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नकाब - 18

भाग 18

पिछले भाग में आपने पढ़ा की बुआ कांति देवी के मुंह से अपनी शादी की बात सुन कर गुड़िया का मूड बिगड़ जाता है और वो बिना किसी से बात किए अपने कमरे में चली जाती है। रात के खाने पर वैदेही उसे बुलाने जाती है तो गुड़िया उसे ही अपना कसूरवार बना कर खूब खरी खोटी सुनाती है। अब आगे पढ़े –

गुड़िया की तेज तल्ख आवाज को कमरे की दीवारे दबा ना पाई। आवाज डाइनिंग हॉल में खाना खाते ठाकुर गजराज सिंह और राघव को भी सुनाई दे रही थी। ठाकुर साहब अपना आधा भोजन समाप्त कर चुके थे। पर गुड़िया की आवाज कान में पड़ने के बाद उनके हाथ का कौर मुंह में ना जा सका। वो हाथ में कौर लिए गुड़िया की बातें सुनते रहे।

वैदेही ने गुड़िया को समझाने की कोशिश की, " गुड़िया बेबी..! मैने कुछ भी झूठ नही कहा। जो कुछ मैने अस्सी घाट पर देखा था वही आपके भईया से बताया।"

इस बात को सुन कर गुड़िया बिफर पड़ी, "मैने आपको कसम दी थी ना… कुछ नही बताते के लिए…? मेरा मामला था, मैं सही समय पर सब कुछ पापा को बता कर बात संभाल लेती।"

वैदेही बोली, "पर गुड़िया….!"

उसे अपने हाथों से बीच में ही रुकने का इशारा किए और बोली, "बस… भाभी..! बस…? आप जाइए अपना काम करिए मुझे अकेला छोड़ दीजिए।"

ठाकुर गजराज सिंह जो सब कुछ सुन रहे थे। उनसे अपनी लक्ष्मी समान बहू का इतना अपमान सहन नही हुआ। उन्होंने हाथ का कौर थाली में रक्खा और हाथ जोड़ कर प्रणाम किया। फिर हाथ धोकर गुड़िया के कमरे की ओर चल दिए।

पापा को गुड़िया के कमरे की ओर जाते देख राघव को दर हुआ कहीं बात ज्यादा न बिगड़ जाए इस लिए वो पापा (ठाकुर गजराज सिंह) के पीछे चल दिया।

गुड़िया से अपमानित हो वैदेही उसके कमरे से वापस आ रही थी। तभी दरवाजे पर ही ठाकुर साहब से सामना ही गया।

वो बोले, "रुको बहू…! "

पापा की आवाज सुन गुड़िया जो गुस्से में अध लेटी सी तकिए के टेक से बैठी थी उठ कर बैठ गई।

ठाकुर साहब गुड़िया से मुखातिब हुए और बोले, "तुम्हे किसने हक दिया, मेरी बहू से इस तरह बात करने का..? और घर की मर्यादा जब एक बेटी भूल जाए तो बहू का फर्ज बनता है उसकी हिफाजत करने का।"

फिर वैदेही के पास आ कर उसके सर पर हाथ फेरते हुए बोले, "मेरी बहू ने वही तो किया है। क्या गुड़िया .? तुम्हारी आंखों में जरा भी शर्म नही बची है जो इसे दोष दे रही हो…? इसने झूठ तो कहा नही कुछ भी। और क्या मुझे और (अपनी आंखो की ओर उंगली से इशारा करते हुए बोले) मेरी इन आंखों को भी झुठलाओगी…?

मैं बाप हूं कुछ कहना नही चाहता था पर तुमने मुझे मजबूर कर दिया। जिस लड़के के साथ तुम सीढ़ियों पर बैठी थी वो कौन था…? बताओगी मुझको..? क्या वो तुम्हारा कोई मुंहबोला भाई था…..? या कोई तुम्हारा रिश्तेदार था..? जो मुझे देखते ही मुंह छुपा कर भाग गया। मैने तुम्हे पढ़ने भेजा था, यूं ही किसी के भी साथ घूमने फिरने और मौज मस्ती करने नहीं।"

क्रोध से ठाकुर गजराज जी का शरीर कांपने लगा। उत्तेजना पूर्वक बोलने से ठाकुर साहब की सांसे तेज तेज चलने लगी थी। वो मुंह खोले सांस को नियंत्रित करने की कोशिश करने लगे।

राघव भी कमरे में आ कर अपने पापा के पीछे ही खड़ा था। खामोशी से सब कुछ सुन रहा था, क्योंकि पापा को बीच में टोकने या रोकने की उसकी हिम्मत नहीं थी। सांसों को काबू करने की ठाकुर साहब की कोशिश नाकाम होने लगी। सांसे तेज और तेज होती ही जा रही थी और चेतना शून्य। उन्हे सब तरफ हल्का अंधेरा दिखने लगा। फिर ये हल्का अंधेरा स्याह होने लगा। अब उनका खुद पर काबू खत्म होने लगा। वो धीरे धीरे शून्य की ओर बढ़ रहे थे और चेतना लुप्त हो रही थी।

पापा को लड़खड़ाते देख राघव तेजी से आगे बढ़ा और उन्हें अपने दोनो हाथों से थाम लिया।

राघव की बाहों में ठाकुर साहब का शरीर धीरे धीरे ढीला पड़ने लगा। ठाकुर साहब का भारी भरकम शरीर राघव के काबू में नहीं आ रहा था।

वैदेही ने जब देखा की राघव ससुर ठाकुर साहब को थामने में लड़खड़ा रहा है तो वो भी पास आई और उन्हें सहारा दे कर लिटाने में पति राघव की मदद करने लगी। गुड़िया जो अभी कुछ देर पहले तक भाभी वैदेही पर गुस्सा हो रही थी। फिर उसके बाद पापा की डांट से गुस्सा से उबल रही थी। अब वो अपने पापा की ऐसी हालत देख घबरा गई। वो भी पास आई ठाकुर साहब के और,"पापा पापा" आवाज देकर उनके गालों को सहलाने लगी। पर ठाकुर साहब अपनी चेतना खो चुके थे। उन पर गुड़िया के बुलाने का कोई असर नहीं हो रहा था।

वैदेही समझ गई की पापा की तबियत ज्यादा खराब हो गई है। उन्हे डॉक्टर के पास ले कर जाना होगा। ये ख्याल आते ही वो बाहर भागी। उसे भागते देख कांति देवी ने देख लिया। कुछ ऊंची आवाज पहले भी उनके कानों में पड़ चुकी थी। वो भी भाग कर गुड़िया के कमरे में पहुंची क्योंकि आवाज वहीं से आ रही थी। लाडले भाई को बेसुध देख वो जोर जोर से रोने लगी।

इधर वैदेही बाहर आ कर ड्राइवर हरीराम को आवाज देने लगी। वैदेही की आवाज सुन ड्राइवर हरीराम और दूसरे नौकर भी भागे भागे आए। उन्हे किसी गड़बड़ की आशंका हुई, क्योंकि वैसे तो कभी वैदेही बहू इस तरह आवाज लगा कर नही बुलाती। फिर आज इतनी रात गए कैसे आवाज लगा रहीं।

हरिराम, वैदेही के पास दौड़ता हुआ आया और हाथ जोड़ कर बोला, "बहू जी आपने बुलाया..? सब ठीक तो है ना?"

वैदेही बोली, "नहीं चाचा…! सब ठीक नही है। पापा बेहोश हो गए है। आप जल्दी से गाड़ी निकालिए।"

फिर बाकी नौकरों को मदद के लिए अंदर ले कर आई। उन सब की मदद से राघव अपने पापा ठाकुर साहब को बाहर ले कर आया। तब तक हरीराम गाड़ी ले कर पोर्च में बिलकुल पास आ गया था।

ठाकुर गजराज सिंह को किसी तरह सब ने मिल कर गाड़ी में लिटाया और फिर हरीराम तेजी से अस्पताल की ओर गाड़ी ले कर चल पड़ा। साथ गुड़िया भी जाना चाहती थी। पर राघव ने रोक दिया उसे जाने से।

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