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कैक्टस के जंगल - भाग 1

कहानी संग्रह

सुरेश बाबू मिश्रा

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अपनी बात

साहित्य संस्कृति एवं संस्कारों का वाहक होता है। एक पीढ़ी द्वारा अर्जित अनुभव एवं ज्ञान का लाभ साहित्य द्वारा दूसरी पीढ़ी को सहज ही प्राप्त हो जाता है। यह समाज को रचनात्मक दिशा देने का कार्य करता है। इस समय पूरा देश और समाज कोरोना आपदा के कठिन दौर से गुजर रहा है। प्रतिदिन लाखों नये संक्रमित मिलना और हजारों लोगों के असमय निधन का समाचार अन्तर्मन को झकझोर कर रख देता है। आपदा के इस दौर में साहित्य मन को संयत रखने का सबसे सरल और सशक्त माध्यम है। साहित्य पढ़ने और साहित्य की रचना करने से मन में सकारात्मक विचार आते हैं। सकारात्मक विचारों से हमारे शरीर में सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है जो हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है। हमारा मन शान्त और तनाव रहित रहता है।

इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए मैंने लॉकडाउन की अवधि का सदुपयोग एक कहानी संग्रह लिखने के निमित्त किया। इस संग्रह में जीवन के विभिन्न पहलुओं को उजागर करती कुल बीस कहानियां सम्मिलित हैं। यह कहानियां अलग-अलग क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करती हैं। आम आदमी को केन्द्र में रखकर पारिवारिक एवं सामाजिक ताने-बाने पर बुनी गई इन कहानियों के माध्यम से मैंने समाज से व्याप्त विसंगतियों, बदलते मानव मूल्यों, बदलती सोच एवं जीवन के अन्तद्र्वन्द्वों को रेखांकित करने का प्रयास किया है।

यह कहानी संग्रह पूजनीय पिता जी स्वर्गीय गुलजारी लाल मिश्रा एवं पूजनीया माँ स्वर्गीया रम्पादेवी मिश्रा के श्रीचरणों में सादर समर्पित हैं। जिनका आशीर्वाद एवं प्रेरणा ही मेरा सबसे बड़ा सम्बल है।

हिन्दी के मूर्धन्य विद्वान डॉ. सदानन्द प्रसाद गुप्ता, वरिष्ठ कहानीकार माधव नागदा, डॉ. अमिता दुबे, डॉ. संदीप अवस्थी, सुकेश साहनी, गुडविन मसीह, वरिष्ठ साहित्यकार हरीशंकर शर्मा, दिनेश चन्द्र अवस्थी, डॉ. एन.एल. शर्मा, डॉ. उमेश महादोषी, मीनू खरे, डॉ. अवनीश यादव, डॉ. नितिन सेठी, डॉ. दीपांकर गुप्ता, रोहित राकेश वरिष्ठ कलाविद्, डॉ. राजेन्द्र सिंह पुण्डीर, डॉ. शशिवाला राठी समाजसेवी, सुरेश चन्द्र शर्मा, सुरेन्द्र बीनू सिन्हा, निर्भय सक्सेना, विनोद कुमार गुप्ता, एस.के. अरोरा, गुरविन्दर सिंह, डॉ. रवि प्रकाश शर्मा तथा नरेश कुमार मौर्य का मैं आभार व्यक्त करना चाहूँगा जिनके मार्गदर्शन एवं सतत सहयोग से यह संग्रह अपना आकार ग्रहण कर सका।

आभार की इस श्रृंखला में मैं अपनी धर्मपत्नी सन्तोष मिश्रा का आभार व्यक्त करना नहीं भूलूंगा जिनका निरन्तर सहयोग और स्नेह इस संग्रह को मूर्तरूप देने में मिला।

किसी भी कृति की सफलता या असफलता का निर्धारण पाठक करते हैं। इस संग्रह की कहानियां पाठकों के अन्तर्मन को छू पाती हैं या नहीं यह अभी भविष्य के गर्भ में है। किसी भी रचना की सार्थकता इसी में है कि वह पाठकों को कोई सकारात्मक संदेश दे या उनका स्वस्थ मनोरंजन करे। इस पैमाने पर यह कहानियां कितनी खरी उतरती हैं इसका निर्धारण आपको करना है। कहानी संग्रह पर आपकी प्रतिक्रिया एवं सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी।

सुरेश बाबू मिश्रा

ए-373/3, राजेन्द्र नगर, बरेली-243122 (उ॰प्र॰)

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विविध वर्णी कहानियों का स्तवक: कैक्टस के जंगल

श्री सुरेश बाबू मिश्रा हिन्दी कथा साहित्य का जाना-पहचाना नाम है। आपकी अनेक रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशित होती रहती हैं। आपका नया कहानी संग्रह ‘कैक्टस के जंगल’ नाम से प्रकाशित होेने जा रहा है जिसमें 20 कहानियाँ हैं जिनके शीर्षक हैं-‘आमंत्रण भरी आँखें’, ‘सेल्फ डिफेंस’, ‘हौंसलों का सफर’, ’कैक्टस के जंगल’, ‘लक्ष्मण रेखा’, ‘भंवर’, ‘बदला हुआ आदमी’, ‘पथराई आँखें’, ‘पिंडदान’, ‘कढ़ा हुआ रूमाल’, ‘वतन की खातिर’, ‘नियति का खेल’, ‘सरहद’, ‘प्यार की सरगम’, ‘सरहद का प्यार’, ‘झंझावात’, ‘हाटस्पाट’, ‘क्या करूँ देश भक्ति का’, ‘जीत का सेहरा’ और ‘समय चक्र’।

इन बीस कहानियों में जो बात मुख्य है वह है कहानी के सरोकार। ‘सरोकार’ बहुत विस्तृत शब्द है जिसका परिप्रेक्ष्य ग्रामीण और शहरी समाज दोनों से होता है। श्री सुरेश बाबू मिश्रा जितनी तन्मयता से शहरी वातावरण का सृजन अपने साहित्य में करते हैं, उतनी गहनता से ग्रामीण परिवेश की भी पड़ताल करते हैं।

संग्रह की पहली कहानी ‘आमंत्रण भरी आँखें’ में प्रेम की पराकाष्ठा का चित्रण है। यहाँ कहानीकार की संवेदना अतृप्त आत्मा की पुकार सुनती है तब वे कहते हैं-

रास्ते में मैं सोचने लगा कि अभी थोड़ी देर पहले मैंने जिसे देखा था वह क्या था सुजाता की अतृप्त आत्मा या मेरे मन में बसी हुई उसकी स्मृतियों की परिणति, मेरे मन का बहम या फिर मेरी आँखों का भ्रम?’

दूसरी कहानी सैल्फ डिफेन्स’ समाज में स्त्री के प्रति फैले अनाचार-दुराचार का सामना स्वयं स्त्री को ताकतवर बनकर करना होगा, का संदेश देने वाली है। इस कहानी की नायिका कहती है-“यह बात मुझे अच्छी तरह समझ में आ गयी थी कि लड़कियों के भय और कमजोरी का ही लोग गलत फायदा उठाते हैं। मैं उनके दिलों में बसे भय को दूर कर उनमें आत्म विश्वास भरना चाहती हूँ। इसलिए मैंने यह सेन्टर खोला है।“

तीसरी कहानी है ‘हौंसलों का सफर।’ कोई भी सफर चाहे कितना भी कठिन क्यों न हो उसे हौंसलों से ही पार किया जा सकता है। इस कहानी में ‘लाॅक डाउन’ के दूसरे चरण की स्थितियों को चित्रित किया गया है। कहानीकार कहता है-

‘कटोरी देवी किशन के पिताजी के साथ बिना नागा किये रोज डंडा टेकते-टेकते स्कूल आ जाती और काफी दूर बैठकर उनसे घण्टों बातें करतीं।’

कोरोना के कारण घर लौटे परिजनों को जब घर जाने के स्थान पर ‘कोरेण्टीन सेन्टर’ में रहना पड़ रहा था, का चित्रण इस कहानी में सुन्दरता से किया गया है।

चैथी कहानी है-‘कैक्टस के जंगल’। यह पुस्तक की शीर्षक कहानी है। यह कहानी मनुष्य के दुर्बल क्षणों में अनैतिक कार्य करने के कारण उत्पन्न हुई ग्लानि को रेखांकित करती है। अंत में मेजर रमनदीप एक संदेश देते हुए अपनी व्हील चेयर ढकेलते हुए बाहर चले जाते हैं-

‘मिस्टर मेहता मैं अपने मकसद में कामयाब तो हो गया और लोगों की आँखों में धूल भी झोंक दी पर ईश्वर की निगाहों से नहीं बच सका। मेरा हश्र तुम देख रहे हो। अपनी पत्नी और बच्चों को खोने के बाद मैं एक रात भी सुकून से नहीं सो पाया हूँ। हर समय मुझे ऐसा लगता रहता है जैसे मेरे चारों ओर कैक्टस के घने जंगल उग आए हैं और वो मुझे लहूलुहान करते रहते हैं।’

‘लक्ष्मण रेखा’ कहानी में सपने के माध्यम से लॉकडाउन, कोरोना की महामारी की भयावहता की ओर संकेत किया गया है तो ‘भंवर’ कहानी में इतिहास के पन्नों को पलटती है। ‘बदला हुआ आदमी’ शिक्षित नौजवान के दुर्दान्त डाकू बनने की कहानी है, ‘पथराई’ आँखें’ एक ऐसी युवती की कथा है जो अपने यौवनाकाल में भटक जाती है, फिर अन्त समय अपनी भूल का सुधार करती है। उसका पति उसे क्षमा भी कर देता है।

इसी प्रकार इस संग्रह की कहानियों में ‘पिंडदान’, ‘कढ़ा हुआ रूमाल’, ‘नियति का खेल, ‘प्यार की सरगम’, पारिवारिक, सामाजिक परिवेश के विभिन्न पक्षों को रेखांकित करती हैं तो ‘वतन की खातिर’, ‘सरहद’ और ‘सरहद का प्यार’ जैसी कहानियाँ देश-प्रेम की नयी पृष्ठभूमि का चित्रांकन करती हैं।

समग्रतः श्री सुरेश बाबू मिश्रा की कहानियों में विषय की विविधता के साथ-साथ भाषा और शैली की विविधता भी देखने को मिलती है। आपकी कहानियों के पात्र अपनी बात और व्यवहार से पाठकों के मन पर गहरी छाप छोड़ते हैं जो कहानीकार की सबसे बड़ी सफलता होती है।

आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि श्री सुरेश बाबू मिश्रा का यह नया कहानी संग्रह ‘कैक्टस के जंगल’ साहित्य जगत में अपनी महत्वपूर्ण छवि अंकित करेगा और श्री मिश्रा को यथेष्ट मान-सम्मान भी अर्जित कराने में सहयोगी होगा। श्री मिश्रा को अनन्त शुभकामनाएँ।

(डॉ. अमिता दुबे)

सम्पादक

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान

6, महात्मा गाँधी मार्ग, हजरतगंज, लखनऊ-226002

मो. 9415551878

ई-मेल : amita.dubey09@gmail.com

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भूमिका

समर्थ एवं सम्भावनाशील कहानीकार: सुरेश बाबू मिश्रा

कहानी वह विधा है जिसे हर कोई नहीं साध सकता। कथ्य, शिल्प पर ध्यान हटा नहीं कि कहानी पटरी से नीचे। उधर भाषा, भाव पर भी ध्यान देना आवश्यक है। इन सबके साथ-साथ मनोरंजन तत्व अनिवार्य हैं। इतने सारे पर अनिवार्य तत्वों को नही साध पाने के कारण वर्तमान समय में कहानीकारों की कमी होती जा रही है। गद्य विधा आलोचकों की निगाह में महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि एक साहित्यकार की असली पहचान इसी से होती है। सुप्रसिद्ध आलोचक रामविलास शर्मा कहते हैं, ‘‘एक कहानीकार के लिए अनिवार्य शर्त है अनुभव और भाषा पर अधिकार।‘‘ श्री सुरेश बाबू मिश्रा के पास यह दोनों गुण वर्षों की अनथक मेहनत और स्वाध्याय से प्रचुरता में उपलब्ध हैं। ‘‘कैक्टस के जंगल,‘‘ से गुजरते हुए कई अनुभव हुए। यह एक ओर अनुभवों की आँच पर तपी कहानियां हैं वहीं दूसरी ओर तकनीक के कारण जड़ों से कटती मानवता की भी बात करती हैं। जहां सेल्फ डिफेंस हमें नारी के दोनों रूप प्रताड़ित भी और सबला भी दिखाती है। वहीं कैक्टस के जंगल यह स्पष्ट रूप से दर्ज कराती है कि पाप की सजा हमें यहीं भुगतनी पड़ती है। इसी तरह अन्य कहानियाँ भी हैं जो अपनी किस्सागोई से हमें अपने साथ दूर तक ले जाती हैं। ‘कढ़ा हुआ रूमाल’ एवं ‘भंवर’ कहानियों में शाश्वत प्रेम की अविरल धारा बहती है। कहानी का वर्तमान परिवेश के प्रति भी सजग हैं ‘लक्ष्मण रेखा’, ‘पिंडदान’ एवं ‘हौंसलों का सफर’ जैसी कहानियों में समाज में कोरोना से आपदा से उत्पन्न होने वाली विसंगतियों एवं विदरूपों का संजीव चित्रण किया गया है। ‘झंझाबात’, ‘सरहद का प्यार’ और ‘सरहद’ जैसी कहानियाँ देशप्रेम एवं राष्ट्रीय चेतना उत्कृष्ट उदाहरण है। इस संग्रह की कहानियों का सकारात्मक पक्ष यह है कि प्रत्येक कहानी पाठक को कोई न कोई सकारात्मक संदेश देती है।

वास्तव में कहानी सबसे प्राचीन विधा है। हमारे सारे पौराणिक आख्यानों में कथा ही तो है। अभी- अभी दिवंगत हुए नरेंद्र कोहली के अनेक उपन्यास पौराणिक दसियों बार सुनी कथाओं को फिर एक नए ढंग, भाषा, पात्रों के मनोविज्ञान के साथ प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त थे। वहीं कृष्ण बलदेव वैद्य ऐसे सुविख्यात लेखक रहे जिन्होंने कहानी के सभी प्रचलित मानदंडों को तोड़ा। उनका ‘विमल’ उर्फ ‘जाएं तो कहां जाएं’ उपन्यासनुमा आत्मकथ्य सभी को पढ़नी चाहिए।

वर्तमान समय कोविड की लहर से जूझती मानवता परस्पर विश्वास और भाईचारे से विजयी हो रही है। इस समय में हम सभी ने धैर्य, संयम और एकजुटता का जो परिचय दिया है वह विलक्षण हैं। वही सोशल साइट्स पर कोरोना को लेकर असंख्य कविताएं, कहानियों, लघुकथाओं की बाढ़ आई हुई है। तो एक तरफ जीवन में गम, संघर्ष है और उसे ही आप लिखते भी रहो सब तरफ तो यह अंधकार को बढ़ाता है। दुखम दुखम से दुख कम नहीं होता बल्कि समुचित निदान, जो सरकार कर रही है और नियमों के पालन से होगा। यह वक्त सकारात्मक विचारों, भाषा और हौंसलों की उड़ानों को लिखने का है। उजाले की बात करने का है। मुझे खुशी है ऐसी ही उजाले और ऊर्जा की बातें सुरेश बाबू मिश्रा अपने लेखन में करते हैं।

वर्तमान दौर में कहानी साहित्य के प्रथम पायदान से कथेतर गद्य द्वारा दूसरे पायदान पर आई है। परन्तु जल्द ही युवा और नए लेखकों की मेहनत और विविध कथानकों से पुनः शीर्ष पर होगी। बस अच्छे, स्तरीय साहित्यकारों को पढ़ने और गुनने की जरूरत है। साथ ही अपने लिखे को ढंग से सब जगह देश विदेश में पहुंचाना भी जरूरी है। यह प्रमोशन जब करोड़ों कमाने वाले फिल्म अभिनेता भी करते हैं अपनी जगमगाती फिल्मों का तो लेखक तो उनसे कहीं आगे है। किताबों का ससम्मान प्रोमोशन करना कि उसे पढ़ने की उत्सुकता जागे और व्यक्ति किताब को खरीदकर पढें़। साथ ही अलग-अलग राज्यांे से किताब पर समीक्षाओं का प्रकाशन भी होना चाहिए। भारतीय लेखक संघ, जिसके अनेक शहरों में सदस्य और संगठन हैं, हर प्रतिभाशाली लेखक के लिए खुला है।

जब तक मनुष्य है, यह संसार है तब तक साहित्य और आख्यान रहेंगे। यह संग्रह ‘‘कैक्टस के जंगल‘‘ भाषा की सहजता, कथ्य के वैविध्य और भारतीय मूल्यों के महक के कारण सभी के दिल को  छुएगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

डॉ. संदीप अवस्थी

सुविख्यात कथाकार और फिल्म लेखक।

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आमंत्रण भरी आँखें

लम्बे अरसे बाद मैं एक सेमीनार में भाग लेने देहरादून आया हुआ था। सेमीनार समाप्त होने के बाद मैं अपने पुराने कॉलेज को देखने का लोभ संभरण नहीं कर सका और अगले दिन सुबह दस बजे कॉलेज की ओर जाने वाली बस में बैठ गया।

बस में बैठते ही अतीत की स्मृतियां मेरी आँखों के सामने चलचित्र की भांति चलने लगीं। आज से लगभग बीस साल पहले मेरी पहली नियुक्ति देहरादून से लगभग साठ किलोमीटर दूर पर्वतीय क्षेत्र के इसी कॉलेज में प्रवक्ता के रूप में हुई थी। उस समय मेरी उम्र यही कोई तेईस-चैबीस साल रही होगी।

जब मैं यहां ज्वाइन करने आया था तो कॉलेज पहुँचते-पहुँचते चार बजे गए थे। अधिकांश शिक्षक और छात्र जा चुके थे, मगर प्रधानाचार्य और बड़े बाबू मिल गए। इसीलिए मेरी ज्वाइनिंग उसी दिन हो गई थी। कॉलेज से लगभग तीन किलोमीटर दूर एक छोटा सा पहाड़ी कस्बा था। कॉलेज के अधिकांश शिक्षक और कर्मचारी वहीं रहते थे। उन लोगों ने मुझे भी एक कमरा किराये पर दिला दिया।

मुझे कॉलेज में ज्वाइन किये तीन दिन हो गये थे। घर से लगभग चार सौ किलोमीटर दूर इस छोटे से कस्बे में अनजाने लोगों के बीच में मेरा मन बिल्कुल नहीं लग रहा था, घर की याद बहुत सताती, मगर क्या करता सर्विस तो करनी ही थी, इसलिए मजबूरी थी।

ग्रामीण क्षेत्र का कॉलेज होने के कारण वहां को-एजूकेशन थी और छात्र-छात्राएं दोनों पढ़ते थे। अधिकांश छात्र-छात्राएं आसपास के छोटे-छोटे गाँवों से और इस कस्बे से आते थे। कॉलेज में छात्र-छात्राओं की संख्या अच्छी थी और वहां पढ़ाई का माहौल था।

इस छोटे से कस्बे में न कोई होटल था और न ही रेस्टोरेन्ट। इसलिए चाय-नाश्ता और खाना मुझे अपने आप ही बनाना पड़ता। इन कारणों से तीन दिन में कालेज में समय से नहीं पहुंच पाया था। आज मैंने तय किया था कुछ भी हो जाये कॉलेज समय से पहुँचूगा।

सुबह नहा-धोकर मैं जल्दी तैयार हो गया और नाश्ता करने के बाद आठ बजे ही कॉलेज के लिए चल दिया। कॉलेज काफी ऊँचाई पर स्थित था इसलिए तीन किलोमीटर का रास्ता तय करने में पूरा डेढ़ घण्टा लग जाता था। कॉलेज पहुँचते-पहुँचते साढ़े नौ बज गए थे। प्रेअर बैल बज चुकी थी और छात्र-छात्राएं प्रेअर ग्राउण्ड पर इकट्ठा होना शुरु हो गए थे।

गेम्स टीचर ने सभी छात्र-छात्राओं को अपने-अपने क्लासों की लाइन में खड़े होने का आदेश दिया। क्लासों की पंक्ति के सामने उनके क्लास टीचर खड़े हुए थे। मैं फस्र्ट ईयर के क्लास के सामने खड़ा हुआ था। मैं क्लास की लाइन सीधी करा रहा था तभी लाइन में खड़ी एक लड़की मुझे देखकर मुस्कुराई।

मैंने आश्चर्य के साथ उस लड़की की ओर देखा। वह सोलह-सत्रह साल की अल्हड़ किशोरी थी। लम्बा छरहरा वदन, गोरा रंग, आकर्षक चेहरा, सलीके से कढ़े बाल और हिरन जैसी बड़ी-बड़ी आँखें। जब वह हंस रही थी तो उसके गालों में डिम्पल पड़ रहे थे। कॉलेज की चमचमाती यूनिफार्म पहने वह वेहद सुदर लग रही थी। उसकी आँखों में एक अजीब सा आमंत्रण, अजीव सा खिचाव था। उसकी मुस्कान ने मेरे दिल में अजीव सी हलचल मचा दी थी।

अब यह रोज का नियम बन गया था। वह प्रार्थना के समय मुझे देखकर एक बार मुस्कराती जरूर। उस एक पल की मुस्कान का अनिवर्चनीय आनन्द उठाने के लिए मैं तीन किलोमीटर का वह चढ़ाई वाला पथरीला रास्ता एक घन्टे में ही पार कर जाता। कभी-कभी मैं खाली चाय पीकर ही निकल पड़ता। मगर ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं प्रार्थना में विलम्ब से पहुंचा होऊं। बिना किसी नागा के यह क्रम चलते हुए लगभग दो महीने बीत चुके थे।

अभी तक मैंने उस लड़की से कोई बात नहीं की थी। यहां तक कि मुझे उसका नाम भी पता नहीं था, परन्तु न जाने क्यों मैं अपने अन्दर उसके प्रति एक अनोखा सा आकर्षण, अनोखा सा लगाव महसूस करता।

अब यह दुर्गम पहाड़ी स्थान मुझे खुशनुमा और आकर्षक लगने लगा था। झरनों, घाटियों और वादियों में मुझे संगीत सुनाई देता, फूल मुस्कुराते से लगते और सुरमई सांझ भी मुझे आलोकित सी दिखाई देती। मन हर समय प्रफुल्लित रहता।

लम्बी छुट्टियों में तो मैं घर चला जाता मगर, रविवार या किसी अन्य उपलक्ष में होने वाली एक या दो दिन की छुट्टी काटे नहीं कटती। इच्छा होती कि जल्दी से छुट्टी का दिन बीते और कालेज खुले। कालेज में आए मुझे चार महीने हो गए थे। यह चार महीने कैसे गुजर गए मुझे कुछ पता ही नहीं चला।

एक दिन मध्य अवकाश में मैं कालेज ग्राउण्ड में कुर्सी पर अकेला बैठा हुआ कोई पुस्तक पढ़ रहा था। उसी समय चार-पांच, छः छात्राएं वहां आईं। उनमें वह लड़की भी थी। एक छात्रा उस लड़की की ओर इशारा करते हुई बोली, “सर सुजाता आपके लिए आलू के पराठे बनाकर लाई है।“

अब मुझे पता चला कि उसका नाम सुजाता था। मुझे चुप देखकर दूसरी छात्रा बोली, “सर पराठे खा जरूर लेना।“

“जो बनाकर लाई है वह भी तो कुछ बोले।“ मैंने उसकी ओर देखते हुए कहा।

वह आँखें नीचे किए हुए खड़ी थी और अपने दाएं पैर के अंगूठे से ग्राउण्ड की मिट्टी को कुरेद रही थी।

मैंने पराठे का टिफिन बाक्स उससे लेकर अपने बैग में रख लिया। उसके बाद वह छात्राएं चली गईं। जाते-जाते उसने एक बार मुस्कुराकर मेरी ओर देखा। मुझे ऐसा लगा मानो कहीं पास ही जलतरंग बज उठी हो। मेरा पूरा शरीर रोमांच से भर गया था।

जनवरी का दूसरा सप्ताह आ गया था। कॉलेज में गणतन्त्र दिवस की तैयारियां चल रही थीं। प्रिंसिपल साहब ने सांस्कृतिक कार्यक्रम तैयार कराने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी थी। आखिरी दो पीरियड में मैं कॉलेज सभागार में छात्र-छात्राओं से सांस्कृतिक कार्यक्रम का रिहर्सल करवाता। इस बार हम लोगों ने गणतन्त्र दिवस पर वृन्दावन लाल वर्मा के लिखे नाटक मृगनयनी का मंचन करने का निर्णय लिया था। मृगनयनी की भूमिका के लिए मैंने सुजाता को चुना था। नाटक में भाग ले रहे छात्र-छात्राएं इस नाटक को लेकर बड़े उत्साहित थे और रिहर्सल में बड़ी रुचि ले रहे थे।

गणतन्त्र दिवस समारोह उल्लास पूर्वक सम्पन्न हुआ था और इस अवसर पर हुए सांस्कृतिक कार्यक्रमों की सबने मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी। गणतन्त्र दिवस के अगले दिन का प्रधानाचार्य जी ने अवकाश घोषित कर दिया था।

अवकाश के बाद जब कॉलेज खुला तो मैं नियत समय पर कॉलेज पहुंचगया। मगर आज सुजाता अपने क्लास की पंक्ति में नहीं थी। पूरे दिन मेरी निगाहें कॉलेज में हर जगह उसे ढूंढ़ती रहीं परन्तु वह शायद आज कॉलेज नहीं आई थी। जब लगातार तीन-चार दिन तक सुजाता नहीं आई तो मेरी बेचैनी बढ़ने लगी। मैंने उसके क्लास की लड़कियों से उसके बारे में पूछा तो उसकी एक सहेली ने बताया कि सुजाता अब नहीं पढ़ेगी सर। उसके भाई ने उसे कॉलेज भेजने से मना कर दिया है। और लड़कियों ने भीउसकी बात की पुष्टि कर की थी।

मुझे उनकी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था। सुजाता पढ़ने में बहुत तेज थी फिर उसके भाई ने अचानक कॉलेज भेजने से क्यों मना कर दिया, यह बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी।

बाद में मुझे पता चला था कि सुजाता के भाई को मेरे और सुजाता के बारे में संदेह हो गया था इसलिए उसने सुजाता को आगे पढ़ाने से साफ इनकार कर दिया था।

मैं सुजाता के भाई से मिला और सुजाता को कॉलेज भेजने को कहा, पर वह नहीं माना। मैंने उसे हर तरह से समझाने की भरपूर कोशिश की मगर वह अपनी जिद पर अड़ा रहा।

अब मेरा मन कॉलेज में नहीं लगता। एक अजीब सी बेचैनी मैं अपने अन्दर महसूस करता। बार-बार मेरी निगाहें कॉलेज गेट की ओर उठ जातीं। पता नहीं क्यों मुझे लगता कि सुजाता अपना कॉलेज काबैग उठाए कॉलेज आ जाएगी। मुझे न कॉलेज में सुकून मिलता और न कमरे पर।

मैं यह बात अच्छी तरह से समझ चुका था कि सुख की अनुभूति मन में है किसी वस्तु में नहीं। अब मुझे झरनों, नदियों और घाटियों में न तो कोई संगीत सुनाई देता और न ही फूलों में मैं कोई खुशबू महसूस होती। वहां की नैसर्गिक सुन्दरता में अब मेरे लिए कोई आकर्षण नहीं रह गया था।

धीरे-धीरे मेरा मन वहां से उचाट हो गया और मैं दो माह का अवकाश लेकर अपने घर चला गया। फिर ग्रीष्म अवकाश में कॉलेज बन्द हो गया। इस बीच भागदौड़ करके मैंने अपना स्थानान्तरण पड़ोस के जनपद के कॉलेज में करा लिया।

इसी बीच मेरी शादी हो गई, और मैं पूरी तरह से अपनी घर गृहस्थी में रम गया। मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ बहुत खुश था, मगर सुजाता की एक धुंधली सी स्मृति दिल के किसी अज्ञात कोने में अब भी बसी हुई थी और जब कभी उसकी स्मृति आँखों के सामने सजीव हो उठती, मन एक अजीव बेचैनी से भर जाता। दिल में एक हूक सी उठती।

बस तेज झटके के साथ रुक गई। मेरे विचारों की तन्द्रा भंग हुई और मैं अतीत से वर्तमान में लौट आया। बस के कण्डक्टर ने आवाज लगाकर कहा, “सर कॉलेज वाला मोड़ आ गया है।

मैं बस से नीचे उतरा और कॉलेज की ओर चल दिया। मुझे कॉलेज पहुंचने में आधा घंटा लगा।

जैसे ही मैं कॉलेज के मेन गेट से अन्दर घुसा मैंने देखा सामने सुजाता खड़ी थी। वही कॉलेज की चमचमाती यूनिफार्म वही दपदप करता रूप और वही आमंत्रण भरी आँखें। इन बीस वर्षों में उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया था।

हैरानी से मैं एकटक उसकी ओर देख रहा था।

“क्या हुआ सर! क्या आपने मुझे पहचाना नहीं ?“ यह कहकर सुजाता खिलखिलाकर हंसी। पहाड़ की शान्त वादियों में उसकी खनकती हुई हंसी दूर-दूर तक गूंज गई।

“नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।“ यह कहकर मैं उसकी ओर बढ़ा मगर वहां कोई नहीं था। सामने खड़ा देवदार का वृक्ष मेरा मुंह चिढ़ा रहा था। मैं हतप्रभ सा खड़ा था।

तभी मुझे किसी के आने की पदचाप सुनाई दी। मैंने आवाज की दिशा मंे देखा। कॉलेज का पूराना कर्मचारी दानू चला आ रहा था।

“अरे साहब आप! इतने वर्षों बाद यहां।“ दानू ने मेरे पास आते हुए कहा।

“हाँ मैं देहरादून एक सेमीनार में आया था, सोचा यहां कॉलेज में सबसे मिलता चलूं, मगर लगता है कॉलेज तो आज बंद है।“

“हाँ साहब, आज यहां स्थानीय अवकाश है। इसलिए कॉलेज बन्द है।

मैं उससे कॉलेज के पुराने साथियों के बारे में पूछता रहा। मेरे समय के एक-दो शिक्षक ही अब कॉलेज में रह गए थे बाकी या तो रिटायर हो गए या फिर स्थानान्तरण कराके यहां से चले गए थे।

“सुजाता के बारे में नहीं पूछेंगे साहब।“ दानू ने मेरी ओर देखते हुए पूछा।

मैं शान्त खड़ा था। मुझे चुप देखकर दानू बोला साहब आपके जाने के तीन-चार महीने बाद सुजाता ने पहाड़ी से कूदकर आत्महत्या कर ली थी। लोग कहते हैं कि उसकी अतृप्त आत्मा यहीं घूमती रहती है। कई लोगों ने रात के अंधेरे में उसे कॉलेज के आसपास घूमते देखा है।

सुजाता के बारे में जानकर मन का पोर-पोर पीड़ा से भर उठा था। कुछ देर तक मैं वहीं सन्न सा खड़ा रहा। फिर दानू से विदा लेकर मैं वापस लौट पड़ा।

रास्ते में मैं सोचने लगा कि अभी थोड़ी देर पहले मैंने जिसे देखा था वह क्या था सुजाता की अतृप्त आत्मा या मेरे मन में बसी हुई उसकी स्मृतियों की परिणति, मेरे मन का बहम या फिर मेरी आँखों का भ्रम ? मैं कुछ निश्चय नहीं कर पाया था और बोझिल मन तथा थके हुए कदमों से बस की ओर चल दिया था।

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