Ramnika Gupta: The Translation Series - Part 3 books and stories free download online pdf in Hindi

रमणिका गुप्ता: अनुवाद की श्रंखला - भाग 3

रमणिका गुप्ता - श्रंखला -3

मराठी स्त्री विमर्श कहानियां

महाराष्ट्र की स्त्री के लिए मशहूर है कि वह जब बाज़ार जाती है तो पुस्तकें खरीद कर लौटती है. इस बात की पुष्टि होती है मराठी से हिन्दी में अनूदित स्त्री विमर्श की कहानियों की बौद्धिकता से. पिछली पीढ़ियों ने ये बौद्धिकता की ज़मीन कुछ इस तरह तैयार की है कि 'नई पौध 'में आठ कहानियाँ हैं. भारती गोरे ने इन कहानियों का विश्लेषण इस तरह किया है कि उनके विषय में अधिक कहने की गुंजाइश नहीं बची है फिर भी मै अपने द्रष्टिकोण से और भी कुछ तलाशने की कोशिश करूँगी, 

'कोठी में धान' की सन् 1905 में जन्म लेने वाली विभावरी शिरुकर व 1942 में जन्म लेने वाली गौरी देशपांदे की कहानियाँ शैली की दृष्टि से बहुत चौंकाती हैं. विभावरी जी [हृदय के रत्न दीप ]ने तो झंडा गाढ़ दिया है कि लड़की को उसी से शादी करनी चाहिये जो उसके गुणों को व उसको सम्मान देता हो, चाहे वह विजातीय क्यों ना हो. बीसवीं सदी के आरंभिक काल में ऐसी कहानी लिखना एक दु; स साहस था. उनकी नायिका के विचार थे -" मैं ---पढ़ लिखकर आत्मनिर्भर बनकर ज़िन्दगी भर इसी तरह जीने के लिये मैं मानसिक रुप तैयार थी. " लीजिये मुक्त होने की घोषणा तो पहली कहानी में हो गई लेकिन प्रिया तेंडुलकर उर्फ हमारे लाद्ली रजनी धारावाहिक की 'रजनी 'की कहानी 'स्नान 'में शादी से पहले शर्तें रखते पुरुष की वही मानसिकता है -'तुम्हारे दिन का हर मिनट मैं तय करूँगा. जैस मै चाहूं वैसे ही रहोगी तुम. कोई सवाल नहीं कोई जिरह नहीं. " इस अंकुश से घबरा कर वह अपना कैरियर बर्बाद ना कर प्रेमी से नाता तोड़ देती है. 

स्त्रियां अलग अलग परिवेश में जीती है इसलिये गौरी देशपांडे [राइट ऑन] की नायिका घर के काम काज में फँसी पति व अमेरिका से आए उसके भाई की अमेरिका की लड़कियों के लिये लार टपकाती बातों से वह कुढ़ती है, [ आज की औरत की तरह कुढ़ती है ]कि पति घर के किसी काम के लिये पैसा बहुत अहसान से देते हैं और कल्पना करती है, -"सभी औरते मिलकर एक कॉलोनी बनाए ----बड़ी ---बहुत बड़ी कॉलोनी. वहां सभी मर्दो को प्रवेश के लिये फ़ीस लगेगी. कमीज धुलवानी है ?चल निकाल पैसा, रोटी बनवानी है --चल निकाल पैसा, सोने के लिये औरत चाहिए ---बच्चा चाहिये ---खानदान चलाना है --चल निकाल पैसा. "वह् अपनी बेटी को नसीहत देती है, -"तुम किसी शादी वादी के झंझट में मत फँसना---हर कोई अपनी गृहस्थी आप ही चलाये --मर्ज़ी हुई तो बच्चा होने दो, मर्ज़ी नहीं तो न सही "

ये लगभग बीसवीं सदी के मध्य से जाग्रत हुई नारी चेतना का परिणाम है कि कहानी की नायिका जैसी करोड़ों औरतें जो घरेलू शोषण से महिलाओं की अलग दुनिया बसाने की बातें सोचती होंगी व बाद में सोचा होगा कि ये ना तो संभव है, ना उचित लेकिन उसी सोच के परिणाम स्वरूप इन महिला समितियों का, महिला संगठनों का, यहां तक़ कि किट्टी पर्टीज की बीसवीं सदी में बाद आ गई. पुरुषों की दुनिया के बीच ही औरतें अपनी छोटी सी दुनिया बसाकर इनकी मीटिंग्स में साँस लेती है. इसी कहनी की नायिका जैसी सोच के कारण 'लिव इन रिलेशनशिप 'का जन्म हुआ होगा. इसी दौर में, लगभग इसी मूड की सवा सौ वर्ष पूर्व ही ये कहानी अँग्रेजी में लिखी गई थी "सुलताना का सपना ' [रुख़साना परवीन ]. लेकिन इक्कीसवी सदी तक समय' लिव -इन रिलेशनशिप 'के या मैत्री करार के प्रयोग के अनुभव से गुजर चुका है. गनीमत है बहुत सी कहानियाँ इसकी व्यर्थता पर भी लिखी जा चुकी है. ' 'हंस 'में प्रकाशित जयंती की कहानी में लिव इन रिलेशनशिप में रह्ती लड़की की दुर्गति दिखाई थी. इसी के मार्च 2015 अंक में गीताश्री भी अपनी 'सी यू 'कहानी में ऐसी रिलेशनशिप में रह्ती नायिका की मनोस्थिति दिखाने में सफल रही है, जो धीरे धीरे दिग्भ्रमित होती रह्ती है. स्वयं म ही नहीं जानती उसे क्या चाहिये ?ना सोच पाती जिस प्रकृति से उसकी रचना हुई है वह स्वयं भी अनुशासित है जब भी ये टूटता है तो----- --हाशिये उलांघती औरत 'के संपादन का लक्ष्य अब स्पष्ट है कि पुरुष औरत की इस पीड़ादायक आत्ममंथन को समझे जिससे हाशिये उलांघने की जरूरत ही क्यों हो क्योंकि विवाह से उत्तम एक स्त्री पुरुष के साथ रहने की व्यवस्था और कोई नहीं है. ?

'खड़ी फ़सल सन् 1947 से पहले में 'पहली कहानी 'कवच '[उर्मिला पवार ] में बहुत अच्छा चित्रण एक निम्न वर्ग की आम बेचने वाली के बेटे के दर्द के माध्यम से है जो कि सार्वभौमिक है कि स्त्री को उसके अंग विशेष के लिये कभी सीधी, कभी सांकेतिक भाषा में अपमानित किया जाता है, 'चोली के पीछॆ क्या है ?'जैस फिल्मे गाने लिखे जाते हैं. वह स्त्री तंग करने वालों को मुँह तोड़ जवाब देती है. प्रतिमा प्रसाद विप्रदास की नायिका अपनी तीसरी बेटी को जन्म देकर साँस व पति के विरोध में जा खड़ी होती है व अपनी बेटी का नाम 'इतिश्री 'रखकर घोषणा करती है कि वह अपने गर्भाशय को अब बेटा पैदा करने वाली मशीन नहीं बनाने देगी. हमारे भारत में बेटे की चाह में कन्या भ्रूण हत्या एक आम बात है जिसके विरोध में 'खड़ी फ़सल सन्1947 के बाद ' की माधवी खरात की नायिका तो 'बेटी का जन्म 'को एक उत्सव के रूप मे देखती है चाहे उसे कोख मे बचाने के लिये ससुराल वालों के खिलाफ़ पुलिस में ही क्यों ना जाना पड़े. डॉ. विजयलक्ष्मी रवि वानखेड़े की 'निर्णय 'कहानी [नई पौध ]की नायिका व उसके पति डॉक्टर्स हैं फिर भी कन्या भ्रूण हत्या के लिए उसके पति अड़े हुए हैं लेकिन वह् होशियारी से कोख की अपनी बच्ची बचा ले जाती है व पति कि ये कुकर्म करते नर्सिंग होम पर पुलिस का छापा पडवा देती है. 

ज्योति लांजेवार की कहनी 'गिद्ध 'हमे बुरी तरह विचलित कर देती है क्यों कि एक विधवा की बेटी के विक्षिप्त होने का कारण उस बच्ची के घिनौने चाचा व फूफा है. जिन्होंने अकेली हवेली में उस नन्ही जान को घेर लिया था यानि स्त्री भ्रूण पृथ्वी पर आकर भी कहाँ सुरक्षित रह पाता है ?. बच्ची हो या 72 वर्षीय बंगाल की नन किसी भी उम्र में उस पर खतरा मँडरा सकता है शायद तभी समाज रात बिरात अकेले बाहर ना जाने की हिदायत देता है कि ये पृथ्वी के ' भूत पिशाच 'शरीर को अपने बस में ना ले लें. 

इस गिजगिजेपन से राहत देती है अपना काम छोड़कर बैठीं, घरेलू दुनिया में गुम डिजाइनर सास को अपना कैरियर पुनः आरंभ करने के लिये प्रेरणा देती व हाथ बढ़ाती आर्किटेक्ट बहु. इस कहानी में बहुत अच्छी ढंग से चित्रण है कि एक प्रतिभा सम्पन नारी को घर में उलझाकर किस तरह बाहर की रंगीनियों में, सुरा से लेकर सुन्दरी तक में पुरुष गुम होता जाता है. उसे महसूस करना भी बंद कर देता है. 

इस विशेषाँक  की दो विशेष कहानियाँ है जिनमें एक विधवा को सामाजिक कुरीतियो का शिकार बनते दिखाया है. लक्ष्मी कदम गीदम का अपनी कहानी "मुर्दे को माटी ;ज़िन्दे को रोटी "के माध्यम से प्रश्न है -"जो औरत कभी सुहागन --पुत्र की माता होने के नाते सुलक्षनी, शुभ मानी जाती थी --अब महज इसलिए कि एक पुरुष उसके जीवन से निकल चुका है, वह इतनी अशुभ व अपवित्र हो गई ? "----ये ज़ख्म आनादिकाल से एक भारतीय विधवा के मन में अश्वत्थामा के निरंतर टीसते घाव है. महाराष्ट्र की विधवा के लिए एक रस्म 'सेव उतारना "का परिचय देती है कि किस तरह एक मामूली रस्म को करने से सधवाये डर रही थी. "दुःख के आंसू 'में ललिता नागोराव गाडगे की नायिका एक अनपड़ दृड़ स्त्री है जो पति की दूसरी पत्‍‌नी के कारण पति के साथ ना रह्कर गांव में रहना पसंद करती है लेकिन फिर भी मानती है -'ये सिंदूर तो औरत जात का सबसे बड़ा मान सम्मान होता है ". पति की म्रत्य के समय की पूजा हो या उसकी ज़मीन जायदाद पर हक वह कुछ भी नहीं छोड़ना चाहती. ये कहानी कथ्य की दृष्टि से सश्क्त होते हुए भी बहुत लम्बी व कुछ हद तक उबाऊ भी हो जाती है जैसे कि मेघना पेठे की "आए कुछ अब्र". दूसरी में समाज से ऊल जुलूल बात एक लड़की को सुननी पड़ती है कि वह पिछले जन्म में व्याभिचारिनी रही होगी इसलिए उसकी शादी नहीं हो पा रही या उसे अपना जीवन चाइनीज़ लड़की के पैर जैसा लगता है [ वाह ! क्या उपमा है --पैर सुंदर रहे इसलिए चाइनीज लड़की के पैर छोटे जूते में कैद कर दिए जाते हैं. ] एक वाह ! तब भी निकलती है जब ये कुरूप लड़की होटल का बिल स्वयं चुकाती है. अपने को देखने आए लड़के को चुकाने नहीं देती क्योंकि उसे पति नहीं बनाना. 

इस अंक की एक और विशेषता है कि बहुत सी कहानियों की तरह इस कहानी में मुक्त होने को तत्पर या मुक्त हुई औरत के साथ बंधनों में जकड़ी एक स्त्री भी साथ चल रही है जिसे सुधा अरोड़ा की कहानी 'रहोगी तुम वही 'की नायिका जैसी हर समय लताड़ मिलती रह्ती है जैसे कि इसकी नायिका की माँ जिसे छोटी छोटी बात पर उसके अण्णा -जा निकल जा घर से कह देते थे और घर भी कैसा जहाँ बीमारी के कारण घरेलू काम ना हो तो उसे मायके पटक दिया जाता था. ' पक्षिणी' [सुजाता महाजन ] की नायिका दूसरी औरत के संग रह रहे पति से पिट कुटकर उसी के साथ घर बसाने को विवश है, जो सोच रही है औरत एक पक्षी है जो कही भी कभी भी घोंसला बना सकता है. 

रक्त सम्बन्ध ऎसे होते हैं कि हम उनसे विलग नहीं हो सकते जैसे कि 'बेबस '[अरुना पंजाबराव सबाने ] की माँ का बेटा उसकी बहू को मार डालता है तो उसे 15 बरस जेल करवा कर घिसटती सी जीती रह्ती है कि उससे बतौर माँ माफी माँग सके. उधर'विरासत '[माधवी शानभाग ] में एक लेखक पिता अपने जायज़ बेटी को अच्छी लेखिका बनाने की जोड़ तोड़ में लगा है लेकिन उसकी नाजायज बेटी 21 वर्ष की उम्र में दिल्ली से साहित्य अकादमी पुरुस्कार पा जाती है. जब पिता उसे मंच से अपनी बेटी घोषित करना चाहता है तो उससे पहले ही बेटी घर आकर उसकी इस इच्छा को तमाचा मार देती है. 

जब हम स्त्री यातनाओं से गुजर रहे हो तो 'मछली और आक्रात्मकता "[नीरजा ] की पति पत्‍‌नी की बेसिर पैर की बहस की कहानी पढ़ना या प्रज्ञा दया पवार की बहुत अलग सी कहानी में 'अपना प्यार ' पत्नी के पैरों में पेडीक्योर करते, प्यार अभिव्यक्त करते पति से मुलाकात करना अपने आप में एक राहत है. वह इंटरनेट से ' पेडीक्योर 'की विधि सीखकर व उसके लिए कॉस्मेटिक्स खरीद कर उस ब्यूटीशियन के पैरों पर अपने ऑफ़िस में प्रैक्टिस करके शादी की अठारहवीं वर्षगाँठ पर अपनी पत्‍‌नी के पैरों का' पेडीक्योर'करके उसे सरप्राइज़ देना चाहता है. हालांकि उस घर में दस वर्ष से काम करने वाली ब्यूटीशियन का संशय हाशिया उलांघ जाता है, निर्मूल हो जाता है कि वह सुरक्षित है, पति ने उसे अपनी पत्‍‌नी से बात छिपाकर ऑफ़िस में, पत्‍‌नी को ही खुश करने के लिये बुलाया है. जबकि 'मछली ---'कहानी में बेसिर पैर सी लगती बहस एक बहुत बड़ी बात कह गई है कि मछली तो सभी फंसाना चाहते है लेकिन काँटों वाली से बिदकते हैं बतर्ज स्त्री प्रिया तेंडुलकर की कहानी 'स्नान ' के पुरुष पात्र के अनुसार 'स्त्री को बड़ा नाज़ुक, सोबर होना चाहिये अटरली फ़े मिनिन'यानि कि बिना सींग वाली गाय जो देवी के ढाँचे में फिट हो. कन्धे आत्मविश्वास से चौड़े करके गाड़ी चलाती, बात बात पर बहस करती, सींग वाली गाय समाज या पति को कैसे हजम हो सकती है ?

माया दामोदर के साथ लगभग सभी स्त्रियां ये मानती है कि 'स्त्रियां आज भी आज़ाद नहीं हैं '. इस कहानी की पंक्तियां है - "भारतीय संविधान में स्त्रियों को समान अधिकार हैं---- पीढ़ियों के अमानवीय व्यवहार से स्त्री का मनुष्यत्व खत्म हो रहा है ". यही से शुरुआत है 'नई पौध 'के तीखे स्वर की लेकिन वही स्त्री की हत्या को आत्महत्या का रुप देने का भी शन्यंत्र है चाहे वह् समाज सेविका बतौर एक शराबी की ऐसी बीवी को बचाना चाहती हो जो उसे अपने ही दो भाइयों को उसे परोसता है -जो भय मुक्त प्रेम व विकास चाहती है, 

मधु सावंत की कहानी "उसकी राह ही अलग थी 'भारत की एक प्रतीक कथा है. स्त्री समाजसेविका हो, कलाकार हो या फ़िल्म कलाकार या अपने पति से अधिक पढ़ी लिखी. उसके दाम्पत्य को डसने वाला अकसर उसके पति का कोई ज़हरीला मित्र होता है, उस स्त्री की सफ़लता से जला भुना व ये सोचता मेरे भाग्य में वह क्यों नहीं लिखी. उस पति को भड़काता है. पति अपनी ही पत्‍‌नी को नीचा दिखाने के लिये स्वयं अपने मित्र के साथ नीचे गिर जाता है कि पत्‍‌नी को दोनों को जेल करवानी पड़ती है. कहानी की गांव भर की औरतें घर में ज़ुल्म करने वालों को धमकाती है, "मै भी चंद्रकला की तरह तुम पर पुलिस केस करूँगी. " इस कहानी को पढ़कर नमिता सिंह जी की' गणित 'कहानी याद आ जाती है जिसमे निम्न वर्ग की नायिका सत्ता का प्रतीक पति का डन्डा तोड़कर मुक्त होने के घोषणा करती है. अपने पति को प्यार करने वाली डॉ. मीरा केजकर की कहानी 'याग्यिका' की नायिका दूसरी औरत के साथ सम्बन्ध बनाने वाले पति को तलाक देने में कोई हिचक महसूस नहीं करती. इसलिए समाज हाशिये उलांघती औरत को' चुड़ेल ', 'डायन'या 'सायकिक 'करार कर अन्य औरतों को डराने की कोशिश करता है. 

तेलुगु लेखिका ओल्गा ने कहानी ' अयोनि ' 'में बच्चियों को अपहरण कर उन्हें बाज़ार में बिठाने वाले सर्पों की क्रूरता को स्पष्ट करने के लिये कल्पना की कि सीता सच ही जनक के हल चलाने से उन्हें भूमि के वरदान के रुप में मिली थी यानि वह 'अनियोजिता ' हुई लेकिन मराठी लेखिका अरुणा धोरे इस तथ्य को यथार्थ के धरातल पर खड़ा कर आदिवासी चेतना की कहानी'अशोक वाटिका में ' सीता व त्रिजटा के माध्यम से बहुत सशक्त रुप से गढ़ती हैं. सीता अर्थात कृषक के हल की नोक अर्थात पुरुषत्व का प्रतीक भी. इसी प्रतीक ने वनवासियों से उनकी ज़मीन छीनी होगी, किसी वनकन्या से रिश्ता बनाया होगा. वह बदनामी के डर से अपनी नवप्रसूता कन्या को जंगल में छिपा गई होगी. जो राजा जनक को प्राप्त हो गई [शहरों में भी कचरे में कन्या भ्रूण या बच्चियाँ मिलती हैं. ]

राम व लक्ष्मण के जंगल में अतिक्रमण को, राक्षसो  की बस्तियाँ उजाड़ने के विरोध में सीता खड़ीं होती है. ये इस कहानी की विशेषता है. सब स्त्रियों के लिये तो नहीं लेकिन इस कहानी की अन्तिम पंक्तियां बहुत सी स्त्रियों की करूण दास्तान है -"जन्म से उसकी पहचान को नकारने से उसके अपनी पहचान को पाने एक आरंभ. " पौराणिक स्त्री शोषण की कथायें पढ़कर व समाज मे स्त्री की दुर्दशा देखकर आज की लड़की की तर्कशक्ति कितनी प्रखर हो गई है उसे जानना हो तो रोमा नाहर की कहानी 'कुंती 'के संवाद पढ़िये कि किस तरह अच्छी संतान पाने के लिए इसकी नायिका को कुंती बनने से भी परहेज़ नहीं है. 

विश्व में कितनी बहसें स्त्री के अस्तित्व को कुचले जाने पर हो उठती है, माध्यम बनते है व्रतचित्र -'इंडिया'ज़ डॉटर्स 'हो या पहली बार अमेरिका के कॉलेज या यूनीवर्सिटी कैम्पस में हुए महिलाओं के यौन शोषण और बलात्कार की दास्तानों पर बनी 'द हंटिंग ग्राउंड "ये जानकार तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि यहाँ हर पाँच मिनट में एक न एक लड़की का शोषण होता है. ये तो दावा किया जा सकता है कि भारत में स्थिति इतनी हद तक बुरी नहीं है. 

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नीलम कुलश्रेष्ठ

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