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नि:शब्द के शब्द - 8                                     

नि:शब्द के शब्द
धारावाहिक/ आठवां भाग


भूत और जिन्न का बसेरा

दूसरे दिन हामिद जब सुबह घर आया तो वह अकेला नहीं था. उसके साथ एक निहायत ही अजीब-सा दिखनेवाला कोई दुबला-सूखा-सा, बीमार जैसा आदमी साथ में था. उसके सिर पर सूफी तरीके की सफेद गोल टोपी थी और उसकी किनारी काले रंग की थी. वह काला चोगा पहने हुए था. मुंह पर सफेद काली लम्बी दाढ़ी लहरा रही थी. उसके कंधे से एक लम्बा, गंदा - सा थैला लटक रहा था. इसके साथ ही उसके दोनों हाथों की आठों अंगुलियों में आठ अंगूठियां, न जाने कौन-कौन-से सफेद, नीले, काले हरे आदि पत्थरों की थीं. मोहिनी उसे देखते ही मन-ही-मन डर गई, क्योंकि वह आदमी दिखने में चाहे कैसा भी क्यों न था, मगर उसकी आँखों में एक अजीब-सी भयानकता समाई हुई थी और आँखें लगता था कि, लगातार किसी तीखें धुएं के कारण लाल थीं.


हामिद ने आते ही अपने पिता को बताया कि, उसे एक सवारी किस्मत से पीर फकीरी दरगाहा शरीफ की मिल गई थी, वहीं से वह इस आदमी को ले आया है. लोग कहते हैं कि, यह भूत और जिन्न भगाने में बहुत पहुंचे हुए पीर बाबा हैं. ये अल्लाह से सीधी बात कर लेते हैं और जो नबी अल्लाह को प्यारे होकर ज़न्नत में रहते हैं, उनसे तो इनकी आये दिन बात होती रहती है. सभी इनको पीर बाबा कहकर बुलाया करते हैं.

हामिद के पिता ने सुना तो उन्होंने तुरंत ही पीर बाबा के लिए चारपाई बिछाई और उस पर अंदर से साफ़-सुथरी दरी फैलाकर उसके ऊपर मलमल का लाल लिहाफ बिछा दिया. तब पीर बाबा बड़े ही इत्मीनान से मलमल के लिहाफ पर किसी महान नेता के समान अपना आसन लगाकर बैठ गये और अपनी लाल-लाल आँखों से मोहिनी को घूरने लगे.

उसके बाद हामिद के पिता भी उन्हीं पीर बाबा के पास पड़ी हुई एक ऊंची सी पीढ़ी पर अपने दोनों घुटने मोड़कर बैठ गये. हामिद ने अंदर आते ही मोहिनी को आवाज़ दी और उससे कहा कि,

'इकरा ! चल जल्दी से पीर साहब के लिए गर्म-गर्म चाय और कुछ पकोड़े भी बना दे.'

'क्यों बना दूँ. मैं तेरी नौकरानी हूँ क्या? और जिन्हें तू लाया है, वे पीर हों चाहे वीर हों; मुझे उनसे क्या लेना-देना.'

'?'- हामिद ने वक्त की नजाकत को समझा, इसलिए मोहिनी की बातें सुनकर चुप हो गया. वह बोला कि,

'अच्छा, नाराज़ मत हो. मैं बनाये लेता हूँ. तू जल्दी से नहा-धोकर पीर साहब के पास आ जाना. वे खुदा के कलाम की बातें सुनायेंगे.' इतना कह कर हामिद किचिन में जाने लगा तो मोहिनी बोली कि,

'मैं स्नान कर चुकी हूँ. वैसे भी मेरी आदत सुबह उठते ही सबसे पहले स्नान करने की है.'

'तो चल. कोई बात नहीं.' हामिद ने कहते हुए चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ा दिया.

'तू, मेरे लिए पैसे लाया है?'

'पैसे ! क्यों? तुझे क्या जरूरत है?'

'तू भूल गया क्या. मैंने कहा था कि, मैं अपने घर जाऊंगी.'

मोहिनी ने कहा तो हामिद को कुछ याद आया. तुरंत ही बोला कि,

'अच्छा वह? वह तो मैंने तुझसे कहा था कि, मैं तेरे साथ खुद ही चलूँगा. अभी तेरे मरने के कारण घर का सारा हिसाब-किताब गड़बड़ हो गया है, ज़रा सांस लेने दे, फिर चलूँगा.' हामिद बोला तो मोहिनी जैसे नाराज़ हो गई. उससे बोली,

'तू, सांस लेता रहे, मुझे घर जाना है.'

'?'- हामिद ने आश्चर्य से मोहिनी को घूरा तो वह जैसे अपने ही स्थान पर मारे खिसियाहट के ऐंठ गई. बोली कि,

'ऐसे क्या घूर रहा है? करता कुछ भी नहीं है. मैंने तुझसे साड़ी लाने को कहा था, वह भी नहीं ला सका. ये भटियारिन जैसे सलवार और कुरते मुझसे नहीं पहने जाते हैं.'

'अरे वाह ! बचपन से तो तू यही सलवार और कमीज़ पहनती आ रही है और अब इन्हीं कपड़ों में तुझे कमियाँ नज़र आने लगीं?'

'मैं तुझसे बहस नहीं कर रही हूँ. जैसा मैं कहती हूँ, वैसे ही वस्त्र मुझे लाकर दे दे. घर पहुँचते ही मैं तेरे सारे खर्च, जो तू कर रहा है और किये हैं; वे वापस कर दूंगी.' मोहिनी बोली तो

हामिद भी जैसे चौंक गया. तुरंत ही बोला,

'घर? कौन सा घर? कहाँ है तेरा घर?'

'राजगढ़ में.'

'राजगढ़ में ही या किसी कस्बे और गाँव में?'

'राजगढ़ से बासठ किलोमीटर एक गाँव है- राजा का गाँव, वहीं की रहनेवाली हूँ मैं.'

'इसका मतलब, तेरा इस घर से यहाँ की किसी चीज़ से, मुझसे, मेरे वालिद से कोई भी वास्ता नहीं है?' हामिद ने और भी आश्चर्य से पूछा.

'नहीं. मैं तुझे और इस घर के बारे में किसी को भी नहीं जानती हूँ,'

'तेरा घर, जहां की तू रहनेवाली है, क्या नाम बताया. . .?'

'राजा का गाँव.'

'वहां तेरे कौन-कौन हैं?'

'मेरे मां-बाप, एक छोटा भाई और छोटी बहन.'

'और तेरा आदमी. . .?'

'मेरा विवाह नहीं हुआ है, अभी तक.'

'नहीं हुआ है? मतलब होनेवाला था?"

'हां.'

'किस आदमी से?'

'मोहित नाम है उसका.'

'मोहित अगर तुझे देखे तो वह तुझे पहचान लेगा?'

'क्यों नहीं? वह तो मुझे देखकर इसकदर खुश हो जाएगा कि, मैं बता नहीं सकती हूँ.'

'?'- तभी हामिद आगे कुछ और कहना चाह रहा था कि, तभी उसे पीर बाबा ने अपने पास इशारे से बुलाया तो वह धीरे-से उसके पास चला गया.

हामिद के पीर बाबा के नज़दीक पहुंचते ही, बाबा जी उसके कानों में बोले,

'इसके मुंह मत लग तू. लगता है कि, बद-रूहों का पूरा लश्कर ही बैठा है, इसके अंदर? अगर तू इस लश्कर से ज्यादा सवाल-जबाब करेगा तो हो सकता है कि, लश्करों की फौज तुझ पर हमला कर दे?

'हाय अल्लाह? आपको कैसे इल्म हुआ?' हामिद ने डरते हुए पूछा.

'देखा नहीं, इसके कभी तेवर बदल जाते हैं. कभी यह बहुत भोली बन जाती है और कभी-कभी तो जैसे मरने-मारने पर भी अमादा हो जाती है. यही निशानात हुआ करते हैं, इन जिन्नों की फौज के. होशियार रहना तू?'

'?'- हामिद चुप हो गया. साथ ही परेशान भी. तब पीर बाबा उससे आगे बोले,

'इलाज तो मैं इसका कर दूंगा. लेकिन मुश्किलात यह होगी कि, यह मेरे पास, मेरे सामने बैठेगी कैसे? फिर भी मैं कोशिश करता हूँ, उसे इंसानियत से बुलाने की.'

'?'- हामिद परेशान हो गया. साथ ही बहुत चुप और डरा-डरा-सा. वह इतना अधिक डर गया था पीर की बात से कि, अब उसकी हिम्मत भी नहीं हो पा रही थी कि, मोहिनी बनी इकरा से वह एक क्षण को आँख भी मिला ले.

उसकी चुप्पी देखते हुए पीर ने उससे कहा कि,

'मैं कोशिश करता हूँ तब तक तू, पांच किलो बकरे का ताज़ा गोश्त, उसी बकरे के पेट के नीचे की सारी चर्बी और सिरी-पाए, बालों के साथ लेकर आ. साथ ही अगर इनकी फौज को मीठा पसंद होगा तो दो किलो गर्म ताजी जलेबियाँ, एक किलो गाय या बकरी के दूध के साथ, चार पैकेट गुलाब की अगरबत्तियाँ, एक बड़ी धूप का पैकेट, धूप जलाने के लिए नई माचिश, पीतल या फूल की बनी थाली, बबूल के नये, ताजे कांटे और सहजना के पेड़ या मीठे नीम (करी लीफ/ curry leaf) की धूप में सुखाई हुई अथवा नई ताजी हरी पत्तियों का: शेरनी कि दौड़ से भी जल्दी इंतजाम कर ले.'


'?'- पीर बाबा की लम्बी और मंहगी सूची सुनकर हामिद के पैरों से जमीन खिसक गई. सारा सामान जल्दी लाना और वह भी बेहद मंहगा? हामिद ने मन-ही-मन हिसाब लगाया तो परेशानी की हालत में जैसे उसका दम ही बैठने लगा. उसने घूरते हुए मोहिनी की तरफ देखा और फिर तुरंत ही नज़रें नीची कर लीं-
'इतना सारा खर्च और दुनियां-भर की मुश्किलें? अच्छा होता कि सचमुच मर ही गई होती. क्या होता? ज्यादा-से-ज्यादा दस साल की जेल ही होती? इन पीर ने तो इतना भी ख्याल नहीं किया कि, एक रिक्शा चलानेवाला, कहाँ से यह सब इंतजाम करेगा?'
हामिद यह सब मन-ही-मन सोच रहा था कि, तभी उसके पिता ने अपने पास बुलाया.

जब हामिद अपने पिता के पास गया तो उन्होंने अपने कुरते की जेब से एक हजार के पांच नोट उसे देते हुए कहा कि,

'हिम्मत रख और जंग कर. अल्लाह की नियामत जरुर ही होगी.

तब हामिद पैसे लेकर बाहर निकल गया और सबसे पहले कसाई की दुकान पर उसने ऑर्डर दिया तो जान-पहचान वाला कसाई उसे देखते हुए बोला कि,

'क्या बात है, कोई जश्न या मिलामात, पार्टी वगैरह है आज घर पर?'

'नही भाई . . .' कहते हुए हामिद ने सारा किस्सा उसे सुनाया तो कसाई ने सबसे पहले अपने पास बैठाया. फिर उसके कंधे पर दोस्ती जैसा हाथ रखते हुए बोला कि,

'अब तेरा ईमान इन पीर, फकीरों और भूत भगाने वालों पर चाहे कैसा भी हो. मगर मैं इन पर कतई ईमान नहीं लाता हूँ. मैंने तो इस्लाम में आज तक किसी भी मौलाना वगैरह से यह सब नहीं सुना. जरुर यह पीर बना आदमी तुझे बेवकूफ बना रहा होगा. तू जरुर पांच किलो गोश्त और सिरी-पाए, मुझसे ले जा. मुझे भी नया बकरा ज़बाह करना होगा.'

'?'- हामिद खामोश हो गया।


बेचारा, अनपढ़, गरीब हामिद क्या करता. वह सारा सामान खरीदकर, करीब तीन घंटों के बाद घर पहुंचा तो देखा कि, पीर बाबा बड़े इत्मीनान से गर्म-गर्म परांठे, आमलेट के साथ खा रहे थे. गर्म चाय का पीतल का गिलास उनके सामने जैसे घोर मजबूरी में सिसकते हुए अपनी भाप उड़ा रहा था. हामिद के पिता ने पड़ोस में किसी महिला से कहकर यह सब इंतजाम घर में आये हुए पीर बाबा के सुबह के नाश्ते के लिए किया था.


हामिद ने घर में घुसते ही, अपने सिर और हाथों में लाये पीर बाबा के सामान को नीचे कच्ची जमीन के फर्श पर पटका तो उसे देखकर ही पीर जी की आँखों की पुतलियाँ फैलकर चौड़ी हो गईं. वे यह सारा असबाब वगैरह देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हो गये. तुरंत ही बोले,
'चलो, तैयारी की जाए.'
इतना कहकर उन्होंने सबसे पहले मोहिनी बनी इकरा को बड़े ही लाड़ और प्यार से उसे अपने पास बुलाया और उसके सिर पर हाथ रखते हुए बोले कि,
'बेटी, मुझे मालुम है कि, तुम इकरा नहीं बल्कि मोहिनी हो. पर हमारे भी कुछ कायदे-कानून हैं. इसलिए हम तुमको, बाकायदा वह सब पूरा करते हुए तुम्हें तुम्हारे घर भेज देंगे. सबसे पहले तुम यहाँ सामने बिछी चादर पर बड़े ही इत्मीनान से बैठ जाओ और कुछ भी मत बोलना. बस, मैं जो कुछ भी कहूँ उसे आँख बंद करके सुनती रहना.'
'?'- बेचारी मोहिनी क्या करती? अपने घर जाने की लालसा में वह चुपचाप पीर जी के सामने बिछी चादर पर पालती मार कर बैठ गई.
उसके बैठने के बाद उन्होंने वह सारा सामान मोहिनी के सामने रखवाया. फिर एक कटोरी में धूप की काली बत्ती को जलाया तो उसके धुएं से सारा माहौल ही भर गया. साथ ही अगरबत्तियों के दोनों पैकेट को फाड़कर उन्हें जलाते हुए उसका सारा धुंआ मोहिनी के नथुनों में भर दिया. मोहिनी मारे परेशानी के अपना मुंह फेरते हुए खांसने लगी. इसके बाद उन्होंने उर्दू में न जाने क्या बोलते हुए मोहिनी के सामने रखा हुआ सारा सामान खोल दिया. बकरी का गोश्त, उसकी चर्बी, उसका धड़ से कटा हुआ सिर तथा कटे हुये पैर देखकर मोहिनी को जैसे उबकाइयां आने लगीं. उसे देखकर मोहिनी अचानक से बोली,
'यह सब हटाओ मेरे सामने से, वरना मैं 'वोमिट' कर दूंगी.'
'यह सब तो बेटी तुम्हारे ही लिए मंगवाया गया है. बताओ तुम इनमें से क्या लेकर इकरा का गला छोड़कर जाओगी? बताओ तुम्हें बकरी का ताज़ा, लाल, खूनवाला गोश्त नहीं चाहिए?'
'नहीं.' मोहिनी ने चिल्लाते हुए कहा.
'यह बकरी के पेट के नीचे की सफेद, मखमली, जली हुई चर्बी?'
'नहीं.'
'यह बकरी की कटी हुई सिरी?'
'नहीं.'
'ये चार कटे हुए बाल सहित पैर, भुने हुए या ऐसे ही?'
'नहीं.'
'और यह बढ़िया, गुलाबजल की खुशबूदार मिठाई?'
'नहीं...नहीं...नहीं ! मुझे कुछ नहीं चाहिए. मैं सिर्फ इस नर्क से बाहर जाना चाहती हूँ.' मोहिनी चिल्लाई.
'बहुत सूरमा और ताकतवर समझती है, अपने आपको? मैं अभी तक तुझे बड़े प्यार से समझा रहा था. लेकिन, तू ऐसे नहीं मानेगी?' यह कहते हुए पीर ने मोहिनी के बाल पकड़े और उन्हें खींचते हुए अपनी बुलंद आवाज़ में चिल्लाए,
'बता तुझे क्या चाहिए, इकरा को आज़ाद करने के लिए?'
'बताऊं मैं? क्या चाहिए मुझे?' मोहिनी जैसे क्रोध में बोली.
'यही तो मैं जानना चाहता हूँ.'
तब मोहिनी ने पीर की दाड़ी अपने उलटे हाथ से पकड़ी और फिर दूसरे हाथ से दो-तीन झन्नाटेदार थप्पड़ उनके मुंह पर लगातार बगैर रुके मार दिए,
'तड़ाक . . .तड़ाक . . .तड़ाक.'
'?'- हामिद और उसका पिता यह अजूबा देखकर जैसे दांतों तले अपनी अंगुली चबाने लगे. दुबले-पतले, इकहरे बदन के पीर बाबा भी चारो खाने चित, पीछे की तरफ किसी कटे हुए वृक्ष के समान पीछे ढुलक पड़े.
उनके गिरते ही मोहिनी अपने स्थान से उठी. उसने अपने बाल और साड़ी संवारी फिर हामिद से बोली,
'यही सारा तमाशा करवाने के लिए तू इन्हें मेरे पास लेकर आया था?'
'?'- हामिद डर के कारण कुछ भी नहीं बोल सका.
तभी पीर साहब अपने स्थान से अपने कपड़े झाड़ते हुए उठे और हामिद से बोले,
'इस खातून में लश्करों का लश्कर बैठा हुआ है. इसमें जिन्न नहीं, जिन्नों के बाप और मसान हैं. इसे मैं नहीं, कोई बड़ा माना हुआ खुदा का बन्दा ही भगा सकता है. अब तू यह सारा सामान-असबाब मेरे साथ रिक्शे में रख और मुझे अपने ठिकाने पहुंचा दे. मैं इसका कोई बड़ा बन्दोबस्त करूंगा.'
हामिद ने चुपचाप सारा सामान एक ठेले में भरा और उसे उठाकर अपने रिक्शे में रखा. फिर उसके साथ ही पीर बाबा को लेकर चल दिया.
करीब आधे घंटे के बाद वह वापस आया तो लगता था कि, वह बहुत थक चुका है. रात भर उसने सवारियां ढोईं थीं और अभी तक उसने कुछ भी न तो खाया था और न ही कुछ पिया ही था. उसे घर में घुसते देखकर उसके पिता भी उस पर बरस पड़े. वे बोले,

'तू, किस ढोंगी और पाखंडी को पकड़कर ले आया था. अरे, तुझे यह भी नहीं मालुम कि, अल्लाह के शागिर्द कुछ भी करने से पहले दीन की बातें किया करते हैं. पाक कुरान की आयतें पढ़ते हैं. यह शख्स तो ना मालुम क्या बक रहा था? हो गया न नुकसान अपने पांच हजार रुपयों का. अब वह बड़े ही इत्मीनान से गोस खायेगा और सिरी-पाए की नल्लियाँ चूसेगा?'

'?'- हामिद ने सुना और फिर चुपचाप कोई भी बात किये हुए, अंदर अपनी चारपाई पर जाकर ढेर हो गया. वह थक चुका था, इसलिए लेटते ही गहरी नींद के घर्राटे लेने लगा. मोहिनी भी अपनी जगह जाकर, घुटनों में अपना मुंह नीचे छुपाके जैसे अपनी किस्मत पर मानो सिसकने लगी थी. हामिद के पिता ने अपना हुक्का भरा और उसे लेकर बाहर दरवाज़े पर बैठकर गुड़-गुड़ाने लगे थे.


किसी को क्या मालुम था कि, एक बे-बुनियादी और अन्धविश्वासी की हुई घटना के कारण सारे घर का माहोल बोझिल हो चुका था.

-क्रमश: