Achhut Kanya - Part 16 books and stories free download online pdf in Hindi

अछूत कन्या - भाग १६  

गंगा का हाथ अपने हाथ में लेते हुए विवेक ने कहा, “गंगा उस दिन तुम्हारे परिवार के अलावा एक और छोटा बच्चा पूरी जान लगा कर चिल्ला रहा था। वह कह रहा था बाबूजी ले लेने दो ना उसे पानी, बाबूजी बचा लो ना उस दीदी को, बाबूजी लेने दो ना उसे पानी, बचा लो ना दीदी को। किंतु ७-८ साल के उस नन्हे बच्चे की आवाज़ उसके बाबूजी के कानों तक पहुँच ना पाई क्योंकि वह सुनना ही नहीं चाहते थे। लेकिन अब वह बच्चा जवान हो चुका है और अब वह यमुना के बलिदान को इंसाफ़ दिलाएगा।”

“यह तुम क्या कह रहे हो विवेक? क्या तुम उस सरपंच के बेटे…? प्लीज मुझे बताओ वरना मेरा सर फट जाएगा।”

“हाँ गंगा मैं उसी गाँव वीरपुर के सरपंच का वही बेटा हूँ, जिसकी आवाज़ उस दिन उसके अलावा शायद और कोई भी नहीं सुन पाया था।”

गंगा यह वाक्य सुनकर सन्न रह गई। उसे काटो तो खून नहीं, ऐसी उसकी हालत हो रही थी। वह इतना सुनते ही उठकर फिर से खड़ी हो गई और कहा, “क्या…?”

“हाँ गंगा लेकिन जो कुछ भी हुआ उसमें मेरी ग़लती कहाँ थी? मैं तो उस समय तुम्हारी ही तरह एक छोटा बच्चा था। तब से आज तक वह बात मेरे ज़ेहन से कहीं गई नहीं है गंगा। उस गाँव में घटी उस दर्दनाक घटना के लिए आज भी मेरा मन काँप जाता है, धिक्कारता है ऐसी मानसिकता को।” 

गंगा धीरे-धीरे अपने कदमों को आगे बढ़ाने लगी। उसकी आँखों से दर्द में लिपटे जो आँसू अब तक किसी शांत सरिता की तरह बह रहे थे। वही आँसू यह सुनते ही कि विवेक उसी सरपंच का बेटा है रौद्र रूप ले चुके थे। मानो उसकी खूबसूरत आँखों में खून उतर आया था। वह कुछ भी कह ना पाई और उसके कदमों ने अपनी रफ़्तार को बढ़ा दिया।

विवेक ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा, “गंगा रुक जाओ, मेरी तरफ देखो।”

“नहीं विवेक मुझे जाने दो। मैंने ग़लत इंसान से रिश्ता जोड़ लिया। मैं तुम्हारे परिवार को कभी माफ़ नहीं कर सकती। ना मैं तुम्हारे परिवार के लायक हूँ विवेक और ना ही तुम्हारा परिवार मेरे लायक है।”

“गंगा क्या तुम यमुना के इतने बड़े त्याग को यूँ ही जाने दोगी? यदि तुम चाहो तो हम दोनों मिलकर यमुना के त्याग को अब इंसाफ़ दिला सकते हैं। मैं जब भी छुट्टियों में घर जाता हूँ, हमेशा कोशिश करता हूँ बाबूजी को समझाने की। माँ तो ख़ुद ही उस घटना के बाद से बदल चुकी हैं लेकिन बाबूजी अब तक अपनी ज़िद पर अड़े ही हैं। गंगा यदि तुम मेरा साथ दो तो हम गाँव की सभी महिलाओं के लिए गंगा-अमृत को खुलवा सकते हैं, जाति बिरादरी का भेद-भाव मिटा सकते हैं।”

गंगा इस समय मानो शून्य में चली गई थी। तभी विवेक ने उसकी ठुड्डी को अपने हाथ से ऊँचा करते हुए कहा, “गंगा मेरी तरफ देखो, मेरी आँखों में देखो। आज तक मुझे वह घटना क्यों याद है? क्यों मेरे दिलो-दिमाग पर अंकित है? वह घटना आज भी मुझे आहत करती है, दर्द देती है, मैं बदलाव लाना चाहता हूँ गंगा। मैं चाहता हूं हमारे गाँव के कुएँ गंगा-अमृत में अब और कोई यमुना अपनी साँसों की बलि ना दे पाए। कोई और यमुना इस तरह अपनी जान न गँवा पाए। किसी और गंगा का परिवार घर से बेघर ना हो जाए। यदि तुम साथ दोगी तो मैं यह कर सकता हूँ और यह मेरा तुमसे पक्का वादा है। मैं अकेला कुछ नहीं कर पाऊंगा गंगा।”

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात) 

स्वरचित और मौलिक  

क्रमशः