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धागा—बटन...


अलमारी की दराज़ में अब भी उसकी यादें बसती है। उसकी शर्ट का बटन, पेन का ढक्कन और वो 'कागज़ के कुछ टुकड़े....।' जो पुड़की बनाकर फेंके थे कभी उसने। अलमारी की साफ़ सफ़ाई में आज हाथ ज़रा दराज़ के भीतर चला गया...। मानो बटन ने खींच लिया हो जैसे...।
इक पल के लिए दिल धड़कना भूल गया। सांसे थम सी गई। बरसों बाद लगा उसका स्पर्श पा लिया हो जैसे...।
मन जो तड़पना, तड़पाना भूल गया था...। वो आज फ़िर से तड़प उठा...। बैचेनी की हुक उठने लगी...जिस्म जैसे बिन बारिश के भीगने लगा...। कुुछ देर तक अपनी हथेली पर बटन को रख उसे निहारती रही बस। उसे अपने क़रीब लाकर उसकी खुशबू को अपने भीतर खींचने लगी।

उस दिन भी तो ऐसा ही कुछ हुआ था। नचिकेत ने ब्ल्यू चेक्स की शर्ट पहनी हुई थी। वो तिलक मार्ग पर मेरा इंतजार कर रहा था...। मैं देरी से पहुंची थी। इस बात पर वो मुझसे बेहद ख़फा था। मैंने उसे लाख मनाने की कोशिश की, मगर वो मान जाने को तैयार न था। तभी मैंने उसे अपने गले से लगा लिया और उसे चुप रहने को कहा...।

नचिकेत धीरे—धीरे शांत होने लगा और मेरी बाहों में खो गया। जब वो सामान्य हुआ तब मैंने ख़ुद को उसकी बाहों से अलग किया। तभी मेरे बाल उसकी शर्ट के बटन में जा फंसे..और बुरी तरह से उलझ गए...।
हम दोनों ने काफ़ी कोशिश की, लेकिन बटन में उलझे हुए बाल नहीं निकल सकें। मैने बालों को ज़ोर से खींच लिया और तभी बटन टूट कर नीचे गिर गया। मैंने बटन को उठाया और अपने पर्स में रख लिया।
नचिकेत बोल पड़ा, कोई बात नहीं दूसरा बटन लग जाएगा उसे फेंक दो। पर्स में क्यूं डाल लिया...?
मैंने भी उसे यूं ही कह दिया, पड़ा रहेगा पर्स में...। जब मुझे मौका मिलेगा तब मैं ही तुम्हारी शर्ट में इसे 'टांक' दूंगी। यह सुनकर वो मुझे एकटक देखता रहा...।

आज चार साल बीत गए। ना ही नचिकेत मिला और ना ही उसकी शर्ट में बटन टांकने का मौका...। तभी से इस बटन को उसकी याद बनाकर संभाले हुए हूं।

याद आता हैं वो दिन भी, जब उसे पीएचडी रिसर्च के लिए दिल्ली जाना था। वो उस दिन बेहद परेशान था। मैं चुपचाप बैठकर उसे देखती रही और कॉफी पीती रही...। दो घंटे में तीन कप कॉफी पी चुकी थी और वो कागज़ पर कागज़ लिखे जा रहा था। कुछ ग़लती होने पर वो कागज़ की 'पुड़की' बनाकर फेंक देता...। मैं उसे बीच—बीच में टोंकती रही।

''मुझे तुमसे कुछ ज़रुरी बात करनी हैं...सुन लो प्लीज...।''
लेकिन उसने कहा एकदम चुप्प होकर बैठो। जब काम ख़त्म हो जाएगा तब हम बात करेंगे...।
शाम होने लगी और उसका काम भी लगभग पूरा हो गया...। उसने एक गहरी लंबी सांस ली और मुझसे बोला, 'क्या मुझे कॉफी नहीं पिलाओगी...?'

मैंने उसके लिए कॉफी ऑर्डर कर दी। नचिकेत ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा कि, मुझे एक साल के लिए दिल्ली जाना पड़ेगा सुधा...।

ये सुनकर मैं घबरा गई। चेहरे का रंग उड़ गया। गले का पानी जैसे सुख गया...और सीधे आंखों में उतर आया...। मुझे एकदम से सुन्न देख नचिकेत बोला, अरे! सुधा..।

तुम तो ऐसे घबरा गई, जैसे मैं लंबे समय के लिए जा रहा हूं। सिर्फ एक साल ही की तो बात हैं। इत्ती सी बात पर तुम्हारी तो आंखे भर आई। तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि मेरा सपना पूरा होने जा रहा हैं।
रिसर्च पूरी होते ही मैं लौट आऊंगा...। अच्छी नौकरी होगी...फिर हम फ़ोरन शादी कर लेंगे।
अब मैं उसे क्या कहती, 'मत जाओ'...'रिसर्च छोड़ दो'...'पहले शादी कर लो'...। 'घर वाले लड़का देख रहे हैं'...। 'चलो भाग चलें'...।

जिस रिसर्च के लिए वो दिन—रात मेहनत कर रहा था और अपने इस सपने को सच करने में जुटा हुआ था, क्या उसका सपना यूं ही तोड़ देती...? मैंने अपनी बात दिल ही में दबा ली और एक दिन वो दिल्ली चला गया।
शादी तय होने से मैं बहुत परेशान थी। सोचा नचिकेत को बता दूं, काफी किंतु—परंतु के बाद उसे फोन कर लिया। फोन रिसिव करते ही वो बहुत खुश हुआ और बोला, सुधा तुमने बहुत ही सही वक़्त पर फोन किया हैं। मैं थिसिस वर्क जमा करने जा रहा हूं। बस कुछ ही दिन बाकी हैं, फिर हम साथ होंगे। मैं अपनी शादी की बात उसे बताते हुए रुक गई।
यदि नचिकेत को पता चला तो वो सब कुछ छोड़ कर आ जाएगा...। उसका करियर ख़राब न हो यही सोचकर उसे कुछ नहीं बताया। मगर इतने सालों बाद आज दिल में ऐसी बैचेनी क्यूं हैं...। ये दिल इतनी जोरों से क्यूं धड़क रहा हैं....। न जानें क्या बात हैं...?

तभी 'राजीव' आ गया और शाम को अपने दोस्त की वेडिंग में चलने को कह गया। मन तो नहीं था जाने का...। पर राजीव क्या सोचेगा...? यही सोचकर चली गई।

आज की ये शाम सच में बेहद खूबसूरत हैं...ठंडी हवा के झौंके...दिलकश नज़ारें...और मद्मम संगीत...। इस फिज़ा में नचिकेत की याद और बढ़ गई। मैं राजीव के साथ जरुर थी लेकिन मेरे दिल के पास इस वक़्त सिर्फ 'नचिकेत' ही था। तभी मेरे मन में एक सवाल उठा।
'क्या उसकी शर्ट में अब भी इस बटन की जगह खाली होगी....?'
'इसे बांधे रखने वाला 'धागा' क्या अब भी यूं ही शर्ट के साथ बंधा होगा...?'
तभी राजीव आ गया और मुझे हाथ पकड़कर अपने दोस्तों के बीच ले गया, मैं कुछ दूरी पर ही रुक गई। मैंने उसे कहा, तुम चलों मैं यहीं हूं...। राजीव आगे बढ़ गया।

सभी लोग बेहद उत्साह के साथ गोल घेरा बनाकर किसी को सुन रहे थे। एक ही शोर था 'फिर क्या हुआ'....'फिर क्या हुआ'...? अंत में उसने उदास होकर कहा, 'आज भी मेरी शर्ट में अटके हुए 'धागे' को उस 'बटन' का बेसब्र इंतजार हैं जो कभी बंधा हुआ था उससे'...।

मैं गोल घेरे को तोड़ आगे बढ़ी...सामने नचिकेत था...। हम एक—दूसरे को चार साल बाद देख रहे थे। होंठ जैसे सिल गए थे...वक़्त जैसे थम गया था...। दोनों नि:शब्द हो चले...। वो अब भी उस बटन के 'टंकने' के इंतज़ार में हैं...।

नचिकेत कुछ कहना चाहता था लेकिन मैंने उसे चुप कर दिया और अपने पर्स से वो 'बटन' निकालकर उसकी 'हथेली' पर रख दिया। शायद मेरे हाथों से इस बटन का 'टंकना' नहीं था ...। ये कहते हुए मैं हमेशा के लिए लौट गई...। नचिकेत की आंखों से आंसू बहकर ज़मीन पर गिरने लगे...। 'धागा—बटन' का प्यार हमेशा के लिए अधूरा रह गया...।

टीना शर्मा 'माधवी'
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