Prem Gali ati Sankari - 12 books and stories free download online pdf in Hindi

प्रेम गली अति साँकरी - 12

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न जाने क्या होता था,  मैं क्यों अपने कमरे की बड़ी सी खिड़की के सामने उस सड़क की तरफ़ अक्सर खड़ी हो जाती थी जिधर रतनी का घर था | सड़क के ठीक सामने के पीछे के भाग में मेरे कमरे की खिड़की पड़ती थी जहाँ से केवल सड़क पार करके रतनी और शीला दीदी का घर पूरा ऐसे दिखाई देता था जैसे वह मेरे लिए ही बनाया गया हो | उस तरफ़ के रास्ते बंद करवाकर पीछे की चौड़ी सड़क पर भव्य सिंहद्वार ‘गेट’बरसों पहले बनवा दिया गया था | कारण,  वही था कि इस रास्ते से कोठी के भीतर प्रवेश करना यानि उस सामने वाले मुहल्ले और वहाँ बसने वाले फूहड़ निवासियों की चक्कलस से दूर रहना | 

हमारे संस्थान में तो बड़े क्लासिक लोग आते थे, उच्च स्तरीय ! पीछे का बड़ा गेट लगभग बंद ही रहता,  ज़रूरत ही नहीं थी उसकी | वहाँ के लगभग सभी निवासियों ने दूसरी ओर ही अपनी कोठियों के खूबसूरत,  बड़े सिंहद्वार’गेट्स’बनवा लिए थे | एक प्रकार से बंद ही कर दिया गया था उधर का मार्ग ! इसीलिए उधर से किसी का जाना ही नहीं होता था | बस,  मैं अपने कमरे की बड़ी सी खिड़की में से उसकी सीधी सड़क को अपनी दृष्टि से तोलती रहती | कई बार लगता क्यों मैं उस पीड़ा से भीगना चाहती हूँ जो मुझे उस कमरे की खिड़की में से ऐसी बौछार सी भिगो जाती है जिसमें से ओले पत्थर बनकर निकलते हैं और मेरे दिलोदिमाग को छलनी कर देते हैं? अम्मा-पापा, दादी ने तो कबका वह रास्ता काट दिया था,  बंद करवा दिया था उस बड़े से गेट को | हाँ, जब कभी घर की ज़रूरत की अलमारियाँ,  मेज़ें या रसोईघर की ऐसी ही कोई बड़ी चीजें आती,  उसे खुलवा दिया जाता | उस पिछले भाग में संस्थान के किसी प्रयोजन के लिए बाहर जाने वाली एक पंद्रह सीटर गाड़ी भी खड़ी रहती थी | 

गार्ड के पास चाबी रहती, वहीं पीछे उसको एक कमरा, रसोई और बाथरूम बनाकर दे दिया गया था जिसमें उसका परिवार सिमटा रहता था | वे दोनों पति-पत्नी व उनके दो छोटे बच्चे!बरसों से साथ रहने वाले सेवक परिवार का अंग हो ही जाते हैं | गार्ड बरसों पहले संस्थान में आया था बल्कि उसकी शादी दादी ने ही करवाई थी| बिना माँ-बाप का बच्चा बिहार से चाचा-चाची के ज़ुल्म से भागकर भटकता हुआ दिल्ली आया था | पता नहीं दादी को कैसे और कहाँ से ऐसे लोग टकरा जाते थे जिनको उनकी आवश्यकता होती थी | शायद उसकी उम्र उस समय 14/15 वर्ष की रही होगी | हमारे यहाँ ऐसे बहुत से दुखी लोगों का जमावड़ा रहता था और हमें अपना घर आश्रम जैसा लगने लगता| हम मज़ाक में अपने घर को ‘दुखी घर’कहते लेकिन दादी ने समझाया था कि इस शब्द का प्रयोग करना यानि खुद भी नेगेटिव होना और सबमें नेगेटिविटी भरना ! जो उनके अनुसार गलत था | दादी उसको ‘प्रभु आशीष’ कहतीं | उनके अनुसार जो परिवार किसी के लिए कुछ कर सकता है, उस पर ईश्वर की कृपा होती है तभी किसी के लिए कुछ थोड़ा, बहुत करना भी संभव होता है | 

हमारा परिवार दादी के विचारों से सदा प्रभावित रहा है, अम्मा तो विशेष रूप से दादी की चमची थीं | पापा-अम्मा दोनों ही, इसलिए उनकी एक ‘हाँ’में सब कुछ आ जाता था | बस, यह गार्ड भी दादी की ‘हाँ’ का ही आशीर्वाद था| वह आगे वाले सिंहद्वार पर तैनात रहता था जहाँ उसके लिए एक छोटी सी केबिन थी जिसमें कुर्सी, मेज़, पंखा, इंटरकॉम सभी थे| लेकिन वह दिन भर में कई बार आगे से पीछे चक्कर काटता रहता था | 

कुछ चीज़ें कभी नहीं निकलतीं मन से---–जैसे एक मोमबत्ती सुलगती रहती है, जलकर खत्म हो जाती है | रोशनी भी बंद हो जाती है लेकिन वह अपनी जगह पर कुछ निशानी छोड़ ही देती है | उसे तो खुरचकर ही साफ़ करना पड़ता है | मैं हर दिन उस मुहल्ले के घरों में चलने वाली हरकतें दूर से ही देखती रहती थी| सड़क के ऊपर दृष्टि पड़ते ही शीला दीदी के घर में अनायास ही दृष्टि पड़ जाती थी और बड़ी आसानी से वहाँ की हलचलें मन में उपद्रव करने लगती थीं | हाँ,  बस शीला दीदी से इस विषय में बात करना मुझे उचित नहीं लगता था | कुछ दिन होते न होते वे खुद ही अपने मन की पीड़ा मुझसे साझा कर लेतीं| 

आज का पूरा दृश्य और हरकतें मुझे दिखाई दे गईं थीं | हाँ, संवाद बहुत स्पष्ट नहीं थे लेकिन माहौल में एक उग्रता भरी हुई इतनी दूर से भी पता चल रही थी | जिससे स्पष्ट पता चल रहा था कि वहाँ जो कुछ भी चल रहा होगा, उन संवादों में मिठास तो हरगिज़ नहीं हो सकती | कैसा कैसा हो आता है मन ! एक वातावरण में हम बच्चे पलकर बड़े हुए थे और दूसरा वातावरण वह था जहाँ गालियाँ सुआलियों या मिठाई जैसी बँटती रहती थीं| शायद यह भी सब कुछ सुनिश्चित ही होता है | मैं खासी बड़ी हो चुकी थी, ’मैच्योर वुमेन’!ऐसा नहीं था कि मैं देह में उगने वाले प्रेम के स्वाभाविक स्पंदन को पहचानती नहीं थी लेकिन न जाने क्यों अम्मा-पापा का इतना स्नेहिल व प्रेममय जीवन देखकर भी इतनी अधिक उसकी ओर प्रभावित नहीं हुई थी जितनी रतनी के जीवन की पीडयुक्त घटनाओं का प्रभाव मेरे ऊपर पड़ रहा था | मैं वह सब जानकर, देख–सुनकर उदास, निराश हो जाती थी| जबकि जानती थी कि वातावरण और सोच—सब ही में तो अंतर था लेकिन एक मूर्ख की भाँति मुझे रतनी का जीवन अपने माता-पिता से अधिक प्रभावित करता रहा था| 

भाई अमोल यहाँ से एम.बी.ए कर चुका था | उसका सपना था कि वह यू.के की किसी फेमस यूनिवर्सिटी से पीएच.डी कर सके | लगा रहता वह टटोलने में और उसका भाग्य उसे कैम्ब्रिज तक ले ही गया | मास-कम्यूनिकेशन के रिसर्च-स्कॉलर के रूप में उसे वहाँ प्रवेश मिल ही गया | उस यूनिवर्सिटी में पढ़ना था उसे जो आम लोगों के लिए लगभग नामुमकिन ही था लेकिन उसके लिए यह संभव होना था तो हुआ| अम्मा–पापा उसका निर्णय सुनकर  उदास हो गए थे लेकिन उन्होंने भाई की इच्छा पर खुद को नहीं थोपा| वैसे भी हमारा परिवार बहुत उदार व संवेदनशील था। सब एक–दूसरे की भावनाओं, इच्छाओं को समझते थे | वह कई वर्ष पहले बाहर चला गया था| अब तो मैं, अम्मा, पापा और घर में हाथ बँटाने वाले सेवक ही रह गए थे लेकिन संस्थान के कारण काफ़ी लोग वहाँ कार्यरत थे जिसके कारण काफ़ी चहल-पहल बनी रहती बल्कि कहूँ कि तहज़ीब वाला कुछ शोर भी! लेकिन इस सबका घर के भीतरी भाग में कोई प्रभाव नहीं पड़ता था और अक्सर मैं अंदर का बड़ा सा सहन पार करके अपने सबसे पीछे वाले कमरे में आ बैठती या आराम करती या जो कुछ भी मुझे करना होता करती | अगर कहूँ अकेलापन अच्छा लगने लगा था तो गलत न होगा| 

भाई अपने पढ़ाई के कई वर्षों में दो बार आया था, बहुत सफ़ल हुआ था वह अपने काम में | अपने साथ पढ़ने वाली एमीना एंड्रू से उसका प्रेम हो गया था | अम्मा-पापा ने बच्चों को कभी किसी बात के लिए विरोध किया ही नहीं था | सबकी ज़िंदगी पर उनका अपना अधिकार होना चाहिए, हमारे परिवार का यही तो मानना था| एमिली  वहाँ की नागरिक तो थी ही, निवासी भी वहीं की थी | उसके पिता मि.एंड्रू घोड़े पालने, बेचने का बहुत बड़ा व्यापार करते थे | कंट्री साइड्स में उनकी न जाने कितनी बड़ी ज़मीन थी जो तंदरुस्त और खूबसूरत घोड़ों को पालने के लिए कभी उनके पिता ने खरीदी थी | यह व्यापार दो पीढ़ियों का था और उनके पिता के बाद में उनके हाथ में आया था | अपने पिता के साथ ही काफ़ी छोटी उम्र में एमिली के पिता  उस काम में जुड़ गए थे लेकिन उन्होंने ‘लॉ’ की पढ़ाई भी की थी और पिता के सामने से ही उन्होंने वकालत शुरू कर दी थी| एक बार एमीली उसे वहाँ लेकर गई थी | उसके पिता का घर भी उस घोड़ों के बड़े से स्थान के पीछे था| क्या विशाल कोठी थी!हाँ,  वहाँ के नियमों के अनुसार वह उसी शिल्प कि थी जो वहाँ स्वीकार्य थे लेकिन बहुत बड़े भाग में बनी हुई थी जिसके भीतर समय के अनुसार आधुनिक से आधुनिक चीज़ों का समावेश किया गया था | 

भाई जब यहाँ आया था तभी उसने सबको बताया था कि एक आम घर की तुलना में कितने-बड़े-बड़े कमरे और भीतर का खूबसूरत ‘डैकोर’था | अम्मा-पापा को इन सब बातों से क्या फ़र्क पड़ने वाला था? उन्हें पता चल गया था, उनके बेटे के मन में क्या चल रहा था | केवल अकेलेपन की सोच ने उन्हें उदास कर दिया था जिस उदासी को उन्होंने अपने बेटे से दूर ही रखा था| बस, वे चाहते थे कि उनका बेटा जिस परिवार में भी शादी करे, वह शिक्षित हो | यू.के निवासी का अर्थ शिक्षित होना नहीं था न !जब उन्हें एमिली के परिवार के बारे में पता चला था, वे प्रसन्न ही हुए थे | एमिली की माँ भी शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी हुई थीं और उनका पारिवारिक जीवन भी बहुत संतुष्ट, सुखी था जैसा उन्हें भाई से पता चला था | 

अगली बार जब भाई का भारत आने का कार्यक्रम बन रहा था अम्मा-पापा ने उसे कहा वह मि.एंड्रू से अपनी और एमिली की शादी की बात करके आए| बातों ही बातों में शादी की बात तय हो गई| मि.एंड मिसेज़ एंड्रू ने अपनी बेटी की शादी भारतीय विधि से करने की इच्छा व्यक्त की | इस बात से अम्मा-पापा काफ़ी प्रसन्न हो गए थे| उनकी इजाज़त से पहले यू.के में भाई और एमिली की रजिस्टर मैरेज करवा दी गई | पापा, अम्मा से बात करने के बाद शादी की तारीख तय हुई और एमिली का परिवार और कई मित्र भारत आए| 

खूब धूमधाम से शादी की सारी रस्में सम्पन्न हुईं | पापा-अम्मा की सोच थी कि विवाह यानि दो परिवारों के दिलों का मिलन जरूरी है | शरीर का मिलन तो हो ही जाता है चाहे ज़बरदस्ती, चाहे समाज के भय से, चाहे किसी और कारण से लेकिन दो लोगों के दिलों या परिवार में सबके दिलों का मिलन यदि न हो तो ये सब व्यर्थ, दिखावा ही हैं| इसके लिए आवश्यकता होती है ऐसे लोगों की जिनकी सोच काफ़ी हद तक एकसी हो | पारदर्शी,  ईमानदार,  स्पष्ट, सरल, सहज, सभ्य---

एमिली और उसका परिवार वास्तव में बहुत सभ्य व सही मायनों में शिक्षित था | पापा ने पहले ही कह दिया था कि वे कोई ‘ड्रिंक-पार्टी’नहीं रखेंगे | हाँ,  यदि उन्हें अपने कमरे में ड्रिंक लेनी हो तो उन्हें कोई परेशानी नहीं थी| पापा-अम्मा दिल्ली की उन बारातों को देखते थे जो पीकर हो-हल्ला मचाते और उनमें बदतमीज़ियाँ होती थीं| उन्हें इस बात का भय था कि कहीं ऐसा न हो कि इतने सभ्य समाज के लोगों में कुछ ऐसे लोग घुस आएँ जो उत्सव को किसी बेहूदी आम बारात में बदल दें | यहाँ अक्सर देखा जाता था कि स्टैंडर्ड को दिखाकर ड्रिंक करने वाले लोगों की भाषा व व्यवहार भी कई बार सभ्यता की दहलीज़ लाँघ जाता था | मि.एंड्रूज़ का परिवार इतना शिक्षित व सभ्य था कि उन्होंने यह बेहतर समझा कि ड्रिंक लेना जरूरी नहीं था | उन्होंने कमरे में भी ड्रिंक लेने से मना कर दिया| ऐसा नहीं था कि पापा-अम्मा को इससे कोई परेशानी थी, वे दोनों कभी स्वयं भी ‘सेलिब्रेट’करते लेकिन उनकी तो बात ही कुछ अलग थी | वे सदा एक–दूसरे के पूरक थे, सदा एक-दूसरे के विचारों से सहमत देखा था मैंने उन्हें !

‘क्या प्रेम ऐसा भी हो सकता है ?’मैं कई बार सोचती फिर एक तसल्ली भरी मुस्कुराहट मेरे मुख पर छा  जाती | मेरे बारे में माँ-पापा बात करते जिसके दोस्त तो बहुत थे लेकिन अभी तक कोई ‘ब्वाय फ्रैंड’ नहीं था| उन्हें चिंता भी होती, मुझसे तो कुछ कहा नहीं जाता था लेकिन उनके मुख पर मुझे देखकर जिस प्रकार के भाव आते, उनसे मुझे समझ तो आता ही !

मेरे मन में भी भाव उठते, जिज्ञासा होती, कभी दिल भी धड़कता लेकिन किसके लिए ?कोई ऐसा तो था ही नहीं जिसकी तस्वीर मेरी आँखों में बसती, जो मेरी नींदें चुरा ले जाता | 

भाई और एमिली अपने जीवन में बहुत मस्त थे और मुझसे अक्सर बात करते थे, पूछते थे कि मैं अपना कोई साथी क्यों नहीं चुन रही हूँ ? मैं उसे क्या बताती कि मैं खुद ही नहीं जानती थी कुछ !

पता नहीं मुझे क्यों लगता कि शादी करना इतना क्यों जरूरी है ?