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सुबह का अखबार

सुबह का अखबार

                                                                                                यशवन्त कोठारी

 

            सुबह होना जितना जरूरी है अखबार होना भी उतना ही जरूरी है। सुबह यदि अखबार नही ंतो लगता ही नहीं की सुबह हो गई। तड़के अखबार का आ जाना बड़ा सुकून देता है पढ़े भले कभी भी मगर अखबार का सुबह होना जरूरी। नेता हो, अभिनेता हो, पत्रकार, पाठक, लेखक, कलाकार, व्यापारी, उद्योगपति, मंत्री, संत्री, अफसर सब को सुबह का अखबार होना जरूरी। समाचारो में कुछ हो या न हो मगर अखबार की सुर्खियों के साथ चाय-पान का आनन्द ही कुछ और है और यदि अखबार में अपनी तारीफ या विरोधी के घर छापा पड़ने का समाचार हो तो क्या कहना। बाछें खिल जाती है। चेहरे पर मधुर मुस्कान छा जाती है। चिड़ियां की चहचहाट और भी मधुर लगने लग जाती है। लेकिन समय बदल गया है। अखबार बदल गये है। आप कहेंगें अखबारो में होता क्या है ? हत्या, बलात्कार, चोरी, चेन खींचने की घटनाओं के अलावा। आप बिलकुल ठीक कह रहे है और ठीक सोच भी रहे है श्रीमान मगर मैं ये कहता हू अखबार समाज का आईना ही तो आपके सामने पेश कर रहा है, रही बात नमक मिर्च मसाला लगाकर छापने की तो ये सब अखबार बेचने की कलाए है जिसमें वाणिज्य, व्यवसाय, विज्ञान भी जुड़ जाते हैं। सुबह का ताजा अखबार जिसमें से स्याही की भीनी भीनी खुशबू आ रही हो साथ में चाय का कप बस अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं पर है। क्या ख्याल है आपका। अखबार में चिड़िया होती है, गिद्ध होते है। भेड़े और भेड़ियों के प्रसगं होते है। काले हाथी, सफेद हाथी होते है और कभी कभी बच्चे, महिलाए और आदमी भी होते हैं।

          अखबारो की दुनिया के भीतर कई दुनियाए होती है। अखबारों के उपर भी एक दुनिया नीचे भी एक दुनिया दाये बाये भी दुनिया जो समाचार नहीं छपते उनसे ज्यादा फायदा होता है। समाचारो का रोपण एक विकट व्यवसाय बन गया है। समाचारों में संवेदना, सृजनशीलता, संवाद आदि कि तलाश करना मुश्किल है। समाचारों में आम आदमी को ढूँढना भी मुश्किल है। सरकारे अखबारों को विज्ञापनो के काजू खिला खिला कर खुश रखती है। आर्थिक समाज में सब जायज हैं। अखबारों में विपक्ष को रोके रखने के लिए भी पूरे प्रयास किये जाते है। अखबारो से उपर है सरकार और विपक्ष दोनो। दोनो मस्त। अखबार व्यस्त। पाठक अस्त-व्यस्त।

          अखबार की दुनिया की अपनी मजबूरियां है। हर सुबह पांच बजे उसे बाजार में जाकर खड़ा होना पड़ता है और इस खड़े होने की कीमत देनी पड़ती है। विज्ञापनों के सहारे खड़े अखबार सुबह सुबह पाठको को लड़खड़ाते हुए दिख सकते है। विकास, दलाली, भ्रप्टाचार, पुलिस, नेता मंत्री सब को चाहिये अखबार काला अखबार। काले कारनामे। स्वर्णाक्षर योग्य समाचार भी काले रंग में। अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद सुबह का अखबार सब को चाहिये। एक सम्पादक के अनुसार सुबह का अखबार सुबह-सुबह दुनिया जहान केा चाहिये। विपक्ष के लिए तो वरदान की तरह होता है अखबार। अखबार पढ़ कर ही विपक्ष विधानसभा, लोकसभा, राज्यसभा में हंगामा करता है नही तो बेचारा दिन भर क्या करता। सुबह पढ़ो शाम तक सिर धुनो। राजनीति बदल गई है। समाज बदल गया है। समाज का सोच बदल गया है। सब कुछ आर्थिक हो गया हे। लेकिन मैं सुबह के अखबारो बल्कि कहे कि सभी अखबारो का सम्मानित, नियमित पाठक हू, मेरी आंखों पर जो भारी नजर का चश्मा चढ़ गया है इसका मूल कारण भी सुबह के अखबार ही है। मेरी सुबह अखबारो के साथ उगती है और अखबारो के शब्दो के साथ साथ सूरज चढ़ता जाता है। अखबार देख कर मैं निश्चिंत हो जाता हूं। दुनिया जहां कल थी वहीं आज है। दंगा, कफर्यू,अपराध, बलात्कार, चोरी, डकैती, डाकू, सफेद पोश डाकू, किसी का मरना या किसी का जन्म लेना सब अखबारों से ही पता चलता है। समाज में अगर कहीं अंकुश है तो वह सुबह का अखबार ही है, राजनीति, अफसरशाही, उधोगपति, व्यापार, न्यायपालिका, गरीब-अमीर सब पर अंकुश का काम करता है अखबार।

          सच में सुबह का अखबार अखबार नहीं एक सम्पूर्ण जीवन-दर्शन है। एक पूरा जीवन है इसे शिद्यत से जीना चाहिये। क्या ख्याल है आपका।

 

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 यशवन्त कोठारी, 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर - 2, फोन - 09414461207