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अपाहिज

पिछले कुछ सालों में उसकी उम्र ने कुछ ज़्यादा ही रफ़्तार से फासले तय किए हैं। सब कुछ ऐसे गुजरता चला गया है कि जैसे समय बहुत ही कम हो और होनी की घटना - श्रृंखलाएं बहुत अधिक। इसीलिए हादसों के दरम्यान अंतराल कम होता चला गया, और वह भौंचक खड़ा हुआ देखता भर रहा। होनी की इस हड़बड़ी में फिर अनहोनी का दख़ल, बिखर कर रह गया वह। जूझने के सारे हौसले, सारी हिम्मतें चुकने लगे और उसे हारने की आदत होती चली गई। बाद में तो वह हारने का ही आदी रह गया। जीतना जैसे उसकी परिधि से बाहर की बातों में शुमार हो गया।
शुरू ही से कोई बहुत ज्यादा रंगीन ख्वाब नहीं देखे उसने। न ही कभी पंख लगा कर उड़ा। आकाश छूने की न उसकी बिसात रही और न साध। ज़मीन मापने को निकला, तो भी नज़रिया यही, कि बस जरूरत भर को चाहिए। शांति - संतोष को कभी बड़ी - बड़ी बातों में नहीं खोजा उसने। रोजमर्रा में तसल्ली ढूंढना तो कोई पाप नहीं है।
हायर सेकेंडरी करने के बाद उसे गांव छोड़ना पड़ा क्योंकि आगे की पढ़ाई के लिए गांव में कोई व्यवस्था नहीं थी। पिता सरकारी मुलाजिम थे, तबादला होता रहता था इधर - उधर। हैसियत क्या, बस दाना - पानी हो जाता था। उसमें कोई कोर - कसर छूटने नहीं पाती थी। फिर जब तक मां - बाप रहें, बच्चों को फिक्र भी कहां रहती है? वह तो बातें ही और होती हैं, दिन ही कुछ और होते हैं।
वह उम्र के उस पड़ाव की सौंधी जिंदगी को याद करता है, तो रो भी नहीं पाता। न जानें क्यों, ऐसे वाकयात पर रोना उसे उन दिनों का अपमान करने सरीखा लगता है। वह दिन रोने से क्या कहीं साबका रखते हैं? वह दिन, जिनकी यादें हज़ार आंसुओं को सुखाने का दम रखती हैं, वो दिन, जिनकी यादें पत्थर को भी रुला सकने वाले दर्दीले सैलाब रखती हैं...!
पिता कहा करते थे कि आसमान में छोड़ा तीर न तो शिकार कर पाता है, न वापस ही आ पाता है। और यदि शिकार घायल भी हो जाए तो अपने हाथ नहीं लग पाता है। लिहाज़ा आसमान की बातें की जा सकती हैं, आसमान धरती पर नहीं उतारा जा सकता। पर साथ ही वे ये भी कहते थे कि पैरों तले आंखें गढ़ा लेना कोई बुद्धिमानी नहीं है। आखिर यह आंखों का भी तो अपमान है। बुद्धिमान बेटा दोनों के दरम्यान का फलसफा खूब समझता था। यही कारण था कि कॉलेज के पहले साल में ही उसने यथार्थ के व्यावहारिक धरातल पर पांव जमाने की सोच पाली थी। फिर न तो उस सोच में सुर्खाब के पर लगने दिए और न ही अपनी शिद्दत में कमी आने दी।
उसे चाव था सरकारी नौकरी में आने का। चाहता था कि प्रशासनिक सेवा नहीं तो कम से कम तहसीलदारी में तो अवश्य ही आ जाए। बड़े संतुष्ट हुए थे सुनकर, कि बेटा दुनियादारी से नावाकिफ नहीं है, उसकी हौसला - अफजाई ही की थी उन्होंने। वह पहले भी कई बार उसके सामने अपने मित्रों की किस्सा बयानी करते रहे थे। और उन मित्रों में ज़्यादा बातें, ज़्यादा किस्से उन्हीं के होते थे जो बेफिक्र होकर सरकारी नौकरियों में दिन निकाल रहे थे। फिर तहसीलदारी तो उनकी नज़रों में आदर्श सरकारी सेवा थी। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि बेटे के लिए सरकारी सेवा में आ जाना हवा में छलांग लगाने जैसा भी नहीं था। सामान्य छात्रों में था, लेकिन मेहनती था।
एक दिन पड़ौस के मकान के सामने जीप आकर खड़ी हुई थी और एक चपरासी दौड़ा दौड़ा पान वाले के पास आया था, तब वह वहीं खड़ा था। चपरासी बुरी तरह बौखला रहा था और पान वाले को उल्टा सीधा कह कर डांट रहा था। उसे आश्चर्य हो रहा था कि अदना सा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी, उम्र में भी कोई अधिक नहीं, अपने से कहीं बड़ी उम्र के पान वाले को, जो किसी भी तरह से उसका मातहत नहीं, कर्ज़दार नहीं, खरी खोटी सुनाए जा रहा है। और आश्चर्य की बात तो यह थी कि पान वाला प्रतिवाद करने के बदले चुपचाप सब सुने -सहे जा रहा था।
चपरासी के गरम होकर बरस चुकने के बाद उसने धीरे से पान की एक पुड़िया उसके हाथों में दे दी और चपरासी इधर- उधर देखता चला गया। उसके जाने के बाद कहीं बात साफ़ हुई थी। दरअसल हुआ यह कि तहसीलदार का तबादला हुआ था। पहले वाले तहसीलदार तीन सौ नंबर का पान खाते थे। उनसे चार्ज लेने के लिए नया तहसीलदार आ गया, और नए साहब के लिए पान लेने जो छोकरा आया था उसने सिर्फ़ यही कहा - "तहसीलदार साहब के लिए पान देना।" अब बेचारा ग़रीब पानवाला क्या जाने कि साहब बदल गया है। उसने रोजाना की सी बेपरवाही से महकता हुआ शानदार पान लगा कर थमा दिया। उसी का नतीजा था कि वह दो कौड़ी का आदमी उस अपने धंधे के एकछत्र मालिक को सरेआम खरी खोटी सुना गया था, और लोग खड़े तमाशा देखते रह गए।
सारा माजरा सुन - समझ कर वह हल्के से मुस्करा दिया था। तभी उसकी निगाह जीप पर गई, जहां सफ़ेद कुर्ते - पायजामे में वह नौजवान सा दिखने वाला साहब बैठा था। लोग कहते थे कि राज्य तहसीलदार सेवा में नया- नया पास होकर आया है। पहली पोस्टिंग यहीं हुई है। मेहनती और दबंग आदमी है। फिर जीप ने स्टार्ट होकर जो धूल उड़ाई कि गुबार के छल्ले से ऊपर तक बनते चले गए। उन्हीं धूल भरे छल्लों के बीच वह अपने इरादे तौलता रहा, खड़ा- खड़ा।
बीए पास करने के बाद उसने आगे दाखिला नहीं लिया। गांव में ही आ गया। बात पिता की समझ में भी बखूबी आई, जब उसे तहसीलदारी की परीक्षा की तैयारी करनी है तो बेवजह अकेले शहर में पड़े रहने की ज़रूरत ही क्या है। वहां पर लिया वो कमरा भी उसने छोड़ दिया। गांव में आकर परीक्षा की तैयारी में जुट गया। दिन - रात एक कर दिए उसने। सुबह से शाम और शाम से सुबह हो जाती तो मां भी परेशान हो जाती। आकर कहती, " बेटा, अब क्या आंखें ही फोड़ डालेगा? जा, घड़ी दो घड़ी टहल आ। फिर लौट कर, खाना खाकर पढ़ना।" दोनों भाइयों के सामने उसका उदाहरण रखा जाता कि पढ़ाई कैसे होती है। मेहनत कैसे की जाती है।
उसे याद हैं वे दिन, कैसे सुबह, दोपहर, शाम किताबें ही किताबें दिखती थीं। एक छोड़ता, दूसरी उठा लेता। अपने छोटे से कमरे में, बिस्तर पर सारा- सारा दिन किताबों के ढेर के बीच निकल जाता। दोपहर होती, कौने वाला स्टूल दीवार से हटकर उसकी चारपाई के पास आ जाता, और मां उसपर खाने वाली थाली रख जाती। कितनी ही देर थाली ऐसे ही पड़ी रहती, मां दो - तीन बार आकर मक्खियां उड़ा जाती। कभी दाल की कटोरी को दूसरी तश्तरी से ढक जाती। वह खाना खा लेता तो घड़ी भर बाद थाली- बर्तन उठा ले जाती, और स्टूल करीने से किनारे चला जाता। दोपहर ढलती तो चाय का प्याला स्टूल पर रखा मिलता।
दोपहर में थककर वह सो जाता था। उठता, तो ताज़गी महसूस होती। पर बाहर निकलने का मन नहीं होता। चाय पीकर किसी हल्के फुल्के विषय की किताब हाथ में लेकर, कुर्सी के हत्थे पर पैर पसार कर बैठना उसे भाता।
शाम को घर से निकलता था। कभी कोई यार - दोस्त लिवाने आ जाता, तो कभी मां आकर हाथ से किताब छीन कर रख देती। वह झटपट खड़ा होता, मुंह हाथ धोकर कपड़े बदलता और गलियों में होता हुआ छोटे से बाज़ार में आ जाता, जहां उसे कोई न कोई मिल ही जाता।
रात को खाना खाकर जब सब लोग सोने के लिए छत पर चले जाते तो उसे बड़ा अखरता था, घुटन में कमरे में बैठना। बिजली के पंखे की हवा भी तो सारे दिन में बदन को थका - दुखा सा देती थी। लेकिन ऊपर रोशनी का प्रबंध नहीं था इसलिए उसे अपने कमरे में ही पढ़ना पड़ता। धीरे धीरे रात गहराने लगती थी। आसपास के घरों के खिड़की - दरवाजों की रोशनी बुझने लगती थी। पर उमस कम नहीं होती थी। वह बनियान पहने हुए बैठा पढ़ता रहता था। बेचैनी अधिक होती तो पायजामा भी उतार देता था और अंडरवियर व बनियान में हल्का - फुल्का होकर कुर्सी पर आ बैठता था।
उस रात वह ऐसे ही बैठा पढ़ रहा था जब सामने वाले मकान की बत्ती जल उठी थी। खिड़की में थोड़ी देर तक तो पर्दा पड़ा रहा, पर थोड़ी ही देर में एक कोमल से हाथ ने उठ कर पर्दा एक ओर सरका दिया। फिर क़रीब ही एक टेबल लैंप जला और कमरे की दूसरी बत्ती बुझ गई। मेज के करीब खिड़की से दिखते दायरे में ही एक आकृति किताब खोले आ बैठी।
पटवारी की बेटी थी। मैट्रिक का इम्तहान दे रही थी। लड़के कहते थे कि रात रात भर पढ़ती है, फिर भी दो साल से पास नहीं हो रही थी। मैट्रिक में ये उसका तीसरा साल था। उसका पढ़ने का एक अनोखा ही ढंग था। रात को घड़ी में अलार्म लगा कर जल्दी सो जाती, फिर आधी रात को उठती थी। नींद को पानी के छींटों से भगा कर पढ़ने बैठती। दिन में मास्टर पढ़ाने आता था।
पहले पहल उसे एक लड़की के सामने इस तरह चड्डी पहन कर बैठना अटपटा सा लगा था। वह पानी पीने के बहाने उठा और कमरे में भीतर जाकर पायजामा वापस पहन कर आया था। पर दो चार रोज़ बाद ही उसे ये अहसास हो गया कि वह उस तरह की लड़की नहीं है जिसके साथ ये सलीका बरता जाए। एक दिन तो उसने ये भी गौर किया कि लड़की की निगाह किताब में कम और इधर उधर ज्यादा रहती है। काफ़ी काफ़ी देर तक वह उसे घूर कर देखती रहती है। एक दो दिन तो उसने ध्यान नहीं दिया, मगर फिर रात के सन्नाटे में उसे हलचल सी महसूस होने लगी थी। लड़की उसे जिस तरह घूर घूर कर देखती और अपना दुपट्टा उतार कर मेज पर रख दिया करती थी, उसका शिष्टाचार भी जाता रहा। फिर उसे खिड़की के सामने पायजामा पहन कर बैठना ज़रूरी नहीं लगा बल्कि एक दिन तो उसका जी चाहा था कि...।
जिन दिनों परीक्षा हुई लू के थपेड़े से चलते थे। वह तहसीलदारी में नहीं आया था उस साल।
बड़ी मायूसी हुई थी। पिता ने ऊपर से उसे दिलासा दिया था। कहा था - अगली बार और मेहनत करना। पर भीतर से उनकी आवाज़ काफ़ी गहरी हो गई थी। क्योंकि वे शायद जानते थे कि बेटे ने मेहनत में कोई कसर नहीं छोड़ी है, आगे हरि इच्छा। मां तो जैसे परीक्षा को गरियाने पर ही उतर आई थी- मरी ऐसी कैसी परीक्षा जो दिन रात एक कर दिया पर नतीजा कुछ भी नहीं। सब धांधले बाज़ी है। सारे काम ले देकर होते हैं। दोनों छोटे भाइयों के चेहरे पर एक भोला सा कौतुक था कि इतना पढ़ कर भी कोई फेल होता है भला! उसने छोटे को अकेला पाकर समझाया भी था कि इन परीक्षाओं में पास - फेल नहीं होती। बहुत लोग बैठते हैं, जगह थोड़ी होती हैं, इसलिए सबका नंबर नहीं आता। पर मंझले भाई को ये सब नहीं समझा सका था वह। उसकी आंखों से खिसिया कर हार सा गया।
दूसरी बार जब परीक्षा में बैठा था तो साल भर की बेरोजगारी का ठप्पा साथ में लग चुका था। पिता के नजदीक आते रिटायरमेंट से खौफ होने लगा था उसे। फिर भी उसने तैयारी में कहीं भी कोई कमी नहीं आने दी। ज़िंदगी का उसूल बना लेने के बाद इरादों को इतनी आसानी से बिखरने भी तो नहीं दिया जा सकता, उसने कोशिश छोड़ी नहीं।
और फिर एकाएक हुआ था वो हादसा, कि सब कुछ मिट कर नए सिरे से लिखा गया। एक ही दिन में जिंदगियां इस बुरी तरह तहस नहस हो सकती हैं, वह सोच भी नहीं पाया था।
एक शादी से लौट रहे थे सब लोग, वह था, दोनों छोटे भाई थे, माता पिता थे। भारी बरसात होकर गुज़र चुकी थी, और सड़क कई जगह से टूट गई थी। दुस्साहसी ड्राइवर को निमित्त बनाकर नियति ने उसके दिन रौंद कर कुचल दिए।
पिता दुर्घटना स्थल पर ही ख़त्म हो गए। मां कई बार चेत- अचेत होकर अस्पताल में गई। मंझले भाई का चेहरा भी नहर के पानी से निकाली गई लाशों में पहचाना नहीं जा सका। उसे कपड़ों से पहचाना उसने। छोटा बच गया, बिल्कुल सही सलामत, उसे खरौंच तक नहीं आई थी। और वह स्वयं यह सब देखने - सहने को रुक गया, एक टांग खोकर।
गांव में जो भी सुनता था उसी का कलेजा मुंह को आता। ऐसे - ऐसे लोग जिनसे नाम का परिचय भर था, हिचकियों से रोते - बिलखते देखे उसने अपने घर की इस तबाही पर। खुद उसकी तो कौन कहे!
इस हादसे के बाद रह क्या गया था जो वह जीवित रहता। वह भी जहर खाकर सो रहता यदि ...यदि वह फूल सा मासूम छोटा भाई खामोशी से तकता, सूजी आंखें और बुझी सूरत लिए उसके सामने न होता।
महीनों उसे अस्पताल में रहना पड़ा, फिर घर आ गया, हमेशा के लिए अपाहिज बन कर। लेकिन ख़ुद अपाहिज होकर भी अब बैसाखी बनना था...। सामने एक नई ज़िंदगी थी जिसे अंजाम देना था, मां बाप भाई सबका धर्म निबाहना था। वह कलेजे पर पत्थर रखकर भाई के सिर पर हाथ फेरता।
दुनिया के सारे रंग उड़ गए और लाश की शक्ल में जिंदगी रेंगने सी लगी। अकेले में वह उदास होता, रो लेता, दीवार से सिर फोड़ लेता, मगर छोटे भाई के सामने कभी जाहिर नहीं होने दिया अपना दर्द।
सरकार से मदद मिली। गांव में छोटा - मोटा काम भी मिल गया और धीरे धीरे सबकुछ बर्दाश्त करके वह अभ्यस्त होने लगा नई ज़िंदगी का।
मन में एक साध अब भी थी कि यूं हाथ पर हाथ धरे बैठने से क्या हासिल? मां बाप नहीं तो क्या, उनकी स्मृतियां तो हैं, वे दुनिया में नहीं हैं तो क्या ,अदृश्य रूप से तो उसके साथ ही हैं। क्या उसकी तरक्की, उसकी खुशहाली के बिना उनकी रूहें चैन से रह सकेंगी? सामने अपनी लंबी चौड़ी ज़िंदगी है, इस मासूम का भविष्य है। उसे किसी अच्छी नौकरी के लिए कोशिश करनी चाहिए। मां बाप नहीं रहे, पर उनकी इच्छाएं, आकांक्षाएं तो नहीं मरने देनी हैं उसे। वह वैसा ही करेगा जैसा उनके होने पर करता।
उसने फिर से परीक्षा की तैयारी की। फॉर्म भरा। मेहनत और लगन से जुट गया। सुबह जल्दी उठता, अपनी काठ की बैसाखी टेकता पड़ोस से दूध लेकर आता, नहा धोकर भाई को जगाता। नाश्ता तैयार करके उसे देता। उसके स्कूल चले जाने के बाद खाना बनाता और फ़िर काम पर चला जाता।
हूक सी उठती थी कलेजे में, अपनी टांग को देख कर। रास्ते में सारा गांव कातर होकर देखता।
दोपहर को जब तक वह लौटता छोटा भाई स्कूल से आ चुका होता था और खाना खा चुका होता था। कभी घर ही पर मिलता, कभी पास पड़ोस में किसी साथी - दोस्त के यहां चला जाता। वह खाना खाकर पढ़ने बैठ जाता।
कभी - कभी छोटे को पढ़ाता। रात को छोटे के सोने के बाद देर रात तक वह पढ़ता रहता। कितना फ़र्क था इन दिनों में और उन दिनों में? एकाएक उसकी उम्र में जैसे दस साल की बढ़ोत्तरी हो गई थी। चढ़ती उम्र का वह अब प्रौढ़ सा लगने लगा था। हर बात में एक गंभीरता, एक बड़प्पन अपने आप आ गया था।
कभी अकेले में बैठा अपनी टांग पर हाथ फेरता फिर सोचता कि यदि उसके साथ भी बाकी लोगों जैसा घट जाता तो इस छोटे का क्या होता? यह कहां जाता, कैसे रहता। एक टीस सी उठती थी यह सोचकर, और जी हुमक - हुमक कर रोने को आता था। पर सब कुछ दबी सिसकारी और ठंडी आह में दफ़न होकर रह जाता था।
अपाहिज होने का सारा क्षोभ, सारी वेदना भुला देता वह, जब देखता कि छोटे की बैसाखी यही अपाहिज़ काया है। यह विकलांग शरीर किसी मासूम जीवन की पूर्णता है, आधार है।
फिर उसकी सारी चुभन धीरे - धीरे जाती रहती और अपनी स्थिति पर जरा भी पश्चाताप नहीं रह जाता।
एक टांग, एक हाथ, एक आंख या कोई एक अंग ही तो समूचा शरीर नहीं होता। आदमी मात्र अपने अंगों से कहीं बढ़ कर है। वह स्थान तो कलेजे में महफूज़ पिंजरे में बंद है जहां आदमियत रहती है। किसी एक अंग के न रहने से आदमियत पर आंच नहीं आती। जब तक आदमी का दिल सलामत है, दिमाग़ सलामत है वह क्यों किसी एक अंग की परवाह करे? पेड़ की एक शाख झरने से समूचा पेड़ तो नष्ट नहीं हो जाता? रहा ताल्लुक सुंदरता का, तो सुंदरता तो भीतरी चीज़ है। हम सब ही हड्डियों पर मढ़े मांस और चमड़ी के बुत हैं, उनमें जीवनधारी खून बहता है। इसमें सुंदर क्या असुंदर क्या? सांस रहने तक सब सुंदर है बाद में कंचन काया हो या मरमरी जिस्म, सब मिट्टी के ही मोल है।
जिगर सुंदर है, इंसानियत सलामत है तो सब सलामत है। रूप रंग में क्या रखा है? रंग तो गधे की चमड़ी का भी सफ़ेद होता है, पर उसे गोरा और खूबसूरत मान लें हम? कोयल के काले रंग में भला कौन सी बदसूरती है? सूरदास अंधे होकर दुनिया जहान को रास्ता दिखा सकते हैं, तो फिर उसकी तो एक टांग ही गई है। ज़िंदगी तो दोनों टांगें जाने पर भी ठहरती नहीं है। यही क्या कम है कि अनहोनी ने उसकी ज़िंदगी में विराम नहीं लगा दिया, वरना ख़ुदा न करे यदि ऐसा हो जाता तो ... सोचते सोचते उसकी सजल आंखों में छोटे का चेहरा तैर गया।
अंगों की सुंदरता ही यदि सब कुछ है तो फिर रावण के पास तो भरपूर अंग थे पर किसने सुंदर माना उसे!
दुनिया तो उनसे परेशान है जो अपने विचारों को पंगु बना लेते हैं, अपने इरादों को अपाहिज बना लेते हैं, अपने सोचने समझने के नज़रिए को विकृत बना लेते हैं। वही बोझ हैं समाज पर। एक मामूली से अंग की शारीरिक क्षति भला कौन सा दोष है? और फिर जो समूची काया ही वक्त की मोहताज हो, नियति की अमानत हो, उसके एक टुकड़े पर दुखड़ा कैसा?
और जब वह आकाश में उगे चांद पर नज़र डालता तो वह उसे और भी खुशनुमा नज़र आता। कुहासा छटने के बाद का सा आसमान।
उसने पूरी मेहनत की थी। रात को रात और दिन को दिन नहीं समझा। अपने साथ - साथ छोटे को भी पढ़ाया था। उसकी हर छोटी से छोटी बात का ख्याल भी रखा था। रह रह कर मां की याद आ जाती थी, जो पढ़ते समय उसका कैसा खयाल रखती थी।
वह परीक्षा में पास हो गया। इंटरव्यू भी उसी उत्साह और हौसले से दिया था उसने।
दो तीन महीने गुज़रे और उसका परिणाम आ गया। वह इस बार चुन लिया गया था। विकलांगों के लिए आरक्षित स्थानों की सूची में उसका भी नाम था। उसे जो पत्र मिला, उसमें सूचना दी गई थी कि वह आरक्षित स्थान पर चुन लिया गया है।
पढ़ कर उसे एक झटका सा लगा। जिस मंज़िल के लिए वह बढ़ता चला गया, उस पर वह नहीं, उसकी लाचारी पहुंची थी। उसकी सफ़लता का श्रेय उसकी दिन रात की मेहनत को नहीं, बल्कि अदना सी शारीरिक त्रुटि को दिया गया था। उसने हिम्मत हौसले से किला फतह करना चाहा था लेकिन फतह उसे जैसे भीख में मिली थी।
आंखों में आंसू आ गए उसकी। यह तो वह हासिल नहीं था जिसके लिए उसने मां बाप की इच्छाओं- आकांक्षाओं का वास्ता देकर मुहिम छेड़ी थी। यह तो वो प्राप्य नहीं था जिसकी तह में जिंदगी को हर हाल में जीने के इरादे बिछे थे। उसने तो परिश्रम करते वक्त ये भुला ही दिया था कि वह एक अपाहिज है।
क्यों उपकार किया गया था उस पर? उसकी आंखें सलामत थीं, उसका दिमाग़ सलामत था, सोचने समझने की क्षमता सलामत थी, उसने परिश्रम किया था... फिर एक पैर की मामूली विकृति ने उसे अलग पंक्ति में क्यों खड़ा कर दिया? वह दयनीय क्यों बना दिया गया? उसने अपने भीतर के जिस अपाहिज को जतन से सात पर्दों के भीतर छिपाया था वह सरेआम क्यों नंगा कर दिया गया?
छोटा मन ही मन समझेगा कि उसका भाई इस बार इसलिए पास कर दिया गया है कि वह अपाहिज है। गांव वाले सोचेंगे कि चलो अपाहिज होने का लाभ तो मिला बेचारे को।
नहीं! उसकी मुट्ठियां भिंच गईं, आंखें बंद हो गईं, आंसू नहीं, खून उतर आया उनमें।
उसने कांपते हाथों से वह पत्र टुकड़े टुकड़े कर डाला। वह निरीहता का जामा पहन कर अहसान करती आंखों के सामने अब नहीं जायेगा, कभी नहीं! वह गांव में अपनी दुकान कर लेगा। कोई भी काम कर लेगा। लेकिन किसी के रहमो- करम का ताबेदार बन कर एक पल को भी नहीं बैठेगा। उसके फेंके हुए टुकड़े हवा में इधर- उधर तैर कर छितरा गए... जैसे मां बाप ने उसकी कामयाबी पर फूल बरसाए हों...जैसे ख़ुद उसने अहसान और रहम के टुकड़े- टुकड़े कर के पैरों तले रौंद दिए हों... जैसे उसके भीतर बैठा आदमी अपाहिज होते होते बच गया हो!
( समाप्त) ... प्रबोध कुमार गोविल