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शिव यादव की कविताएं

" धुंध में आदमी "
व्यथाओं की धुंध का
एक सिरा पकड़े
संघर्षों से जूझती
खड़ी है जिंदगी
दिशाहीन राहों पर
धुंध के उस पार
स्वयं का स्वरूप खोजता
कैसा और क्या होगा......?
एक अनुत्तरित प्रश्न सा
खड़ा है आदमी
हर रोज की भागम भाग
गहरी मुश्किलों की
उदासी में भी
डाले रहता है
अपने दोनों हाथ
उम्मीद के झोलों में ।

मुश्किलें मुंडेर से झांकती
आंगन में अथक परिश्रम की गांठें
रोज खोलता बांधता
नहीं पता अनवरत बहते
बेखबर जीवन को
धुंध का घनत्व
कब गहरा हो गया
और कब..........?
धीमा होने लगा
स्वतः रक्त प्रवाह
उसकी धमनियों में ।

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🌷 बेटी 🌷
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हो हर जाड़े की खिली धूप
तुम अंजोरी अंतर्मन की
तपी दोपहर की हो छाया
तुम अक्षि मेरे जीवन की ।

तुम निर्मल मन मेरी काया
हो कोयल मेरे बागों की
तुम निर्झरणी अविरल धारा
प्रति छाया तुम अपनी मां की ।

हो भोर में चमका वो तारा
जिसमें खुशबू घर आंगन की
तुम शब्दकोष की हो गरिमा
उपमा तुम मेरे उपवन की ।

हर घर तुम से ही है रोशन
तुम लाठी बूढ़े पापा की
अक्षत बंधन हो भाई का
राखी हो रक्षाबंधन की ।

तुम रिमझिम बारिश का मौसम
भींगी पलकें हो सावन की
दीपक नव उम्मीदों का तुम
मनुहार हो तुम मधुऋतु की
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तृष्णांऐं
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दिग्भ्रमित तृष्णांऐं
मन की
कभी फलक को
छू आती हैं
काले मेघों से मिलकर
कुछ बेगानी
बारिश करतीं हैं
उलझे ख्वाब
चले चलकर
उस पथ को ही
खो देते हैं
कभी सुगम
राहों के साथी
साथ नज़र
नहीं आते हैं।

उलझे हुए
रहे हम इनमें
मुठ्ठी रेत भरी
ले कर के
अर्थ छूटते
रहे हमेशा
बस यूं ही
ना कुछ लेकर
ना कुछ
दे कर के ।

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तब तुम लौट आना
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कुछ उम्मीदें
बिखर रहीं हों
हो मन की
हरियाली सूखी
नेह मेघ बनके
स्वयं बरसने तक
तब तुम लौट आना ।

अंधकार में डूबा
अवसाद के घर में
कोई मन बेचारा
रात अमावस्या में
अंजुरी भर अंजोरी
देने उस मन को
तब तुम लौट आना ।

सर्द हवाओं में
लिपटी हो एक सुबह
ओढ़ें कोहरे की चादर
सिमटा हुआ हो जीवन
आंच अंगीठी की बन
तब तुम लौट आना ।

कहीं कोई विरह में जब
गुमसुम सी बैठी हो
तर्ज नंदनवन की
वंशी के स्वर सुन के
मुस्कान लौट आए
तब तुम लौट आना।
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" दर्द भरी सोई हैं रातें "

कितनी सर्द हवाएं देखीं
देखीं बेमौसम बरसाते
दिनभर थका रहा अंतर्मन
दर्द भरी सोई हैं रातें।

अपने ही भंवरों में उलझा
उथल किनारों में जा डूबा
मुक्त विचारों की धड़कन
ले बैंठी ढेरों मुसीबतें ।

चलें कहीं ठीक ठौर ढूंढें
कुछ सपने बुनें और ओढ़ें
हरदम बैगानों सा जीवन
उलझन उलहाने सी बातें ।

वो चंद लकीरें किस्मत की
बन बैठी खुशियों की यादें
हर हसीं शाम ढलते देखीं
गुम हुईं मिली जो सौगातें ।

अनुमानों की आड़ में रहकर
बड़ी दरारें पड़ जाती हैं
अनचाही सी हरदम रीतें
लगती तन्हाई सी बातें।
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पता ही न चला
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मशाल रिफाकत की
उन्मुक्त फलक तक
चाहता ले जाना पर
वक्त की आंधियां
कब बुझा गईं
पता ही न चला ।

रिवायतें सुर्ख थी
न पूछा सुकूँ ले गए
ख्वाहिशें जज्बातों से खेलती रही
नवाजिशें कब रुखसत हुईं
पता ही न चला।

दुर्गम राहों पर यों
निकल गए चलकर
सुगम पथों पर कब
ज़ख्म उभर आए
पता ही न चला ।

मौजें सितम कुछ
इस क़दर चली
दोष हवाओं का था
या कुछ और
कब गुलशन सूख गए
पता ही न चला ।
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सावन आया है

रिमझिम बौछारों
के मौसम
उठें घटाएं
गरजे बादल
झूम उठें
पेड़ों की डाली
समझें अब
सावन आया है ।

धुले वृक्ष
कुछ नया
लिए हों
वारिस में भींगे
पेड़ों पर
खिली धूप
जब मुस्काती हो
तब समझें
सावन आया है ।

गीत मल्हारों के
स्वर ऊंचे हों
मन मयूर बन
नाच उठा हो
झूले पड गए हों
पेड़ों पर
समझें अब
सावन आया है ।

राखी के बंधन
में लिपटा
भाई बहन का
अमिट प्यार हो
रिश्तों के धागे
ना टूटें
बंधन प्यार भरे
ना छूटें
समझें अब
सावन आया है ।

कुछ यौवन के
गीत मुखर हों
प्रीत की यादें
भींग रहीं हों
घन गरजें
तब मिलने
को मन
तरस रहा हो
समझें अब
सावन आया है।

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