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कैक्टस के जंगल - भाग 7

7

बदला हुआ आदमी

(यह एक ऐसे शिक्षित नौजवान की कहानी है जिसे गाँव के दबंगों, नेताओं एवं पुलिस के गठजोड़ ने अपराध के रास्ते पर चलने को मजबूर कर दिया और वह एक दुर्दान्त डाकू बन गया। बाद में एक सहृदय पुलिस अफसर के समझाने पर उसका हृदय परिवर्तन हुआ और उसने अपने रचनात्मक कार्यों से उस गाँव और आसपास के गाँवों की तस्वीर ही बदल दी।)

गाड़ी स्कूल के मैदान में आकर रुक गई। गेट पर मौजूद लोगों ने अन्दर जाकर मुख्य अतिथि के आगमन की सूचना दी। यह सुनकर आयोजकों में खुशी की लहर दौड़ गई।

स्कूल के प्रधानाचार्य गाँव के कुछ गणमान्य नागरिकों के साथ गेट पर आए। सबने माल्यार्पण कर मुख्य अतिथि का स्वागत किया और बड़े आदर पूर्वक उन्हें उनके आसन तक लेकर गये।

अहमद नगर गाँव के जनता जूनियर हाईस्कूल का आज वार्षिक समारोह था। जिले के पुलिस कप्तान समशेर सिंह इसमें मुख्य अतिथि के रूप में पधारे थे। उनकी पत्नी भी उनके साथ समारोह में आई थीं।

मुख्य अतिथि के आसन ग्रहण करने के साथ ही समारोह प्रारम्भ हो गया। स्कूल के बच्चे मंच पर एक से बढ़कर एक सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे थे। उनके कार्यक्रमों ने दर्शकों का मन मोह लिया था। वे करतल ध्वनि से बच्चों का उत्साहवर्धन कर रहे थे। मगर इस सबसे दूर कप्तान शमशेर सिंह अतीत की यादों में खोये हुए थे।

आज से तीन वर्ष पूर्व की घटना उनकी आँखों में ताजा हो उठी थी। तब वह इस जिले में नए-नए आये थे।

उस समय जिले में एक डाकू ने बहुत आतंक मचा रखा था। लोग उसको “काली घाटी का आतंक“ के नाम से जानते थे।

उस डाकू की गतिविधियाँ तेजी से बढ़ती जा रही थीं। जिले के किसी न किसी गांव में रोज डाका पड़ना आम बात हो गई थी। उस डाकू की यह खासियत थी कि वह केवल अमीरों को लूटता था। लूट के समय उसका कोई आदमी उस घर की औरतों से नहीं बोलता था।

उसके बारे में लोग यह भी बताते थे कि वह लूट का कुछ पैसा गरीबों में बाँटता भी है।

जब उसकी हरकतें ज्यादा बढ़ती गईं तो अधिकारियों का दबाव पड़ने लगा कि उसे जल्दी पकड़ा जाये। कप्तान समशेर सिंह चैकन्ने हो गये। उन्होंने कई बार उसको पकड़ने के लिए दविश डाली, परन्तु हर बार वह उन्हें चकमा दे गया।

उधर अधिकारियों का दबाव दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था। समशेर सिंह बहुत परेशान थे। तभी एक दिन उनके एक मुखबिर ने आकर बताया कि साहब हरसूनगला में आज डकैती पड़ने वाली है। सारे डकैत रात के पहले पहर में ही गाँव के पास बगिया में इकट्ठे हो जायेंगे।

यह खबर समशेर सिंह के लिए बहुत महत्त्व की थी। उन्होंने जिले में उपलब्ध सारे पुलिस बल को कोतवाली में इकट्ठा होने के लिए हुक्म कर दिया।

सारे पुलिस बल को चार दलों में बाँटकर उन्होंने रात के दस बजे तक हरसू नगला पहुँचने के लिए कहा। जब उन्हें यह खबर मिल गई कि डाकू बगिया में पहुँच चुके हैं तो उन्होंने चारों ओर से पुलिस दलों को डाकुओं को घेर लेने का हुक्म दिया। आज वे यह मौका खोना नहीं चाहते थे। दोनों ओर से फायर पर फायर होते रहे।

अपने को घिरा पाकर डाकुओं ने अन्धाधुंध फायर करना शुरू कर दिया, जिससे किसी तरफ का घेरा कमजोर पड़े तो वह भाग निकलें, परन्तु पुलिस बहुत बड़ी संख्या मंे थी। आखिर में डाकुओं ने आत्म समर्पण कर दिया।

समशेर सिंह डाकुओं को पकड़कर ले आए। उन्होंने यह कल्पना कर रखी थी कि इस गिरोह का सरदार कोई लम्बा-चैड़ा भयानक किस्म का आदमी होगा, परन्तु पच्चीस-छब्बीस साल के एक छरहरे किस्म के नौजवान को सरदार के रूप में देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने अपना नाम धीरज बताया। बातचीत करने से पता चला कि वह पढ़ा-लिखा है। किधर से भी लगता ही नहीं था कि यह वही डाकू है, जिसने “काली घाटी के आतंक“ नाम से लोगों में दहशत फैला रखी थी। हाँ, उसकी आँखों से गहरा विद्रोह झलकता था।

शमशेर सिंह ने उसे तीन दिन तक हवालात में रखा। वे उसके बारे में सारी बातें जानने को उत्सुक थे, परन्तु धीरज ने कुछ भी बताने से साफ इन्कार कर दिया।

शमशेर सिंह समझा-समझा कर हार गए, परन्तु धीरज नहीं माना। आखिर में हार कर समशेर सिंह ने कहा-“देखो धीरज, तुम मेरे छोटे भाई की तरह हो, अगर तुम्हारा कोई बड़ा भाई होता और वह जानना चाहता, तो भी तुम क्या यही जवाब देते। मैं जानना चाहता हूँ धीरज कि तुम्हारे जैसा पढ़ा-लिखा लड़का डाकू कैसे बन गया। मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि मैं तुम्हें बचाने की पूरी कोशिश करूँगा।

धीरज ने कहा, मुझे बचने या फाँसी लगने की परवाह नहीं है। हाँ, आपने मुझे भाई कहा है, इसलिए मैं आपको पूरी बात जरूर बताऊँगा। और धीरज ने जो कहानी अपने बारे में बताई वह दिल को हिला देने वाली थी। समशेर सिंह को आज भी उस कहानी का एक-एक शब्द याद है। धीरज ने बताया था कि साहब, मैं महेन्द्रगढ़ गाँव का रहने वाला हूँ। ठाकुर धर्मपाल वहाँ का बेताज बादशाह था। उसके बहनोई एक बड़े नेता थे जिससे आस-पास के इलाके में धर्मपाल की तूती बोलती थी।

धर्मपाल अत्यन्त ही अय्याश किस्म का आदमी था। गाँव की बहू-बेटियों पर बुरी नजर रखना एवं उनसे छेड़छाड़ करना उसकी आदत थी। गाँव की प्रत्येक जवान लड़की पर वह अपना अधिकार समझता था। उसके धन और गुण्डों के प्रभाव के कारण कोई भी उसका विरोध नहीं कर पाता था, परन्तु एक दिन मेरी बहिन निर्मला ने उसका यह घमंड चकनाचूर कर दिया।

दोपहर का समय था। निर्मला पानी भरने कुएँ पर गई थी। उसी समय उधर कहीं से निकलता हुआ धर्मपाल आ गया। अपनी आदत के मुताबिक उसने लड़कियों की तरह निर्मला को छेड़ना शुरू कर दिया। निर्मला कुछ अलग किस्म की लड़की थी। वह अपनी बेइज्जती को बर्दाश्त नहीं कर सकी। उसने गालियाँ देते हुए धर्मपाल के गाल पर थप्पड़ मार दिया।

धर्मपाल को सपने में भी इस बात की उम्मीद नहीं थी। गाँव में अपनी बेइज्जती से वह चुटीले नाग की तरह फुफकार उठा-“नीच, कमीनी, कुतिया, तेरी इतनी हिम्मत, साली तेरा घमंड तोड़कर न रख दूँ तो मेरा नाम धर्मपाल नहीं।“ यह कहता हुआ वह घर चला गया। सहमी हुई निर्मला भी घर आ गई।

शाम को जब पिताजी को सारी घटना मालूम हुई तो वह आगे आने वाले खतरे के डर से घबरा गए। वे धर्मपाल के असर को जानते थे। दूसरे दिन वे शहर में मेरे पास आए। मैं वहाँ बी.ए. फाइनल में पढ़ रहा था।

आपस में काफी देर सलाह-मशविरा करने के बाद हम दोनों बाप-बेटे थाने गये। मैंने उन्हें सारी बातें बताकर धर्मपाल के खिलाफ रपट लिखने की प्रार्थना की। दरोगा रपट लिखने को तैयार नहीं हुआ। हाँ, उसने यह आश्वासन जरूर दिया कि मैं धर्मपाल को बुलाकर समझा दूँगा। उसने समझा-बुझाकर हम लोगों को वापस भेज दिया।

हम लोगों के थाने जाने की बात धर्मपाल को पता लगी और इसने आग में घी का काम किया। धर्मपाल बहुत उत्तेजित हो गया और बोला-साले हरपाल की इतनी हिम्मत, अब उसका जल्दी ही कुछ इंतजाम करना होगा।

मेरे पिता हरपाल सिंह धर्मपाल की दुश्मनी से बहुत चिन्तित थे। वह जल्द से जल्द निर्मला के हाथ पीले कर उसे ससुराल भेज देना चाहते थे। उन्हें एक लड़का भी मिल गया। पन्द्रह मई शादी की तिथि तय हुई। मैं और पिता जी दोनों शादी की तैयारियों में जुट गए। हम लोग सोच रहे थे कि निर्मला के ससुराल चले जाने के बाद धर्मपाल की दुश्मनी अपने आप समाप्त हो जायेगी।

परन्तु भगवान को यह मंजूर नहीं था। निर्मला की शादी में तीन दिन शेष रह गये थे। मैं शादी का सामान खरीदने शहर गया हुआ था। उसी रात धर्मपाल अपने दस-बारह गुण्डों के साथ मेरे घर में घुस आया। गाँव वालों को आतंकित करने के लिए उसने हवा में कई फायर किए। मेरे माँ-बाप को बाँधकर एक जगह डाल दिया। फिर धर्मपाल व उसके साथियों ने निर्मला के साथ जी भर मनमानी की।

निर्मला रोती, गिड़गिड़ाती रही और रहम की भीख माँगती रही, परन्तु बहशी धर्मपाल पर उसका कोई असर नहीं हुआ। भयातुर गाँव वाले भी इस चीख-पुकार को मूक दर्शक बने सुनते रहे। किसी तरह मेरे पिता जी रस्सी खोलने में कामयाब हो गये और निर्मला को बचाने दौड़े। इस पर धर्मपाल के इशारे पर उसके साथियों ने मेरे माँ-बाप दोनों को गोली मार दी, जिससे गाँव वाले देख लें कि धर्मपाल की दुश्मनी का अंजाम क्या होता है।

दूसरे दिन मैं शहर से लौटा तो घर में अत्यन्त ही लोमहर्षक दृश्य था। कमरे में निर्मला की निर्वस्त्र लाश पड़ी हुई थी। आँगन में खड़े नीम के पेड़ पर उल्टी लटकी हुई थी मेरे माँ-बाप की लाशें। मैं लुटा-लुटा सा खड़ा यह सब देख रहा था। एक ही रात में मेरी पूरी दुनिया उजड़ गई थी।

निर्मला की लाश पर चादर ओढ़ाने के बाद मैं थाने चल दिया। मैंने धर्मपाल के खिलाफ नामजद रिपोर्ट लिखाई। तीन-तीन हत्याएँ हो जाने से तहलका मच गया था। पुलिस ने दविश देकर धर्मपाल को गिरफ्तार कर लिया।

धर्मपाल को लेकर पुलिस अभी थाने पहुंची ही थी कि उसको छुड़वाने के लिए तरह-तरह के दबाव पड़ने लगे, जिससे पुलिस धर्मपाल को छोड़ने पर मजबूर हो गई। धर्मपाल के बहनोई ने उस दरोगा का भी तबादला करा दिया। जिसने धर्मपाल को गिरफ्तार किया था।

अब तफ़्शीश दूसरे दरोगा पर पहुँच गई थी। मैंने बहुतेरी कोशिश की, मगर धर्मपाल के दबदबे के कारण गाँव का कोई भी आदमी उसके खिलाफ गवाही देने के लिए राजी नहीं हुआ। उधर पुलिस पर अन्तिम रिपोर्ट लगाने के लिए लगातार दबाव पड़ रहा था। आखिर मंे चश्मदीद गवाहों के अभाव में संदेह का लाभ देते हुए धर्मपाल के केस में अन्तिम रिपोर्ट लगा दी गई।

मेरे दुःख और निराशा का कोई अन्त नहीं था। मैं पगलाया-सा इधर-उधर घूम रहा था। शहर में दो-चार समाज सेवकों से मिलकर मैंने मदद माँगी। धर्मपाल मेरी गतिविधियों पर नजर रखे हुए था। उसे भय था कि यदि मैंने पुलिस कप्तान आदि से मिलकर सारी बातें बता दीं तो केस फिर से उखड़ सकता है।

इसलिए उसने मुझे पास ही के एक थाने से सांठ-गांठ करके डकैती के केस में जेल भिजवा दिया। उसके दबाव में कुछ लोगों ने मेरे खिलाफ अदालत में झूठी गवाही दी और मुझे पाँच वर्ष की सजा हुई।

पाँच वर्ष बाद जब मैं जेल से छूटा तो मेरे सामने गुनाह की राह पर चलने के अलावा कोई चारा न था। जेल में कई गुण्डा किस्म के लोगों से मेरी जान-पहचान हो चुकी थी। इन सबको लेकर मैंने अपना एक गिरोह बना लिया।

मैंने निर्मला की लाश के सिर पर हाथ रखकर धर्मपाल से बदला लेने की कसम खाई थी, इसलिए गिरोह बनाने के बाद सबसे पहली डकैती मैंने उसी के यहाँ डाली। जमकर लूटपाट करने के बाद मैंने धर्मपाल को गोली मार दी। वही मेरी पहली और आखिरी हत्या थी। उसके बाद मैंने डकैतियाँ बहुत डाली, मगर मारा किसी को नहीं। मैंने कभी किसी गरीब को नहीं लूटा। उल्टे उनकी मदद की है। बस यही मेरी कहानी है कप्तान साहब।

धीरज की कहानी ने कप्तान शमशेर सिंह को झकझोर कर रख दिया। उन्होंने सोचा कि आज भी धर्मपाल जैसे कितने लोग जिन्दा हैं, जो धीरज जैसे होनहार नौजवानों को गुनाह के मार्ग पर चलने के लिए मजबूर कर देते हैं।

कप्तान शमशेर सिंह को धीरज से गहरी हमदर्दी हो गई। उन्होंने समझा-बुझाकर धीरज को गिरोह भंग करने तथा सरकार से आम माफी माँगने को तैयार कर लिया।

कप्तान शमशेर सिंह के प्रयासों के कारण एक वर्ष बाद धीरज और उसके साथियों को सरकार ने आम माफी दे दी।

तब से धीरज कप्तान शमशेर सिंह के परिवार का सदस्य जैसा बन गया। कप्तान साहब के कहने पर ही एक वर्ष पहले धीरज ने अहमद नगर गाँव में यह स्कूल खोला था जो अब काफी चल निकला था, और उसी स्कूल के वार्षिक समारोह मंे आज वे मुख्य अतिथि बनकर आये थे।

कप्तान समशेर सिंह पता नहीं क्या-क्या सोचे जा रहे थे, तभी उनकी पत्नी ने उनका कन्धा हिलाते हुए बोलीं, कहाँ खो गये जनाब। संचालक महोदय कितनी देर से आपको पुरस्कार वितरण के लिए बुला रहे हैं। कप्तान शमशेर सिंह अतीत से वर्तमान में लौटे और उठकर मंच पर आ गये।

समारोह के बाद धीरज उन्हें व्यावसायिक शिक्षा केन्द्र दिखाने ले गया। उसने बताया कि वह गाँव के निरक्षर प्रौढ़ों को दरी बनाना, मेज-कुर्सी बनाना तथा अन्य ग्रामीण दस्तकारी का प्रशिक्षण देता है। केन्द्र पर जो सामान बनता है उसका मुनाफा केन्द्र में काम करने वाले सब लोगों को बाँट दिया जाता है। व्यावसायिक प्रशिक्षण देने के लिए उसने दो ग्रामीण दस्तकारों को रख लिया है।

धीरज ने आस-पास के गाँवों के नौजवानों के साथ मिलकर एक “चेतना समिति“ भी बनाई है जो सामाजिक अन्याय को मिटाने के लिए रचनात्मक अभियान चला रही है। आस-पास के गाँवों में वह धीरज भइया के नाम से पुकारा जाता है।

कप्तान समशेर सिंह सोचने लगे कि क्या यह वही धीरज है जिसे “काली घाटी के आतंक“ के नाम से जाना जाता था तथा जिसके डर से लोग शाम होते ही घरों में दुबक जाते थे।

वे सोच रहे हैं कि आदमी का जब मन बदलता है तो वह क्या से क्या बन जाता है। उन्हें यह देखकर बड़ी खुशी हो रही थी कि उन्होंने एक भटके हुए नवयुवक को गुनाह के मार्ग से हटाकर जन-जागरण के काम मंे जुटा दिया है।

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