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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 38

सोई तकदीर की मलिकाऐँ -

 

38 

 

बस अड्डे से बातें करते हुए वे गाँव के बीचोबीच आ पहुँचे थे । गाँव के कुछ कच्चे कुछ पक्के घरों के दरवाजें खुले हुए थे मानो सब घर द्वार सुभाष को जी आयां नूं कह रहे हों ।आसमान में एक आवारा बदली इधर उधर भटक रही थी जैसे बरसने के लिए उचित सी जगह ढूंढ रही हो और आगे ही आगे भटक कर चल दी हो । हवा में हल्की ठंडक उतर आई थी । सूरज ने धीरे से किरणों को धरती पर उतार दिया था । उनके धरती पर चहल पहल करने से धरती सुहावनी हो गई थी । लोग खेतों में जा रहे थे । काम धंधे के लिए निकलने लगे थे ।
चंद कदम चलने के बाद हवेली की झलक मिलने लगी । अचानक सुभाष की नजर अपने कपङों पर गयी । उसने रात का मुचङा हुआ , मैला कुरता - पजामा पहना हुआ था और पैरों में घर पहनने वाली स्लीपर , सिर पर पुराना धुराना घिसा बदरंग परना । जिन कपङों में वह सो कर उठा था , उन्ही कपङों में उठ कर चला आया था । न नहाया , न धोया । रात का आलस उसके सारे शरीर में हावी हो रहा था । विल्कुल खेतों में काम करने वाला कमेरा दिख रहा था इस समय ।
अब वह घर भी वापिस नहीं जा सकता , उसने सोचा । किराया लगना था चालीस रुपए और उसकी जेब में इस वक्त सिर्फ दस का एक नोट पङा था । उस एक नोट के सहारे वह अपने घर कैसे पहुँचेगा । और अगर लौटने की जगह हवेली में गया तो वहाँ हवेली जा कर कहेगा क्या ? जयकौर उसे देख कर खुश होगी या घबरा जाएगी , यह भी वह नहीं जानता । उसके परिवार में पता नहीं , कौन कौन लोग होंगे , उसे देख कर क्या सोचेगें , पता नहीं ।अपना परिचय वह क्या कह कर देगा । किस काम से आया है , क्या काम बताएगा । सोच उसे पीछे खींच रही थी पर पाँव लगातार आगे बढते जा रहे थे ।
साथ चल रहा नौजवान चलते चलते एक बङे से दरवाजे के सामने आकर रुक गया – ले भाई , ये आ गयी हवेली । अब मैं चला । सुबह का समय है और मैंने बहुत सारे काम निपटाने हैं वरना मैं तुझे अंदर तक छोङ आता ।
कोई ना भाई । तेरा बहुत बहुत शुक्रिया ।
नौजवान उसे छोङ कर वापस मुङ गया और दो मिनट में गली के छोर पर अलोप हो गया ।
सुभाष असमंजस में पङ गया । अब अंदर जाए या लौट जाए कि तभी भोला सिंह की निगाह उस पर पङी ।
आओ भाई , बाहर कैसे खङे हो । अंदर आओ ।
अब भीतर जाने के सिवाय कोई चारा न था । सुभाष पैर घसीटता हुआ हवेली में पहुँचा ।
उसने भोला सिंह को हाथ जोङ कर नमस्ते की ।
इस गाँव के तो तुम हो नहीं । कहाँ से हो और कोई काम था क्या ?
सुभाष सोच में पङ गया । बस से उतरते ही जानता था , उससे यह सवाल पूछे जाएंगे और वह सारे रास्ते इन सवालों के जवाब खोजता आया था । पर जवाब सिरे से नदारद थे ।
अब फिर से इन सवालों के घेरे में वह खङा था ।
वह अभी इन सवालों का कोई मुनासिब जवाब सोच ही रहा था कि जयकौर कमरे से बाहर आई – सुभाष को इतनी सुबह सुबह आँगन में खङा देख कर वह बुरी तरह से चौंक गई । फिर भोला सिंह की आँखों में हजारो सवाल देख कर उसे डर भी लगा । पता नहीं अगले पल क्या हो जाय । जयकौर का दिल खुशी और उत्तेजना से बुरी तरह से धङक रहा था । आज आठ नौ दिन बाद वह सुभाष को अपने सामने देख रही थी । अचानक उसके मुँह से निकला – इसे मैंने बुलाया है ।
भोला सिंह और सुभाष दोनों ने एकसाथ चौंक कर जयकौर को देखा ।
इसे मैंने बुलाया है क्योंकि घर का काम करने के लिए तो हम तीन औरतें हो गयी है पर आप अकेले ही सारे काम संभाल रहे हो । तो इसके आने से आपको कामकाज में सहारा हो जाएगा ।
ठीक है , अगर तुझे ठीक लगता है तो यही सही । खेत में मदद करवा दिया करेगा । नाम क्या है तेरा ?
जी सुभाष
यह हमारे घर के पास ही रहता है । महरों का लङका है । हमारे घर के भी छोटे मोटे काम करवाता रहा है ।
चल , इसे रोटी पानी छकाओ । मैं किसी काम से जा रहा हूँ । थोङी देर में लौटता हूँ ।
भोला सिंह उन दोनों को वहीं छोङ बाहर निकल गया ।
भोला सिंह के बाहर निकलते ही जयकौर का सब्र का बांध किनारे तोङ गया । वह दौङ कर सुभाष के गले लग गयी ।
क्या कर रही है ? कोई देख लेगा तो हम दोनों के लिए मुसीबत हो जाएगी ।
सुभाष परे छिटक गया ।
अपनी स्थिति याद आते ही जयकौर शरमा गई । कैसा पागलपन कर रही थी वह । यहाँ इस हवेली के आँगन में खङी होकर अपने आशिक के ... उसने दाँतों से अपनी जीभ काट ली ।
पर तू चला कहाँ गया था बिना बताए । मैं तुझे ढूंढती रही । बहुत याद किया तुझे । रानी से भी पूछा । किसी ने कुछ नहीं बताया ।
मुझे तो माँ अपने साथ ले गयी थी । बुआ हस्पताल में दाखिल थी । उसे संभालने वाला कोई नहीं था । सोचा तो यह था कि माँ को वहाँ छोङ कर तुरंत लौट आऊँगा । पर वहाँ जाकर ऐसा फंसा कि निकलना हो ही नहीं पाया । माँ तो अभी भी वहीं है पर मुझे बङी बेचैनी हो रही थी । वहाँ मन ही नहीं टिक रहा था तो मैं लौट आया । घर आकर पता चला कि तेरी तो शादी हुए चार दिन हो गए ।
मुझे भी शादी का उसी दिन पता चला । फेरों से एक घंटा पहले । मुझे आकर अचानक बङी भाभी ने नये कपङे निकाल कर दिए और मौहल्ले की औरतों ने बटना लगा कर नहला दिया । अगली कुछ देर में फेरे लावां हो गयी । यह सब कुछ इतनी अचानक हुआ कि मैं कुछ सोच ही नहीं पाई कि हो क्या रहा है ?
सरदार कैसा है ?
पता नहीं ।
पता नहीं मतलब ..?
मेरी उससे अभी तक बात ही नहीं हुई ।
सुभाष का मुँह खुला का खुला रह गया ।
वह कुछ कहता , इतने में बसंत कौर सीढियां उतरती दिखाई दी । हल्के फालसई रंग के सूट में उसका चंपई रंग पूरा खिल आया था ।
जयकौर और सुभाष दोनों ने एक साथ दोनों हाथ जोङ कर फतह बुलाई ।
ये सुभाष है । छोटी सरदारनी जी । कम्मेआना से आया है । सरदार साहब की खेती में मदद करने के लिए ।
भई कोई चाय पानी पूछा या नहीं । चाय तो पिलाओ । लगता है नींद में ही चल कर आ गया है ।
जी मैं बनाती हूँ – जयकौर चौंके में चाय बनाने चली गयी । सुभाष ने देखा , सरदारनी दीवार से लगी चारपाई को सीधा करने जा रही है तो वह लपका – सरदारनी आप तकलीफ क्यों कर रही हैं । लाइए मैं बिछा देता हूँ ।
बसंत कौर एक ओर हो गई । सुभाष ने चारपाई आँगन में बिछा दी और खुद नलके पर हाथ मुँह धोने चला गया ।

 

 

बाकी फिर ...