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अपंग - 44

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भानुमति ने उसके सिर पर फिर से हाथ फेरा और बाहर निकल आई | लाखी वहीं खड़ी रह गई थी | रिवाज़ के अनुसार वह बाहर नहीं आ सकती थी | जैसे ही वह बाहर निकली, देखा कुछ औरतें बरामदे में खड़ी हुई फुसफुस कर रहीं थीं | उसे देखते ही वे तितर-बितर होने लगीं | लाखी कमरे में खड़ी हुए ही कच्ची सड़क पर गाड़ी के पीछे की धूल उड़ते हुए देखती रही |

आखिर भानु के वापिस लौटने का दिन आ ही गया | माँ ऎसी व्यस्त हो गईं जैसे बेटी को पहली बार ससुराल भेज रही हों | न जाने क्या-क्या बनवा दिया था | बाबा बाहर से सामान मंगवाते हुए नहीं थक रहे थे |

"आख़िर कितना सामान जाएगा मेरे साथ, बस भी करिए आप लोग ---" कितना मना किया भानु ने लेकिन वो दोनों उदास होते हुए भी उसके वापिस जाने की तैयारी किए जा रहे थे |

कितना सारा सामान राजेश के लिए दिया था उन्होंने|उसे यह पसंद है, उसे वो पसंद है ! उन्हें क्या मालूम था कि उसे तो अब उनकी बेटी तक पसंद नहीं है फिर उस सामान की उसके लिए क्या कीमत होगी जो वे दोनों उसके लिए इकट्ठा कर रहे थे !

माँ बार -बार उसे ही कहतीं कि न जाने वह कितना अकेलापन महसूस कर रहा होगा जिसका छोटा सा बच्चा उसके पास नहीं था |

पहले तो शब्दों से बहुत कुछ कहा था उन्होंने लेकिन वे दोनों अब शब्दों से न कहकर आँखों से कह रहे थे| उनकी आँखों में पीड़ा भरी हुई थी, उनका व्यवहार भी ठंडा हो गया था | भानु ने बार-बार  माँ को समझाया था, बाबा को समझाया था लेकिन वे भीतर से बहुत क्षीण महसूस कर रहे थे | वो सब ठीक था लेकिन बेटी को पति के पास भेजने के लिए भी वे दोनों  चिंतित थे |

हमारे समाज में परिवार का एक अलग ही महत्वपूर्ण स्वरूप है, विवाह के बाद हर माता-पिता की आकांक्षा होती है कि बिटिया का घर स्वर्ग सा आबाद रहे | उसके घर की नीव कभी कच्ची न पड़े |बस.इतनी सी आकांक्षा थी भानु के माँ-बाबा की | अगर राजेश भी आ जाता तब शायद वे उसे अभी और रुकने को कहते, कहते क्या ज़िद ही करते लेकिन राजेश आया नहीं था इसलिए खासकर माँ को लग रहा था कि भानु को जल्दी ही बच्चे को उसके पिता के पास पहुँचाना चाहिए |

माँ-बाबा आए थे दिल्ली तक | बहुत उदास हो गए थे दोनों, खासकर बाबा |

इतना एक्स्ट्रा सामान बंधवा दिया था उन लोगों ने कि काफ़ी बड़ा एमाउंट-लगेज का देना  पड़ा | बाबा को कुछ बुरा नहीं लगा | जबकि भानु को लग रहा था कि जितने का सामान था, उससे कहीं अधिक बाबा को लगेज के पैसे भरने पड़े थे | बाबा ने उसको डांट भी दिया था कि बच्चों के काम ही न आए पैसा तो उसका अचार डलेगा क्या ? भानु उनकी बात सुनकर चुप रह गई | क्या बोलती ? इतने दिन कितनी निश्चिंतता से निकल गए थे उसके !कोई चिंता ही नहीं थी --न बच्चे की --अपनी तो बिलकुल भी नहीं | अब उसको भी वापिस जाकर बहुत सी बातें देखनी थीं, बहुत सी समस्याओं के हल निकालने थे | माँ-बाबा को क्या पता आखिर ?

"कहना राजेश से एक चक्कर लगाने का कुछ समय निकाल ले---" उन्होंने कहा |

"ज़रूर --बाबा ---" और देखते ही देखते सामान और मुन्ना को ट्रॉली पर बिठाकर वह एयरपोर्ट के अंदर चली गई थी |

भानु का दिल धुकर-पुकर कर रहा था, न जाने क्या होने वाला था उसके साथ वापिस जाकर ? रिचार्ड उसका बेचैनी से इंतज़ार कर रहा था लेकिन वह बच्चे का पिता नहीं था और यहाँ के समाज में उसके रिश्ते की कोई कीमत नहीं थी |

ज़िंदगी यूँ तो गुज़र जाती है तनहा तनहा, 

कुछ मुसाफिर यूं ही रस्ते में अटक जाते हैं ---!!

माँ-बाबा को दूर से देखती रही थी वह, जब तक देख सकती थी | बच्चे का हाथ पकड़कर उसे भी माँ-बाबा की तरफ़ हिलाती रही थी | आँखों में आँसू भरे हुए थे जिन्हें वह चुपचाप पीती रही थी | समय मिलने पर उसने लिखा --

गुमनाम रास्तों पे चले जा रहे हैं हम, 

आख़िर क्यों बिना बात जिए जा रहे हैं हम ?

बेचैनियों की आह को सीने में चुभोकर, 

कैसा हँसी गुनाह किए जा रहे हैं हम --!!