Satya na Prayogo - 7 books and stories free download online pdf in Hindi सत्य ना प्रयोगों - भाग 7 (6) 1.2k 2.5k 1 आगे की कहानी पिताजी की मृत्यू....उस समय मैं सोलह वर्ष का था। हम ऊपर देख चुके हैं कि पिताजी भगंदर की बीमारी के कारण बिलकुल शय्यावश थे। उनकी सेवा में अधिकतर माताजी, घर का एक पुराना नौकर और मैं रहते थे। मेरे जिम्मे 'नर्स' का काम था। उनके घाव धोना, उसमें दवा डालना, मरहम लगाने के समय मरहम लगाना, उन्हें दवा पिलाना और जब घर पर दवा तैयार करनी हो तो तैयार करना, यह मेरा खास काम था। रात हमेशा उनके पैर दबाना और इजाजत देने पर सोना, यह मेरा नियम था। मुझे यह सेवा बहुत प्रिय थी। मुझे स्मरण नहीं है कि मैं इसमें किसी भी दिन चूका होऊँ। ये दिन हाईस्कूल के तो थे ही। इसलिए खाने-पीने के बाद का मेरा समय स्कूल में या पिताजी की सेवा में ही बीतता था। जिस दिन उनकी आज्ञा मिलती और उनकी तबीयत ठीक रहती, उस दिन शाम को टहलने जाता था।इसी साल पत्नी गर्भवती हुई। मैं आज देख सकता हूँ कि इसमें दोहरी शरम थी। पहली शरम तो इस बात की कि विद्याध्ययन का समय होते हुए भी मैं संयम से न रह सका और दूसरी यह कि यद्यपि स्कूल की पढ़ाई को मैं अपना धर्म समझता था, और उससे भी अधिक माता-पिता की भक्ति को धर्म समझता था - और सो भी इस हद तक कि बचपन से ही श्रवण को मैंने अपना आदर्श माना था - फिर भी विषय-वासना मुझ पर सवारी कर सकी थी। मतलब यह कि यद्यपि रोज रात को मैं पिताजी के पैर तो दबाता था, लेकिन मेरा मन शयन-कक्ष की ओर भटकता रहता और सो भी ऐसे समय जब स्त्री का संग धर्मशास्त्र के अनुसार त्याज्य था। जब मुझे सेवा के काम से छुट्टी मिलती, तो मैं खुश होता और पिताजी के पैर छूकर सीधा शयन-कक्ष में पहुँच जाता।पिताजी की बीमारी बढ़ती जाती थी। वैद्यों ने अपने लेप आजमाए, हकीमों ने मरहम-पट्टियाँ आजमाई, साधारण हज्जाम वगैरा की घरेलू दवाएँ भी की; अंग्रेज डाक्टर ने भी अपनी अक्ल आजमा कर देखी। अंग्रेज डाक्टर ने सुझाया कि शल्य-क्रिया ही रोग का एकमात्र उपाय है। परिवार के एक मित्र वैद्य बीच में पड़े और उन्होंने पिताजी की उत्तरावस्था में ऐसी शल्य-क्रिया को नापसंद किया।तरह-तरह दवाओं की जो बोतलें खरीदी थीं वे व्यर्थ गईं और शल्य-क्रिया नहीं हुई। वैद्यराज प्रवीण और प्रसिद्ध थे। मेरा खयाल है कि अगर वे शल्य-क्रिया होने देते, तो घाव भरने में दिक्कत न होती। शल्य-क्रिया उस समय के बंबई के प्रसिद्ध सर्जन के द्वारा होने को थी। पर अंतकाल समीप था, इसलिए उचित उपाय कैसे हो पाता? पिताजी शल्य-क्रिया कराए बिना ही बंबई से वापस आए। साथ में इस निमित्त से खरीदा हुआ सामान भी लेते आए। वे अधिक जीने की आशा छोड़ चुके थे। कमजोरी बढ़ती गई और ऐसी स्थिति आ पहुँची कि प्रत्येक क्रिया बिस्तर पर ही करना जरूरी हो गया। लेकिन उन्होंने आखिरी घड़ी तक इसका विरोध ही किया और परिश्रम सहने का आग्रह रखा। वैष्णव धर्म का यह कठोर शासन है। बाह्य शुद्धि अत्यंत आवश्यक है। पर पाश्चत्य वैद्यक-शास्त्र ने हमें सिखाया कि मल-मूत्र-विसर्जन की और स्नानादि की सह क्रियाएँ बिस्तर पर लेटे-लेटे संपूर्ण स्वच्छता के साथ की जा सकती हैं और रोगी को कष्ट उठाने की जरूरत नहीं पड़ती; जब देखो तब उसका बिछौना स्वच्छ ही रहता है। इस तरब साधी गई स्वच्छता को मैं तो वैष्णव धर्म का ही नाम दूँगा। पर उस समय स्नानादि के लिए बिछौना छोड़ने का पिताजी का आग्रह देखकर मैं अश्चर्यचकित ही होता था और मन में उनकी स्तुति किया करता था। अवसान की घोर रात्रि समीप आई। उन दिनों मेरे चाचाजी राजकोट में थे। मेरा कुछ ऐसा खयाल है कि पिताजी की बढ़ती हुई बीमारी के समाचार पाकर ही वे आए थे। दोनों भाइयों के बीच अटूट प्रेम था। चाचाजी दिन भर पिताजी के बिस्तर के पास ही बैठे रहते और हम सबको सोने की इजाजत देकर खुद पिताजी के बिस्तर के पास सोते। किसी को खयाल नहीं था कि यह रात आखिरी सिद्ध होगी। वैसे डर तो बराबर बना ही रहता था। रात के साढ़े दस या ग्यारह बजे होगें। मैं पैर दबा रहा था। चाचाजी ने मुझसे कहा : 'जा, अब मैं बैठूँगा।' मैं खुश हुआ और सीधा शयन-कक्ष में पहुँचा। पत्नी तो बेचारी गहरी नींद में थी। पर मैं सोने कैसे देता? मैंने उसे जगाया। पाँच-सात मिनट ही बीते होंगे, इतने में जिस नौकर की मैं ऊपर चर्चा कर चुका हूँ, उसने आकर किवाड़ खटखटाया। मुझे धक्का सा लगा। मैं चौका। नौकर ने कहा : 'उठो, बापू बहुत बीमार हैं।' मैं जानता था वे बहुत बीमार तो थे ही, इसलिए यहाँ 'बहुत बीमार' का विशेष अर्थ समझ गया। एकदम बिस्तर से कूद गया।'कह तो सही, बात क्या है?''बापू गुजर गए!'मेरा पछताना किस काम आता? मैं बहुत शरमाया। बहुत दुखी हुआ। दौड़कर पिताजी के कमरे में पहुँचा। बात समझ में आई कि अगर मैं विषयांध न होता तो इस अंतिम घड़ी में यह वियोग मुझे नसीब न होता और मैं अंत समय तक पिताजी के पैर दबाता रहता। अब तो मुझे चाचाजी के मुँह से सुनना पड़ा : 'बापू हमें छोड़कर चले गए!' अपने बड़े भाई के परम भक्त चाचाजी अंतिम सेवा का गौरव पा गए। पिताजी को अपने अवसान का अंदाजा हो चुका था। उन्होंने इशारा करके लिखने का सामान मँगाया और कागज में लिखा : 'तैयारी करो।' इतना लिखकर उन्होंने हाथ पर बँधा तावीज तोड़कर फेंक दिया, सोने की कंठी भी तोड़कर फेंक दी और एक क्षण में आत्मा उड़ गई। _सत्य ना प्रयोगों ‹ Previous Chapterसत्य ना प्रयोगों - भाग 6 › Next Chapterसत्य ना प्रयोगों - भाग 8 Download Our App More Interesting Options Hindi Short Stories Hindi Spiritual Stories Hindi Fiction Stories Hindi Motivational Stories Hindi Classic Stories Hindi Children Stories Hindi Comedy stories Hindi Magazine Hindi Poems Hindi Travel stories Hindi Women Focused Hindi Drama Hindi Love Stories Hindi Detective stories Hindi Moral Stories Hindi Adventure Stories Hindi Human Science Hindi Philosophy Hindi Health Hindi Biography Hindi Cooking Recipe Hindi Letter Hindi Horror Stories Hindi Film Reviews Hindi Mythological Stories Hindi Book Reviews Hindi Thriller Hindi Science-Fiction Hindi Business Hindi Sports Hindi Animals Hindi Astrology Hindi Science Hindi Anything Miss Chhoti Follow Novel by Miss Chhoti in Hindi Spiritual Stories Total Episodes : 13 Share NEW REALESED Love Stories કૉલેજ કેમ્પસ (એક દિલચસ્પ પ્રેમકથા) - 104 Jasmina Shah Love Stories નો ગર્લ્સ અલાઉડ - ભાગ 54 Nilesh Rajput Science-Fiction એક પંજાબી છોકરી - 9 Dave Rupali janakray Motivational Stories દિલ ખાલી તો જીવન ખાલી - ભાગ 4 Shailesh Joshi Detective stories શિવકવચ - 8 Hetal Patel Classic Stories શિખર - 25 Dr. Pruthvi Gohel Horror Stories કોણ હતી એ ? - 2 Mohit Shah Thriller અગ્નિસંસ્કાર - 49 Nilesh Rajput Love Stories લવ યુ યાર - ભાગ 47 Jasmina Shah Horror Stories ફાર્મ હાઉસ (રહસ્યમય ઘટના) - 16 Dhruvi Kizzu