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भ्रम - भाग-13

भाग - 13 "भ्रम"

राजा आज प्रजा से भेंट करने जा रहे थे और उनकी समस्याओं का पता लगाने, वे अपने मंत्री सुभासा और चार सैनिकों के साथ थे। जयंत को इस बात जैसे ही पता चला वह राजा का पीछा करने लगा। मगर दूसरे रास्ते से।
जैसे ही राजा बस्ती में पहुँचे उन्होंने देखा प्रजा उनके आवभगत में लगी है यह राजा के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। राजा के लिए एक आसन लगाया गया था जिसपर पत्तो से बना छत्र था। जिस बस्ती में वे आये थे वह बस्ती बंजारों की लग रही थी, वहां के लोगो के पहनावे से यही मालूम पड़ता था। जयंत भी उस बस्ती में किसी तरह पहुँच गया था मगर वह जानता था यहां के लोग अपनी जाति से अलग लोगो को अंदर नहीं आने देते उनके अपने नियम क़ानून होते हैं। बंजारे होने के बावजूद वे अपने राज्य के राजा का बहुत सम्मान करते थे और उनसे मदद भी लिया करते थे। हालांकि यह बात और थी कि उनके अपने ही बनाये हुए नियम-कानून थे, जिसका पालन उनकी पूरी बस्ती करती थी। जंगल ही जंगल से घिरी थी वह बस्ती, पेड़ पौधों की कोई कमी नहीं थी। जयंत एक पेड़ के पास खड़ा उनकी बस्ती में घुसने का विचार बना रहा था। यहां कोई छुप कर भी नही घुस सकता था क्योकि पहरा ऐसा था कि चींटी के भी आने का पता लग जाता था। जयंत की नजर अचानक एक काले रंग के हष्टपुष्ट शरीर वाले आदमी पर पड़ी जिसका बदन पत्तो से ढका हुआ था। उसके हाथ में एक पत्थर से बना हथियार भी था। वह बस्ती के बाहर ही घूम रहा था। "यहां तो बाहर ही पहरेदार पहरा लगाये खड़े हैं अंदर न जाने क्या क्या होगा।" जयंत अपने मन में ही बोला। "लेकिन काम तो यहीं से सुरक्षित हो सकता है, राजा को अपने इन भक्तों से इतना लगाव और इन पर विश्वास भी तो है। महल में हो सकता है मौका ही न मिले इस काम को करने का।" जयंत अपने आप में ही बुदबुदा रहा था। "लेकिन यह काम जिंदगी और मौत का सौदा करने जैसा है, इन लोगो के इलाके में घुसना मतलब मौत को गले लगाना। लेकिन बेटे जयंत! करना तो पड़ेगा ही। आखिर 'भ्रम' से पीछा छुड़ाने के मामला है, आदमी किसी भी बात को भूल सकता है मगर उसे नहीं जो अधूरी रह गई हो।" इतना कह कर जयंत झाड़ियों में छुपते हुए बस्ती के बीचों-बीच एक कुएं के पास पहुँचा। जहां बहुत से बंजारे दिखाई देने लगे थे। उसकी शक्लें ही इतनी भयानक थीं कि भूत भी गले में ताबीज पहन कर निकलते थे। मगर जयंत उन जंगली लोगो को क़ई बार देख चुका था तो वह सहज था। वह अपनी चोर नजरों से कोई साफ-सुथरा रास्ता तलाश कर रहा था आगे बढ़ने के लिए तभी एक औरत उसके बिल्कुल पीछे आकर खड़ी हो गई। उसने जयंत को देखकर जोर जोर से किसी अजीब सी भाषा में चीख-चीख कर कुछ कहना शुरू किया। जयंत के होश फाख्ता हो गये, वह कांप उठा...अब उसके साथ क्या होना था। वह क्या करे उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी उसने अपनी और दौड़ते आते खूंखार आदमियों को देखा अब वह बिना कुछ सोचे समझे बस्ती की और भागने लगा, उसके पीछे बंजारे उससे दोगुनी गति से उसका पीछा कर रहे थे, मगर जयंत भी अपनी पूरी ताकत से भाग रहा था। वह सभी लोग जयंत के बिल्कुल करीब थे जयंत हाँफने लगा था उसे समझ नही आ रहा था वो अब क्या करे, अब तो उसने सोच ही लिया था कि यह जिंदगी इसी दिन तक कि थी। मगर तभी उसे एक झोपड़ी दिखी जिसके पास से एक पतली सी गली थी, वह उसकी ओर दौड़ा, उस उस पतली गली में लगातार भागता रहा, वह गली मुश्किल से इतनी चौड़ी थी कि एक अकेला आदमी उसमें सीधा चल सकता था बाकी चलते भी तो एक कतार में, फिर भी उन बस्ती के वासियों ने हार नहीं मानी थी वह अपनी भाषा में जोर जोर से कुछ कहते हुए जयंत के पीछे एक कतार में भाग रहे थे, अब बहुत देर हो गयी थी..जयंत जहां रुका था वहां एक बड़ा सा गड्ढा बना हुआ था। जयंत ने फैसला कर लिया था कि वह उसी गड्ढे में उतर जायेगा, उसे लांघ कर आगे नहीं बढ़ेगा। अभी वे बंजारे जयंत से इतनी दूरी पर थे कि वह क्या कर रहा है देख नहीं सकते थे क्योकि गली सीधी नहीं थी। जयंत हाँफते हुए उस गड्ढे में कूद गया। वह बहुत गहरा था, उसमे अंधेरा भी था बहुत। जयंत तो जैसे गायब ही हो गया था।
कुछ ही देर में वे बंजारे उस गड्ढे तक पहुँचे, वे लोग भी वहीं रुक गए उन्होंने देखा कि उनकी विपरीत दिशा से भी कुछ उन्ही की प्रजाति के लोग दौड़े आ रहे हैं, वे भी अब उस गड्ढे के पास रुक चुके थे, उनमें से एक उन्ही की भाषा में बोला.."कहाँ गया वो???" दूसरे ने उसका जवाब देते हुए कहा..."शायद वह इस गड्ढे में चला गया है, जहां से वह कभी वापस नहीं आ सकता।" इतना कहते ही वह आदमी जोर जोर से भयानक हँसी हँसने लगा। बाकी के लोग भी हँसने लगे लोग वे सब वहां से निकल गए। जयंत ने देखा कि वह गड्ढा अभी और भी गहरा है और ऊपर से जितना छोटा दिखाई दे रहा था उससे चौगुना फैला हुआ था। वह एक पत्थर की मदद से वहां लटका हुआ था, उसका दिल जोरो से धड़क रहा था। नीचे न जाने क्या था, वह अब तो ऊपर भी नहीं जा सकता था, ऐसा कोई जरिया नहीं था जो जयंत को पुनः ऊपर भेज दे। कुछ देर तक जयंत हिम्मत बांधे लटका रहा मगर अब उसमे और हिम्मत नहीं थी गुरुत्वाकर्षण से भिड़ने की। उसके हाथ उस पत्थर से छूटे और फिर वह असाधारण गति से नीचे की ओर गिरता गया। जयंत की चींख निकल गयी थी। उसने शायद यह नहीं कभी नहीं सोचा था कि इतना गहरा गड्ढा भी कहीं हो सकता था। वह धड़ाम से गिर्रा मगर उसे कोई चोट नहीं आयी कोई दर्द नहीं हुआ। उसने जैसे ही खुदको आराम में पाया वह जिस जगह पर गिरा पड़ा था उसे टटोलने लगा। वह बिल्कुल मुलायम जगह थी मगर उसके ऊपर कुछ चिकनाहट फील हो रही थी। जयंत को समझ नहीं आ रहा था कि वह किस चीज के ऊपर आ गिरा है वहां उसे काफी ठंडक भी महसूस हो रही थी..जैसे ही वह उस खड़ा हुआ फिसल कर फिर उसी पर गिर गया। वह चीज हलचल करने लगी। जयंत कांप उठा..वह चींखा बहुत तेज...,,उस चीज के हलचल करने से हल्का हल्का प्रकाश दिखाई देने लगता था। जैसे वह चीज किसी ऐसे स्थान को ढके थी जहां से प्रकाश आता था। जयंत ने उस प्रकाश में कुछ देखा, उसी चीज को थोड़ा सा..शायद वह समझ गया था कि वह चीज क्या है। अचानक वह चीज उस जगह से हटी जहां से प्रकाश आता दिख रहा था। और उस प्रकाश में सबकुछ साफ साफ दिखाई देने लगा था। जयंत ने जैसे ही सामने देखा उसकी आवाज उसके भीतर ही मर सी गई। वह चींख भी नहीं पा रहा था चिल्ला भी नहीं पा रहा था। उसकी आंखें निकली की निकली सामने की तरफ ही देख रहीं थीं। उसके चेहरे से ऐसा लगता था जैसे उसने कोई असाधारण चीज सामने देख ली हो।

क्रमशः...