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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 35

 

सोई तकदीर की मलिकाएँ 

 

35

सुभाष को जैसे ही अपने गाँव की गली दिखाई दी , उसके सुस्त ढीले पङ गये कदमों में गति आ गय़ी । तेज तेज चलते हुए वह गली के मुहाने पर आ पहुँचा । गली में इस समय कोई नहीं था । गाँव के बच्चे या तो आंगनवाङी और स्कूल गये होंगे या गाय भैंसों को जोहङ पर नहलाने के साथ साथ खुद भी पानी में गोते लगा रहे होंगे । पुरुष सब खेतों में होंगे या हाट बाजार करने फरीदकोट गये होंगे और औरतें चूल्हा चौका समेटने , कपङे धोने या अनाज फटकने जैसे कामों में उलझी होंगी । उसने घङी देखी । ग्यारह बजने में अभी बीस मिनट बाकी है । पूरे दो घंटे लग गये उसे मौसी के घर से यहाँ तक पहुँचने में । बस दो मिनट और लगेंगे फिर वह घर पहुँच जाएगा । घर पहुँचते ही नहाएगा , तैयार होकर फिर खेत चला जाएगा ।
घर के दरवाजे पर पहुँच कर उसने सांकल बजाई – कोई है ?
आई भई , कहते कहते उसकी भाभी ने दरवाजा खोला ।
सतश्री काल भाभी
आ देवरा , माँ नहीं आई ?
नहीं , अभी उसे चार पाँच दिन और लगेंगे । - उसने घर में घुसते हुए कहा ।
बुआ ठीक है ?
हाँ पहले से तो फर्क है । अस्पताल से छुट्टी मिल गई है । पर कमजोर बहुत हो गयी है । अपने आप तो उठ कर बैठ भी नहीं सकती ।
तो यहाँ ले आना था न । यहाँ मिल कर सारे संभाल लेते । वहाँ अकेली माँ क्या करेगी ।
देखते हैं । पहले लाने लायक हो तो जाए , फिर ले आएंगे ।
चल तू हाथ मुँह धो ले । रोटी खाएगा ।
नहीं तू चाह बना दे ।
एक दो तो पङी भी होंगी ।
फिर ठीक है । चाय के साथ वही खा लेता हूँ । पर तू कपङे धो रही थी , वह तो धो ले । मैं चाय थोङी देर मं पी लूँगा । तेरे कपङे गीले हैं । ठंड चढ जाएगी । बीमार पङ गयी तो मुश्किल हो जाएगी ।
चाय चढा देती हूँ । जब तक चाय उबलेगी तब तक कपङे धुल जाएंगे ।
जसवंत ने चूल्हे के पास बैठ कर राख फरोली । अंगारों पर एक उपला तोङ कर रखा । और फूंकनी उठा कर जोर जोर से तीन चार फूंक मारी । आग लहक उठी । उसने पीतल की पतीली राख से मांजी । पानी में छोटी इलायची , अदरक , चाय पत्ती , चीनी डाल कर आग पर चढाई और खुद कपङे धोने लगी ।
सुभाष को अंदर से कोफ्त हो रही थी पर सिवाय सब्र करने के और कोई चारा नहीं था । वह चारपाई पर टांगें लटकाए चाय बनने का इंतजार करता रहा । हाँ इस बीच वह दरवाजे के दो चक्कर लगा कर गली में झांक आया था । सामने से बूढा बुजुर्ग करमसिंह आता दिखाई दिया तो उसने आदतवश पुकार कर कहा – पैरी पौना ताया ।
तिउंदा रह । जवानियां माण । खुश रह । - करमसिंह ने आशीष दी – कब आया पुत्त ।
जी बस अभी अभी आ रहा हूँ ।
होर सब राजी बाजी । ठीक हैं वहाँ “
जी सब ठीक है ।
वह भीतर मुङ आया । भाभी के कपङे धुल गये थे । वह आँगन में बंधी रस्सी पर कपङे फैलाने में भाभी की मदद करने लगा । कपङे फैला कर भाभी ने चाय डाली और चो रोटियों पर सब्जी रख कर दोनों चीजें रविंद्र को पकङा दी । रविंद्र ने रोटी का टुकङा तोङा और चाय का लंबा सा घूंट भरा । उसकी निगाहें सङक पर ही लगी थी । भाभी ने मजाक किया – कोई आनेवाली है क्या जो इस तरह बीही तकी जा रही है ।
कोई नहीं आ रही भाभी , आएगी तो तब न ,जब तू लेकर आएगी पर तुझे तो देवर की फिकर ही नहीं है । - रविंद्र हल्का सा मुस्कुरा कर बोला ।
ये तो भाई का रिश्ता तय करते वक्त देखना था न कि घर में देवरानी बनने लायक कोई लङकी भी है या नहीं । अब तो हाथ ही मलने पङेंगे – भाभी खिलखिला कर हँस पङी ।
सुभाष इस समय कोई बात करने मूड में नहीं था । उसका पूरा ध्यान जयकौर की ओर लगा हुआ था । वह चाय का गिलास थामे गली में आ खङा हुआ । सामने से महरों का रोंदू सङक पर गिरी गाजर को फुटबाल की तरह किक मार कर खेलता चला आ रहा था ।
ओए रोंदू , भाई बन कर एक काम कर दे ।
क्या ?
वो जयकौर है न , शरणे की बहन । तू भाग के जाकर उसे कह कि खेत से चारा मंगवाना है क्या ? मैं खेत में जा रहा हूँ । अपने लिए चरी काट के लाऊँगा तो उसकी गाय के लिए भी ले आऊँगा ।
पर भाई , जयकौर तो घर पर है ही नहीं ।
नहीं है । इसका मतलब खेत गई होगी और अब तक वहीं बैठी चरी काट रही होगी ।
बहन चरी क्यों काटेगी । अब तो उसके नौकर चाकर काटेंगे न ।
अब ये नौकर चाकर कहाँ से आ गये । तूने अफीम तो नहीं चाट ली रोंदू ।
मैं अफीम क्यों खाने लगा । मैंने तो इमली की पुङिया ली है बानिए से । और जयकौर बैन तो बड्डी सरदारनी हो गयी है न अब तो उसके तो हजारों नौकर चाकर हैं । मेरी बेबे कह रही थी ।
चल भाग यहाँ से । पता क्या अवा तवा बोले जा रहा है । - उसने मुट्ठी हवा में उछाली । रोंदू डर कर भाग गया ।
सुभाष को कोई बात पल्ले नहीं पङी । ये जयकौर बङी सरदारनी कब से हो गई और उसके हजार नौकर कहाँ से पैदा हो गये । क्या बक रहा था यह लङका ।
तभी कुम्हारों की रज्जी सिर पर कूङे का तसला उठाए आती दिखाई दी । वह पूछने के ले गे बढा कि रज्जी लपकती हुई आगे निकल गयी । वह उसे जाते हुए देखता ही रह गया । अब .. अब क्या किया जाए ? वह वहीं बीच रास्ते के खङा रह गया । यहाँ तककि पप्पू अपना गड्डा लेकर निकला तो वह टकराते टकराते बचा । पप्पू ने उसे भरवीं मर्दानी गाली दी पर उसका पूरा ध्यान तो कहीं और लगा था । उसने न पप्पू को देखा न उसकी गाली को । सामने से रज्जी आती दिखाई दी तो वह चहक गया ।
रज्जी
हाँ जी वीरे ।
सुन टाफी खाएगी ।
हाँ वीरे । तू कब आया ।
बस थोङी देर पहले ।
ले मीठी गोलियाँ खा – उसने जेब से मीठी संतरे की गोली निकाली जो उसने बस में खरीदी थी ।
गोली मिलते ही रज्जी खुश हो गयी ।
वो सामने से जयकौर को बुला दे । कहना , सुभाष ने बुलाया है ।
उसके लिए तो मुझे उसकी ससुराल जाना पङेगा ।
कहाँ जाना पङेगा ?
बस में चढ के उसकी ससुराल ।
रज्जी आगे बढ गयी थी ।
सुभाष काफी देर सुन्न हुआ खङा रहा । ये रोंदू भी कह रहा था वो बङी सरदारनी हो गयी है और अब ये रज्जी कह गयी कि वह अपनी ससुराल में है । ये माजरा क्या है ?

 

बाकी फिर ...