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समुंदर से सुदंर क्या

समुंदर प्रकृति की एक अनुपम भेंट है इस संसार का, पृथ्वी का तीन तिहाई भाग जिसके अधीन हो उस स्वयंभू पर चिंतन मनन और मंथन न हो तो हमारा अध्यात्मिक साहित्यक और भौतिक विकास हो हीं नहीं सकता है और संभवतः यही कारण रहा होगा जब देव और असुर दोनों ने मिलकर समुंद्र मंथन किया।

समुंदर जो हर गुण-रस का आगर है उस आगर को समझने के लिए उसके संपदा को पाने के लिए देव असुर कच्छप सर्प राज वासुकी पक्षी राज गरुङ सब को अपनी भूमिका निभानी पङी समुंद्र मंथन में और उस मंथन का पहला रस कालकूट विष के रुप में बाहर आया अर्थात संपन्नता से परिपूर्ण लोगो के पास से यदि आपको कुछ प्राप्त करना है तो विष व्यंग सर्वप्रथम आपको प्राप्त होगा। जिस तरह कालकूट विष को स्वार्थ में लिप्त देव असुर धारण नहीं कर सकते थे ठीक उसी प्रकार स्वार्थ में डूबा व्यक्ति गुण रस से संपन्न लोगों से कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते है इसके लिए तप त्याग भाव से संपन्न शिव जो सरलता के प्रतिमूर्ति त्रिगुण निर्गुण भाव में समभाव धारण करने वाले कालकूट विष को धारण कर नीलकंठ देवों के देव महादेव हो जाते है इसी तरह मानव के अंदर स्वार्थ के जगह विश्व के कल्याण का भाव होगा तब हीं वह संपन्न लोगों से कुछ प्राप्त कर सकते है और अपने व्यक्तित्व को निखार सकते है।

समुंद्र मंथन से तेरह और रत्न निकले एरावत

समुंदर की लहरें हर बार घोर गर्जना करके अपने किनारे पर अपनी अस्तित्तव और अस्मिता का बोध कराती है जहाँ तक नजर जाती वहाँ से भी दूर तक फैला समुंदर बहुत कुछ हमें समझाता है और कहता है मैं किनारों में घुटने वाला नहीं घुट घुट कर दम तोङने वाला नहीं मैं समुंदर हूँ और किनारे मेरे अंदर है तुम भ्रम मत रखना मेरे प्रति की मैं किनारे में बंधा हूँ किनारा मुझमें बंधा है क्योंकि मैं ही समुंदर हूँ।

हाँ वो मेरा प्रेम है किनारों के पथिक से जो अपने जीवन यात्रा में पङाव समझकर मेरे पास आते है और मैं उन्हें बार बार यहीं समझाता हूँ उनके कदमों को स्पर्श करके चला जाता हूँ की यात्रा अनवरत अविचल और अटल है सौन्दर्यबोध रीत गीत अनुभूति है यात्रा में मेरा रस नमकीन और यात्रा मैं तुम्हारे शरीर का भी रस नमकीन है।

मेरे उपर भी निला गगन छाया है और तुम्हारे उपर भी गगन ही छाया है संसार की मूल संपदा मुझमें ही समाया है और देव असुर के तुम मिश्रण तुझमें हीं समुंद्र मंथन का साहस समाया है।

रस छंद बंध गंध रास रंग प्यास अंग तप त्याग निष्ठा काम क्रोध विष्ठा समर्पण अर्पण दर्पण तर्पण समपर्ण सबका मैं आगर हूँ हाँ मैं समुंदर हूँ। तुममें सामर्थ्य है चिंतन मनन मंथन कर घोट सको तो मुझको घोटो जिस स्वरुप में घोटोगे उस रुप में तुमको संपन्न कर दूँगा लिखोगे अ तो अक्षर हो जाऊंगा लिखोगे क तो काव्य हो जाउंगा सुनोगे तो संगीत हो जाउंगा निहारोगे तो ब्रह्माण्ड हो जाउंगा स्पर्श करोगे तो चन्द्र हो जाउंगा सुनोगे तो संगीत हो जाउंगा और साधोगे तो शिव हो जाउंगा।

समुंदर तुममें हीं सर्वविदित सर्वेश्वर है तुममें हीं सत्य का सत्यता दिखता है तुममें हीं सुंदरता दिखता है और तुममें हीं शिव का शिवत्व दिखता है।

तुममें हीं निराकार होने का मन करता है तुममें हीं प्रेम स्पंदन होता है तुममें हीं साहित्य का हर शब्द दिखता है ज्ञान विज्ञान के हर प्रपंच के तुम सरपंच हो हाँ समुंदर तुम सुंदरम हो।