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सीरिया का बटुआ

बस करीब एक घंटा है लेट थी।
बस के रुकते ही लगभग कूद कर टेढ़े मेढे रास्ते से घूमती, कीचड़ पानी से बचती बहिनजी जब स्कूल के अहाते में घुसीं, तब जाकर उन्हें चैन आया।
कैसी उलझन थी, कोई गलती नहीं, फिर भी अपराधी बन जाओ। ड्यूटी पर देर से पहुंचो और बेबात ही अफसरों की चार बातें सुनो। करे कोई, भरे कोई। बस तो सरपंच ने लेट कराई और जान सांसत में आ गई बहिनजी की।
बहिनजी ने पसीना पौंछ कर रुमाल वापस पर्स में रखा और अपने कमरे में घुस गईं। कुर्सी पर बैठते ही दो -चार पल इंतज़ार किया फिर अनमनी सी होकर उन्होंने इधर उधर देखा और चौंक पड़ीं। ज़रूर कोई गड़बड़ है...
अमूमन पास के बड़े शहर से डेली अप डाउन करने वाली बहिनजी अपने सरकारी मिडिल स्कूल में आठ बजे तक आ जाती थीं। रास्ते की सारी भागम- भाग, तनाव और चिल्ल-पौं से उन्हें यहीं आकर निजात मिलती थी अपने कमरे में, जहां वो केवल दो शिक्षकों वाले स्कूल में बड़ी बहिनजी कहलाती थीं।
यहां उनके आकर बैठते ही कक्षा आठ की मॉनीटर और विद्यालय की सबसे होनहार लड़की निंदिया उनके लिए पानी का गिलास लेकर आती, झट से पंखे का स्विच ऑन करती, खिड़की के मटमैले पर्दे को फ़ैला कर सही करती और उनके सामने हाज़िरी का रजिस्टर रखती।
विद्यालय में पिछले छः महीने से चपरासी की पोस्ट खाली पड़ी थी। बहिनजी अफसरों को लिख लिख कर थक चुकी थीं। लिहाज़ा ये ड्यूटी कर रही थी निंदिया। इसीलिए निभ रहा था। वह बेचारी एक तरह से अपनी होशियारी और सुघड़ता का ही मोल चुका रही थी। कोई और लड़की या लड़का आते तो बहिनजी को चिक चिक करनी पड़ती। कभी गिलास ठीक से धुला हुआ नहीं है तो कभी गलत रजिस्टर निकाल कर रख दिया, कभी बहिनजी की हाई हील की चप्पल को ठोकर मार कर उलट जाते तो कभी पंखे की जगह लाइट का स्विच ऑन कर जाते। बहिनजी खीजतीं। इसलिए ये सब काम निंदिया के ही जिम्मे था। वह ऐसी कोई गलती नहीं करती थी। निंदिया गरीब घर की समझदार, पढ़ी लिखी मां की बेटी थी। बस इसी से न तो सरकार को चपरासी की तैनाती की कोई जल्दी थी और न ही बहिनजी को अपनी चिट्ठियों पर अमल की। काम चलता रहे तो कौन परवाह करे!
निंदिया ठसके से आती। उसके पास एक छोटा सा खूबसूरत गोल बटुआ होता, जिसमें वह बहिनजी के कमरे की चाबी रखती। कमरा वही खोलती। कभी कोई सरकारी विवरण बनाती बहिनजी को रबड़ की ज़रूरत पड़ती तो निंदिया के बटुए से वो भी निकल आता। छोटी पेंसिल भी।
ये छोटा पर्स निंदिया को जान से प्यारा था। वह हमेशा इसे अपने पास रखती। साथी लड़के - लड़कियां भी उसे ललचाई नज़रों से देखते। पर सब जानते थे कि ये "इंपोर्टेड" बटुआ निंदिया कभी किसी को देती नहीं थी। असल में इस बटुए की भी एक रामकहानी थी।
जब निंदिया एकदम छोटी सी थी तब उसके पिता के ऑफिस की डायरेक्टर मैडम विदेश गई थीं - सीरिया। मैडम जब वापस आईं तो दफ्तर में सबके लिए कुछ न कुछ गिफ्ट लाईं। निंदिया के पिता, जो वहां चपरासी थे, उन्हें ये बटुआ मिला, जो उन्होंने घर आकर लाड़ से निंदिया को दे दिया। निंदिया फूली नहीं समाई। तब से वह इसे अपने पास ही रखती थी और अपनी छोटी मोटी चीज़ें इसी में रखती। उसकी सब सहेलियां इस नायाब गिफ्ट से ईर्ष्या करतीं। सीरिया का बटुआ!
स्कूल में सुबह की प्रार्थना के बाद एक सभा होती जिसमें रोज़ के अखबार से कुछ मुख्य ख़बरें लिख कर सुनाने का काम भी निंदिया या एक दूसरे लड़के गजेंद्र का होता।
आज तो प्रार्थना का समय ही निकल गया था। बहिनजी का माथा ठनका। क्या बात है आज निंदिया नहीं आई क्या? वे आकर कमरे में बैठ गईं और अब तक कोई हलचल नहीं हुई।
बहिनजी ने एक - दो बार घंटी बजाई। पर छोटे से उस सरकारी स्कूल में घंटी भी तो अलादीन के उस चिराग की तरह थी जिसे रगड़ने पर जिन के आने की कोई गारंटी नहीं हो। झल्ला कर बहिनजी को खुद ही उठना पड़ा। आज शायद दूसरी टीचर भी नहीं थी। बहिनजी अपने कमरे से निकल कर जैसे ही बरामदे में आईं, इधर उधर से भागते - गिरते - पड़ते बच्चे कक्षा में घुसने लगे। जैसे बिल्ली को देख कर दालान में चुगते मुर्गे - मुर्गियां वापस अपने दड़बे की ओर दौड़ें।
बहिनजी ने एक लड़के को आवाज़ दी। वह कक्षा में घुसता घुसता पलट कर आ गया। लड़के का नाम गजानंद था।
- निंदिया नहीं आई? बहिनजी ने गरज कर पूछा।
गजानंद थोड़ा सकपकाया। बहिनजी की आवाज़ कड़कदार थी। शायद वह बस लेट हो जाने से अभी तक खिन्न थीं।
आठवीं कक्षा का वो छात्र उम्र की उस दहलीज पर था जहां किसी सहपाठी लड़की के लिए खुलेआम उससे पूछा जाना उसे संकोच से भर गया। वह सकुचा गया और इधर- उधर देखने लगा।
बहिनजी का धैर्य शायद उसके संकोच से छोटा था। वह आगे बढ़ीं और ज़ोर से आवाज़ देकर दो - तीन लड़कियों से पूछा - अरे निंदिया कहां है?
किसी से कोई उत्तर न पाकर बहिनजी वापस अपने कक्ष की ओर चल दीं। उन्हें दूसरी कक्षा से विद्यालय की दूसरी शिक्षिका के पढ़ाने की आवाज़ आने लगी थी।
उन्होंने गेट के पास खड़े लड़कों को भी उड़ती नज़र से देखा जो अब साइकिलें खड़ी करके कक्षा की ओर आ रहे थे।
गजानंद की उम्र महज़ पंद्रह साल थी पर वो इतना तो ताड़ ही गया कि बहिनजी ने निंदिया की बाबत उससे क्यों पूछा। उसे याद आया कि सुबह निंदिया आई तो थी। वह जल्दी से बहिनजी को पानी पिलाने और रजिस्टर देने के ख्याल से उनके पास आने लगा।
बहिनजी वापस पलट कर अपने कमरे की ओर आने लगीं, पर एकाएक उन्हें ध्यान आया कि निंदिया के बारे में कोई पुख़्ता सूचना उन्हें अब तक मिली नहीं है। वह असमंजस में पिछवाड़े की ओर देखने लगीं जहां विद्यालय का टूटा फूटा शौचालय बना था। शायद उस तरफ़ रखी पानी की टंकी पर निंदिया पानी लेने चली गई हो। पर पानी लाने में इतनी देर? उन्होंने सोचा।
तभी बहिनजी का ध्यान कुछ दूरी पर दीवार के पास लगे पुराने पीपल के पेड़ की ओर गया। उन्हें पेड़ के तने से पीठ टिकाए बैठी हुई निंदिया दिखाई दी।
लड़की को इस तरह अकेले बैठे देख बहिनजी जैसे किसी आसमान से गिरीं। उनका मन बुरी तरह घबरा गया। वह बदहवास सी जल्दी- जल्दी कदम बढ़ाती उसी ओर चल दीं। दो - चार लड़के - लड़कियां उनके पीछे- पीछे चले आए। गजानंद भी बगल में रजिस्टर दबाए दौड़ता सा साथ- साथ आने लगा।
निंदिया रो रही थी। वहां पहुंचते ही बहिनजी का माथा ठनका। निंदिया घुटनों में सिर दिए बैठी थी। बहिनजी ने पास जाकर उसे पुचकारते हुए कंधों से पकड़ कर झिंझोड़ डाला।
निंदिया को इस तरह घुटनों पर सिर टिकाए सिसकते देख बहिनजी को किसी आशंका ने घेर लिया। वह घबरा गईं - निंदिया... निंदिया..बोल, यहां क्यों बैठी है, क्या हुआ है तुझे? इस तरह यहां अकेली क्यों बैठी है, रो क्यों रही है, बोल... उन्होंने सवालों की झड़ी लगा दी।
निंदिया ने अवाक होकर सिर उठाया और ऊपर देखा। इतने लोगों को बहिनजी के साथ वहां आया देख वह जल्दी जल्दी हाथों से आंसू पौंछने लगी।
- कुछ नहीं.. कुछ नहीं, बहिनजी... उसकी सिसकियां थम गई थीं पर गालों पर बह कर गई बूंदों के निशान अब भी थे।
- तो रो क्यों रही है...किसी ने कुछ.. कहते हुए बहिनजी ने कनखियों से पीछे आते गजानंद की ओर देखा...वह घबरा गया। दो -तीन लड़के पीछे मुंह छिपा कर हंसने लगे।
- बोल निंदिया.. जल्दी बोल बेटी, किसी ने कुछ कहा है? तबीयत खराब है... क्या हुआ है.. यहां क्यों बैठी है अकेली, उठ मेरे साथ आ.. बहिनजी ने आत्मीयता से कहा।
निंदिया उठ खड़ी हुई। उसके उठते ही उसकी गोद में पड़ा अख़बार का एक पन्ना और पैन गिरा। पास ही निंदिया की कॉपी भी पड़ी थी। बहिनजी ने झपट कर कॉपी को उठा लिया और देखने लगीं।
कॉपी के पन्ने पर निंदिया की लिखावट में दो - तीन लाइनें लिखी हुई दिखाई दीं। शायद वह प्रार्थना सभा में सुनाने के लिए अख़बार से ख़बरें लिख रही थी।
बहिनजी ने झटपट उसकी लिखावट में लिखी वो पंक्तियां पढ़ डालीं। लिखा था - "अमेरिका सीरिया पर हमला करेगा... वहां सेना भेजने की तैयारी की जा रही है"...बस, इसके आगे निंदिया के आंसुओं की कुछ बूंदों के निशान बने थे।
किशोर वय के उन लड़के- लड़कियों ने देखा कि शायद पहली बार बहिनजी ने निंदिया को बुदबुदाकर 'बेवकूफ' कहा। सब लौट पड़े। आगे- आगे बहिनजी... फ़िर सब लड़के और पीछे- पीछे विद्यालय की सबसे होनहार - समझदार लड़की निंदिया!