Ishq a Bismil - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

इश्क़ ए बिस्मिल - 1

तेरा इंतज़ार!

है फ़र्ज़ जैसा मुझ पे

गर मुलाक़ात रद हुई

तो ये इबादत मुझ पे क़र्ज़ हुई।

ये क़ज़ा मैं कैसे चुकाउंगी?

तेरी रज़ा मैं कैसे पाउंगी?

लगभग तीन घंटों से उसका कमरा अजीबो-ग़रीब नक्शा पेश कर रहा था। कमरे की हालत देखकर ये जान पाना मुश्किल हो रहा था कि यह उसे बिगाड़ने की कोशिश थी या उसे संवारने कि जद्दोजहद।

बेड पे लगभग पूरा कमरा उन्डेला हुआ था। अलमारी के सारे कपड़े फैले हुए थे, कुछ किताबें थीं, कुछ पैकेट्स, कुछ खिलौने , कुछ boxes और उनमें बसी ढेर सारी यादें। यह उसके रोज़ का मआमूल सा बन गया था। यादों को उधेड़ना और फिर से बुन्ना। इस उधेड़बुन में उसने 6 साल गुज़ारे थे। ६ साल यूं तो उंगलियों पे बड़ी आसानी से गिने जा सकते हैं, मगर उन लम्हों का कोई हिसाब नहीं लगा सकता जो किसी के इंतज़ार में गुज़ारे गए हों।

शुक्र है, आज वह इंतज़ार ख़त्म होने को थी, इसलिए आज इन साथियों कि शुक्रगुज़ारी की जा रही थी। मुश्किल वक़्त मैं इन चीज़ों ने उसका बहुत साथ दिया था। साथियों को उनके मक़ाम पर पहुंचाने के बाद एक बार फ़िर से उसे फ़िक्र सताने लगी थी। आज शाम क्या पहना जाए। कपड़ों का ढेर था। मगर आज के ख़ास मौके के लिए उसे कुछ जच नहीं रहा था।

आख़िर हार कर वो वही करने चली थी जिसके लिए उसने खुद को दो दिनों से रोक रखा था।

वह जल्दी से तैयार होकर निचे आई थी। सबकी नज़रों से बचकर निकलना चाहती थी मगर ऐसा मुमकिन कहां था।

“अज़ीन! कहीं जा रही हो?” उसे पीछे से अरीज ने आवाज़ दी थी।

“ज…..जी आपी।“ मन ही मन में ख़ुद को कोसा था “थोड़ा जल्दी नहीं कर सकती थी” ख़्यालों में ही ख़ुद को एक चपत भी लगाई थी।

“कहां?” फिर से एक सवाल उभरा था।

“नेहा के घर।“ उसने बड़ी मासूम सी सुरत बनाकर जवाब दिया था।

“क्यों?” अभी भी सवालों का सिलसिला जारी था।

“उसने बुलाया है।“ बहन के हर एक सवाल पर उसका दिल बैठा जा रहा था।

“वही तो पूछ रही हूं, क्यों बुलाया है।“ उसकी बहन भी कहां बाज़ आने वाली थी।

“ये आप उसे खुद बुलाकर पूछ लेना, अभी मुझे बहुत देर हो रही है अल्लाह हाफ़िज़।“ उसने अरीज को जल्दी से गले लगाया और नौ दो ग्यारह हो गई थी।

मिटिंग रूम के बाहर बैठकर उसे इंतज़ार किए लगभग १५ मिनट हो चुके थे और अब उसके सब्र का बांध टूट चुका था इसलिए वह बड़ी तेज़ी से उठकर मीटिंग रूम में घुस गई थी। जिस बन्दे की तलाश में वह यहां आई थी वह उसके सामने ५ बन्दों के साथ मिलकर कुछ डिस्कशन कर रहा था। वह ३७ साल का बेइंतहा हैंडसम मर्द था, कसरती शरीर पर उसने नीली रंग की शर्ट और डार्क ब्लू पैन्ट पहनी हुई थी। सलीके से बाल बने हुए थे, क्लीन शेव में वह बिल्कुल फाॅर्मल लुक दे रहा था। यह उमैर ख़ान था, जो अज़ीन की बेसब्री पर मुस्कुरा रहा था, जबकि वह चुपचाप उन्हें देख रही थी।

वह सबको एक्सक्यूज़ करके उसके साथ मीटिंग रूम से बाहर निकल आया था और उसे लिए अपने औफ़िस रूम में आ गया था। उसे बैठने का कह कर वह इंटरकॉम पर उसके लिए जूस का आर्डर देकर उससे पूछा “अब बताओ ऐसी क्या अमर्जेंसी थी।“

“मुझे कुछ पैसे चाहिए।” वह बैठना भूल गयी थी, उसने हिचकिचाते हुए कहा था।

“क्यों?” उमैर ने पूछना ज़रूरी समझा था।

“आपने मेरा हाल देखा है?” उसने बड़ी तेजी से कहा था। हिचकिचाहट लम्हे में उड़न छू हुई थी।

“माशाअल्लाह! हमेशा की तरह बहुत प्यारी लग रही हो” वह उसका अगला रिएक्शन भांप चुका था जबहि मुस्कुराहट दबाकर कहा था।

“क्या ख़ाक प्यारी लग रही हूं….. ख़ैर! मैं आपसे बिल्कुल भी बहस के मूड में नहीं हूं बड़ी मुश्किल से आपकी बेगम से जान बचाकर भागी हूं ऊपर से आप आलरेडी मेरा बहुत वक़्त ज़ाया कर चुके हैं सो प्लीज़ मुझे जल्दी से पैसे दे दीजिए।" वह कहते कहते कुर्सी पर बैठ गई थी।

उमैर ने अपने वालेट से एक कार्ड निकाल कर उसकी तरफ बढ़ाया ये लो…पिन कोड याद है ना?” यह कार्ड वह अक्सर उसे देता था।

“आ…. थैंक्यू सो मच…जी बिल्कुल याद है…इतनी दफ़ा लिया है, कैसे भूल सकती हूं?…. ओ.के. मैं चली! अल्लाह हाफ़िज़” वह ख़ुशी से उछल पड़ी थी।

“मैंने जूस मंगवाया है तुम्हारे लिए” अज़ीन को जाता देख उसने कहा था।

“वह आप ही पी लें…..आज तो खूब पार्टी-शाटी होगी... मेरे सर पे बहुत सारे ट्रीट क़र्ज़ है, आज कार्ड मिलने की ख़ुशी में सब चुका दूंगी”। वह खुशी से झूम उठी थी, वह कहती हुई बाहर निकल गई और उमैर ख़ान उसके बचपने पर हंस कर रह गया।

रात के दस बज रहे थे और वह पूरी तरह तैयार थी मगर फिर भी उसे कोई कमी महसूस हो रही थी जबहि वह बार बार आईने के सामने खड़े होकर खुद को चेक कर रही थी। जब आईने में देखती तो सब मुक्कमल सा लगता कहीं भी कोई कमी नहीं दिखती और जब आईने के सामने से हटती तो ख़ुद को अधूरा सा महसूस करती। एक बार फिर उसने खुद को चेक किया, नेवी ब्लू सूट में उसकी सफ़ेद नुमा गुलाबी रंगत और भी खिल उठी थी। काले घने स्ट्रेट रेशमी बाल कमर तक आ रहे थे जिसे उसने यूंही खुला छोड़ दिया था, बहुत लाईट सा मैकअप किया था शायद इसीलिए उसका चेहरा फूलों सी ताज़गी लिए हुआ था। तीखे नैन नक्श तो थे ही गज़ब के, देखने में वह कांच की गुड़िया जैसी नाज़ुक मालूम होती थी, ढूंढ कर भी कोई कमी नहीं निकाली जा सकती थी। मगर फिर भी उसे आज कोई कमी सी लग रही थी! शायद उसके एत्माद(confidence) में, दुनिया वालों के सामने नहीं सिर्फ़ वह एक उस शख़्स के सामने जिसका सामना आज वह करने वाली थी .....चार सालों के बाद। एक अनजाना सा डर था, जिसे वह कोई नाम नहीं दे पा रही थी।

ख़ुद को देखते हुए अभी वह किसी ख़्याल में गुम ही थी के उसका मोबाइल बज उठा, स्क्रीन पर उमैर का नम्बर जगमगा रहा था, उसने झट से काॅल उठाई।

“जी भाईजान!” वह घबराई हुई थी क्योंकि उसे पता था उमैर ने उसे क्यों काॅल की है।

“साढ़े दस बज चुके हैं और कितनी देर लगेगी तुम्हें?” उमैर को जल्दी थी, अज़ीन के इन्तज़ार में वह लोग बैठे थे।

“भाईजान मैं नहीं जा रही हूं एयरपोर्ट, आप लोग जाएं” अपने धड़कते दिल को कुछ देर शांत रखने का यही हल उसे सूझा था।

“क्या हो गया तुम्हें अचानक से? तुम ने ही तो कहा था तुम्हें भी जाना है एयरपोर्ट” उमैर थोड़ा कन्फ़्यूज़ हो गया था, उसे अचानक से इन्कार की वजह समझ नहीं आई।

“मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही, सिर में दर्द हो रहा है बस इसलिए” उसने झट से बहाना बनाया।

“ओके! तब तुम आराम करो, मैं और म्ममा निकलते हैं।"

इनकार कर तो दिया था मगर इस से भी सुकून नहीं मिल रहा था। वह बेचैनी से अपने कमरे में टहलने लगी जब थक गई तो बेड पर बैठ कर अपनी बेचैन हालत पर अपना सर पकड़ लिया था।

"अज़ीन “! कैसी तबीयत है तुम्हारी? उमैर और आसिफ़ा बेगम को एयरपोर्ट रवाना करते ही परेशान सी अरीज, बहन के पास उसके कमरे में आई थी ।

“थीक हूं आपी” बहन की परेशानी देखते ही मुंह से सच निकल गया था। फिर याद आने पर संभल कर बोली “बस हल्का सा सिर में दर्द हो रहा है।"

"आप एयरपोर्ट नहीं गई?" अज़ीन को अचानक से ख़्याल आया।

"तुम्हें ऐसे हाल में छोड़कर कैसे जा सकती थी।" अरीज ने उसे अपने सीने से लगा लिया था, “अल्लाह का शुक्र है के तुम ठीक हो।"

“तुम्हे कुछ होता है तो मेरी जान निकल जाती है”अरीज उसे खुद से अलग कर के उसका सर अपनी गोद में रख कर हल्के हाथों से दबाने लगी। अज़ीन ने सुकून से आंखें बन्द कर ली थी।अरीज ने सर से पांव तक उसका जायज़ा लिया। बेशक उसकी मासूम सी बहन बेतहाशा ख़ुबसूरत थी, मगर काश वह इतनी समझदार भी होती के रिश्तों कि बारिकियां समझ पाती। लोगों के चेहरों के ज़ाविये से उनके दिल की बात पढ़ पाती। अज़ीन की तैयारी पर उसे अफ़सोस हुआ। उसने उसकी आने वाली ज़िन्दगी के लिए दुआ मांगी।

वैसे तो अज़ीन के सिर में दर्द नहीं था मगर बहन का हाथ सिर पर पड़ते ही सुकून ज़रूर मिल गया था।

कुछ देर इसी तरह दबाने के बाद अरीज ने यूंही उसके रूम का जायज़ा लिया। आम दिनों के मुकाबले आज काफ़ी अच्छी हालत में था, अरीज इसकी वजह जानती थी मगर उसने उससे कुछ कहा नहीं था।

वह उठकर कमरे से निकलने ही वाली थी के किसी ख़्याल से रूक गई और अज़ीन से पूछे बग़ैर ना रह सकी “तुमने उमैर से आज फिर पैसे लिए थे?” अज़ीन बिल्कुल नहीं चाहती थी कि उसकी बहन अभी इस बारे में कोई भी बात करे, लेकिन अब बात तो निकल ही चुकी थी इसलिए अब इस से बचने का कोई मतलब नहीं था।

“हां” अरीज के सवाल से उसका मूड बहुत ज़्यादा ख़राब हो गया था।

“तुम्हें नहीं लेने चाहिए थे, म्ममा को पता चलेगा तो वह हम दोनों को कितनी बातें सुनाएंगी, ये बात तुम जानती हो, फिर भी?”

“वह कब बातें नहीं सुनाती हैं? इसलिए इतना ना सोचा करें आपी” उसने लापरवाही से कहा, अरीज एक बार फिर उसे समझाने में हार गई थी।

अरीज के कमरे से जाने के बाद वह फिर से इस कश्मकश में डूब गई के आने वाले यानी के हदीद ख़ान से कैसे मिले, उससे इतने दिनों बाद देखकर उसका क्या रिएक्शन होगा, वह बहुत नर्वस फ़ील कर रही थी। यही सब सोच सोच कर वह इतने दिनों से पागल हो रही थी।

आसीफ़ा बेगम की तीन औलादें थी, सबसे बड़ा उमैर, फिर उससे पांच साल छोटी सोनिया और सोनिया से आठ साल छोटा हदीद। सोनिया शादी के बाद अपने शौहर के साथ कैलिफोर्निया में बस गई थी, वहां उसके शौहर के दो रेस्टोरेंट्स थे जिस से अच्छी खासी कमाई हो जाती थी इसके अलावा एक जिम भी था यूं अच्छी खासी आमदनी का ज़रिया था। हदीद कि बारहवीं क्लास खत्म होते ही आसीफ़ा बेगम ने उसे आगे की पढ़ाई के लिए सोनिया के पास कैलिफोर्निया भेज दिया था। वहां वह पढ़ाई के साथ साथ कुछ सालों तक बहनोई जावेद शफ़ीक ख़ान के कारोबार में भी हाथ बंटाता रहा, मगर उनकी अजब-गज़ब कारोबारी दांव पेंच देख उसने अपना रास्ता बदल लिया था, बहनोई को बुरा ना लगे इसलिए पढ़ाई का बहाना बना कर बैठ गया था और कुछ दिनों बाद इन्टर्नशिप के लिए कहीं और नौकरी करने लगा था। यूं देखते देखते मियां जावेद का कारोबार ठप्प पड़ गया। जावेद साहब ने अपनी नाकामी का बोझ हदीद के सिर पर डाला के उसने मुश्किल वक़्त में उनका साथ देने के, बजाय साले साहब ने आंखें फेर ली, दुसरी ओर सोनिया ने भी शौहर की हां में हां मिलाई। मां के सामने बहुत रोई, ख़ूब गीले शिकवे भी कीए थे। आसीफ़ा बेगम दामाद के सामने बहुत शर्मिन्दा हुईं थीं और अब फैसला किया था के उनके कारोबार को फिर से खड़ा करने में उनका पूरा साथ देंगी।

कैलिफोर्निया में जावेद साहब अपना सबकुछ लुटा पुटा कर हमेशा के लिए हिंदुस्तान पधार रहे थे, सोनिया को कुछ ज़्यादा परेशानी हो रही थी के अब उसे सास और देवरानी के साथ रहना पड़ेगा।

हदीद वहां अपनी जाॅब से ख़ुश था मगर आसीफ़ा बेगम के दिमाग़ में कुछ चल रहा था इसलिए उसे हमेशा हिंदुस्तान से दूर रखने के अपने ज़िद को छोड़ उसे मिन्नतें कर के सोनिया और जावेद के साथ  वापस बुलाया था।

१ बजे के क़रीब वह लोग एयरपोर्ट से घर पहुंचे थे, गाड़ी की आवाज़ सुनते ही अरीज दरवाज़े पर आई थी, नसीमा और शकूर भी काम छोड़कर वहां खड़े हो गए थे।

आसीफ़ा बेगम सिल्क की लाईट ब्लू साड़ी पहने हुए थी। उनकी उम्र लगभग ५२-५३ साल के क़रीब होंगी, उनके ख़ूबसूरत चेहरे पर हमेशा ग़ुरूर का साया लहराता रहता था, वह बेटी सोनिया (जिसने off white कुर्ती के निचे वाईट कलर का ट्राउज़र पहना हुआ था, उसके नैन नक्श बिल्कुल आसिफ़ा बेगम ही की तरह थे, यानी के वह भी मां की तरहां ही ख़ूबसूरत थी) का हाथ थामे हुए आगे बढ़ रही थी, उनके पीछे उमैर और जावेद थे और उनके पीछे हदीद जो सोनिया कि बेटी रिदा के साथ था।

"अस्सलामो अलैकुम" अरीज ने ख़ुश दिली से सलाम किया था, मगर जवाब सिर्फ़ उमैर और हदीद ने दिया था।

आसिफ़ा बेगम के तेवर हमेशा कि तरह चढ़े हुए थे, दुसरी तरफ दामाद बाबू ने तो जैसे अपने ससुराल; वालों पर एहसान किया था यहां आकर, सोनिया को तो पहले ही सदमा लगा जा रहा था यह सोच कर के उसे अपने ससुरालियों का सामना करना पड़ेगा इंडिया में।

दरवाज़े से अन्दर आते आते आसिफ़ा बेगम ने अपनी तेज़ नज़रों से यहां-वहां का जायज़ा लिया और अज़ीन को ना पाकर सुकून का सांस लिया था, दुसरी तरफ हदीद की नज़रें भी उसे ही तलाश कर रही थी, क़ई देर गुजरने के बाद भी जब वह ना दिखी तो एक इन्सल्ट वाली फीलिंग ने उसे आन घेरा, ख़ुद के नज़र अंदाज़ होने पर।

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