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लोक संस्कृति स्थिर व गतिशील होती है 

o लोक संस्कृति स्थिर व गतिशील होती है
केबीएल पाण्डेय का इंटरव्यू

प्रश्न 1 आपके मतानुसार लोक संस्कृति से क्या आशय है?
केबीएल पाण्डेय-काफी समय तक संस्कृति के ऐसे विभाजन हम नहीं देखते हैं, जहां लोक और अभिजात्य संस्कृति में संस्कृति बंटी हुई हो । संस्कृति के अंतर्गत ही हम अपने प्राचीन समय को अपने अतीत में जो उपलब्धियां हमने प्राप्त की हैं, अपने आप को बनाया है, जिस नाम से हम जाने जाते हैं, वह केवल संस्कृति शब्द से परिभाषित होता है। यह अभी कुछ पहले की शताब्दियों पहले ही हमारे यह विभाजन हुए हैं। विशेष रूप से जब से अंग्रेजी का 'फोक कल्चर' शब्द का अनुवाद हमारे यहां होने लगा और वह लोक संस्कृति के रूप में हुआ तो हम ने लोक संस्कृति को अलग से वर्णित करना या विवेचित करना शुरू कर दिया। उसे पढ़ना शुरू कर दिया। हालांकि हम यह देखते हैं कि लोक संस्कृति के बर अक्स अभिजात संस्कृति को हम अलग से नहीं देख पाते हैं जब भी हम लिखते हैं तो हमारे पास लोक संस्कृति के बारे में ,कहने को, बताने को और लिखने को बहुत कुछ होता है। लेकिन हम यदि अभिजात्य संस्कृति के अंतर्गत कुछ कहना चाहें तो हमें संस्कृति के बदले में सभ्यता के बारे में ही कहना पड़ता है यानी सभ्यता के बारे में ही हम कहने लगते हैं । अर्थात सांस्कृतिक तात्विक रूप से लोक और अभिव्यक्ति का विभाजन अभी भी नहीं है और होता भी नहीं है । क्यों? इसलिए कि संस्कृति जीवन के परिष्कार के उद्देश्य से मानवीयता की वह निष्पत्ति है, जिसमें जीवन के व्यापक आयतन में निर्मित मूल्य बोध निहित होता है। इस रचना की लता में मनुष्य की भौतिक और मानसिक उपलब्धियों का कौतुक कौतूहल उत्पन्न करता विराट संसार होता है । लेकिन धीरे-धीरे जब हमारी सभ्यता में लोक और अभी जाति का अंतर आने लगा । लोक शब्द तो पहले अपने आप में बहुत व्यापक था और लोक को ही हम हिंदी में लोग कहने लगे हैं। लोक शब्द बहुत व्यापक था, लोक का एक अर्थ हिंदी में संसार भी होता था, कोई निश्चित या सीमित आवादी नहीं होती थी । बल्कि लोक का मतलब संसार भी होता था और इसीलिए हम अपने शंकर को त्रिलोक का स्वामी कहते थे, त्रिलोकीनाथ भी कहते हैं और विष्णु को भी इसी तरह लोकपति कहते हैं। लोकपाल भी कुछ देवों को कहा जाता है। इसी तरह हमने लोको को बांटा हुआ था। धीरे-धीरे लोक शब्द संकीर्ण अर्थ में आता गया और लोक का अर्थ हमने वह भूभाग मान लिया जहां से हम आरंभ हुए थे ,जहां से हम शुरू हुए थे । धीरे-धीरे हमने सभ्यता के अंतर्गत विकास किया और संस्कृति के वे आदर्श निर्मित किए जो किसी भी मनुष्य समाज के लिए जरूरी होते हैं । परिष्कार किया हमने और उसे संस्कृति कहा गया ।
दो शब्दों में प्रायः बड़ा अंतर ना करके लगभग एक जैसा मान लिया जाता है और वह है संस्कृति और सभ्यता। हालांकि दोनों बहुत निकट है फिर भी उनमें एक आधारभूत अंतर है । यह कहा जाता है कि सभ्यता वह है जो हम दिखाई देते हैं और संस्कृति वह है जो हम हैं । यह दोनों ही शब्द होते हैं और हैं, काफी अच्छी तरह से हमें डिफाइन कर देते हैं और हमें मालूम होने लगता है कि हमने जो ऊपर से प्राप्त किया है या हमने उपकरणों के रूप में अपने जीवन को उच्च बनाया है ,बहुत ही रूप से समृद्ध बनाया है। वह सब हमारी सभ्यता के अंतर्गत आता है। जो हमने जो आदर्श निर्मित किए हैं, जीवन के मूल निर्मित किए हैं , जिनके लिए हमें काफी परिश्रम ही नहीं बल्कि त्याग करना पड़ा है। जिसके लिए हमें श्रम ही नहीं बल्कि ऐसे दौर से गुजरना पड़ा है जहां हमारी परीक्षाएं होती रही हैं और उससे धीरे-धीरे हमारी संस्कृति बनती रही है।
लेकिन लोक संस्कृति के सन्दर्भ को आज वैसे तो कह दिया जाता है कि लोक संस्कृति बहुत व्यापक है और वह शहरों तक में पहुंचती है , वहाँ रहती है। लेकिन वास्तव में हम बात करते हैं तो लोक संस्कृति को आज उदाहरण के रूप में भी और परिभाषा के रूप में भी, हम उस आबादी को के रूप में मानते हैं जो काफी समय से चली आ रही है। जिसमें परंपराएं हैं ।जिसमें अपने पारंपरिक जीवन हैं।जीने का माद्दा चला आ रहा है। जिसमें हमारा शताब्दियों का ही नहीं बल्कि सहस्त्र वर्षों का समय लगा हुआ है। इसमें हमारे उद्यम हैं । जिसमें हमारे हर्ष गान हैं। हमारे तौर तरीके हैं ।रीति रिवाज हैं ।जीवन का शिल्प है और हमने जो कुछ जीवन का शिल्प आदर्श के रूप में प्राप्त किया है वह है। ममता है ।दया है। करुणा है ।यह सारी चीज जहां हैं उतने का प्रतीक म मान करके हम प्रायः गांव को तो ना कहें हम लेकिन उस आबादी को संस्कृति के अंतर्गत लेते हैं जो पारंपरिक जीवन जी रही है और जिनको हम अभिजात्य वर्ग के अंतर्गत अब भी नहीं रख पाते हैं। हालांकि ऐसी आबादी केवल गांव में सीमित नहीं है ।
प्रश्न 2- लोक संस्कृति में क्या सिर्फ गांव में रहने वाले लोग ही शामिल होते हैं? शहर में रहने वाले लोग सम्मिलित नहीं होते!
केबीएल पाण्डेय-लोक संस्कृति को गांव की संस्कृति नहीं कहना चाहिए । क्योंकि हमारे शहर भी अभी ऐसे आभिजात्य नहीं बन पाए हैं जहां पूरे के पूरे शहर भौतिक रूप से समृद्ध हों, यानी पश्चिम से डूबे हुए हो। मुंबई, दिल्ली, कोलकाता जैसे बड़े-बड़े महानगरों में भी वह आबादी रहती है जो श्रमिक आबादी है। जो पारंपरिक जीवन जीने वाली आबादी है। जो गांव से और छोटी जगहों से वहां पहुंच कर के अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। तो अपने तौर-तरीके लिए हुए हैं ।अपनी आधारभूत उनकी जो संस्कृति है वह भी लिए हुए हैं ।इसलिए लोक संस्कृति केवल गांवों तक सीमित ना होकर शहरों के भी कुछ भागों में चली जाती है। इसे हम लोग संस्कृति के रूप में व्याख्या कर सकते हैं। शहर का वह वर्ग जो अभी वह जीवन जी रहा है ।जो अभिजात्य वर्ग का जीवन कहलाता है और जिनके जीवन जीने के शिल्प में तो बाहरी पन काफी आ गया है। लेकिन लेकिन आप एक बहुत आश्चर्यजनक बात देखते होंगे , कि बहुत बड़ा अभिजात्य वर्ग के लोगों (हम उसे अगर नाम से कहना चाहे तो बड़े उद्योगपति, बड़े सिनेमा के कलाकार और इसी तरह के बड़े-बड़े वर्गों के लोग जो पूरी तरह से पश्चिम का जीवन जी रहे हैं और भौतिक जीवन में पूरी तरह अभिजात्य हैं ) को जब संस्कृति के तौर तरीके निभाने होते हैं तो अपनी संस्कृति के पास ही चले आते हैं। तब हमारी लोक संस्कृति और अभिजात संस्कृति में बहुत ज्यादा फर्क नहीं होता है । उदाहरण के लिए चाहे शादियां हो रही हों तो भव्यता उसमें चाहे जितनी आ जाए लेकिन कुछ रीति रिवाज हमारी जो संस्कृति है , उसने हमें दिए, वे उस अभिजात वर्ग में भी निभाए जाते हैं ,जो अपने लोक में बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने आप स्वाभाविक रूप से चले आते हैं। जब हमें देवाराधन करना होता है तो वे अभिजात्य वर्ग के लोग भी उसी तरीके से करते हैं। उनके पास उपकरण काफी हैं और संपदा काफी है उनके पास। बस अर्पित करने वाले द्रव्य अलग हो जाते हैं। हम बताशे चढ़ाते हैं और वे करोड़ों रुपए की मिठाई चढ़ाते हैं । यही है तो संस्कृति में कहीं ना कहीं एक तात्विक एकता तो रहती है। कुछ समय तक जब मैंने प्रवासी भारतीय लेखकों का अध्ययन किया और प्रवासी भारतीय साहित्यकारों का साहित्य पढा, तो उसमें भी यह पाया कि वे रह तो रहे हैं विदेश में एक दूसरी संस्कृति में, मन उनका अटका हुआ रहता है कहीं ना कहीं मूल संस्कृति में । एक बहुत बड़ी कथाकार हुई हैं जो अब दिवंगत हो गई हैं-सुषम वेदी! उन्होंने अपने एक उपन्यास में लिखा है कि हम आर्य समाजी लोगों को जब हवन करना होता है तो लोहे का एक तवा जैसा रख लेते हैं , क्योंकि वहां आग जलाना तो निषेध है । इसलिए तवा जैसा रख लेते हैं और उसके ऊपर हवन करते हैं। यानी उनका वह सांस्कृतिक लगाव जो यहां से है उसमें हम लोग और आभिजात्य का विभाजन ना करें। लोक क्योंकि वह बेसिक है, आधारभूत है, वहां लोक और अभिजात अलग अलग होता ही नहीं है, तो वह भी इस तरह अपने सांस्कृतिक जीवन को निभाते रहते हैं ।
प्रश्न 3-आज की रचना भाषा बुंदेली की बात करें, तो बुंदेली में प्रेम-प्यार, तीज-त्यौहार, प्रकृति वर्णन, व्यक्ति के अलावा क्या निर्देश व नीतिगत मुद्दों पर साहित्य की कोई परंपरा मिलती है?
केबीएल पाण्डेय- हां ऐसी परंपरा मिलती है। इसको इस तरह समझा जा सकता है कि आपने जो शब्द शब्द कहे यानी प्रेम प्यार तीज त्यौहार , प्रकृति वर्णन, जीवन के तत्व यही होते हैं और ये सब लोक प्रकट कर रहा होता है । यहां तक कि हम देखें कि हमारे यहां जिसको शिष्ट साहित्य कहा जाता है वहाँ भी है। यह विभाजन कुछ लोगों ने कर लिया है दरअसल यह विभाजन लोक के लिए अपमानजनक है, यह शब्द शिष्ट यानी लोक अशिष्ट जब हम शहर को शिष्ट कहते हैं तो इसका मतलब है गांव अशिष्ट है। ऐसा नहीं है, जबकि ऐसा वास्तविकता में है ही नहीं । क्योंकि जितना ज्ञान किताबों के माध्यम से और अन्य माध्यमों से शिष्ट समाज में पहुंचता है वैसा ज्ञान डिस्कवरी, खोज का, अविष्कारों का और नया-नया तो अलग होता है। लेकिन जीवन का जो तात्विक ज्ञान है वह लोक में भी है, जिसे हम लोक कहते हैं उसमें भी कम नहीं होता। इसी अनुभव से सारे मुहावरे बने हैं। शिष्ट साहित्य ने हमें इतनी मुहावरे नहीं दिए, जितने लोक ने अपने हमें मुहावरे और कहावतें दी हैं ,पहेलियां दी हैं, शब्द दिए हैं।जो क्रियात्मक शब्द हमें लोक ने दिए हैं वे तो शिष्ट साहित्य को अनुवाद करके दूसरी भाषाओं से लाने पड़े। तो यह दिशांतर तो नहीं है, विषय से जुड़ी हुई बात है। लेकिन जो शब्द आपने कहे हैं वे हमारे जीवन के प्रमुख अंग होते हैं ।इसलिए लोक साहित्य में इनका वर्णन काफी हुआ है। मनुष्य का एक सवाल है कि वह दुखों के दौर से गुजर कर किसी ना किसी तरह सामान्य होना चाहता है, अगर प्रसन्न नहीं तो उसकी प्रवृत्ति निरंतर दुखी होने की नहीं है । क्योंकि वह उसे बाहरी कष्ट नहीं पहुंचाता, बल्कि आंतरिक कष्ट भी पहुंचाता है । इसलिए हमने हर्ष और हमारे यह जो पर्व और त्यौहार हैं इनमें भी प्रसन्नता पर आयोजन करना शुरू कर दिए हैं । उल्लास हमारे जितने भी उपलक्ष्य हैं ,जीवन से प्रेम हो और यह सब हो तो होता ही है और उसमें बहुत कुछ लिखा भी गया है। लेकिन उसके अलावा हमारे बुंदेली लोक साहित्य में और साहित्य की भी परंपरा रही है । उदाहरण के लिए सभी समाजों में साहित्य की पहली विधा रही है कविता। दुनिया के सारे समाजों में इसी तरह हमारे बुंदेली समाज में भी कविता से शुरुआत हुई । इसके बाद हम देखते हैं तो गद्य का प्रयोग काफी बाद में हुआ है। कुछ शोधकर्ताओं ने लिखा है कि गद्य हमारे यहां बहुत पहले से था और बुंदेली का गद्य था, जिनमें राजा जो फरमान देते थे, वे लोगों को भेंट देते थे, वे माफीनामा देते थे या दूसरी जगह पत्र भेजते थे, उनमें बुंदेली का ही प्रयोग है। बुंदेली का प्रयोग तो उसमें है। मैं अपने ज्ञान से यही बता रहा हूं कि वह सब गद्य बुंदेली नहीं है । उस समय की भाषा वह भाषा थी, जिसको हरिहर निवास द्विवेदी ने ग्वालियरी कहा और जिसे पहले या बाद में भी ब्रजभाषा कहा जाता था । इन सबका एक मिश्रण जैसा था । वह बुंदेली तो नहीं थी, लेकिन हां , बुंदेली का गद्य की छांव में किस्सों में , कथाओं में पहले श्रुति रूप में रहा, मौखिक रूप में चलता रहा । अलाव के चारों तरफ लोग बैठ गए और कहानियां कहने लगे। यह कहानियां जो थी, वह काफी की कहानियां नहीं थी, गद्य था । तो पहले मौखिक रूप से गद्य का प्रयोग होने लगा और फिर लिखित रूप से वह कथाएं लिखी जाने लगी। जब लिखने का और साहित्यिक रूप से लिखे जाने का प्रयोग होने लगा तो गद्य का भी प्रयोग हुआ । हमारे पास मौजूद परंपराओं में एक तो यही परंपरा है कि कथाओं के रूप में यह चीज नहीं है। क्योंकि पर्व की जो कथा वह अलग हैं, त्योहारों और व्रतों की जो कथाएं हैं वह अलग हैं । बुंदेली में पारंपरिक रूप से ऐसे उपलक्ष कई होते हैं। तुलसी में पहली बार मिलते हैं । गाय ने बच्छा दिया हो तब गड़ा दिए जाते हैं । वह गड़ा सूत के होते हैं, उनमें गांठ लगती चली जाती है और जितने दिन के भी होते हैं इतने दिन शाम को बैठकर महिलाएं कहानी कहती सुनाती हैं -एक एक किस्सा कहती जाती हैं और वह किस्सा गद्दी में होते हैं । यह परंपराएं बुंदेली में चलती रही हैं हालांकि उसे हम गद्य की परंपरा के अंतर्गत रख तो सकते हैं , लेकिन विधा के अंतर्गत नहीं विधा के अंतर्गत दूसरी तरह की तरह की चीज आती है ।
इसके अलावा भी हमारे यहां जो लेखन की परंपरा है वह तथा दूसरी कलाएं जो हमारे जीवन में और हमारे जीवन यापन में काम देती हैं, उन पर भी और आयुर्वेद वगैरह में भी बुंदेली में काफी काफी किताबें लिखी गई हैं। एक यह परंपरा भी चलती है, हालांकि हम ऐसी परंपराओं को वर्तमान से तो नहीं जोड़ पाते हैं । हमारे पास बहुत समय तक विज्ञान और इतिहास वगैरह की किताबें नहीं थी , इतिहास लेखन हमारे यहां बुंदेली में हुआ है और बुंदेली में भी इतिहास लेखन की परंपरा भी रही है । इस तरह हम पाते हैं कि गांव रूप में ही हो लेकिन इनके अलावा भी काफी कुछ लिखा जाता रहा है।
वैसे हम शिष्ट साहित्य में देखें तो यही विषय हमें आरंभ में शिष्ट साहित्य में भी मिलते हैं। जो कि आपने शुरू में कहे हैं- प्रेम-प्यार, भक्ति, प्रकृति वर्णन ,तीज-त्यौहार वगैरा-वगैरा । तो हमारे यहां एक और परंपरा रही है, जो विधाओं की परंपरा के अंतर्गत विषय की परंपरा भी हो जाती है जैसे हुई प्रशस्ति की परंपरा । जो वीरगाथा काल में हम हिंदी साहित्य में पढ़ते हैं , वह प्रशस्ति की परंपरा उन्होंने लिखी जो राज्य आश्रित कवि रहे हैं और जिन्होंने राजाओं की प्रशस्तियां लिखी हैं ,अपने आश्रय दाताओं की प्रशस्तियां लिखी हैं, तत्कालीन बादशाह की भी लिखी हैं ।
अनेक अनेक तरह से लिखा तो जाता रहा है,पर वह हमारे प्रमुख साहित्य में नहीं आ पाया।
प्रश्न 4 -साहित्य के नाम पर आज बुंदेली में जो कुछ लिखा जा रहा है उसने आप संतुष्ट हैं?
के बी एल पाण्डेय- वर्तमान में जो बुंदेली लोक साहित्य के नाम पर लिखा जा रहा है उसे मैं लगातार पढ़ रहा हूं , काफी कुछ मेरी दृष्टि में आ रहा है ,क्योंकि मेरा एक रुचिकर विषय वह भी है । लेकिन मुझे थोड़े संकोच के साथ यह कहना पड़ेगा और बिना किसी को आहत किए हुए कहना पड़ेगा कि अभी भी वह नहीं लिखा जा रहा है, जो हमें बुंदेली भाषा का विकास करते हुए और नए विषयों से जोड़ना चाहिए था । हमने बड़ी-बड़ी पत्रिकाएं देखी हैं जो बुंदेली पर निकलती हैं ,बहुत पत्रिकाएं निकलती हैं ,लोक साहित्य पर निकलती हैं ,मध्यप्रदेश में तो संस्कृति विभाग के अंतर्गत लोक का एक प्रभाग ही बना हुआ है और उस में बहुत काम किया गया है। विभिन्न अंचलों के लोग का बहुत काम किया गया है, बुंदेली का भी बहुत काम किया गया है ,बुंदेली पर कई विश्वविद्यालयों में पीठ भी बनी हुई हैं , लेकिन इतना सब होने के बाद भी हम नए विषयों पर लिखा हुआ बहुत ज्यादा नहीं पाते हैं । हम या तो आभूषणों का वर्णन कर रहे होंगे जो पहले पहने जाते थे या हम त्योहारों का वर्णन कर रहे होंगे रीति-रिवाजों का वर्णन कर रहे होंगे , या व्यंजनों का वर्णन कर रहे होंगे जो खाए जाते थे, यानी लोक को हमने सुरक्षा या संग्रहालय की वस्तु मान लिया है । शायद वह विकासशील नहीं है । जो हो चुका है बस वही है लोक साहित्य। इसलिए हम कथा लिखते हैं तो गांव की, माते की, कहीं किसी चौपाल की कहीं पुराने संबंधों की; कि एक पिता था, उसके तीन चार लड़के थे , वे काम नहीं करते थे, फिर ऐसा हुआ कि पिता ने उन्हें अपने पास बुलाया और उन्हें कुछ सिक्के दिए कि दुगने करके लाओ या कोई समस्या बताई जिसे हल करके लाओ। कुछ कथाएं , किस्से, जिन्हें हम बरसों से सुनते आ रहे हैं, हम उन्हीं चीजों पर अटके हुए हैं और नए विषयों को छूते नहीं है। आज हमारे सामने कितना नयापन आ गया है ,कितना परिवर्तन हम देख रहे हैं, जीवन में सारे आयामों में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ है यानी हमें लगता है कि ब्रह्मांड नितांत बदल चुका है नित्य बदल रहा है और इस तरह के बदलाव के साथ अगर हम लोक के संप्रेषण को लेकर नहीं चलेंगे ,लोक की भाषा को लेकर नहीं चलेंगे तो हमारा लोक वही जैसा कि मैंने कहा संग्रहालय की वस्तु बना रहेगा । हम अगर उसमें कोई कविता भी लिखते हैं , तो उसका विषय वही ग्रामीण जैसा होता है, जो पूरी तरह से सही नहीं है । लेकिन हां अधिकतर हम लोक साहित्य के नाम पर वही सामग्री पाते हैं, और उसमें नए विषय नहीं जोड़े जा रहे।

प्रश्न 5 लोक साहित्य में ऐसा क्या तत्व होता है जो उसे समकालीन बनाता है
केबीएल पाण्डेय-भाषा का रूप सम्मिलित होता है । बुन्देली पर काफी काम करने वाले टीकमगढ़ के विद्वान हैं श्री गुणसागर सत्यार्थी। वे हमेशा यह बात उठाते रहते हैं कि हम भटकी हुई बुंदेली को ही बुंदेली समझ बैठे हैं और हम विकार वाली भाषा का उपयोग कर रहे हैं। भाषा विज्ञान में किसी भी तरह का विकार का उल्लेख नही है। भाषा का विकास या विकार यह दो चीजें मानी जाती है। इसी को परिवर्तन माना जाता है। भाषा खराब हो गई ,भाषा अशुद्ध हो गई या भाषा ऐसी हो गई ऐसे जुमले भाषा विज्ञान में नहीं चलते। तो इसको अब शब्द दिया जाता है कि भ्रंश है या प्राकृत है। यह तो उस समय के नाम थे । विकास और विकार तो भाषा में होता ही है और हम स्वतंत्र रूप से देखते हैं कि हर भाषा में कोई ना कोई शब्द जुड़ता रहता है, अभिव्यक्ति का तरीका बदलता रहता है । हमको इसी तरह भाषा की दृष्टि से आगे बढ़ना होगा। आगे बढ़ने का मतलब मेरा यह नहीं है उसमें तत्सम शब्द डाल दें या उसमें दूसरी भाषाओं के शब्द जबरदस्ती डाल दें। स्वाभाविक रूप से उसमें परिवर्तन होता है। हम आज देखते हैं कि ग्रामीण जनता भी ऐसे प्रयोग करती है। हम लोग घुमा फिरा कर गांव पर ही पहुंचते हैं , हम उदाहरण देते हैं तो गांव की ही बात करते हैं और जब कविता की बात आती है तो भी गाँव की तरफ देखते हैं-चाहे ईसुरी की फाग हो, चाहे किसी और की फाग हो , चाहे किसी और का मुहावरा हो, चाहे किसी की कहानी हो, बुंदेली की प्रचलित काव्यावली में से ही उदाहरण हमें वही देते हैं जो पहले से हैं ।
हालांकि व्यापकता बहुत है उसमें। इसका निपटारा शायद हो गया हो, हमने तो कई जगह यह सवाल उठाए हैं सभाओं में , कि आखिर अब बिल्कुल निश्चित रूप से परिभाषित कर ही दिया जाना चाहिए कि लोग कैसे कहां क्या बोलें और लिखें । हम देख रहे हैं कि विश्व भाषा यानि बुंदेली के ही नहीं हिंदी से भी बाहर के शब्द गांव की जनता भी इसी रूप में बोल रही है। थोड़ा बहुत बदल के उनके अपने रूप भी बदल जाएंगे ,उनके अपने अर्थ भी बदल जाएंगे। उदाहरण दूं ममैं एक बड़ा मजेदार रोचक उदाहरण है। गांवों में एक शब्द तैरता हुआ गया- वातावरण! हम इसको इस अर्थ में कहते हैं कि आसपास का जलवायु होता है वह शब्द वातावरण है , पर गांव वाले जब आपस में बात करते हैं तो कहते हैं "भैया हमाओ उनसे बातावरण होगओ। माने झगड़ा होगओ।'
देखिए इसका क्या कारण है ? मूल शब्द है बात ! ग्रामीण जानते थे कि बात से बना है बातचीत , तो वातावरण शब्द में उन्होंने वात को बात ही समझा, यानी बातचीत हो गई तो झगड़ा हो गया और उन्होंने गर्म बातचीत को वातावरण ही समझ लिया। इस तरह शब्द और उनके अर्थ स्थान परिवर्तन से बदलते रहते हैं । तो नए शब्द भी गांव में पहुंचते ही हैं। वे हमारी भाषा के भी होते हैं और बाहर के भी होते हैं। इस तरह लोक भाषा का विकास होता रहता है । हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि एक और अभियान चला था, बुंदेली के एक बड़े सज्जन ने चलाया था कि "मानक बुंदेली का रूप निर्धारित किया जाए !" मानक बुंदेली के पक्ष में भी में कुछ लोग थे, उसका विरोध करने वाले बहुत लोग थे।
हमारा कहना है कि हम किसी लोक भाषा के मानक रूप को आदेश देकर नहीं पढ़ा सकते। बोलियां अपने आप मानक होती चली जाएगी, तो होती जाए । हम कोई भाषा के सम्राट नहीं है कि हम आदेश देंगे और विभाषा चलने लगेगी। भाषा अपने आप विकसित होती है । इस तरह एक तत्व तो हुआ भाषा का और एक तत्व हुआ विषयों का । अब देखिए हम आज एक नए युग में रह रहे हैं। यह हमारा नया युग विज्ञान का युग है। यह हमारा युग नए नए उद्योगों का युग है, यह हमारे नए-नए ज्ञान के वाहनों का युग है और इन सब को हम अगर नहीं स्पर्श करेंगे तो हमारा लेखन कैसे सुरक्षित रह पाएगा विज्ञान को और ज्ञान को। मैंने बार-बार यह कहा है कि बुंदेली में विज्ञान का कोई लेख क्यों नहीं लिखा जा रहा है ? बुंदेली में जो साधारण ज्ञान का विषय है, पर्यावरण हैं ,पारिस्थितिकी है ,इन पर बुंदेली में क्यों नहीं लिखा जा रहा है? और विषय पर अगर लिखा जाएगा, तो फिर हम वहीं पहुंच जाएंगे, लिखेंगे -हमारे गांव में वातावरण और पर्यावरण बहुत अच्छा है ,बहुत अच्छी हवा है,। वास्तविकता यह है कि कई गांवों में घुसते ही तो नाक बंद करना पड़ती है, काहे की हवा, काहे के शुद्ध पर्यावरण? सब कुछ बदल चुके हैं। तो हमें समकालीन तक आने के लिए नए विषयों को भी बुंदेली के माध्यम से प्रकट करना होगा । दूसरी एक और चीज है जिसमें हमें बुंदेली में समकालीनता से जुड़ना चाहिए और वे हैं हमारी कलाएं। कलाओं के नाम पर बुंदेली में अभी जो दो-चार पारंपरिक नृत्य हैं वे गौरवशाली हैं ।मुझे यह कहने में संकोच नहीं होता है कि प्रदर्शन के कारण और व्यावसायिकता के कारण हमने उन चीजों को भी नृत्य के रूप में प्रदर्शित करना शुरू कर दिया है, जिन के साथ वास्तव में कोई नृत्य नहीं होते। मामुलिया में बुंदेलखंड में कोई ऐसा नृत्य नहीं किया जाता जो नृत्य की वास्तविक परिभाषा में आता है, इस त्यौहार में, व्रत में लड़कियां फूलों का झाड़ लेकर निकलती हैं, उनका पूरा अपना पर्व होता है। लेकिन उसमें कोई नृत्य नहीं होता। हम नृत्य के नाम पर कुछ पाते हैं तो बुंदेलखंड में राई । राई नृत्य ही ऐसा है जो हमें विशिष्ट बनाता है । इसके अलावा हमारे कुछ नृत्य ऐसे हैं जो सामूहिक रूप से नहीं होते हैं- जैसे जातीय अवसरों पर विवाह वगैरह में किए जाने वाले नृत्य हैं। जिनमें ढिमरयाई एक नृत्य है । एक काडरा होता है, जिसमें कृष्ण का रूप बनाकर के नाच आ जाता है। ऐसे बहुत अच्छे नृत्य हमारे बुंदेलखंड में मौजूद हैं जिनको उतना समर्थन नहीं मिल पाया। क्योंकि युग हो गया है, समय हो गया है, हम पर दवाब है व्यवसायिकता का, प्रदर्शन का और इसीलिए हमें अपनी कलाओं के रूप बदलना पड़े। क्योंकि हमें मंच पर स्टेज पर उन्हें प्रदर्शित करना था। राई नृत्य की बात करें ,इस नृत्य में सबसे ज्यादा बेग होता है नृत्य का ,गति का । बड़ी तेजी के साथ नृत्यांगएं नाचती हैं , यहां से वहां तक हंड्रेड मीटर की दौड़ सी लगती है । उसके साथ में ही एक मशालची होता था, वह मशाल लिए होता है , क्योंकि नृत्यांगना अपने चेहरे को ढके रहती है, प्रकट नहीं करती, एक झीना सा आवरण चेहरे पर रहता है ,घूंघट डाले रहती है तो उसके चेहरे को देखने के लिए वह मशालची उसके आसपास ही दौड़ता रहता है ,चलता रहता है। एक जोकर होता था । अब अग्नि की लप-लप आती मशाल लेकर तो मंच पर जा नहीं सकते, इतने अधिक दर्शकों के बीच में , इतने कागजों-कपड़ों से ढके सजे मंच पर अग्नि का प्रवेश या प्रदर्शन स्वीकृत नहीं किया जा सकता, इसलिए मशाल को हटा दिया गया । वह जोकर पारंपरिक रूप से इसे करता था । हमारी कलाओं में परिवर्तन इस तरह से हो रहे हैं। यह सब व्यवसायिकता के कारण हो रहे हैं। अपने आप जो परिवर्तन होने चाहिए थे वो नहीं हुए। जैसे हमारे शास्त्रीय गायन में, शास्त्रीय संगीत में , शास्त्रीय नृत्य में, अन्य शास्त्रीय कलाओं में जो मंचीय कलाएं हैं, इनमें निरंतर विकास होता रहा है। एक शास्त्रीय राग आज वही नहीं है जो मानसिंह तोमर के समय में चला होगा। तोड़ी और अन्य राग जिनका मृगनैनी अभ्यास करती थी, उसके अभ्यास में आए थे , तो उनमें और टुकड़े जोड़े जाते रहे। कत्थक में देखें तो कत्थक आज वही नहीं है जो पहले था। जाने कितनी भंगिमाएं, पूरे अंग प्रदर्शन, कलाएं जुड़ती रहीं। कलाओं के विकास इस तरह से हुए । लेकिन आज एक नया विकास हो रहा है ।
बुंदेली के समतुल्य हम दूसरी भाषा देखें तो भोजपुरी ने काफी विकास किया है। भोजपुरी सिनेमा के इतने दर्शक उनको मिलते हैं कि भोजपुरी का सिनेमा उद्योग चल रहा है । बुंदेली की फिल्में बनती रही हैं ,लेकिन दो चार फिल्मों का ही नाम हम सुनते हैं और वे भी कुछ सीमित दर्शकों के बीच में दिखाई जाती हैं और पूरी हो जाती हैं । हमें समकालीनता में कलाओं को और समकालीनता में ज्ञान और विज्ञान को व अन्य विषयों को लेना पड़ेगा, इन पर बुंदेली में लिखना पड़ेगा, और बुंदेली को केवल आंदोलन के तौर पर नहीं ले जाना पड़ेगा कि आठवीं सूची में आप बुंदेली को जोड़ो ।
इस आठवीं अनुसूची में जुड़ जाने से कुछ लोगों को जरूर लाभ हो जाएगा कि उन्हें कुछ पुरस्कार मिल जाएंगे और किसी को कुछ और मिलेगा। जिनमें हमारा शासकीय संरक्षण भी मिल जाएगा । लेकिन भाषा, साहित्य, कलाएं जीवित तो तब रहती हैं जब जनता के बीच पहुंचती हैं और जनता का प्यार उन्हें मिलता है । इसलिए जनता जब तक उसे आगे बढ़ाने में अभियान नहीं छोड़ेगी, हम समकालीनता से नहीं जुड़ पाएंगे। समकालीनता का मतलब हमारा आज का वर्तमान है । आज का वर्तमान हमारा काफी जटिल वर्तमान है । इसमें बहुत सारी चीजें हैं ।इसमें राजनीति भी है। जिसमें समाज भी है। जिसमें आध्यात्मिकता भी है । जिसमें हमारे खेलकूद भी हैं । जिसमें अंतरराष्ट्रीय पारस्परिक का भी है। जिसमें यातायात इतना ज्यादा बढ़ गया है जिसमें यातायात के साधन हैं ।हमारे पास क्या इन सब के लिए कोई उपयुक्त शब्द है ? इन सब के उपयोग के लिए शब्दों का उपयोग करते हुए पात्र हैं ? हमारे पास क्या इन सब की कथाएं हैं ?अपनी भाषा में है क्या तब हम समकालीन हो पाएंगे।
प्रश्न 6 समकालीन बुंदेली या आंचलिक रचनाकारों से आप क्या कहना चाहेंगे !
केबीएल पाण्डेय-अभी तक मैंने जो कहा है वह यही कहा है कि उनके लेखन में वह सब होना चाहिए। बुंदेलखंड के लेखकों को पारंपरिक भी रहना है, क्योंकि लोग की सत्ता अपनी जगह होती है। परंपरा अनिवार्य तत्व है लोक का और लोक का एक और चरित्र होता है जिसके बारे में मैंने अपने लेख में लिखा था। उसका एक और चरित्र होता है। अगर कुछ अंग्रेजी के शब्दों को प्रयोग करने की अनुमति मिले तो मैं कहूंगा कि लोक स्थैतिक भी होता है और काइनेटिक भी होता है। जिसको हम एनर्जी, जिसको हम ऊर्जा कहते हैं वहनदो रूपों में होती है । एक तो होती है वह स्थितिशील और दूसरी होती है वह गतिशील। इन्हीं को हम अंग्रेजी में स्टैटिक और काइनेटिक कहते हैं। जब हम स्टेट एनर्जी को काइनेटिक यानी स्थिर ऊर्जा को गतिशील ऊर्जा में परिवर्तित कर देते हैं तो गति आ जाती है, परिवर्तन आ जाता है। आप इसका उदाहरण इस तरह से ही लगा सकते हैं कि ऊर्जा का एक माध्यम है पेट्रोल और जब तक पेट्रोल स्थिर है तो कुछ नहीं है, लेकिन जब हम जब हम कोई यंत्र बनाकर उसके अंदर डाल देते हैं और इस तरह जब हमने उस पेट्रोल के जलने से उस यंत्र के माध्यम से काइनेटिक एनर्जी का उपयोग करने वाला बना दिया तो गति पकड़ गया। उस एनर्जी में परिवर्तन हो गया। हमारा लोक ऐसा ही होता है। खासतौर पर हमारे बुंदेली लोक में हम बड़े परिवर्तन देखते हैं। वह स्थितिशील भी है। वह स्थितिशील इस मायने में है कि वह परंपराओं का पूजक है। वह बड़ी मुश्किल से रूढ़ियां छोड़ता है । कुछ-कुछ जीवन के आयामों में इसके उदाहरण हमें बड़े व्यापक रूप से मिलते हैं कि वह कोई तर्क नहीं मानेगा, कोई कदर नहीं मानेगा ।वो तो परंपरागत है। परंपरा यानी रूढ़ियों में जो मानता चला आ रहा है ,वह उनको मानता चला जाएगा। क्यों कि हजारों वर्षों के विश्वास उसके दिमाग में जुड़े हुए हैं । एक तरफ स्थिरशील भी है। आज भी हम यही कहते हैं । उदाहरण के लिए बुंदेलखंड में महालक्ष्मी व्रत के दिन जो हाथी की पूजा होती है या दिवाली के दिन लक्ष्मी जी की पूजा होती है तो उसमें जो जो उपकरण लगते हैं और वे उपकरण हम परंपरा से निभाते चले आ रहे हैं। इस पूजा में उस चीज का भोग लगता है तो वही भोग लगेगा, चाहे हमारी वस्तुएं बदल गई हों , चाहे समाज और जमाना बदल गया हो। जैसे अभी भी हम शादियों में बताशा का उपयोग करते ही चले जाते हैं ,भले ही इस बीच नए आविष्कारों में लड्डू बन गए हों, चाहे कुछ और बन गया हो । तो मतलब यह हुआ कि एक तरफ हम लोक के रूप में बुंदेलखंड में अपनी परंपरा से भी जुड़े रहते हैं यानी स्थिर शीलता से भी जुड़े रहते हैं और दूसरी तरफ जब हमें लगता है कि बदलता जीवन जीने का समय आ गया है तो हम काइनेटिक हो जाते हैं। यानी गतिशील ऊर्जा में परिवर्तित हो जाते हैं। यहां हम परिवर्तन देखते हैं ।अब हम देखते हैं कि भैया महाकाल के दर्शनों को तो हम नहीं जा पा रहे तो हम अपने घर में बैठकर यही कह देते हैं कि ' जय हो महाकाल ! जय हो आपकी! हमारी तो इत ही से विनती पहुंचे' और हमने अपनी अंजुली में, अपनी उंगलियों में थोड़ा सा प्रसाद या पानी या कुछ लिया और हाथ बढ़ाकर छिड़क दिया। जैसे वह उज्जैन पहुंच रहा है।
यहां हम गतिशील ऊर्जा में भी परिवर्तित हो जाते हैं। हमें वहां जाकर के वहीं दर्शन नहीं कर पाना। इसी तरह हमने देखा कि बड़े-बड़े देवता बहुत दूर हैं , और बड़े-बड़े मंदिरों में अपना प्रवेश भी नहीं है( खासतौर से पिछड़े वर्ग या समाज के लोग वंचित रहते हैं या अनेक दफा बड़े मंदिरों में वे अपने संकोच के कारण ही नहीं जा रहे हैं, तो उन्होंने कहा) क्या करें अब हमारे देवता हमारे भगवान कौन हो? सो हरदौल उनके देवता हो गए! कारस देव उनके पशुओं को ढूंढ कर लाने लगे! गौड़ बाबा हमारी मनौतियां पूरी करने लगे। खाती बाबा का संबंध खाती से हो गया ।जो गांव का अंतिम भाग है वहां वह खेड़ा कहा जाता है। बुंदेली में वहां के देवता हो गए। इन देवताओं के चबूतरे हमने बना लिए। न हमें सीमेंट और मार्बल मंगाना पड़ा, न बहुत सारे इंतजाम करना पड़े । बस तीन ईटों की जरूरत पड़ी। एक आधार में और दो त्रिकोण बनाने में यानी त्रिभुज बना दिया और उसमें हमारे एक देवता की स्थापना हो गई और उनकी पूजा रचा होने लगी । यहां हम काइनेटिक यानी गतिशील ऊर्जा में परिवर्तित हो गए । हमारा मतलब यह है कि लोक दोनों दृष्टि ओं से सक्रिय रहता है। यह तो सारी मनुष्य जातियों का स्वभाव है। लेकिन लोक जो हम मानते हैं कि वह बहुत ही रूढ़ होता है, वह भी परिवर्तित होता है,वह अपनी मान्यताओं में बदलाव लाता है, धारणाओं में बदलाव लाता है। इसके पीछे मूल तत्व तो होता है आर्थिक और आर्थिक संपन्नता या विपन्नता । हमारी सभ्यता ही नहीं बल्कि संस्कृति को भी निर्धारित करती है । कभी-कभी कहीं कहीं और बनाती भी है। हम बुंदेलखंड की संस्कृति के बारे में भले ही हम उसे बुंदेलखंड की लोक संस्कृति कहें या ना कहें केवल संस्कृति शब्द ही कहेंगे, तो भी हम वहीं पहुंचेंगे। क्योंकि लोक संस्कृति बिल्कुल अपने आप में निराली होती है। देखिए शादी के वक्त में हम पुराने रीति रिवाज रिवाज निभाते हैं तो इसका मतलब यह नहीं हो गया कि हम उस अभिजात्य वर्ग से अलग हो गए ,संस्कृति में जो हमारा वर्ग दूसरी तरह से जी रहा है। संस्कृति तो मूलतः आ रही है। तो मूलतः हुआ ही है ,वही है और इसलिए हम बुंदेलखंड की लोक संस्कृति में अभी भी आज भी जब इतना कठोर समय , इतना जटिल समय, इतना उलझन भरा और अनेक विपत्तियों से जूझता समय चल रहा है उस समय भी वे जो हमारे सांस्कृतिक आधारभूत मूल तत्व हैं, वह कहीं ना कहीं बने हुए हैं। हमें पानी के लिए आज भी किसी घर में जाने पर पूछा जाता है। मैंने अपनी एक कविता में लिखा था -
थोड़ा रुक जाओ प्यासे भी होगे पानी पी लो
आगे तो पानी भी पैसों में आता है! हम चाहे शहर में हो या गांव में हों, अपनी सांस्कृतिक धारणा की वजह से यानि जहां हमारी संस्कृति जीवित है , वहां हममें से कोई भी किसी के भी स्वागत के साथ-साथ सम्मान से संबोधित करेगा, कुछ नहीं होगा तो पानी के लिए तो जरूर पूछेगा, हमें रास्ता बताने के लिए मदद करेगा।
इसके विपरीत स्थिति नगरों की है। मैं अपना खुद का अनुभव बताऊं। मैं मुंबई गया ।शैशवावस्था में ही गया था और अकेला ही गया था। मैं भटक गया । दादर पर उतरना था मुझे, तो मैं लोकल ट्रेन में बैठा रहा इधर से उधर भटकता रहा। दादर पर उतर ही नहीं पा रहा था। तो उस दफा हम लोकल ट्रेन के गेट पर खड़े हो गए और जैसे ही एक स्टेशन पर लगे उस सफेद बोर्ड में D लिखा देखा तो मैंने एक उतरते हुए यात्री से पूछा -इट इज दादर?
उस वक्त मैं b.a. फर्स्ट ईयर में पढ़ रहा था । तो उस यात्री ने यस या नो करने के बजाए कहा-आय हैव नो टाइम !
जबकि यस और नो कहने में उसे कम समय लगता। लेकिन आज नगर के आदमी में इतना अलगाव हो गया है कि अब सांस्कृतिक मनुष्यताएँ गायब होती चली जा रही हैं । इसलिए हम यूं ही कहें कि हमें अपनी संस्कृति के बनाए रखने का सोच रखना होगा । क्योंकि वह संस्कृति किसी की विपक्ष नहीं होती, वह संस्कृति जो किसी की शत्रु नहीं होती ।वह संस्कृति जो उदार होती है ,वह संस्कृति जो वसुधैव कुटुंबकम मानती है ।ऐसी संस्कृति जो हमारी अभी भी लोक में जीवित है और समूचे बुंदेलखंड में जीवित है उसको हमें बनाए रखना होगा। मुझे आज के बुंदेली लेखों से यही कहना है
प्रश्न 7 लोक संस्कृति और लोक साहित्य के क्षेत्र में आजकल आप क्या काम कर रहे हैं
केबीएल पाण्डेय-मैं दो-तीन तरह के काम कर रहा हूं । एक तो मैं भाषा के बारे में ऐसा सोच सोच कर लिख रहा हूं जो अभी तक बुंदेली व्याकरण में या भाषा विज्ञान के प्रारूप में नहीं आया है ,चाहे वह अर्थगत हो चाहे शब्द गत हो । तो एक तो भाषा पर मैं काम कर रहा हूं और भाषा के शब्दों के मूल को, जड़ को खोजने की कोशिश करता हूं और व्यावहारिकता भी खोज रहा हूं ,देख रहा हूं। इस खोज में मेरे काफी लेख तैयार हो गए हैं । दूसरी चीज यह है कि मैं खुद भी बुंदेली में कविता लिख रहा हूं । लखनऊ के एक बड़े समारोह में बुंदेली का समारोह था उसमें मुझे बुलाया गया था और उसमें मैंने उस कविता का पाठ किया था । मेरी वह कविता बुंदेलखंड में हमारा सांप्रदायिक सौहार्द कितना अच्छा और कितना बढ़िया रहा है इसको दिखाते हुए कविता लिखी थी । तो मैं बुंदेली में कविता भी लिख रहा हूं । इसके अलावा मैंने बुंदेली संस्कृति, बुंदेली जीवन पर काम शुरू किया है (मैं एक और बात कह दूं यहां पर बुंदेली या बुंदेलखंड की संस्कृति शब्द को तो उचित मानता ही हूं लेकिन सच बात यह है कि मैं लोक संस्कृति के साथ में लोकजीवन कहना ज्यादा उचित समझता हूं , संस्कृति जीवन से अलग नहीं है - संस्कृति व सभ्यता) इसलिए जब हम लोग संस्कृति की जगह लोकजीवन शब्द का उपयोग करते हैं तो मुझे व्यापक लगता है। इसी विचार को लेकर,इसी धारणा को लेकर मैंने एक लिखा लेख लिखा - 'हमारे पर्वों का लोकायत स्वरूप ' दूसरा था ' बुंदेलखंड के रचनात्मक आयाम!' जो आकाशवाणी पर भी प्रसारित हुए । इस तरह के कुछ विषयों को लेकर अपने बुंदेलखंड के रीति-रिवाजों व संस्कृति को नए तरीके से परिभाषित करने की कोशिश कर रहा हूं और देखिए कहां तक पहुंचता हूं । इसके अलावा मैंने बुंदेली भाषा और बुंदेलखंड की कुछ पांडुलिपियों का संपादन भी किया है जो प्रकाशन को भेजी जा रही हैं।
प्रश्न 8 मप्र हिंदी साहित्य सम्मेलन के बारे में उसकी गतिविधियों के बारे में क्या कहना चाहेगे?
केबीएल पाण्डेय-हमारे बीच में मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का हो ना बड़ी बात है। हम कभी-कभी तो यह मानते हैं कि हम साहित्यिक, सामाजिक और लेखकीय रूप से जीवित रहने में बड़ा पोषण पाते हैं। काफी लंबी परंपरा है सम्मेलन की। हम याद करते हैं आदरणीय मायाराम सुरजन बाबूजी को, जिनके साथ अनेक अवसरों पर बातचीत भी हुई । जो हिंदी साहित्य सम्मेलन की गतिविधियों यानी कि लेखक से जुड़ी गतिविधियों के लिए बह रही इस सुरसरि के गोमुख साबित हुए । इस गोमुख से सम्मेलन की गंगा वहां से निकली थी और आज उन्हीं के सुपुत्र पलाश जी उसको पूरे प्रांण प्रण से उसे विकसित करने में, पल्लवित करने में ,पुष्पित करने में लगे हुए हैं इसी की वजह से हम सब जो यह बातचीत में कर रहे हैं , यह पुरस्कार पा रहे हैं ,इतना लेखन हो रहा है ,नगर नगर और हर जिले में इकाई बनी हुई हैं , आयोजन हो रहे हैं । हम सब हर्षित हैं और पूरे मन से इकट्ठे होते हैं । यह मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की एक बहुत बड़ी देन है । वास्तव में हम उसके अभाव की कल्पना ही नहीं कर सकते । हमें ऐसा लगता है कि अगर उस का अभाव होता है तो हमारा लेखन यानी लेखक वेंटिलेटर पर चले जाएंगे। इसलिए मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन कि इस समृद्धि में जहां पलाश जी लगे हुए हैं जहां पूरे पदाधिकारी लगे हुए हैं कार्यकारिणी के लोग जुटे हुए हैं जहां जगह-जगह की इकाइयां लगी हुई हैं यह एक बहुत बड़ी चीज है। एक व्यक्ति ही नहीं एक बहुत बड़ी टीम है जो पूरे हर्ष और अपने मन से के साथ में इस कार्य में लगी हुई है , तो हम इसको और बढ़ाते चले जाएं । मैं हार्दिक से प्रसन्न होता हूं जब मैं व्हाट्सएप के साहित्य सम्मेलन ग्रुप में देखता हूँ कि अमुक नगर से फलां आदमी सूचना दे रहा है कि मैं फलाना ट्रेन से पहुंच रहा हूं, अलंकरण समारोह में में फला साधन से इतने बजे पहुंच रहा हूं, इस तारीख को पहुंच जाऊंगा !
यह सूचना देना, लिखना और पहुंचना हमारी अपनी प्रसन्नता को, अपने जुड़ाव और लगाव को बढ़ावा दे रहा है, प्रकट कर रहा है। सम्मेलन ने प्रकाशन के काम को बढ़ाया है,भव्य आयोजन किए हैं, हमें प्रोत्साहन दिया है । संक्षेप में कहें तो सम्मेलन का बहुत बड़ा काम है। बहुत बड़ा दायित्व निभाया है सम्मेलन ने और इसका हमारे प्रति बहुत बड़ा प्रदेय है।
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आत्मकथ्य
किशोरावस्था में कविता का बोध जब मेरे पास आया तो मैं उसे उत्सवता भरी अनुभूति से देख रहा था, पढ़ रहा था। अचानक कहां से यह अंकुर फूटा होगा और कविता लिखना शुरू किया होगा,नहीँ पता। तब मेरे पास कोई बहुत बड़ा चिंतन और बहुत बड़ा सोच नहीं था। जो सामान्य प्रेरणा होती हैं उनके अंतर्गत ही कविता की रचना हो रही थी। धीरे-धीरे जब वैचारिकता के आसपास आया, लोगों को सुना, पढ़ा, तो ऐसा लगा कि मैं एक विश्व के बीच में रह रहा हूँ समाज के बीच में रह रहा हूं । मैंने इस समय कविता के प्रति मेरी रुचि पारिवारिक वातावरण के कारण भी बनी क्योंकि उस समय के क्योंकि मेरे परिवार में उस समय के समर्थ और प्रतिष्ठित कवि थे मैंने जब लिखना आरंभ किया तब छंद कविता का ही समय था मैंने गीत पर कविता लिखी लेकिन वे गीत उस समय की प्रवृत्ति के अनुसार रोमांस और प्रेम से प्रभावित नहीं थे बल्कि उनमें अपने समय का यथार्थ आने लगा था और मुझे खुद ऐसा लगता है कि जिस समय मेरे आस-पास रोमांस और प्रेम की कविता व गीत लिखे जा रहे थे तब मैं अपने यथार्थ को पहचानने का प्रयत्न कर रहा था


लोक संस्कृति की बात करें तो मैंने एक ऐसा आलेख ऐसा तैयार किया था जिसमें बुंदेलखंड के लोक जीवन में समय का बोध करते हुए सैकड़ों शब्द सम्मिलित किये हैं । हमारे सभी समाज में तो घंटा, मिनट के आधार पर ही समय विभाजित है, सारे के सारे दिन और रात का हफ्तों का महीनों का सालों का। वहां तो दिन भर में ही जाने कितने समय बोध होते हैं। इतनी निकटता से और इतने आत्मीय लगाव के साथ जीवन जीते हुए जो लोक हैं , उसके प्रति मेरे मन में एक स्वाभाविक जुड़ाव है, प्रेम है इनके प्रति और यह मेरा दूसरा रचना कर्म है ।
कविता के बारे में मैंने जो अभी कहा है वही है कि मैं उस मनुष्य और समाज को लेकर के और लोक धर्मी और मनुष्य धर्मी मूल्यों को लेकर के ही, जीवन की चिंताओं को लेकर के ही कविता लिखता रहा हूं और स्वाभाविक है कि जो नहीं होना चाहिए उसके प्रति मेरे रचनाकर्म में प्रतिरोध की भावना अपने आप उभर कर सामने आती है। मैं यह तो नहीं कहूंगा कि मैंने बहुत बड़ा रचना कर्म किया है, लेकिन जो किया है, वो मुझे तो कम से कम लगता है कि सार्थक है और पढ़ा जाने काबिल है।
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इंटरव्यू
डॉ. के. बी. एल. पाण्डेय
जन्म:मउरानीपुर (झाँसी) उत्तरप्रदेश
शिक्षा:एम.ए. (अंग्रेजी,हिन्दी), पी-एच.डी.
लेखनविधा:कविता,आलोचना,लोकसंस्कृति ।
प्रकाशन: ऐसा क्यों होता है,आँखों भर अनन्त (कविता),आलोचना-एक और पाठ,उत्तर छायावादी युग और नरोत्तमदास पाण्डेय 'मधु' का काव्य (आलोचना), लोकसंस्कृति के सामाजिक अभिप्राय (प्रेस में), तथा अनेक स्फुट लेख प्रकाशित और आकाशवाणी से प्रसारित।
संपादन: दतिया:उद्भव और विकास(विविध विषयगत शोध पुस्तक), अस्मिता (पत्रिका लोक संस्कृति), ज्ञान ज्योति (साहित्यिक पत्रिका), कथाकार राजनारायण बोहरे:आलोचना की अदालत (पुस्तक)।
अन्य: साहित्य औऱ संस्कृति की अनेक संस्थाओं तथा आकाशवाणी की अनेक समितियों से सक्रिय सम्बद्धता।
व्यवसाय: म.प्र.शासन के उच्च शिक्षा विभाग में प्रोफेसर (हिन्दी) के पद से सेवा निवृत्त।
सम्पर्क : 70, हाथीखाना, दतिया (म.प्र.)475661
मोबाइल: 94251-13172
Email : pandeykrishna896@gmail.com

समर्पण
बड़े दादा

घनश्याम दास पांडेय

और
भैया
रमा शंकर पांडेय
की पूज्य स्मृति को