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बिटिया

बिटिया

कहानी / शरोवन

***

‘जीवन के रास्ते चलने वालों को कहॉ से कहॉ पहुंचा सकते हैं? इसकी पहले से कोई कल्पना भी नहीं कर पाता है। बदले की भावना में अंगार बना-बैठा मानव जब खुद एक दिन प्रायश्चित की आग में जलने लगता है, तब उसे एहसास होता है कि जल्दबाज़ी में उठाये हुये गलत कदमों का सबक कितना मंहगा पड़ जाता है। किसी को सन्तान सुख से वंचित कर देने में ही उसको दु:ख देना नहीं होता है बल्कि सन्तान के रहते हुए उसके सुखों की चिन्ता में जलना भी जीवन का सबसे बड़ा दु:ख होता है। चाहे वह सन्तान अपनी हो अथवा पराई। बच्चों की परिवरिश करने वाले का उत्तरदायित्व और ओहदा उनके प्रति उतना ही ऊॅचा होता है, जितना कि उनको जन्म देने वालों का।

***

‘ महन्त जी! ’


अन्दर प्रविष्ट होते ही डाकू सरदार लाखन ने आवाज लगाई।


लाखन से उम्र में अधिक वयोवृद्ध महन्त ने सुनते ही उसके सामने आकर अपनी उपस्थिति से जब अवगत कराया तो लाखन ने उसे प्रश्नात्मक दृष्टि से देखते हुए पूछा,


‘ रागनी आ गई? ’


‘ अभी तो नहीं। ’ महन्त ने डरे-सहमे कहा।


‘ जब आ जाये तो मुझे सूचित कर देना। ’


‘ बहुत अच्छा सरदार जी! ’


आश्वासन देकर महन्त भीतर चले गये।


उनके जाने पर लाखन ने एक बार बीहड़ में बसे अपने गुफानुमा निवास की दीवारों को निहारा। सीलन के कारण सारी दीवारों की पपड़ियां नम और कमजोर हो चुकी थीं। इसी गुफा की चार दीवारी में उसने अपने जीवन के पिछले बीस वर्ष गुजारे थे। उससे पूर्व इसकी शरण में उसी के समान न जाने कितने लाखन आये थे। रहे थे और संसार से उठ भी गये थे। इस गुफा की कोख़ में जाने कितने गुनहगारों की आप-बीती उनके कष्ट तथा जमाने के सताये हुए अत्याचारों का इतिहास लिखा हुआ था। बेबसी में न जाने कितने गांव और समाजों की दुनिया से निकल कर यहां आकर डाकू जीवन की एक हर समय भागती हुई जिन्दगी में शामिल हुये और बन्दूक की गोलियों के धमाकों की गूंज में छिपकर खो भी गये थे। इन जैसों की कहानियां सरकारी फायलों में दबती रहीं। अखबारों और पत्रिकाओं में छपती रहीं, तथा मुंहजुबानों के द्वारा सुनाई जाती रहीं। फिर अन्त में जाकर अतीत में खो भी गई थीं।


खड़ा-खड़ा लाखन भी अपने जीवन के पिछले जिये हुए बीस वर्षों ‍ में वापस आ गया...’


अपने गॉव दीनपुर में वह और उसका परिवार तब शायद सबसे अधिक दीन था। छोटी जाति और कम काश्त होने के कारण उसका पिता गांव में हर बार, हर मौके पर प्रत्येक कार्य में पीछे धकेल दिया जाता था। लाखन तब बच्चा था। धीरे-धीरे जवान होता गया। तब युवावस्था के इस मोड़ पर आकर उससे अपने पिता, परिवार और स्वयं पर होते हुए अत्याचार देखे नहीं गये। स्वतन्त्र भारत का एक नागरिक होने के नाते उसके भी आम मनुष्यों के समान वही अधिकार थे जिसका दूसरे अन्य ग्रामवासी लाभ उठाते थे। ये बात उसने प्राईमरी की कक्षाओं में बैठकर पुस्तकों के द्वारा जान ली थीं। मगर उसके गॉव के जाने-माने जमींदार के पुत्र दौलतसिंह के मस्तिष्क में ये उसूल और नियम कहां थे? उसने तो वह सीखा था जो उसे उसकी वसीयत में प्राप्त हुआ था। जमींदारी का अभिमान, ग्राम में प्रत्येक कार्य में अग्रणी होना, चाहे कायदे से या बेकायदे से, अपनी मनमानी करना। इसी कारण एक दिन लाखन से खेत के पानी के कारण उसकी कहा-सुनी हो गई थी।


लाखन अपने खेतों में पानी लगा रहा था। सरकारी नलकूप से प्रत्येक किसान को प्राथमिकता के आधार पर पानी दिया जाता था। यूं तो दौलत के पिता के पास अपना निजी नलकूप भी था, परन्तु उसके खेतों का कुछ भाग लाखन के खेतों की मेंड़ों से भी मिलता था। उस दिन दौलत अपने निजी नलकूप से अपने अन्य खेतों में पानी दे रहा था कि तभी उसका ध्यान सरकारी नलकूप की ओर गया। तब उसने सोचा कि क्यों न लगे हाथ लाखन के पास वाले खेतों में भी पानी दे दिया जाये। यही धारणा मन में बसाकर वह उस तरफ आया और लाखन से पूछे बगैर उसके खेत की ओर जाते हुए पानी को काट कर अपने खेतों में कर दिया।


पानी का बहाव यकायक ही मंद पड़ा तो लाखन ने ये सब देखा। तब वह भी बिना कुछ देखे-सुने दौलत के पास जा खड़ा हुआ था और उससे संजीदगी से बोला,


‘ क्यों ठाकुर साहब, मेरा पानी काटकर अपने खेतों में ले रहे हो। ये कैसा न्याय है? ’


‘ अरे! तो क्या हुआ? तू कल लगा लेना। मैं आज फारिग हुआ जाता हूं। ’


दौलत ने लापरवाही से कहा।


‘ लेकिन नम्बर तो मेरा है? ’ लाखन बोला।


‘ तुझे ज्ञात नहीं, यहां इस गांव में हम अपना नम्बर खुद लगाते हैं। ’


‘ ये सरासर बेइन्साफी है तुम्हारी। एक निर्बल को इस प्रकार सताना कम-से-कम तुम ठाकुरों के लिए शोभा नहीं देता?’


‘ हम से पहले तू खेत भर ले, और हम देखते रहें, ये भी तो कायरता है हमारी। ’


‘ वह दिन हवा हो चुके दौलत! जब तुम अपनी मनमानी कर लेते थे। आज तो सब एक समान हैं। ’


‘ मनमानी तो अब भी करते हैं हम। ’


‘ सो तो नहीं कर सकोगे तुम। ’


‘ क्यों तू क्या करेगा। तेरे क्या बाप का पानी है?’


‘बाप तक पहुंचने से पहले होश में आकर बात करना वरना.......।’


‘ वरना? ’


‘ तेरी भाषा में बात करना मुझे भी आता है। ’ लाखन से नहीं रहा गया तो गरज पड़ा।


‘ तेरी ये जुर्रत? ये मजाल? ’ दौलत चीख पड़ा।


उस दिन की ये तकरार पनपते-पनपते शत्रुता में परिवर्तित हो गई। बात बढ़ते हुए आसमान से जा टकराई। दौलत ने लाखन और उसके परिवार पर अपने अत्याचार करने आरम्भ कर दिये। और जब एक दिन दौलत ने लाखन की जवान बहन पर कुदृष्टि डाली तो लाखन से सहन नहीं हो सका। उसने भी एक दिन अवसर पाकर दौलत को खेतों के बीच एकान्त में पकड़ लिया और उसकी जमकर पिटाई कर दी। इस प्रकार कि वह दो माह तक खाट पर पड़ा रहा। दौलत ने जवाबी कार्यवाही में पुलिस के द्वारा लाखन को आतंकित करवाना आरम्भ कर दिया। और उसको एक झूठी डकैती के अपराध में फंसवा दिया। इस प्रकार मन मसोस कर लाखन को फरार होना पड़ा; और तब जब उसने एक दिन अपने जीवन के विषय में सोचा तो वह विक्षिप्त हो गया। उसका बूढ़ा बाप? बूढ़ी मां और छोटी बहन को जिन्दगी जीने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी। बेकसूर अनाधिकार ही दौलत ने उसे अपने पिता, मां, बहन और परिवार से अलग रहने को बाध्य कर दिया था। मां-बाप से अलग कर दिया था। उनको सन्तान के रहते हुए भी सन्तान सुख से वंचित कर दिया था। उससे ये सब सहन नहीं हो सका क्योंकि उसके परिवार को प्राप्त हुए समस्त कष्टों का कारण वह स्वयं था। और उसको इस परिस्थिति में डालने का कारण दौलत था, वरना उसे क्या पड़ी थी इस प्रकार अपने एक सीधे-साधे ग्रामीण-जीवन को फरार करने की।


दिन गुज़रते रहे। तारीखें बदलती रहीं। दौलत एक दिन पूर्ण स्वस्थ हो गया। ठीक होते ही उसने फिर अपने कारनामों से उसे अवगत करा दिया। क्योंकि दौलत चाहता था कि लाखन पकड़ा जाये। किसी भी प्रकार वह गांव की तरफ आये और पुलिस उसे दबोच ले। अपनी ये मंशा पूर्ण करने के लिये उसने फिर एक बार लाखन की बहन का सहारा लिया। खेतों पर आते-जाते पानी भरने आदि के समय जब दौलत लाखन की बहन को छेड़ने लगा और परेशान करने लगा तो लाखन ने फैसला कर लिया कि अब दौलत को यमलोक पहुंचा देने में उसकी बहन की सुरक्षा है। उसके परिवार की भलाई है। समाज और पुलिस की दृष्टि में वह फरार अपराधी है। सजा तो उसे वैसे भी मिलनी है, तो फिर वह क्यों न दौलत को सबक ही सिखा दे? यही सोच-विचार कर एक दिन उसने दौलत के निवास पर भरी अंधेरी रात्रि में अपने साथियों के साथ धाबा बोल दिया। परन्तु नियति को तो कुछ और ही करना था। दौलत उसे मिल नहीं सका। वह तो केवल दौलत को समाप्त कर ने के उद्देश्य से ही आया था। लूट-पाट करने नहीं। इसलिये जब उसका मकसद पूरा नहीं हो सका तो वह दौलत की सबसे बड़ी पुत्री रागनी को उठा लाया था। यही सोचकर कि दौलत अपनी बेटी को छुड़ाने अवश्य ही आयगा। यदि जरा भी दौलत के हृदय में पिता की भावनायें होंगी, अपनी सन्तान, अपने घर से स्नेह होगा तो वह अवश्य ही आयेगा।

दिन गुजर गये। कई हफ्ते। महीने हो गये। परन्तु दौलत नहीं आया। लाखन ने उसकी पुत्री को मारने की धमकी दी। पत्र भिजवाया तो भी दौलत पर कोई प्रति-क्रिया नहीं हुई। वह पूर्णत: उदासीन बना रहा। हां, मुखबरों द्वारा लाखन को ये अवश्य ज्ञात होता रहा कि दौलत से अधिक उसकी पत्नी को अपनी पुत्री की चिन्ता थी। वह रो-रोकर बेहाल थी। मगर दौलत ने अभिमान के आगे अपनी पत्नी व पुत्री की भी कद्र नहीं की। एक मां की ममता और अपनी पुत्री के प्रति समस्त प्यार की भावनाओं पर भी जब उसने लात मार दी तो लाखन के समक्ष रागनी एक समस्या बन गई।


लाखन जानता था कि बदला उसे दौलत से लेना है। उसकी बेटी से नहीं। उसको अपने इरादे पूर्ण करने के लिये रागनी तो मात्र एक माध्यम थी। इसमें उस अबोध का क्या दोष? परन्तु दौलत को भी तो शत्रुता मुझसे ही है, और मेरे कारण मेरा सारा परिवार मां-बहन, पिता सभी को कष्ट झेलने पड़ रहे हैं। यदि यही न्याय है तो फिर मैं क्यों गलत हो सकता हूं? इस प्रकार की भावनायें जब उसके अन्दर पनप जातीं तो उसके कदम फिर अपने मकसद की कामयाबी की तरफ जाने को मचल उठते। और जब भी उसने अपने इस फैसले को अन्तिम अंजाम देने की कोशिश की तभी रागनी का अबोधपन, उसकी मासूमियत और इन सारे प्रतिशोधी खेल-तमाशों से उसकी अनभिज्ञता, बीच में जैसे दीवार बनकर खड़ी हो जाती। वह अपने मतंव्य में असफल हो जाता। रागनी की ओर बढ़ते हुये उसके हत्यारे हाथ थम जाते। हर बार यही हुआ, जब भी उसने ऐसा चाहा। फलस्वरूप दौलत नहीं आया। रागनी पलती रही और साथ ही साथ लाखन के परिवार को दौलत के द्वारा सताना स्वत: ही बन्द हो गया था, क्योंकि अब उसका भावनाओं के तूफान में उठा हुआ कोई भी कदम उसकी नहीं तो कम से कम उसकी पुत्री की जान अवश्य ही ले सकता है। यही सोच समझकर वह भी शान्त पड़ गया था।

‘ बापू? ’


‘ ?’ अचानक ही लाखन के कानों में जाना-पहचाना स्वर सुनाई दिया तो उसके विचारों का तांता टूट गया। उसने तुरन्त घूम कर देखा। रागनी आ गई थी।


‘ ओह! बिटिया? ’ अनायास ही उसके होंठों से निकल पड़ा।


‘ यहां अंधेरे में खड़े-खड़े क्या कर रहे हैं आप? ’रागनी ने लाखन को ऐसी दुविधापूर्ण स्थिति में पाया तो अचरज से पूछ बैठी।


‘ कुछ नहीं बिटिया! ’ कहते हुये वह थोड़ा सा सामान्य हुआ। फिर रागनी को एक क्षण देखकर उसने पूछना चाहा कि,


‘ तुझे देर कैसे हो गई?’ परन्तु चाहकर भी नहीं कह सका। क्योंकि वह जानता था कि रागनी कहां गई थी? क्यों गई थी? प्यार की डगर के कदमों की मंजिल कहॉ होती है? ये वह अच्छी प्रकार जानता था।


इस प्रकार लाखन रागनी को मार भी नहीं सका और दौलत से अपना प्रतिशोध भी नहीं ले पाया। बल्कि इस सबके विपरीत वह पिछले बीस वर्षो से रागनी के प्रति एक पिता का उत्तरदायित्व पूर्ण कर रहा था। रागनी को उसने वह सब दिया था जो एक पिता अपनी सन्तानों को देता है। अपना लाड़-दुलार, अपनत्व तथा अपना सारा जीवन उसने रागनी के बचपन से लेकर जवानी की दहलीज तक की गई परिवरिश में अर्पित कर दिया था। रागनी जैसी बिटिया के प्यार में वह ये भी भूल चुका था कि वह उसके शत्रु की पुत्री है। वही पुत्री जिसे वह प्रतिशोध की भावना में उठा लाया था। परिस्थितियों ने उससे वह सब करवाया था जिससे वह कभी घृणा करता था। और जिसका प्रतिफल उसे इस रूप में मिला था कि वह अब रागनी को अपनी सन्तान से कहीं अधिक प्यार करने लगा था। यही कारण था कि वह अब रागनी की बढ़ती हुई उम्र देखकर उसके प्रति चिन्तित हो गया था। बिटिया के हाथ पीले करने की फिक्रों में वह भूल चुका था कि बन्दूक की गोलियों से उसका जितना करीबी रिश्ता है, उससे कहीं अधिक एक पिता का अपनी पुत्री के हाथ पीले करना बहुत जरूरी है।


इसलिये जब रागनी प्रतिदिन ही सहेलियों के पास मिलने का बहाना बनाकर अपने प्रेमी से मिलने जाने लगी और देर से लौटने लगी तो वह और भी अधिक चिन्तित हो गया। पुत्री को विदा कर देने में ही उसकी भलाई है। जमाने की नियति का क्या भरोसा? प्यार की भावनाओं में उठे हुए कदम कहीं बहक गये? कोई ऊॅच-नीच जैसी बात हो गई? तब क्या सब ही उसको दोष नहीं देंगे? समाज की कितनी अधिक गालियॉ उसे सुननी पड़ेंगी? लोग क्या-क्या कहेंगे? किस-किस का मुंह बन्द करेगा वह? आखिर वह उसका पिता नहीं है तो क्या पिता का हक तो पूर्ण किया ही है।


मानवीय भावनाओं के साथ डाकू जीवन की गुज़र नहीं हो सकती। प्यार और स्नेह से विरक्त होकर ही एक अपराधी जीवन का जीना सम्भव है। प्रतिशोध की भभकती हुई आग में जले-भुने लाखन ने अपने शत्रु की लड़की को उठाकर उसे सन्तान सुख से तो वंचित कर दिया था मगर जब उसकी वही सन्तान उसके ऊपर एक पिता की जुम्मेदारी का भार सौंप बैठी तो उसकी समझ में आया कि ऐसा करके उसने अपने जीवन की फिर कोई भूल दोहरा दी है। बिटिया का दर्द जब स्वयं उसकी ही सन्तान बन कर उससे अपना हिसाब करने लगा तो उसे ज्ञात हुआ कि दौलतसिंह से वह फिर एक बार परास्त हो चुका है। दौलतसिंह से उसकी पुत्री छीनकर क्या उसने अपने अपमान का बदला ले लिया है? क्या उसके दिल को तसल्ली हो गई थी? शायद नहीं? रागनी ने जब उसके साथ पिता और पुत्री का संबन्ध जोड़कर एक पिता के ऊपर अपनी सन्तान के सारे सुखों के उत्तरदायित्व का बोझ लाद दिया तब लाखन ने ठण्डे दिल से सोचा कि वह दौलत के मुकाबले में फिर कम पड़ गया है। तब जिन्दगी के पिछले बीस वषों की प्रतिशोध की अग्नि में जलता हुआ उसका रोम-रोम दौलतसिंह के कदमों में झुकने के लिये विवश हो गया। वह प्रायश्चित की आग में झुलसने लगा। क्योंकि वह जान गया था कि चम्बल के बीहड़ों में उसने जो दु:ख और मुसीबतें झेली हैं वे सब रागनी के सुखों के समक्ष कम पड़ गई हैं। बेटी को सुखी दाम्पत्ति जीवन देना ही एक पिता के लिए उसकी जिन्दगी का सबसे बड़ा सुख और शान्ति होती है। और सन्तान की खुशियों की रक्षा के आगे शत्रु के सामने भी नतमस्तक होने में हार नहीं परन्तु इन्सानी उसूलों और नियमों की कोई भारी विजय ही होती है। ऐसा करने से मानवता फीकी नहीं पड़ती। मनुष्य का अभिमान गिरता नहीं है बल्कि और भी श्रेष्ठ हो जाता है।


फिर जब उसी शाम रागनी भोजन की थाली परोस कर चली गई तो लाखन ने महन्त को बुलाया। उनके आने पर कहा,


‘ बिटिया को विदा करने के लिये पण्डित को बुलवा कर मूहर्त निकलवा ले।’


महन्त जी ने सुना तो प्रसन्नता के कारण उनकी आंखें भी भीग गयीं। खुशी से वे गदगद हो गये। क्योंकि उन्होंने भी तो रागनी को अपनी सन्तान समझ कर पाला था। उसे चाहा है।


‘ और जगवीरा, कुन्दन, नेता, जग्गन आदि सबसे कह दो कि अपने सारे असले बांधकर बिटिया के दहेज के साथ रख दें। साथ में हम सबको भी आत्म-समर्पण करना होगा।’


‘ बहुत अच्छा सरदार। ’


महन्त ने खड़े होकर लाखन को निहारा। तब लाखन ने आगे कहा,


‘ हमको सुबह जल्द ही उठा देना। कल हम दीनपुर जायेंगे दौलतसिंह के पास। ’


डाकू सरदार लाखन के आदेश गुफा की दीवारों से टकराये और गूंज कर विलीन हो गये। इन कच्ची दीवारों की सरहद में कभी भी उसके आदेशों की कभी भी अवेहलना नहीं हुई थी। शायद इसी कारण?


फिर एक दिन रागनी का धूम-धाम से विवाह हो गया। डोली उठने से पूर्व दौलत और लाखन फिर एक बार गले मिले। दोनों ही की आंखों में आंसू थे। पश्चाताप के या बिटिया की विदाई के? कौन जानता था? लोगों ने तो दो शत्रुओं के परस्पर मिलन का ऐसा सुन्दर उदाहरण पहले कभी भी नहीं देखा था। जीवन के रास्ते चलने वालों को कहां से कहां पहुंचा सकते हैं? इसकी पहले से कोई कल्पना भी नहीं कर पाता है। बदले की भावना में अंगार बना-बैठा मानव जब खुद एक दिन प्रायश्चित की आग में जलने लगता है। तब उसे एहसास होता है कि जल्दबाज़ी में उठाये हुये गलत कदमों का सबक कितना मंहगा पड़ जाता है। किसी को सन्तान सुख से वंचित कर देने में ही उसको दु:ख देना नहीं होता है, बल्कि सन्तान के रहते हुए उसके सुखों की चिन्ता में जलना भी जीवन का सबसे बड़ा दु:ख होता है। चाहे वह सन्तान अपनी हो अथवा पराई। बच्चों की परिवरिश करने वाले का उत्तरदायित्व और ओहदा उनके प्रति उतना ही ऊॅचा होता है जितना कि उनको जन्म देने वालों का।

समाप्त।