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चोरनी

चोरनी


शाम होने को थी ,चिड़िया अपने घोंसले की ओर उड़ चली थी , सूरज ढलने के साथ सारे आसमान को नारंगी बना गया था ।एक -एक पल के साथ नारंगी रंग स्याह होता जा रहा था ।चुन्नी तेज कदमों से खेत की पतली मेड़ों पर सम्भाल कर चली जा रही थी ,अभी भी उसे घर पहुचने में देर थी ।उसने अपनी चाल की रफ़्तार तेज कर दी , लेकिन उसे पता था की वो दौड़ नही सकती इन पतली मेड़ों पर ।कटाई करते - करते कब शाम गहरा गयी उसे आभास नही हुआ ।पंछियो का झुंड पतंग का आकर बना उड़ा जा रहा था , सभी को अपने घोंसले में लौटने की जल्दी थी ।चुन्नी एक हाथ से सर पर घास का गट्टेर सम्भालती तो दूसरे हाथ से शरीर का संतुलन बनाती । दूर से ऐसा प्रतीत होता मानो कोई कलाबाज़ रस्सी पर चला जा रहा है ।

चुन्नी को जल्दी थी की गट्ठेर समय पर साहू के घर पहुँचा दे तो शायद २ रुपए मिल जायेगे और साहू की औरत दिन का बचा खाना भी उसे दे दे ।चुन्नी अपनी भूख तो मिटा ले लेकिन अपनी ५ बरस की बेटी मुनिया का क्या करे ।जिसका पेट कभी भरता ही नही था ।मरी हर समय भूख से खाना - खाना करती रहती ।


मुनिया , चुनिया के लिए एक बोझ थी ।वो सींक सी पतली - दुबले लड़की , जिसके पेट, पीठ में धँसा रहता ,पतले दुबले हाथ -पैर , पिचका हुआ मुँह , बस दो कजरारी आँखे ,जो उसके होने के अस्तित्व को बताती थी ।बेचारी हर समय भूखी रहती थी , कभी उसने पेट भर खाना खाया ही नही था , खाना टुकड़ों में मिलता ,जिसमें माँ बेटी दोनो का हिस्सा होता था ।५ बरस की मुनिया गाँव में किसी का काम भी नही कर सकती थी ,जो उसे भर पेट खाना ही खिला दे । बिना काम तो कोई खाना भी नही देता ।चुनिया को घर में चूल्हा नही जलाना होता था ,काम से थकने के बाद बचा -खुचा जो भी मिल जाता उससे ही काम चलना चाहती थी ।


आज घर में कुछ ना होने से मुनिया सुबह से रो रही थी , काम पर जाते हुए ,चुनिया , मुनिया को भी साथ ले ली। उसने सोचा कही से कुछ मिल जाए तो बेटी को खिला दे ।रास्ते में बहुत से बच्चे स्कूल का बस्ता लिए , मास्टर जी के साथ जा रहे थे ।


मास्टर जी ने मुनिया को रोते देख उसे पुचकारते हुए चुनिया से पूछा ,”ये क्यों रो रही है “, चुनिया “ सुबह से भूखी है इसलिय मास्टर जी “।


मास्टर जी “ इसे स्कूल क्यों नही भेजती “, चुन्नी ने हैरानी से कहा “ खाने को तो है नही ,पढ़ायी का खर्चा कहाँ से उठाए मास्टर जी “। मास्टर जी “ अरे ! स्कूल में खाना मिलेगा , तुम भेजो तो सही “।


चुनिया को तो मन माँगी मुराद मिल गयी , उसने मुनिया का हाथ पकड़ा और स्कूल की तरफ़ चल पड़ी ।


मुनिया के लिए तो स्कूल जैसे स्वर्ग बन गया ।दोपहर में भरपेट खाना जो मिलता था , पतली -दुबली , मुरझाई सी मुनिया उस खाने के चलते चहकने लगी थी ।मुनिया दिमाग़ की तेज थी उसका मन पदाई में लगने लगा ।अब तो स्कूल का महत्व उसके जीवन में सर्वोपरि हो गया ।बहुत जल्दी वो मास्टर जी की चहेती बन गयी थी ।


मुनिया के साथ साहू का लड़का चंदू भी भी पढ़ता था , जो बस नाम को स्कूल आता और अपने वैभव का प्रदर्शन करता रहता था ।उसे मुनिया फूटी आँख नही भाती थी क्योंकि पढ़ाई में वो उसके कान जो कतरती थी ।पर मुनिया उसका बुरा नही मानती थी ,वो उसके फेंके हुए छोटे पेन्सल ,रबर से अपना काम जो चलाती थी ।एक दिन उसने चंदू के पेन्सल बॉक्स में ४ रंग - बिरंगे रबर देखे , सबकी नज़र बचा उसने उसमें से एक रबर निकल लिया और फिर खेल के मैदान में उसे सबके सामने गिरा कर , उसने उठा लिया मानो उसे ये मैदान में मिला हो । अब तो बस मुनिया को चंदू का जो समान पसंद आता वो उसे बुद्दु बना हथिया लेती ।धीरे - धीरे मुनिया शातिर होती जा रही थी ।


मुनिया स्कूल में मगन रहती थी ,उसका सबसे बड़ा आकर्षण खाना ही रहता ।जिस वजह से उसको नियम से स्कूल आना होता था ।स्कूल में उसकी नज़रें खाना बनाने वाली मौसी को खोजती रहती , जैसे मौक़ा मिलता ,वो आज के खाने का मीनू पूछ लेती ।कभी - कभी किन्ही कारणो से खाने की जगह लाई - चना मिलता था ,जो मुनिया को बिलकुल पसंद नही आता था ।बचा - खुचा खाना , चना - चबेना खा कर ही वो बड़ी हुई थी ।


आज खाना बनाए वाली मौसी ने मुनिया को ताक - झांक करते देखा तो बोला “ आज लाई -चना है , अपनी क्लास में जाकर बैठ “। ये सुनते ही मुनिया को ग़ुस्सा आया , उसने बोला “ क्यों ! आज खाना क्यों नही बनाया ? मौसी ने कहा , “ हेड मास्टर साहेब ने कहा है कि आज यही बँटेगा “ -


अब तो मुनिया को हेड मास्टर साहेब दुश्मन लगने लगे । वो उनके कमरे के सामने से गुजरी तो ,वो वहाँ कोइ नही था , शायद खेल के मैदान में गए होंगे ।उनका टिफ़िन मेज़ के एक कोने में रखा चमक रहा था ।मुनिया को लगा मानो वो उसे चिड़ा रहा हो ।उसकी भूख और बढ़ गयी । उसके बाद जो हुआ उसकी किसी ने कल्पना भी नही की थी ।हेड मास्टर के टिफ़िन से आधे खाने की चोरी और फिर बहुत सफ़ाई से टिफ़िन वापस वही रख दिया गया ।


हेड मास्टर साहब ने जब अपना टिफ़िन खोला ,तो उन्हें खाना कुछ कम लगा पर उन्होंने सोचा शायद घर से काम आया होगा ।लेकिन ऐसा फिर से कई बार हुआ तो , हेड मास्टर जी अपने कमरे के आगे के आगे पहरेदारी बिठा दी ।जब खाना मिलता तो मुनिया उनके कमरे के आस - पास भी नही फटकती थी । हेड मास्टर जी ने अन्य मास्टरों से पूछा तो उन्हें ऐसी कोई शिकायत नही थी । जिस दिन चना - लाई का दिन होता उस दिन टिफ़िन भी आधा मिलता ।हेड मास्टर जी को अब इसका ज़िक्र करने में शर्म भी आ रही थी ,उन्होंने अब इस मसले की खुद ही जाँच - पड़ताल करनी शुरू की ।


एक दिन हेड मास्टर साहेब राउंड लगा रहे थे , तभी उन्होंने मुनिया और मौसी की बहस सुनी ।मुनिया ,क्या ? “आज फिर से लाई दोगी ? मैंने सुबह से कुछ नही खाया है , अब लाई से क्या होगा “?


मौसी झल्लाकर बोली ,” अब जो ऊपर से हुकुम होगा ,वही करूँगी ना “ ।


मुनिया “ तो उन्हें कहती क्यों नही , हमारा पेट नही भरता इससे , माँ तो कुछ बनाती नही है , यहाँ पर ही तो खाना मिलता है “ कहती हुई मुनिया पैर पटकती वहाँ से चली गयी ।


हेड मास्टर जी आगे बढ़ गए और अन्य कामों में उलझ गए ।लेकिन आज फिर से उनका खाना काम था ।अब उनकी समझ में कुछ - कुछ आने लगा ।उन्होंने पाया की जिस दिन स्कूल में खाना नही मिलता उसी दिन उनके खाने की चोरी होती थी । उनका मन क्षोभ से भर उठा । आगे से उनका भरसक प्रयास रहता की लाई - चना ना बँटे , पर कभी ऐसा होता उस दिन उनके टिफ़िन में २ रोटियाँ , सब्ज़ी और मिठाई अतिरिक्त होती थी ।


एक दिन गाँव में साहू के घर चोरी हो गयी , पुलिस की पार्टी आयी , उसमें एक महिला पुलिस अफ़सर भी थी , मुनिया उसके रोब - रुआब को देख बहुत प्रभावित हो गयी , दोपहर होते - होते पुलिस ने चोरों को पकड़ लिया । सारा गाँव पुलिस की प्रसंशा कर रहा था ,किसी ने पूछा , “आप लोगों ने इतनी जल्दी कैसे इन्हें पकड़ लिया “? महिला पुलिस अफ़सर ने कहा की ” चोरों को पकड़ने के लिए चोरों की तरह सोचना पड़ता है ”।


ये सुन मुनिया को काँटों तो खून नही , डर के मारे वो पीली पड़ गयी , उसे अपनी वो सारी चोरियाँ याद आने लगी ।उसने मन ही मन सोचा की अब वो चोरों की तरह सोचेगी , लेकिन चोरी करने के लिए नही , बल्कि उन्हें पकड़ने के लिए ,बड़ी होकर वो भी इस अफ़सर की तरह एक पुलिस अफ़सर बनेगी ।


समाप्त