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कैक्टस के जंगल - भाग 9

9

पिंडदान

रामकरन की ट्रेन अठारह मार्च को प्रातः दस बजे गया रेलवे स्टेशन पहुंची। वे अपने गृह जनपद अमेठी से अपनी पत्नी के साथ अपने पुरखों का पिंडदान करने गया आए थे।

स्टेशन से उतरकर उन्होंने एक आटो किया और एक धर्मशाला में पहुंच गए। चौबीस घंटे की रेल यात्रा के कारण वे और उनकी पत्नी काफी थके हुए थे इसलिए दोपहर का भोजन करने के बाद वे सो गए। शाम को कुछ देर तक वे अपनी पत्नी के साथ गया के बाजार में घूमते रहे। एक-दो मंदिरों में गए और फिर धर्मशाला वापस लौट आए।

अगले दिन वे सुबह जब सो कर उठे तो वे दोनों अपने आपको तरोताजा महसूस कर रहे थे। वे अपनी पत्नी के साथ फाल्गू नदी पर पहुंचे और वहां एक विद्वान पंडित जी ने उनके पुरखों का पिंडदान पूरे विधि-विधान के साथ सम्पन्न कराया। उनका यह दिन इसी कार्य में बीता।

रामकरन का लौटने का रिजर्वेशन चैबीस मार्च की रात्रि की टेªन से था, इसलिए उन्हें कोई जल्दबाजी नहीं थी। अगले दो-दिन तक वे गया और आसपास के धार्मिक एवं दर्शनीय स्थलों में घूमते रहे। उन दोनों को इस यात्रा में बड़ा आनन्द आ रहा था। रामकरन को इस बात से बड़ा सन्तोष का अनुभव हो रहा था कि अपने पुरखों का पिंडदान करके वे अपने पितृ ऋण से मुक्त हो गए थे। वे दोनों बड़े खुश थे।

बाइस मार्च को कोरोना के कारण पूरे देश में जनता कफ्र्यू लागू रहा इसलिए वे लोग कहीं घूमने नहीं जा पाए और उन्हें धर्मशाला में ही पूरा दिन बिताना पड़ा।

तेईस मार्च को वे पटना घूमने चले गए और चैबीस मार्च को दोपहर वापस गया आ गए। उन्हें चैबीस मार्च को घर लौटना था मगर चैबीस मार्च को शाम लाॅकडाउन की घोषणा कर दी गई और सारी टेªनें और बसें रद्द कर दी गईं। इस घोषणा ने रामकरन की मुसीबतें बढ़ा दीं।

लॉकडाउन के कारण पूरे देश में सारा कामकाज ठप हो गया। रामकरन ने सोचा जब टेªनें ही रद्द हैं तो दो-चार और यहीं धर्मशाला में ठहर जाते हैं और हालात ठीक हो जायेंगे तो यहां से टैक्सी बुक करके घर वापस लौट जायेंगे। वे सोने ही जा रहे थे तभी धर्मशाला का कर्मचारी उनके पास आया और बोला आपको मैनेजर साहब अपने ऑफिस में बुला रहे हैं। रामकरन ने अपनी पत्नी की ओर देखा। दोनों को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि मैनेजर साहब ने उनको अचानक क्यों बुलाया है। काफी देर तक दोनों आपस में इस बारे में बातचीत करते रहे मगर वे किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाए। उनकी पत्नी बोली-“जाओ मिल आओ मैनेजर साहब से हो सकता है उन्होंने कुछ और रुपए एडवांस में जमा करने के लिए बुलाया हो।“

रामकरन मैनेजर साहब के आफिस में पहुंचे। इसे पहले कि रामकरन कुछ कहते मैनेजर साहब उनसे बोले-“सरकार ने सारे होटल और धर्मशालाएं तुरन्त बन्द करने के आदेश दिए हैं इसलिए आपको अभी एक घन्टे में कमरा खाली करना होगा।“

“क्या ?“ रामकरन का मुँह हैरत से खुले का खुला रह गया था। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि अचानक आई इस विपत्ति का सामना वे कैसे करें ? और मैनेजर को क्या जवाब दें ?

उन्हें चुप बैठा देखकर मैनेजर बोले-“आपके इस तरह चुप बैठने से काम नहीं चलेगा। जाइए और जितनी जल्दी हो कमरा खाली कर धर्मशाला छोड़ दीजिए। अगर पुलिस के अफसर चेकिंग के लिए आ गए तो आप लोगों के साथ-साथ मैं भी मुसीबत में पड़ जाऊँगा।“

रामकरन को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि वे क्या जवाब दें। काफी देर बाद वे बोले-“मैं तो यहां किसी को जानता तक नहीं, मैं इस समय रात में पत्नी को लेकर कहां जाऊँगा। बस आज रात भर की मोहलत दे दीजिए मैं कल सुबह उठते ही धर्मशाला छोड़कर चला जाऊँगा।“

रामकरन के बार-बार अनुनय-विनय करने पर मैनेजर ने उन्हें रात भर धर्मशाला में रहने की मोहलत दे दी। साथ ही वह यह हिदायत देना भी नहीं भूला कि अगर सुबह छः बजे तक आपने कमरा खाली नहीं किया तो साढ़े छः बजे धर्मशाला के कर्मचारी आपको सामान सहित धर्मशाला के मेन गेट के बाहर कर देंगे।

हैरान-परेशान से रामकरन अपने कमरे में वापस लौटे। उन्होंने पत्नी को पूरी बात बताई तो वे भी बहुत परेशान हो उठीं। वे बोलीं-“यहां परदेश में इस अनजानी जगह पर कल हम लोग कहां ठहरेंगे और क्या खायेंगे ?“

“अब जो कुछ होगा देखा जाएगा।“ रामकरन ने गहरी श्वांस लेते हुए कहा।

रात भर दोनों को चिन्ता-फिक्र के मारे नींद नहीं आई। वे सुबह जल्दी ही उठ गए। नहा-धोकर छः बजे से पहले ही वे धर्मशाला छोड़कर सड़क पर आ गए। धर्मशाला का पूरा किराया मैनेजर ने रात में ही रामकरन से जमा करा लिया था।

रामकरन को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वे कहां जाएं और क्या करें ? काफी देर तक वे दोनों लोग चाय-नाश्ते की तलाश में सड़कों पर घूमते रहे। उन्होंने मोबाइल में टाइम देखा। साढ़े आठ बज गए थे। अब तक तो चाय की दुकानें खुल जानी चाहिए वे मन ही मन बुदबुदाए।

सड़क पर एक बड़ी सी दुकान के सामने स्टील की दो बेंच पड़ी हुई थीं। वे फर्श में फिक्स थीं। दुकान के सामने ही हैंडपम्प लगा हुआ था। दुकान बन्द थी। रामकरन को यह जगह सुस्ताने के लिए ठीक लगी। उन्होंने पत्नी से कहा-“चलते-चलते टांगे दर्द करने लगी हैं आओ यहीं बैंचों पर बैठकर थोड़ी देर सुस्ता लेते हैं। पत्नी ने सहमति में सिर हिला दिया। रामकरन ने अपने कंधों पर लटके बैग उतार कर रखे और दोनों लोग बैंचों पर बैठ गए। उन्हें बैठे-बैठे डेढ़-दो घन्टे हो गए थे, मगर सड़कों पर अभी तक सन्नाटा पसरा हुआ था। रामकरन को चाय की तलब लग रही थी। मगर अभी तक कोई होटल या रेस्टोरेन्ट नहीं खुला था।

वे पत्नी से बोले-“तुम थोड़ी देर यहीं बैठो। मैं इधर-उधर घूमकर आता हूँ। शायद कोई होटल या रेस्टोरेन्ट खुला हो और खाने को कुछ मिल जाए।

उनकी पत्नी बोलीं-“ठीक है देख आओ, मगर जल्दी आना। मुझे तो इस अनजान जगह पर इस तरह अकेले बैठे हुए बड़ी घबराहट सी हो रही है।“

“चिन्ता मत करो। मैं अभी थोड़ी देर में लौट कर आता हूँ।“ रामकरन पत्नी को दिलासा देते हुए बोले।

रामकरन कई सड़कों पर गलियों में चाय-नाश्ते की तलाश में भटकते रहे। मगर सब तरफ वही सन्नाटा पसरा हुआ था। कहीं कोई दुकान नहीं खुली थी। होटल और रेस्टोरेन्टों पर ताले लटके हुए थे।

गली में अपने घर के सामने बैठे एक सज्जन से उन्होंने पूछा-“भाई साहब क्या आज के दिन यहां बाजार बन्द रहता है ?“

उन सज्जन ने रामकरन को ऊपर से नीचे तक देखा। फिर वे बोले-“कल रात से कोरोना के कारण पूरे देश में लॉकडाउन है। अब अगले तीन सप्ताह तक बाजार पूरी तरह बन्द रहेगा। कोई दुकान नहीं खुलेगी।“

“क्या ?“ रामकरन के पैरों के तले की जमीन खिसक गई थी। उन्होंने जेब से मोबाइल निकालकर समय देखा। डेढ़ बज गया था। उन्हें अपनी पत्नी की चिन्ता होने लगी थी। इसलिए वे उसी सड़क की ओर चल दिए जहां वे पत्नी को छोड़ आए थे।

रामकरन ने जब अपनी पत्नी को यह बात बताई कि अगले तीन सप्ताह तक कोई दुकान नहीं खुलेगी तो वे भी गहरी चिन्ता में डूब गईं।

दोपहर हो गई थी। सुबह से मुँह में अन्न का दाना तक नहीं गया था। भूख के मारे उनकी आंतें ऐंठी जा रही थीं। यही हाल उनकी पत्नी का भी था। उन्हें ध्यान आया कि घर से चलते समय उन्होंने ट्रेन  में चाय के साथ खाने के लिए कुछ बिस्किट के पैकेट और नमकीन रखी थी। वह बैग में देखने लगीं कि कहीं कोई पैकेट रह तो नहीं गया है।

बैग को खंगालने पर उन्हें बिस्किट के दो पैकेट और नमकीन का एक पैकेट मिल गया। दोनों ने मिलकर बिस्कुट और नमकीन खाई फिर हैण्डपम्प से पेट भरकर पानी पिया। अब उनके चेहरे पर थोड़ा सा शुकून आया था। एक-डेढ़ घन्टे तक दोनों लोग बैन्चों पर लेटे रहे।

रामकरन को शाम के खाने की चिन्ता सताने लगी। वे पत्नी से बोले-“इस तरह बैन्चों पर लेटे रहने से तो काम चलेगा नहीं। चलो अन्दर किसी मोहल्ले में चलते हैं। सारी बात बताकर उनसे कहते हैं कि हम लोगों को दो-तीन दिन अपने ठहर जाने दें। हम रहने-खाने का पूरा पैसा देने की बात भी उनसे कहेंगे। हो सकता है कोई हम लोगों को अपने यहां ठहराने के लिए तैयार हो जाए।

पत्नी को उनकी बात सही लगी। इसलिए दोनों लोग अपना सामान उठाकर चल दिए। उन लोगों ने कई घरों के दरवाजे खटखटाए। उन्हें अपनी पूरी दास्तां बताकर उनके यहां ठहरने के लिए मिन्नतें कीं। मगर किसी का दिल नहीं पसीजा। ठहराना तो दूर किसी ने दरवाजा तक नहीं खोला। सबने खिड़की में से या छत से ही उन्हें आगे जाने के लिए कह दिया।

मन में बसे कोरोना के भय के कारण हर एक आदमी उन्हें शक की नज़रों से देख रहे थे। उन लोगों को ऐसा लग रहा था मानो रामकरन और उनकी पत्नी कोरोना से पीड़ित हों और वे उनके मोहल्ले में कोरोना का संक्रमण फैलाने आए हों।

हार-थक करके वे वापस उसी दुकान की ओर चल दिए। एक गली में किराने की एक दुकान खुली देखकर रामकरन ने वहां से भुने चने, परमल, बिस्किट के पैकेट और नमकीन के पैकेट खरीदकर बैग में रख लिए। दुकान पर तो दाल, चावल और आटा भी था, मगर उनके पास उन्हें पकाने का तो कोई साधन नहीं था, इसलिए वे मन मसोस कर रह गए।

वापस उसी दुकान पर आकर दोनों दुखी मन से बेन्चों पर आकर बैठ गए। अब वे अपने घर कैसे पहुंचेंगे यही चिन्ता उन्हें खाए जा रही थी। दूर-दूर तक आशा की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी।

काफी देर तक वे चुपचाप बैठे रहे। नौ बज गए थे। रामकरन बोले-“लाओ चने, परमल और गुड़ निकाल लो। इन्हें खाकर पेट की क्षुदा शान्त करते हैं। और आज रात इन्हीं बैंचों पर आराम करते हैं, सुबह उठकर सोचेंगे कि क्या किया जाए।“

उनकी पत्नी ने चने, परमल और गुड़ प्लेट में निकाले और दोनों खाने लगे। इसके बाद नल से निकाल कर ठंडा पानी पिया और दोनों बेन्चों पर लेट गए। रामकरन ने एक छोटा सा बैग तकिया की तरह सिर के नीचे रख लिया। कपड़े और सामान से भरे दोनों बैग बैन्च के पास रख लिये। पूरे दिन के थके-हारे होने के कारण दोनों को लेटते ही नींद आ गई। सुबह वे लोग जब सोकर उठे तो बैंच के पास रखे दोनों बैग गायब थे। रात में कोई उन्हें लेकर चम्पत हो गया था।

अब सामान के नाम पर उन लोगों के पास वही छोटा बैग रह गया था जो रामकरन ने अपने सिर के नीचे लगा रखा था। दोनों कुछ देर तक यों ही चुपचाप बैठे एक-दूसरे की ओर देखते रहे फिर रामकरन बोले-“अब अफसोस करने से कोई फायदा नहीं, जो कुछ होना था वह हो गया। गनीमत यह है कि मेरी पैंट की जेब मंे पड़ा रुपयों वाला पर्स सही सलामत है।“

रामकरन की बात सुनकर उनकी पत्नी ने भी अपने बगल में टंगे पर्स को खोलकर देखा उसमें रुपए रखे देखकर उन्होंने सन्तोष की श्वांस ली। वे बोलीं-“मैं तो यह सोच-सोच कर परेशान हूँ कि इस मुसीबत से छुटकारा कैसे मिलेगा ?“

“सब ठीक हो जाएगा, धीरज रखो। ऊपर वाला बड़ा कारसाज है वह कोई न कोई रास्ता जरूर निकालेगा।“ रामकरन ने उन्हें धीरज बंधाते हुए कहा।

वे नल पर हाथ-मुँह धोने लगे। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा-“तुम भी हाथ-मुँह धो लो तब तक मैं गली की उसी दुकान से खाने के लिए कुछ लेकर आता हूँ।“

रामकरन दुकान से ब्रेड और मक्खन की एक टिक्की ले आए। दोनों बिना सिकी ब्रेड ही मक्खन लगाकर खाने लगे। वे नाश्ता करके निपट ही पाए थे तब तक पुलिस की गाड़ी उनके पास आकर रुक गई। गाड़ी में से पुलिस वाले उतरे और उनसे पूछताछ करने लगे। फिर पुलिस वाले उन दोनों को गाड़ी में बैठाकर कोतवाली ले गए। उन्होंने उन दोनों को एस.पी. सिटी के सामने पेश किया।

एस.पी. सिटी एक कठोर मुख-मुद्रा वाला नौजवान आफीसर था। उसने कड़कदार आवाज में रामकरन से पूछा-“कौन हो तुम लोग और इस समय लाॅकडाउन में सड़क के किनारे बैठे क्या कर रहे थे ?“

डर के मारे रामकरन की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी। काफी देर तक उन्हें कोई जवाब ही नहीं सूझा था। फिर हिम्मत करके उन्होंने अमेठी से गया आने और वहां तीर्थ यात्रा का पूरा वृतांत एस.पी. साहब को सच-सच बता दिया।

रामकरन को अलग बैठाकर पुलिस ऑफिसर ने वही सवाल उनकी पत्नी से पूछा। उन्होंने भी वही कहानी दुहरा दी।

दोनों के नयनों में समानता होने तथा उनके हाव-भाव देखकर एस.पी. सिटी समझ गए कि वे लोग झूठ नहीं बोल रहे हैं। फिर भी उनके बयानों की तस्दीक करने के लिए उन्होंने एक एस.आई. को आदेश दिया-“इनका अमेठी का पता ठिकाना नोट कर अमेठी कोतवाली को फोन कर पता लगाओ कि यह लोग इस पते पर रहते हैं या नहीं ?“

आदेश का तत्काल पालन हुआ। एक घन्टे बाद अमेठी कोतवाली से जवाब आ गया। रामकरन के पते की तस्दीक हो गई थी। इससे सन्तुष्ट होकर एस.पी. सिटी ने एक बार फिर दोनों को बुलवाया।

अब उनके बात करने का लहजा बदला हुआ था। उन्होंने रामकरन से पूछा-“क्या आप लोगों का कोई परिचित या रिश्तेदार गया में अथवा आसपास रहता है जहां आप लोग दो-चार दिन ठहर सको ?“

“मैं तो साहब पहली बार गया आया हूँ। यहां कहीं दूर-दूर तक मेरा कोई परिचित नहीं है।“ रामकरन गिड़गिड़ाते हुए बोले।

“फिर क्या किया जाए ?“ एस.पी. सिटी सोच में पड़ गए। उन्होंने हेड मुहर्रिर को बुलाया और उनसे पूछा-“क्या अपने यहां पुलिस क्वार्टर्स में इस समय कोई क्वार्टर खाली है ?“

“जी सर! एक क्वार्टर खाली है।“ हेड मुहर्रिर ने बताया। “ऐसा करिए जब तक इन लोगों के घर जाने की व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक इन्हें उसी क्वार्टर में ठहरा दो। किसी कांस्टेबल से कह देना वह इनसे रुपए लेकर इन्हें खाने-पीने के लिए राशन और जरूरी सामान ला देगा।“ एस.पी. सिटी ने आदेश दिया।

ठीक है सर! सारा इन्तजाम हो जाएगा। वह रामकरन और उनकी पत्नी को अपने साथ ले गया।

रामकरन और उनकी पत्नी पुलिस क्वार्टर में रहने लगे। उनके रहने खाने का इंतजाम हो गया था।

रामकरन को वहां रहते हुए तीन दिन बीत गए थे। उन्होंने घर फोन करके अपने बच्चों को सारी बातें बता दी थी। उन्हें घर की और बच्चों की बहुत याद आती मगर उन्हें घर पहुंचने का कोई तरीका ही समझ में नहीं आ रहा था। उनकी पत्नी कभी-कभी बहुत अधीर होने लगती, रामकरन उन्हें धीरज बंधाते।

चौथे दिन दोपहर का समय था। रामकरन और उनकी पत्नी बहुत उदास बैठे थे, तभी एक सिपाही वहां आया और बोला-“साहब आप दोनों को आफिस में बुला रहे हैं।

रामकरन मन ही मन सोचने लगे कि देखें अब कौन सी नई मुसीबत आती है। वे पत्नी के साथ सिपाही के पीछे-पीछे चल दिए। आफिस पहुंच कर उन्होंने एस.पी. सिटी को दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते की और उनके आदेश की प्रतीक्षा करने लगे। एस.पी. सिटी किसी से फोन पर बात करने में व्यस्त थे।

फोन रखने के बाद उन्होंने रामकरन से कहा-“अभी आप लोगों के बारे में ही बात हो रही थी। आज शाम को एक टूरिस्ट बस गया से दिल्ली जा रही है। उन्हें केन्द्र सरकार से अनुमति मिल गई है। मेरे अनुरोध पर वे लोग आप लोगों को ले जाने के लिए तैयार हो गए हैं। यह बस आप दोनों को प्रतापगढ़ छोड़ देगी। वहां से किसी भी साधन से अपने घर अमेठी चले जाना। मैंने यहां से आप दोनों का पास बनवा दिया है जिससे प्रतापगढ़ से अमेठी तक रास्ते में जो भी पुलिस वाले आपको नहीं रोकेंगे।“

यह सूचना सुनकर रामकरन का दिल बल्लियों उछलने लगा था। अभी तक उन्होंने पुलिस वालों की ज्यादती के बारे में ही बातें सुनी थीं। आज वर्दी के पीछे छिपे इस संवेदनशील मानवीय चेहरे को देखकर उनका मन उस नौजवान अफसर के प्रति श्रद्धा से भर गया था।

रामकरन बोले-“आपकी बहुत-बहुत मेहरवानी साहब। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि आपका यह अहसान कैसे चुकाऊंगा।“ रामकरन भावविहल स्वर में बोले। रामकरन और उनकी पत्नी के मुँह से उस नौजवान अफसर के लिए हजारों-हजार दुआएं निकल रही थीं।

छत्तीस घन्टे की थका देने वाली यात्रा के बाद टूरिस्ट बस ने रामकरन और उनकी पत्नी को प्रतापगढ़ छोड़ दिया था। वहां से पैदल चलते हुए और लिफ्ट मांगते हुए दो दिन में वे अमेठी पहुंच पाए थे। घर पहुंचने पर बच्चे उन लोगों से इस तरह लिपट गए थे, मानो वे वर्षों बाद मिले हों।

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