Gumnam raja - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

गुमनाम राजा - 5

अब आगे :-

राजा नरसिम्हवर्मन के पिता महेंद्रवर्मन और चालुक्यों के राजा पुलकेशी द्वितीय के बीच दक्षिण भारत के पुल्लूर नामक शहर में एक युद्ध हुआ था । पुलकेशी द्वितीय बहुत ही महत्वकांक्षी राजा था और इसलिए वो अपना हर कार्य अपने साम्राजय को विस्तृत करने की नियत से ही करता था । अपने साम्राजय को डंका दक्षिण भारत में बजाने के लिए उसने विष्णुकुंदिन साम्राज्य पर कब्ज़ा कर लिया ।
विष्णुकुंदिन साम्राज्य के राजाओं ने पल्लवों के साथ संधी कर ली थी । इसलिए पल्लवों को यह बात अच्छी नहीं लगी । उन्होंने विष्णुकुंदिन साम्राज्य के पतन का प्रतिशोध लेने के लिए चालुक्यों पर लगातार आक्रमण कर दिया ।
दोनों पक्षों की सेनाओं का आमना-सामना दक्षिण भारत के पुल्लूर नामक शहर में हुआ जिसमें पल्लवों का नेतृत्व कर रहे थे राजा महेंद्रवर्मन और चालुक्यों की सेना का नेतृत्व राजा पुलकेशी द्वितीय अपने सेनापतियों के साथ रकर रहे थे । इस युद्ध में पल्लव पक्ष की सेना को भारी हानि उठानी पड़ी । उनके कई योद्धा इस युद्ध में मारे गए।
जब राजा महेंद्रवर्मन ने देखा कि उनकी आधी से ज्यादा सेना नष्ट हो गई है तब उन्होंने और हानि न उठाते हुए अपनी बची-खुची सेना के साथ भाग जाने का निर्णय किया । जब महेंद्रवर्मन की मृत्यु के बाद उनके बेटे नरसिम्हवर्मन राजा बने तब उन्होंने अपने पिता की बेइज्जती का बदला लेने का निर्णय किया । उन्होंने ने अपनी सेना तथा आस पास के स्थानीय राजाओं की सेना की सहायता से चालुक्यों की राजधानी बादामी पर धावा बोल दिया । बादामी में हुई इस लड़ाई में चालुक्य साम्राज्य की हार हो गई और राजा पुलकेशी द्वितीय को अपने प्राण गँवाने पड़े । इस युद्ध ने पल्लवों को उनकी खोई हुई प्रतिष्ठा वापस दिलाई और नरसिम्हवर्मन की मौत के 25 साल बाद तक उन्होंने बादामी पर अपना एकछत्र शासन चलाया ।

6) राजा सुहेलदेव :-
राजा सुहेलदेव ग्य्यारहवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में श्रावस्ती के राजा थे । इनके पिता का नाम बिहारिमल तथा माता का नाम जयलक्षमी था । सुहेलदेव के तीन भाई और एक बहन थी । बड़े होने पर सुहेलदेव ने अपने पिता बिहारीमल तथा राज्य के अन्य कुशल मंत्रियों की देख-रेख में शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की । ऐसा कहा जाता है कि मात्र 18 वर्ष की आयु में ही वे युद्ध कला, धनुर्विद्या, तलवारबाज़ी, गदा युद्ध, मल युद्ध, राजनीति तथा घुड़सवारी में पूर्णतया पारंग हॅ गए थे । अपने पुत्र की कुशलता को देखकर बिहारिमल ने उन्हें मात्र 19 साल की उम्र में ही उन्हें श्रावस्ती साम्राज्य का सेनापति नियौक्त कर दिया । तथा 21 साल के होते-होते उन्हें सर्वसम्मति से राजा बना दिया गया । राजा सुहेलदेव का साम्राज्य उत्तर में नेपाल से लेकर दक्षिण में कौशाम्बी तक तथा पूर्व में वैशाली से लेकर पश्चिम में गढ़वाल तक फैला हुआ था । कई विद्वानों तथा इतिहासकारों ने अपनी रचनाओं में सुहेलदेव का उल्लेख एक राष्ट्र-रक्षक के रूप में किया और इसका एक ठोस कारण भी है । सन् 1038 में महमूद गजनवी के मौत हो गई । उसकी मौत के बाद उसका भांजा गज़नी का नया सुल्तान बना । हालांकि उस समय उसकी आयु मात्र 19 साल की थी पर उसके बावजूद भी वह युद्ध कला तथा राजनीति में उस्ताद था । गज़नी का सुल्तान बन जाने के बाद उसने अपने मामा के पद चिह्नों पर चलने का निश्चय किया । उसने वही काम करने शुरू कर दिए जो कि महमूद गजनवी किया करता था यानि की दूसरे राज्यों में जाकर लूट पाट करना तथा मंदिरों की संपत्ति को नष्ट करके उन्हें नेस्तनाबूत करना । सन् 1039 में यानि की सुल्तान बनने के एक साल बाद गज़नी के भांजे गाज़ी मियाँ सालार मसूद ने ततत्कालीन भारत पर हमला किया। अपने मार्ग में आने वाले सभी गांवों तथा नगरों को बर्बाद करने तथा उनके निवासियों की संपत्ति को लूटने के पश्चात वो दिल्ली आ पहुंचा जहाँ उसका सामना हुआ दिल्ली के राजा महिपाल तोमर से । अपनी लाख कोशिशों के बावजूद भी वे सालार मसूद को रोकने में असमर्थ रहे और उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा । महिपाल तोमर को पराजित करने के बाद सालार मसूद दिल्ली के अंदर दाखिल हुआ और वहाँ के स्थानिय निवासियों की तथा राजमहल की भी बहुत सारी संपत्ति लूटी । दिल्ली पर हाथ साफ करने के बाद उसने कन्नौज पर हमला किया । लगातार तीन बार हमला करने के बाद उसने कन्नौजी सेना को परास्त कर दिया और वहाँ के राजा से जुरमाने के तौर पर बहुत सारी दौलत तथा सेना ले ली ।
कन्नौज मुहिम में सफलता हासिल कर लेने के पश्चात अब सालार मसूद की दृष्टि बहराईच पर मंडराने लगी जो कि सुहेलदेव के साम्राज्य का ही हिस्सा था । जब सुहेलदेव को सालार मसूद के नापाक इरादों के बारे में पता चला तब उन्होंने 14 स्थानीय राजाओं के सहयोग से एक लंबी-
चौड़ी सेना एकत्र की और सालार मसूद का सामना किया । बहराईच में हुए इस युद्ध में सालार-मसूद को एक भारी भरकम हार का सामना करना पड़ा और इस युद्ध में उसे अपनी जान तक गँवानी पड़ी । अफसोस की बात यह है कि इतने बड़े योगदान के बाद भी राजा सुहेलदेव लगभग 800 वर्षों तक गुमनाम रहे । 19 वीं शताब्दी के आरंभिक काल में जब अंग्रेज इतिहासकारों ने इनके ऊपर कलम चलानी शुरू की तब जाकर लोगों ने इनका नाम जानना शुरू किया ।