Ek Ruh ki Aatmkatha - 40 books and stories free download online pdf in Hindi

एक रूह की आत्मकथा - 40

मैं कामिनी ...मिस कामिनी बहुत खुश हूँ।मेरा हत्यारा पकड़ा गया है और मेरा प्रिय समर बाइज्जत वरी हो गया है।मेरी रूह तड़प रही थी,जब तक वह जेल में था।अब मेरी मुक्ति का समय आ गया है पर मैं अपने प्रिय समर को छोड़कर नहीं जाना चाहती।मेरा मन उसमें ही अटका हुआ है पर सोचती हूँ कि यह तो अच्छी बात नहीं।यह तो सच्चा प्यार नहीं।सच्चा प्यार तो मुक्त करता है ..आजादी देता है।मैं क्यों उसे बाँधना चाहती हूँ?मेरी भौतिक देह अब नहीं रही पर समर की भौतिक देह है।उसे जीवन में आगे बढ़ना चाहिए पर वह मेरी यादों से जकड़ा हुआ है।वह अपनी देह को छोड़ देना चाहता है ताकि मेरे पास आ सके।वह मेरे बिना नहीं जीना चाहता,जबकि उस पर कई जिम्मेदारियाँ हैं।उसके अपने बच्चों और पत्नी की जिम्मेदारी और मेरी बेटी अमृता की जिम्मेदारी भी तो उसी पर है।मुझे पता है कि मेरे सारे रिश्तेदार अमृता को इसलिए अपने पास रखना चाहते हैं कि वह मेरी इकलौती वारिस है।एकमात्र समर ही ऐसा है ,जो बिना किसी स्वार्थ के उसके साथ खड़ा हो सकता है।उसका सच्चा अभिभावक वही बन सकता है।वह चाहता भी यही है पर उसके पास ऐसा कोई अधिकार नहीं है। न सामाजिक न कानूनी।इसी का लाभ मेरे रिश्तेदार उठाना चाहेंगे ।वे मन ही मन मुझसे नफरत करते थे ,पर मेरी सम्पत्ति पर अधिकार चाहते थे।मैं सबके लिए बुरी थी पर मेरा पैसा नहीं।वाह री दुनिया!मेरी सास राजेश्वरी देवी अमृता को एक पल के लिए भी नहीं छोड़ रहीं,इसकी वज़ह दुनिया से छिपी रह सकती है ,मुझसे नहीं ।वे अमृता को थोड़ा -बहुत पढ़ाकर उसकी शादी कर देने का ख़्वाब देख रही हैं ताकि सारी दौलत उनके बेटे के हिस्से में आ जाए।मैं उनको क्या कहूँ जब मेरी अपनी माँ भी यही चाहती है।
पर ऐसा होने नहीं पाएगा।मेरी श्रद्धांजलि सभा में जब सारे रिश्तेदार और मित्र एकत्रित होंगे तो मेरा वकील भी आएगा और वह एक ऐसा दस्तावेज़ लाएगा कि सबके होश उड़ जाएंगे।एक विस्फोट -सा होगा।
हाँ,मैंने गुप्त रूप से एक वसीयत बनवाई थी।उस वसीयत के बारे में समर भी नहीं जानता।इतनी जल्दी वसीयत बनाने की एक खास वज़ह थी।एक दिन मैंने एक बहुत ही बुरा सपना देखा था।सपने में मैंने खुद को मरा हुआ पाया।मेरे पास फटे- पुराने कपड़ों में बैठी अमृता बिलख रही थी और मेरे सभी रिश्तेदार ठहाके लगा रहे थे।उसे खराब मां की बिगड़ी औलाद कह रहे थे।तभी मैंने देखा कि दो हाथ आगे बढ़े और उसने अमृता को उठाया और उसे अपने सीने से लगा लिया।उसकी आँखों में सच्चे आंसू थे।वह आदमी और कोई नहीं समर था।
मेरी आँख खुली तो मेरी आँखें गीली थीं।मैंने उसी दिन अपने वकील को बुलाया और उससे वसीयत के सम्बंध में बात की।वह हँस पड़ा-"क्या मिस कामिनी,इतनी छोटी उम्र में वसीयत!"
"जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं वकील साहब और लोगों की नीयत का भी।मैं नहीं चाहती कि कोई दुर्घटना हो जाने के बाद अफ़सोस हो।क्या फ़र्क़ पड़ता है वसीयत अभी बनवाऊं या जीवन के आखिरी बसन्त में।" मैंने वकील साहब को समझाने की कोशिश की।
"इतना बुरा क्यों सोचती हैं?आप सौ साल जीएं।"वकील साहब भावुक हो उठे।
"एवमस्तु,पर वसीयत तो अभी बनेगी,मुझे इत्मीनान रहेगा बस।"मैंने साफ कहा।
"ठीक है,जैसा आप चाहे...।"वकील साहब ने अपने हथियार डाल दिए।
"पर आपको इस बात का खास ख्याल रखना है कि हम दोनों के सिवा तीसरा कोई इस वसीयत के बारे में नहीं जान पाए।"मैंने उन्हें वार्न किया।
"ठीक है ऐसा ही होगा।"वकील साहब ने भी मुझे आश्वस्त किया था।
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समर जब तक जेल में रहा मैं उसी के इर्द -गिर्द रही।जब उसे दिल का दौरा पड़ा तब हॉस्पिटल में उसके सिरहाने खड़ी रही।अब समर अपने घर चला गया है।मैं वहां नहीं जाना चाहती थी इसलिए अपने बंगले पर आ गई।पर आज रात को मुझे समर के पास जाना होगा।वह मेरी याद में कमजोर पड़ रहा है।मुझे उसका मनोबल बनना होगा।उसे उसका कर्तव्य याद दिलाना होगा।
मुझे अपनी बेटी अमृता के भी पास जाना है।उसका ब्रेन- वाश करना है।समर के प्रति उसके मन में जो भी खटास है उसे मिठास में बदलना है।उसके सपने में जाकर उसे समझाना है।मुझे वापस लौटने के संदेशे पर संदेशे आ रहे हैं।मुझे जल्दी- जल्दी अपने अधूरे काम पूरे करने हैं।
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"समर मेरे समर....!"मैंने समर को आवाज़ दी।
नींद की दवा के असर में सोए समर की आँख खुल गई।
"कौन ... ये तुम्हारी ही आवाज़ है न कम्मो....कहाँ हो तुम...दिखाई क्यों नहीं दे रही?"
"मैं कैसे दिखाई दूं समर,मेरी देह कहाँ है अब?मैं तो एक रूह हूँ जिसे तुम देख नहीं सकते,बस महसूस कर सकते हो।"मैंने समर के माथे को छुआ।
"मुझे भी अपने साथ ले चलो कम्मो, मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता।"समर ने मेरी छुअन को महसूस किया।
"ऐसा न कहो समर तुम्हें जीना होगा।अपनी उम्र पूरी करनी होगी।"मैंने उसके होंठ चूम लिए
"तुम्हारे वगैर यह नहीं हो सकेगा कम्मो,तुम जानती हूँ।"समर ने अपने होंठों को छुआ।
"जानती हूँ यह बहुत कठिन होगा फिर भी,तुम्हें अभी बहुत कुछ करना है।"मैंने उसे अपनी बाहों में भर लिया।
"नहीं ...नहीं ..मुझे नहीं जीना और न ही कुछ करना है।"
समर ने उठकर मुझे पकड़ने की कोशिश की,पर पकड़ा तो देह को जा सकता है,रूह को नहीं ।
"समर मेरी बात सुनो,तुम्हें अमृता को देखना है।उसका अभिभावक और संरक्षक बनना है।उसकी उसी तरह देखभाल और सुरक्षा करनी है जैसे मेरा करते आए थे।"
मैंने समर को समझाने की कोशिश की।
"पर वह तो पहले ही मुझे पसंद नहीं करती थी,अब तो नफरत करती होगी।"समर ने अपनी मजबूरी बताई।
"ऐसा नहीं है समर वह मेरी बेटी है।वह तुमसे नफ़रत नहीं कर सकती।"
मैंने पूरे विश्वास से कहा।
"पर ये समाज ये कानून मुझे इसका अधिकार नहीं देता कामिनी।फिर तुम्हारे रिश्तेदार ये कभी नहीं चाहेंगे।" समर के स्वर ने मायूसी थी।
"उसकी चिंता न करो।सारी स्थितियां तुम्हारे अनुकूल होंगी।बस तुम मरने का ख्याल छोड़ दो और जीवन के सामने जो चुनौतियां हैं ,उसे स्वीकार करो।"
"क्या मुझसे यह सब हो सकेगा।"
"सब होगा।तुम अकेले नहीं करोगे यह सब।मेरे प्यार की शक्ति तुम्हारे साथ होगी।"
"तुम कहती हो तो...कोशिश करूंगा।"
"सिर्फ कोशिश नहीं...करना ही होगा।मेरा समर कायर नहीं है।वह जिंदगी की जंग अवश्य लड़ेगा और जीतेगा भी...।मैं चलती हूँ अब।"
मैंने उसे आखिरी बार बाहों में भरकर चूमा और रोती हुई उड़ चली।मुझे वहाँ से बेटी अमृता के सपने में जाना था।
"कम्मो ...कम्मो रूके जाओ..मुझे अकेला मत छोड़ो...।"
समर चिल्लाते हुए बिस्तर से जमीन पर गिर पड़ा।
उसकी चीख सुनकर लीला और अमन दौड़े हुए उसके कमरे में आए।उसे जमीन से उठाकर बिस्तर पर लिटाया।
"क्या हुआ पापा कोई बुरा सपना देखा क्या?"अमन ने चिंतित स्वर में पूछा।
पर लीला समझ गई कि कामिनी की रूह उसके पति को परेशान कर रही है।उसने सोच लिया कि समर को किसी तांत्रिक को दिखाकर घर में पूजा -पाठ कराना पड़ेगा।