True Friendship? (A Poem) books and stories free download online pdf in Hindi

सच्ची दोस्ती?

आप कितने भी बड़े हो जाइए आप के अंदर बचपना जिंदा रहना चाहिए या यूं कहिए जिंदा रहता हैं और वो बचपना बाहर तब निकलता हैं जब आप किसी ऐसे अपनों से मिले जिनके साथ मात्र से ही बचपना करने का मन करने लगा।

इंसान जब ऐसे दोस्त बनाता हैं या ऐसे रिश्ते बनाता हैं तो कई बार गलतियां कर देता हैं और वो भी जान बुझ के ताकि उसे डांटे और फिर दुलार करें। पर इसका मतलब ये नहीं के वो इंसान समझदार नहीं होता या नादान होता हैं वो प्यार से मिले हक को जताता हैं।और इसका मतलब ये भी नहीं के वो बुरा इंसान हैं।

बड़ी ही प्यारी और न्यारी हैं दोस्ती।

आइए कुछ पंक्तियां उसी दोस्ती में नोक झोंक के नाम और कुछ हसीं और गम के पल इस कविता में पढ़ते हैं।

पहले मेरी आदतें अच्छी लगा करती थीं

मेरी हर बात तुम्हें सच्ची लगा करती थीं

जब तेरी नजरों से मैं बहुत दूर था

तू खूब बातें करने को मजबूर था

जब बातें कम हुआ करती थीं

तेरी आंखे नम हुआ करती थीं

तू धीरे से तेरी आंखें पोछता था

जब भी मुझसे मिलने की सोचता था

आज क्यों पराया सा लगने लगा हैं

जब जी भर के बात करने लगा हैं

क्यों आज तू खुद को कोसता हैं

जब ये पागल तुझको टोकता हैं

क्यों ये दोस्ती की लो बुझने लगी हैं

मेरी हर बात तुझको चुभने लगी हैं

मुझसे मांग के मेरा वक्त लिया हैं

तूने खुद मुझको हर हक दिया हैं

तूने कहा था ना काश ऐसा होता

मेरा कोई दोस्त तेरे जैसा होता

अपनी मीठी बातों में मुझको फसाता

काश कोई दोस्त मुझे भी हंसाता

मुझको भी जीतने का दम दे जाता

काश कोई मेरा भी गम ले जाता

तू होता जो मेरा कृष्ण सा साथी

कोई विपदा मुझे फिर छू ना पाती

कभी एक अरमान सा लगता था

तुझे मैं भगवान सा लगता था

मेरी जिंदगी एक रंग सी लगती थी

मेरी हर बात सत्संग सी लगती थी

फिर क्या हुआ मेरे दोस्त ऐसा

मैं अब नहीं लगता पहले जैसा

क्या अब मेरी बात जचती नहीं

जचती नहीं अच्छी लगती नहीं

डाली से फूल जैसा टूट जाता हैं

क्यों हर वक्त अब रूठ जाता हैं

मैं वहीं हूं मुझे पहचान तो सहीं

मेरे मन की बात तू जान तो सही

माफ करना जो भूल अनजाने में की

जान कर गलती कहां जमाने में की

तेरे अपनापन के झूले में झूल गया था

मैं बन के बच्चा सब भूल गया था

जिसे दिल से अपना मैं मानता हूं

बन के बच्चों सा ज़िद मैं ठानता हूं

रूठ कर कभी लड़ भी लेता हूं

गुस्से में थोड़ा अकड़ भी लेता हूं

पर सबसे नहीं ये गलतफेमी ना रखना

सिर्फ अपनों से ही, चाहे तो परखना

सबके साथ एक जैसा नहीं करता

जो अपना कहूं सबको ऐसा नहीं करता

वादा हैं मैं कभी ऐसा नहीं सोचता

ना देते जो हक तो कभी ना टोकता

ना करता कभी तंग ना रोता रुलाता

जो मालूम होता तो पास ना आता

सच ये हैं की मैंने किसी को ना जाना

इतना अपना कभी किसी को नहीं माना

ना माना होगा किसीने कभी जिस तरह

मैं मानता हूं तुमको ठीक इस तरह

मानता हूं कभी बहुत बोलता हूं

हर राज़ दिल के खोलता हूं

चुप रहता हूं मैं गैरों की भीड़ में

बस अपनों के सामने ही बोलता हूं

पर कितना भी व्यस्त रहूं दुनियादारी में

अपने गमों को आसमान में उछाल देता हूं

मैं रहूं जहां भी जब भी जैसे भी

तुम्हारे लिए समय निकाल लेता हूं

पर ना जाने क्यों अब तेरा मन दुखता हैं

मैं जो बोलता हूं वो तुझे चुभता हैं

समझ गया मैं अब तो कैसा होगा

तू जैसा चाहता हैं अब वैसा ही होगा

मैं अच्छा से बुरा बन जाऊंगा पता जो होता

ना अपनापन दिखाता ना अपना बनाता

ना बन के जोकर मैं तुझको हसाता

ना दोस्ती के गीत नाच नाच के गाता

ना बचपना दिखाता ना नादान कहलाता

ना सच मान के दोस्ती मैं मन बहलाता

ना हर दम मन में तेरी बात चलाता

ना दोस्ती के तकिए पर सर को सहलाता

जो मेरी नादानी तुम्हे गलतियां लगी

उन्हें दिल के मैल सा साफ कर देना

मेरा बचपना जो तुमको सताया कभी

अपना जान के मुझे माफ कर देना