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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 28

 

सोई तकदीर की मलिकाएँ 

 

28

 

अमरजीत एक आस से आई थी कि हवेली में घुसते ही उसे कोई नयी नयी जानकारी मिल जाएगी जो वह जाकर अपनी सास को सुनाएगी । पर वह आस तो पूरी न हुई , हाँ हवेली की नवी नकोर दुल्हन की झलक उसे मिल गई । उसने आग वाली चप्पन पकङी और घर की ओर निकल गई । उसके आग लेकर जाते ही बसंत कौर सीधी अपने चौबारे में चली गयी । ऊपर जाते ही वह पलंग पर जाकर लुढक गयी और पलंग पर टेढी होकर रोने लगी । वह जाने कब तक रोती रहती कि अचानक उसे अपने कंधे पर मरदाना हाथ की छुआन महसूस हुई । भोला सिंह उसके पास खङा हुआ उसके कंधे पर दोनों हाथ टिकाए था । बसंत कौर ने तङप कर मुँह ऊपर उठाया – तू , तू अब यहाँ क्या लेने आया है ? मेरे साथ इतना बङा दगा करते हुए तुझे शरम नहीं आई । यह सब करने से पहले मुझे जहर दे देना था । मैं मर जाती , तू दूसरी ले आता । मेरी छाती पर मूंग दलने को तू इसे ले आया । एक बार बताना भी जरूरी नहीं समझा तूने । कह कर तो गया था कि अपना ट्रैक्टर वापिस लाने जा रहा हूँ और ले आया इसे । लाकर मेरे सिर पर बैठा दिया । तेरा दो जहान में कुछ न रहे । तू सीधा नरक में जाए । कीङे पङे तेरे कीङे ।
बसंत कौर इसी तरह रो रो कर गालियाँ देती रही और भोला सिंह सिर झुकाए सुनता रहा । वह सारी रात दोनों ने ऐसे ही बैठे बैठे , रोते धोते , कहते सुनते निकाल दी । भोला सिंह को यह तो समझ आ रहा था कि वह अनजाने में ही बसंत कौर के साथ अन्याय कर बैठा है पर अब तो जो होना था हो चुका । अब जयकौर भी उसकी पत्नि है । पूरे गाँव के सामने उसने गुरु ग्रंथ साहब की हुजुरी में उससे फेरे लिए हैं । उसे विधिविधान से विदा करा कर अपनी हवेली में लाया है । तो जैसे भी हो , बसंत कौर को इस रिश्ते के लिए मनाना ही पङेगा । अब और कोई चारा ही नहीं है । उसने एक कोशिश फिर से की –
सुन भागवान , अब औलाद तो चाहिए थी न । बुढापा आ रहा है । कोई तो चाहिए न बूढे बुढिया को सम्भालने के लिए । ये जयकौर गरीब घर की बिन माँ बाप की लङकी है । भाई भाभियों की ठोकरों पर पल रही थी । यहाँ तेरी गुलामी करेगी और दो रोटी खा कर पङी रहेगी । मालकिन तो तू है न इस हवेली की । केसर तेरी गाय भैंसों का गोबरसानी कर रही है , ये चूल्हे चौके का सारा धंधा करेगी । बदले में दो रोटी दे दिया करना ।
हाँ तू महाराजा पटियाला है न , हर गरीब की बेसहारा बेटी का ठेका ले रखा है तूने । तू ला लाकर औरतें घर में भरता जा और मैं उनके रोटी कपङे का फिकर करती रहूँ । तेरा हरम संभालती रहूँ । तू सबके साथ गुरछर्रे उङाता रह ।
भोला सिंह को कोई जवाब नहीं सूझा । वह सिर झुकाए उसी तरह सुनता रहा ।
इतने में मंदिरों में शंख बजने लगे । गुरद्वारे में पाठ शुरु हो गया । बसंत कौर उठ गयी । उसने पायताने पङे खेस तहाए । पैर में चप्पल फँसाई और सीढियाँ उतरने लगी । अभी दो तीन सीढियाँ ही उतरी थी कि उसकी नजर आँगन में चारपाई पर पैर लटकाए बैठी जयकौर पर पङी । उसने घूंघट हटा दिया था पर दुपट्टे से सिर वैसे ही ढका हुआ था । पीठ पर लंबी परांदी बल खा रही थी । सांवली सी सामान्य कद काठी की गठे हुए बदन की थी जयकौर । रात सारी रात के जागरण और रोते रहने से आँखें लाल हो गयी थी और कुछ कुछ सूजी हुई भी ।
हे भगवान ! ये लङकी सारी रात यूं ही भूखी प्यासी अकेली यहाँ आँगन में इस तरह रात गुजार रही थी । बसंत कौर ये क्या हुआ । तेरे दरवाजे पर कोई सारी रात भूखा रहा । गल्ती बेशक मर्दों की हो , भुगतना तो हम औरतों को पङता है । भाइयों ने घर बार देख कर इसे इस घर में ब्याह दिया और वह सरदार इसे ब्याह कर ले आया । अब भुगतना है इसे या मुझे ।
उसे इस अनजान लङकी पर बहुत तरस आया । इस सब में इस बेचारी का क्या कसूर । कसूर क्यों नहीं ? खङी होकर बुलंद आवाज में मना नहीं कर सकती थी कि मैंने नहीं करवाना ब्याह । कोई जबरदस्ती कैसे कर देता ।
फिर वह खुद ही हँस पङी – आज तक किसी लङकी ने घरवालों के तय के रिश्ते पर किंतु परंतु की है क्या जो यह करती । संस्कारों के नाम पर हर रोज कितनी लङकियाँ कुर्बान होती है , क्या कोई गिन सकता है ।
वह जयकौर के पास पहुँची – सुन ऐसा कर तू नहा ले तब तक मैं कुछ बनाती हूँ । रात भी हमने कुछ नहीं खाया ।
जयकौर ने सिर उठाया । बसंत कौर का चेहरा भी उतरा हुआ था पर उसके चेहरे पर एक तेज था जो उसे सबसे अलग दिखाता था ।
जयकौर एकदम उठ खङी हुई पर असमंजस में पङ गई । उसके पास तो कोई कपङा ही नहीं है बदलने के लिए तो वह नहा कर पहनेगी क्या
बसंत कौर ने केसर को पुकारा – केसर ।
जी सरदारनी जी ।
सुन केसर इसे गुसलखाना दिखा दे और तार से धुला हुआ तौलिया दे दे ।
केसर ने तार से तौलिया उठाया और आगे आगे चल पङी । जयकौर उसी तरह इधर उधर ताकती खङी रही ।
बसंत कौर ने संदूक देखा जो कल से उसी तरह चारपाई के साथ लगा रखा था । उसने संदूक उठा कर ऊपर रखा और खोल दिया । संदूक में दो अनसिले सूट रखे थे और एक दुपट्टे में थोङे से मेवे । पहनने लायक कोई कपङा उसमें न था । सने संदूक बंद किया और उसी तरह चारपाई के एक तरफ खङा कर दिया । जयकौर नहाने जा चुकी थी । नहा कर उसने वही कपङे दोबारा पहन लिए ।
बसंत कौर को अपना ब्याह याद आया । उसके साथ दो अटैची और दोसंदूकों के साथ बङी सी पेटी आई थी जिसमें एक से एक महंगे सूट भरे थे । इक्कीस सूट तो बेबेजी ने ही बनवा कर दिए थे और इतने ही सूट उसकी माँ ने बनवाये थे । सब एक से बढ कर एक महंगे सूट थे । सवा महीना वह हर रोज नया सूट पहनती रही थी । फिर हर त्योहार पर अगर पाँच सूट बेबे जी बनवा कर देती तो पाँच ही सूट उसकी माँ भेजा करती । जेवर अलग से मिलते । और ये बेचारी जयकौर जिसके पास एक दिन के लिए भी कपङे नहीं हैं ।
अचानक उसकी निगाह खौलती चाय पर पङी जो उबल कर चूल्हे में गिर रही थी । उसने चाय उतार कर छानी और एक गिलास केसर को पकङा कर दूसरा गिलास जयकौर की ओर बढा दिया साथ में दो बेसन की पिन्नियां भी । तब तक भोला सिंह भी सीढियां उतर आया था । भोला सिंह को अपने सामने देख कर जयकौर का इतनी देर से दबाया हुआ रोष फट पङा ।
तूने मेरे साथ इतना बङा धोखा क्यों किया तेरी पहले से बीबी है और तूने यह बात मुझसे छिपाई ।
भोला सिंह धीरे से बोला – हमें बात करने का मौका कहाँ मिला । तेरे भाइयों को तो सब पता था । यहाँ हवेली में आकर गया है । बसंत कौर से मिल कर उसके हाथ के परोंठे खा कर गया है । और मैं कुछ क्यों छुपाउंगा । मैंने उनसे कहा था , पहले जयकौर को पूछ लो । अगर उसे मंजूर है तभी ब्याह होगा ।
जयकौर फूट फूट कर रो पङी ।

 

बाकी फिर ... ।