिया अपनी माँ के साथ मेले में घूम रहा था कि तभी शोर मचा, “गजराज बाबू आ गए, गजराज बाबू आ गए!”

असल में बाबू गजराज सिंह गुलराजपुर गाँव के जमींदार थे। वे हर साल होली के इस मेले में हाथी पर बैठकर जरूर आया करते थे। हाथी पर बैठे-बैठे ही वे इस पूरे मेले की रौनक देखते थे।

गजराज बाबू को देखने के लिए आसपास काफी भीड़ इकट्ठी हो गई। गजराज बाबू खासे भारी-भरकम थे। अच्छा-खासा डील-डौल, हाथी पर झूमते हुए आते तो देखने लायक दृश्य होता। सब देख रहे थे और नीचे से ही बाबू साहब का अभिवादन कर रहे थे।

ठुनठुनिया ने भी यह दृश्य देखा। देखकर उसकी बड़े जोर की हँसी छूट गई। बोला, “माँ, माँ देखो, हाथी के ऊपर हाथी...देखो माँ, हाथी के ऊपर हाथी!”

सुनते ही गोमती की सिट्टी-पिट्टी गुम। समझ गई, ठुनठुनिया गजराज बाबू की हँसी उड़ा रहा है। उन्होंने कहीं सुन लिया तो गजब हो जाएगा। यह सोचकर उसने ठुनठुनिया को डपटकर कहा, “चुप...चुप कर ठुनठुनिया!”

पर ठुनठुनिया पर भला क्या असर होना था इस जरा-सी डाँट का? वह और भी जोर से चिल्लाकर बोला, “वाह-वाह! मजा आ गया, हाथी पर हाथी! हाथी पर...!!”

सुनते ही जितने लोग वहाँ खड़े थे, सब ठहाका मारकर हँस पड़े।

बात गजराज बाबू तक भी पहुँच गई थी। वे खुले दिल के आदमी थे। एक पल के लिए तो उन्हें गुस्सा आया, फिर गुस्सा भूलकर वे भी सबके साथ-साथ हँसने लगे।

तभी उनके मन में आया, जरा उस बच्चे को देखना तो चाहिए जिसने यह एकदम सच्ची बात कह दी। सो गजराज बाबू उसी समय हाथी से उतरे और पूछा, “कौन-से बच्चे की आवाज थी?...भला किसने कही थी वह बात?”

लोगों ने समझा, अब ठुनठुनिया की आफत आ गई। सभी ठुनठुनिया से प्यार करते थे। इसलिए बात बनाते हुए कहा, “पता नहीं बाबू साहब, किसने कहा? वह लड़का शायद कहीं चला गया।”

“वाह! इतना भी नहीं जानते, मैंने कहा था, मैंने...कहा था, मैंने!” दूर से ही गोल-मुटल्लू ठुनठुनिया ने पूरे जोर से चिल्लाकर कहा, “क्यों, मैंने ठीक कहा?”

ठुनठुनिया की बात से बाबू गजराज सिंह का चेहरा एक क्षण के लिए फिर से लाल हो गया। मगर फिर उनकी हँसी छूटी, ऐसी कि हँसते-हँसते पेट में बल पड़ गए। जैसे हँसी नहीं, हँसी की रंग-बिरंगी पिचकारी हो...कभी खत्म न होने वाली! यही हाल वहाँ मौजूद सभी लोगों का हुआ।

गजराज बाबू ने ठुनठुनिया को पास बुलाकर प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “वाह रे लड़के, तूने आखिर सच्चाई कह ही दी।”

फिर दूसरे लोगों की ओर देखकर बोले, “होली पर इतने लोगों ने रंग-गुलाल लगाया, मजाक किया, पर हँसी नहीं आई। मगर इस लड़के ने ऐसी पिचकारी छोड़ी...कि उसके रंग उतरते ही नहीं। बस, समझो कि मजा आ गया!...”

फिर ठुनठुनिया से पूछा उन्होंने, “क्यों बेटा, क्या नाम है तुम्हारा?”

“ठुनठुनिया!...मेरा नाम तो गुलजारपुर और आसपास के गाँवों में सब जानते हैं। आप नहीं जानते?” ठुनठुनिया ठुनककर बोला।

“ठुनठुनिया, वाह-वाह!...ठुनठुनिया, तेरे जैसा कोई नहीं।” कहते हुए गजराज बाबू ने अपनी जेब से दस रुपए का कड़क नोट निकाला। उसे ठुनठुनिया के हाथ में पकड़ाते हुए कहा, “यह ले, मेरी ओर से कुछ खरीद लेना...मेरी ओर से होली का उपहार!”

उसके बाद गजराज बाबू हाथी पर बैठकर चल दिए। पर पीछे-पीछे लोगों ने कहा, “हाथी बाबू आए थे, हाथी बाबू गए!”

यानी ठुनठुनिया की वजह से गुलजारपुर गाँव के जमींदार बाबू गजराज सिंह का नाम अब ‘हाथी बाबू’ पड़ गया था।

ठुनठुनिया माँ का हाथ पकड़कर मेले में अब भी घूम रहा था। दस रुपए से उसने मलाई वाली कुल्फी खाई, दो बार चरखी वाला झूला झूला। फिर पीं-पीं बाजा और गुब्बारे लेकर घर लौटा।

रात सोने से पहले ठुनठुनिया ने माँ से कहा, “माँ, हाथी बाबू बहुत अच्छे हैं। हैं न?”

माँ मुसकराकर बोली, “बेटा, आगे से उन्हें गजराज बाबू ही कहना। होली का मजाक होली तक ही ठीक है।”

“अच्छा, माँ!” ठुनठुनिया बोला और जोरों से हँस पड़ा।