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आँख की पुतली

’’कैसे हैं, बाबूजी ?’’ बुध के बुध की शाम वृंदा का सात, सवा-सात के बीच फोन आना तय रहता है।

’’तुम्हें एक चिट्ठी लिखी है।’’ तोते की तरह फस्र्ट क्लास बोलने की बजाय उस बुध को मैंने दूसरा जवाब दिया।

अपने बेटे राजेश का घर अब मैं छोड़ देना चाहता था। फौरन।

’’क्यों ?’’ वंृदा की आवाज़ रूँध गई, ’’सब ठीक नहीं क्या ?’’

’’मेरी यह चिट्ठी पढ़ने के बाद तुम मुझे फिर फोन करना।’’ वृंदा के फोन के समय मेरे हाथ में हैंड-सेट थमाकर राजेश की पत्नी रेणु उधर टेलीफोन की मुख्य लाइन पर जाकर हमारी बातचीत की कनसुई लेने लगती।

’’ठीक है,’’ वृंदा ने कहा, ’’मैं फोन रखती हूँ.....।’’

बृहस्पति और शुक्र तो मैंने जैसे-तैसे काट दिए, लेकिन शनिवार के आते ही मेरी बेचैनी बढ़ गई।

वृंदा को अब तक मेरी चिट्ठी ज़रूर मिल जानी चाहिए थी।

उसने मुझे तब भी फोन क्यों न किया था ?

डाकखाने के बहाने दोपहर में मैं एक पी0सी0ओ0 जा पहुँचा।।

’’हैलो !’’ फोन मेरे नाती टीपू ने उठाया।

’’लामा ?’’ टीपू को मैं लामा कहा करता। चैदह साल पहले जब वह इधर कस्बापुर में हमारे यहाँ पैदा हुआ था, तो उसकी सूरत हू-ब-हू एक तिब्बती लामा से मिलती रही थी।

’’जी’’ उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी, ’’ममी अभी घर पर नहीं हैं....।’’

’’तुम्हारे इम्तिहान चल रहे हैं ?’’ वृंदा के माध्यम से मुझे उसके परिवार की पूरी खबर रहती। यद्यपि टीपू और मेरा दामाद सुधीर मुझसे बात करने का मौका कम निकाल पाते। यूँ भी मुंबई और कस्बापुर के बीच का फासला डेढ़ हज़ार मील तो कम-अज़-कम रहा ही। परिणामस्वरूप जब भी उनमें से किसी से बात होती, तो अल्पतम ही और यहाँ तक मुलाकात का सवाल रहा, तो वह भी पिछले तीन वर्षों से लगातार टलती चली गई थी, बल्कि पिछले वर्ष जब मेरी पत्नी इंदुमति का देहांत भी हुआ, तो सुधीर और टीपू वृंदा के साथ कस्बापुर न आ पाए थे। उन्हीं दिनों सुधीर ने चेम्बूर का अपना फ्लैट बेचकर बांद्रा में नया फ्लैट खरीदा था और अपने नए पड़ोस में अपनी ग्राह्यता अर्जित करना उनके लिए ज़्यादा ज़रूरी रहा था।

’’जी।’’ टीपू के उत्तर अकसर बहुत संक्षिप्त रहते हैं।

’’मैं तुम्हारे पास आ रहा हूँ,’’ मैं हँसा, ’’तुम्हारी मुंबई के पार्क देखने.....।’’

पार्क में घूमने का टीपू को बहुत शौक है। इधर कस्बापुर में जब-जब भी वह आया रहा, मेरे साथ पार्क में घूमने ज़रूर गया, बल्कि यहाँ पार्क में कही गई उसकी एक बात मैं आज दस साल बाद भी याद करके हँसता हूँ। तब वह चार साल का था और इधर कस्बापुर के हमारे पार्क में फव्वारे के आगे महात्मा गांधी की जो मूर्ति रही, उसे पहली बार जब उसने देखा, तो मुझसे पूछने लगा, ’’गांधी तो किसी को मारने में यकीन नहीं रखते थे, फिर वह हाथ में यह कैसी लाठी लिए हैं ?’’

’’यह लाठी मारने के लिए नहीं है,’’ हँसकर मैंने उसे अपनी गोद में उठा लिया था, ’’और लाठी मारने के ही काम नहीं आती। बूढ़ों को टेक देने के काम भी आती है.....।’’ मगर उसके मासूम चेहरे का असंतोष मिटा नहीं था।

’’कब ?’’ टीपू ने पूछा, ’’कब आएँगे ?’’

’’जल्दी ही,’’ मैं उत्तेजित हुआ, ’’समझो, बस इन्हीं चार-पाँच दिनों के अंदर.....।’’

जभी शायद फोन के पास कोई आ पहुँचा, क्योंकि टीपू ने फोन के पास कहा, ’’ममी’ज़ फादर.....।’’

’’माई ग्रांड फादर।’’ उसने क्या इसलिए नहीं कहा, ताकि फोन के उस दूसरे सिरे पर खड़े आगंतुक को कोई भ्रम न रह सके ?

’’आपके कोई दोस्त आए हैं क्या ?’’ मैंने पूछा।

’’नहीं, पापा हैं।’’ उसने कहा।

’ममी’ज़ फादर’ उसने सुधीर से कहा क्या ? मेरे लिए ?

बाप-बेटे के लिए मैं बाहरी आदमी था क्या ?

केवल वृंदा का पिता ?

टीपू का नाना नहीं ?

सुधीर का ससुर नहीं ?

बल्कि अपनी शादी से पहले तो सुधीर मेरा विद्यार्थी भी रह चुका था। पूरे पाँच साल।

’’मेरी बात कराना।’’ मैं मैदान में उतर लिया।

’’हैलो !’’ दूसरी ओर से सुधीर की आवाज़ आई।

’’मैंने वंृदा को एक चिट्ठी लिखी थी.....।’’

’’एक चिट्ठी ?’’ सुधीर हँसा, ’’आप तो एक-दूसरे को हर रोज़ एक चिट्ठी लिखते हैं ? नहीं क्या ?’’

यह सच है, बल्कि इधर अपनी माँ के गुज़र जाने के बाद से तो वंृदा कई बार एक ही दिन में दो क्या तीन चिट्ठियाँ भी लिख दिया करती।

’’चिट्ठी में मैंने अपनी एक योजना भेजी थी....।’’

’’योजना ?’’ सुधीर ने हैरानी छलकाई, ’’कैसी योजना ?’’

’’मैं अब आपके पास रहना चाहूँगा,’’ मैंने कहा, ’’छह हज़ार के करीब मेरी पेंशन है और फिर मेरे पास पी0एफ0 है....पौने तीन लाख उसमें जमा है....वह भी मैं मुंबई में ट्रांसफर करवा लूँगा......।’’

’’स्कीम यह वंृदा की है ?’’ सुधीर का स्वर उखड़ लिया, ’’या राजेश की ?’’

’’स्कीम पूरी तरह से मेरी ही है,’’ मैंने कहा, ’’राजेश से तो मैंने अभी कोई उल्लेख तक नहीं किया है। सब कुछ पहले आप लोगों से तय करना चाहता था। सोचता था, पहले तय कर लूँ, फिर उसे चैंकाऊँ.....।’’

’’योर फादर।’’ तभी सुधीर ने फोन पर से अपने को अलग कर लिया।

व्ह बाहर से लौट आई थी क्या ?

मगर ’योर फादर’ ?

टीपू के ’ममी’ज़ फादर’ के बाद अब सुधीर का यह ’योर फादर’ मुझे काँटे-सा खटक गया।

वंृदा से इतनी बेगानगी बरतते थे ये लोग ?

इतनी बेलिहाज़ी ?

’’हैलो, बाबूजी,’’ वृंदा ने फोन पर कहा, ’’अभी-अभी आपको लिखी अपनी चिट्ठी लेटर-बाॅक्स में डालकर आ रही हूँ। डाक, बस इस समय निकल ही रही होगी....।’’

वंृदा !

मेरी बहादुर बेटी, वंृदा !

अपने मनस्ताप को मुझ पर प्रकट न करने वाली मेरी बच्ची, वंृदा !

’’अच्छा,’’ मैंने कहा, ’’मगर मेरी वह चिट्ठी एक मज़ाक था.....वह मैंने सिर्फ मज़ाक में लिखी थी....। उस पर तुम तनिक ध्यान न देना और देखो, सुधीर से कह देना, राजेश से मेरी योजना की बात कभी न कहे.....।’’

’’आप बहुत बहादुर हैं, बाबूजी !’’ वृंदा रोने लगी।

’’तुमसे कम,’’ मेरी आँखें भीग चलीं, ’’बहुत कम....।’’

’’नहीं बाबूजी,’’ अपने आँसुओं के बीच वृंदा बोली, ’’आप ही बहादुर हैं, मैं नहीं.....।’’

मैंने फोन काट दिया।

’’तीन सौ तिरपन रूपए।’’ पी0सी0ओ0 वाले ने अपने कंप्यूटर से मेरी पर्ची निकाली।

रात को खाने के बाद रेणु जब मेरी मेज़ पर मेरे लिए दूध टिकाने आई तो राजेश भी उसके संग मेरे कमरे में चला आया।

’’सोने जा रहे हैं ?’’ कुर्सी पर बैठने के बजाय राजेश मेरे बिस्तर पर मेरी बगल में बैठ गया, ’’सुधीर ने आज शाम मुझे मेरे मोबाइल पर फोन किया था......।’’

’’क्या कहा, उसने ?’’ अपनी बेआरामी छिपाने के लिए अपनी मेज़ पर से मैंने दूध का अपना मग उठा लिया।

’’आपने उसे मुंबई में अपने रहने के लिए कमरा ढूँढ़ने को बोला है ?’’

’’यह कहा उसने ?’’ सुधीर पर आया अपना गुस्सा राजेश पर मैंने प्रकट न किया।

’’मालूम है, बाबूजी ?’’ रेणु ने कहा, ’’मुंबई में ऐसा कमरा दस हज़ार रूपए महीने पर भी नहीं मिल सकता.....।’’

’’मैं जानता हूँ ।’’ मैंने कहा।

’’यह भी जानते हैं क्या ?’’ रेणु कुर्सी पर बैठ गई, ’’वही वृंदा जीजी जो साल में सिर्फ दो बार इधर मेहमान की तरह आती हैं और हाथ पर हाथ टिकाकर आपकी तरफ ठकुरसुहाती की कमानी उठालती हैं, उधर मुंबई में वही वृंदा जीजी आपके लिए मुझसे आधी क्या, एक चैथाई फुर्सत भी न निकाल पाएँगी.....।’’

’’यह तुम्हारा खयाल है, मेरा नहीं.....।’’ वृंदा के विरूद्ध मैं एक भी शब्द सुनने के लिए तैयार न था।

’’लेकिन बाबूजी,’’ राजेश ने मेरे घुटनों पर अपने हाथ टिका दिए। जब भी वह मेरे साथ सुलह करना चाहता है, वह ऐसा ही करता है, ’’आपके वहाँ जाने का कोई सवाल उठता है क्या ? यहाँ कोई तकलीफ है क्या ? आपका कोई कहा कभी बेकहा हुआ क्या ? आपकी कोई ज़रूरत कभी बेमानी मानी गई क्या ?’’

’’नहीं,’’ उसके हर सवाल का जवाब ’हाँ’ था, लेकिन मैं उसकी बात दर तुर्रा नहीं करना चाहता था, ’’कभी नहीं....।’’

राजेश ने मेरे घुटने अपनी बाँहों में घेर लिए।

’’मैं न कहती थी ?’’ रेणु हँसी, ’’बाबूजी सिर्फ हमें परख रहे हैं। कहीं आएँगे-जाएँगे नहीं.....।’’

’’और नही ंतो क्या ?’’ मेरे घुटनों पर राजेश का दबाव बढ़ गया।

मैं अपना दूध पीता रहा चुपचाप।

’’लाइए, मुझे दीजिए,’’ खाली मग को मेज़ पर टिकाने जा रहे मेरे हाथों से रेणु ने अपनी कुर्सी से उठकर मग थाम लिया।

’’मैं अब सोऊँगा ।’’ मैंने करवट ली।

मेरे घुटनों से अपने हाथ हटा लेने पर राजेश मजबूर हो गया।

’’बत्ती बुझा दूँ क्या ?’’ मेरे बिस्तर से अब वह उठ खड़ा हुआ।

’’हा’’ मैंने उसकी आत्मीयता स्वीकारी ।

उसी तरह जिस तरह मेरे तकिए ने मेरे सिर को अंगीकार किया.....

और बत्ती बुझ जाने पर मेरे आँसुओं को भी....।

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