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सेब

चलती सड़क के किनारे एक विशेष प्रकार का जो एकांत होता है, उसमें मैंने एक लड़की को किसी की प्रतीक्षा करते पाया। उसकी आँखें सड़क के पार किसी की गतिविधि को पिछुआ रही थीं और आँखों के साथ, कसे हुए ओठों और नुकीली ठुड्डीवाला उसका छोटा-सा साँवला चेहरा भी इधर से उधर डोलता था। पहले तो मुझे यह बड़ा मज़ेदार लगा, पर अचानक मुझे उसके हाथ में एक छोटा-सा लाल सेब दिखाई पड़ गया और मैं एकदम हकसे वहीं खड़ा रह गया।
वह एक टूटी-फूटी परेंबुलेटर में सीधी बैठी हुई थी, जैसे कुर्सी में बैठते हैं, और उसके पतले-पतले दोनों हाथ घुटनों पर रक्खे हुए थे। वह कमीज़-पैजामा पहने थी, कुछ ऐसा छरहरा उसका शरीर था और कुछ ऐसी लड़कौंधी उसकी उम्र थी कि मैं सोच में पड़ गया कि यह लड़का है या लड़की। लड़की होती तो उस पर दो पतली-पतली चो़टियाँ बहुत खिलतीं, यहाँ वह झबरी थी। पर तुरंत ही मेरे मन ने मुझे टोका-भला यह भी कोई सोचने की बात है, क्यों कि उस बच्ची में कहीं कोई ऐसा दर्द था जो मुझे फालतू बातें सोचने से रोकता था।

यह बिलकुल स्वाभाविक था कि मैं पास जाकर बड़ी शराफत से पूछता, ''क्या बात है बेटी, तू इतनी घबराई हुई क्यों है? तुझे यहाँ कौन छोड़कर चला गया है?'' पर वह न उतनी घबराई हुई थी और न उसे वहाँ कोई छोड़कर चला गया था।
क्यों कि उसके चेहरे पर एक गहरी आशा की दृढ़ता थी, यद्यपि वह आशा इसी बात की थी कि उसका बाप अभी आ जाएगा। इसलिए मैंने पूछा नहीं, पर थोड़ा और पास आकर उसे देखता रहा। मुझे डर था कि प्रैम को हाथ लगाते ही वह रो पड़ेगी, लेकिन एक बार मन हुआ कि उसे ज़रा-सा और पीछे हटाकर फुटपाथ पार कर दूँ, डीजल-इंजिन वाली भौंडी बसों की दहशत मेरे दिल में बचपन से बैठी हुई है, पर फिर यह सोचकर रुक गया कि हालाँकि कोई ड्राइवर कम कुशल होता है कोई ज़्यादा और कोई अपनी बीवी को पीटता है कोई नहीं, पर ऐसा कोई नहीं होगा जो उसे बचाकर नहीं निकल जाएगा।
लड़की ने एक बार मुझे बड़ी घृणा से देखा फिर अपने बाप को देखने लगी। वह सड़क के पार ज़मीन पर कोई चीज़ ढूँढ़ रहा था। मुझे देखकर वह शायद मन में हँसना चाहती थी कि आप यहाँ खड़े संवेदना लुटा रहे हैं पर वह बहुत कमज़ोर थी और उसके चेहरे पर भाव एक अजीब लक्षणा के साथ आते थे जैसे कमज़ोर व्यक्तियों के आते हैं और इसलिए उसका चेहरा और सख़्त हो गया। अब सोचता हूँ कि उसने अपना ध्यान तुरंत मुझ पर से हटाकर खोई हुई चीज़ के मिल जाने पर लगा दिया होगा।

यह स्वाभाविक ही था कि मैं अपमानित अनुभव करता कि मैं तो जैसा कि मुझे बचपन से सिखाया गया है दुखी जनों के प्रति आर्द्र होना- उसपर तरस खा रहा हूँ, और वह मेरी अनदेखी कर रही है, परंतु मुझे इसमें कोई अपमान नहीं मालूम हुआ क्यों कि मुझे उसका स्वाभिमान अच्छा लगा। इस बार मैंने ग़ौर किया तो देखा कि वह बहुत मैले कपड़े पहने थी, कमीज़ के कालर पर मैल की लहरदार धारियाँ थीं मगर चेहरा साफ़ था जैसे उसका बाप लड़की को मुँह धुलाकर बाहर ले गया हो। लगता था जैसे धुलकर उसका मुँह और भी निकल आया है। कमीज़ पर उसने स्वेटर पहन रक्खा था जो चिपककर बैठता था, पूरी बाँह की कमीज़ थी, कफ के बटन बाकायदा लगे हुए थे और इस बार मैंने ग़ौर किया तो देखा कि कलाइयों में बहुत-सी नई चूडियाँ थीं।

मैंने सोचा संसार में कितना कष्ट है। और मैं कर ही क्या सकता हूँ सिवाय संवेदना देने के। इस गरीब की यह लड़की बीमार है, ऊपर से कुछ पैसे जो अस्पताल की फीस से बचाकर ला रहा होगा, उन्हीं से घर का काम चलेगा, यहाँ गिर गए। किसी गाड़ी से टक्कर खा गया होगा। वह तो कहिए कोई चोट नहीं आई वरना बीमार लड़की लावारिस यहाँ पड़ी रहती, कोई पूछने भी न आता कि क्या हुआ। मैंने सचमुच उसके बाप को वहीं से आवाज़ दी, ''क्या ढूँढ़ रहे हो? क्या खो गया है?''
उसने वहीं से जवाब दिया, ''कुछ नहीं, गाड़ी की एक ढिबरी गिर गई है।''

उसकी खोज खतम हो गई थी। वह बिना ढिबरी के इधर चला आया। उसके साथ मैंने परेंबुलेटर के नीचे झाँककर देखा जहाँ गाड़ी की बॉडी और धुरी का जोड़ होता है, जहाँ धुरी हिलगी रहती है, वहाँ का एक बोल्ट बिना नट के था।

मैंने सोचा, बस! मगर इसे ही काफी अफ़सोस बात होनी चाहिए, क्यों कि एक तो गा़ड़ी वैसे ही ढचरमचर हो रही था, ऊपर से इस नट के गिर जाने से वह बिलकुल ठप हो जाएगी, क्या कहावत है वह- गरीबी में आटा गीला- कितना दर्द है इस कहावत में, और कितनी सीधी चोड है, आटा ज़रूरत से ज़्यादा गीला हो गया और अब दुखिया गृहिणी परात लिए बैठी है, उसे सुखाने को आटा नहीं है मगर रोटियाँ नहीं पक सकतीं।

मैंने अपनी तार्किक चतुराई दिखाई, पूछा, ''मगर ढिबरी गिरी कहाँ थी? क्या तुमको ठीक मालूम है यहीं गिरी थी?''
लड़की की मरी-मरी आवाज़ आई, ''गिरी तो यहीं थी, अभी मुझे दिखाई पड़ रही थी, अभी एक मोटर आई उससे वह छिटककर उधर चली गई।''

मोटर के गुदगुदे पहिये से छोटा-सा नट छिटककर कहाँ जाता, पर वह लड़की अपने स्वास्थ्य से दुःखी थी इससे उसका यह गलत अनुमान मैंने क्षमा कर दिया और सड़क के पार गया, उसी जगह मैंने भी ढिबरी को खोजा।

जब खाली हाथ मैं लौट कर आया तो बाप ने कहीं से एक छोटा-सा तार का टुकड़ा खोज निकाला था और बड़ी दक्षता से बोल्ट को छेद में बैठा रहा था और उसे बाँधने की कोशिश कर रहा था। गाड़ी को उसने ज़रा-सा हुमासा तो लड़की जाने क्यों खिसिया गई, पर जैसा कि मैंने पहले बताया, उसके चेहरे पर भाव वैसे नहीं आ सकते थे जैसे तंदुरुस्त बच्चों के आते हैं, इसलिए उसने जल्दी से अपने बाप का कंधा पकड़ लिया और नीचे झाँकने लगी- जैसे अपनी गाड़ी ठीक करने में मदद देना चाहती हो।
मैंने पूछा, ''अब कैसे जाओगे? ऐसे तो यह ठीक न होगी?''
बाप का मुँह दाढ़ी-भरा था और जबड़ा चौड़ा था। उसने गाड़ी के नीचे मुँह डाले-डाले खुरदुरी आवाज़ में जवाब दिया, ''चले जाएँगे।'' और लड़की से कहा, ''बेटे, तू तनिक उतर तो आ?''
बेटी ने बाप के कंधेपर एक हाथ रक्खा, एक से अपने सेब को कस कर पकड़े रही और नीचे उतर कर गाड़ी से कुछ दूर हट कर खड़ी हो गई। मैं बहुत द्रवित हो उठा। बिचारी बीमार है, उसे शायद सूखा हो गया है- या तपेदिक। इससे कम इसे कोई बीमारी होनी ही नहीं चाहिए, और वह खड़ी भी नहीं रह पाएगी, काँपती रहेगी, कहीं गिर न पड़े। हे भगवान, जल्दी से बोल्ट में तार बँध जाएँ।
मगर लड़की सीधी खड़ी रही। सिर्फ़ एक बार उसने नाक सिड़की। बीच-बीच में अपने नंगे पैरों को देखकर पंजे सिकोड़ती रही और अधीरता से गाड़ी की धुरी को देखती रही, यह तो स्पष्ट था ही कि वह अपने बाप की कारीगरी से बहुत प्रभावित हो उठी है। वह बहुत दुबली थी, छड़ी-सी, और साँवली थी, एक नए प्रकार का सौंदर्य उसमें था, वह जो कष्ट उठाने से आता है। पर फिर मेरे मन ने मुझे फालतू बातें सोचने से रोक दिया।
मैंने पूछा, ''यह बीमार है?''
बाप ने लड़की को पुकारा, ''आ बेटे, बैठ जा, ठीक हो गई।''
धीर-धीरे चलकर अपने ढीले पैजामे को समेट कर लड़की परेंबुलेटर में चढ़ रही थी, तभी मुझे गाड़ी के पेंदे में एक छोटी-सी ढिबरी पड़ी दिख गई। झट उसे उठाकर मैंने बाप को दिया, ''यह कैसी है, इससे काम नहीं चलेगा?''
''ओ नहीं जी, ये तो बहुत छोटी है। वो तो मैंने बना लिया जी।''

मैं अपनी करुणा से परेशान था। फिर मैंने पूछा, ''इसे क्या हुआ है?'' और उसके दुखी उत्तर के लिए तैयार हो गया। मैंने सोचा था कि जब वह कहेगा, साहब मर्ज़ तो कुछ समझ में नहीं आता किसी के, तो डॉक्टर हुक्कू का नाम सुझाऊँगा।
बाप हँसकर बोला, ''अब तो ठीक है यह, इसे मोतीझाला हुआ था बहुत दिन हुए, तबसे कमज़ोर बहुत हो गई है। सुइयाँ लगती हैं इसे।''

गाड़ी चूँ-चूँ करके चलने लगी थी। अब लौंडिया को शरम लगने लगी कि इतनी बड़ी हो कर प्रैम में बैठी है।
''कहाँ रहते हो?''
''यहीं, सरकंडा बाज़ार में।'' और अपनी मांसल बाँह उठा कर उसने सरकंडा बाज़ार को इंगित किया जो सामने धूप में चमकता दिख रहा था।
मुझे कुछ न सूझा तो पूछा, ''वहाँ तो रोज़ यहाँ तक आते हो? तब तो बड़ी तकलीफ़ उठाते हो।''

वह हँसा तो नहीं, पर कुछ ऐसे मुस्कुराया जैसे कह रहा हो कि अपनी करुणा का श्रेय लेना चाहते हो तो हमारी व्यथा को क्यों अतिरंजित कर रहे हो। मैंने यह भी पूछा था, ''सुइयों में तो बड़ा खरचा होता होगा।''
वैसे ही उत्तर आया, ''कोई छब्बीस लगवा चुका हूँ, अभी कोई ख़ास फ़ायदा नहीं है। धीरे-धीरे होगा। ३ रु. ६ आ. की एक लगती है।''

अब भी मैं और कुछ पूछना चाहता था क्यों कि मेरा मन कह रहा था कि मेरी काम अभी खतम नहीं हुआ। मगर मैं यह भी देख रहा था कि उस लड़की की व्यथा कितनी सादी थी, मामूली थी, कोई ख़ास बात थी ही नहीं। मैं संवेदना दे सकता था तो अधिक से अधिक देना चाहता था, इसलिए मेरे मुँह से निकला, ''घबराओ नहीं ठीक हो जाएगी लड़की।'' अब सोचता हूँ कि बजाय इसके अगर मैं पूछता, आज कौन-सा दिन है, तो कोई फ़र्क न पड़ता।

बाप ने मानो मुझे सुना ही नहीं। लड़की ने अपने सेब की तरफ़ देखा, पूछा, ''बप्पा?'' बाप ने बड़े प्यार से मना कर दिया।
बीमार लड़की धैर्य से अपने सेब को पकड़े रही। उसने खाने के लिए ज़िद नहीं की। चमकती हुई काली-सफ़ेद चूड़ियों से उसकी कलाइयाँ खूब ढँकी हुई थीं। मुट्ठी में वह लाल चिकना छोटा-सा सेब था जो उसे बीमार होने के कारण नसीब हो गया था और इस वक्त उसके निढाल शरीर पर खूब खिल रहा था।

मैं जल्दी-जल्दी चलकर आगे निकल आया। अब मैं वहाँ बिलकुल फालतू था।

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