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कैक्टस के जंगल - भाग 6

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भंवर

रात्रि का समय था। चारों ओर गहरी नीरवता का साम्राज्य था। कौशाम्बी के घाट पर गंगा के किनारे शाही डोगी रस्सी से बंधी हुई थी। डोंगी में खड़े हुए कौशाम्बी के युवराज विक्रम पतित पावनी गंगा की फेनिल लहरों को निहार रहे थे। युवराज विक्रम इस समय नितान्त अकेले थे। उनके साथ न तो कोई सेवक था और न ही कोई सिपाही। डोंगी भी शायद वह स्वयं ही खेकर आए थे। शुक्ल पक्ष के पूर्ण चन्द्रमा की रजत चांदनी चारों ओर फैली हुई थी। इस चांदनी में गंगा के किनारे दूर-दूर तक बिखरे रेत के कण चांदी के समान चमक रहे थे। गगा की शांत लहरें निरन्तर बह रही थीं। रात्रि की इस निस्तब्धता में गंगा की यह चंचल लहरें वातावरण में एक अनोखा संगीत-सा पैदा कर रही थीं। युवराज विक्रम प्रकृति की इस मनोहारी सुन्दरता का भरपूर आनन्द उठा रहे थे, परंतु बार-बार उनकी नज़रें पूर्व दिशा की ओर उठ जाती थीं। उन्हें शायद किसी के आगमन की प्रतीक्षा थी।

यह बारहवीं शताब्दी में उस समय की बात है, जब यवन आक्रान्ता मोहम्मद बिन अख्यतार खिलजी के आक्रमण का आतंक पूरे राज्य का विध्वंस करता हुआ कौशाम्बी तक आ पहुँचा था। उसने कौशाम्बी के पड़ोसी राज्य पर आक्रमण कर दिया था। वहाँ से उसके द्वारा मचाई जा रही भयानक तबाही की खबरें निरन्तर आ रही थीं। वह किसी समय भी कौशाम्बी पर धावा बोल सकता था।

कौशाम्बी नरेश रणविजय सिंह लम्बे समय से बीमार चल रहे थे। राज्य की सुरक्षा का पूरा भार युवराज विक्रम के सबल कंधों पर था। विक्रम सिंह महापराक्रमी योद्धा तथा कुशल सेनानायक थे। कौशाम्बी की सेना भी काफी शक्तिशाली और सुदृढ़ थी। युवराज विक्रम के नेतृत्व में कौशाम्बी की सेना यवन आक्रान्ता का मुँहतोड़ जवाब देने में पूरी तरह सक्षम थी। परंतु युवराज विक्रम का मन इन दिनों राज-काज में नहीं लग रहा था। जब से उन्होंने कौशाम्बी की राजनर्तकी स्वर्णलता को देखा था, तब से वह बुरी तरह से उसके ऊपर आसक्त थे।

युवराज की दीवानगी का यह हाल था कि न तो उन्हें राज-काज की सुधि थी और न अपने शरीर की। राजनर्तकी स्वर्णलता की मोहक छवि उनके हृदय-पटल पर इस तरह से अंकित हो गई थी कि वे स्वर्णलता के सिवाय और किसी बात के बारे में सोचना ही नहीं चाहते थे। स्वर्णलता के प्रति उनका सम्मोहन दिन-पर-दिन बढ़ता ही जा रहा था।

स्वर्णलता रूप और लावण्य की सजीव प्रतिमा थी। काले रतनारे नयन, कुंचित केश, उन्नत वक्ष, लम्बी ग्रीवा, रक्ताभ कपोल तथा कंचन जैसा दप-दप करता गोरा रंग। वह स्वर्ग से उतरी अप्सरा के समान लगती थी। वह इतनी कोमल कि फूलों के हार के वज़न से भी उसकी नाजुक कमर, सौ-सौ बल खाती थी। चांदनी रात में निकलने पर भी उसका रंग मैला होने का भय बना रहता था। उसके संगीत में जादू और पाँवों में बिजली थी। कुल मिलाकर स्वर्णलता के व्यक्तित्व में गजब का सम्मोहन था। युवराज विक्रम पहली नज़र में ही राजनर्तकी स्वर्णलता को अपना दिल दे बैठे थे। इसके बाद वे कई बार स्वर्णलता से मिले थे। स्वर्णलता के हृदय में भी युवराज के प्रति गहरा अनुराग पैदा हो गया था। कुछ मुलाकातों में ही दोनों के हृदय प्यार की मज़बूत डोर में बंध गए थे।

अब वे अक्सर यहीं गंगा के तट पर रात की नीरवता में मिलते थे। गंगा की पावन लहरें उनके प्यार की मौन साक्षी थीं। दोनों घंटों आपस में दुनिया-जहान की बातें करते, कभी-कभी एक-दूसरे को एकटक निहारते रहते थे। दोनों की आँखों में एक-दूसरे के प्रति अनुराग और समर्पण की गहरी छाया झलकती रहती थी, परंतु भूल से भी कभी दोनों ने एक-दूसरे के शरीर को छुआ तक नहीं था। उनका प्यार कंचन की तरह खरा और गंगाजल की तरह निर्मल था।

स्वर्णलता के रूप-लावण्य की कीर्ति कौशाम्बी राज्य की सीमाओं को पार कर पूरे भारत में फैल गई थी। यवन आक्रान्ता मोहम्मद बिन अख्यतार खिलजी ने भी स्वर्णलता की सुन्दरता की चर्चा सुनी थी। वह भी इस अनिंद्य सुन्दरी की एक झलक पाने को लालायित था। कौशाम्बी पर उसके आक्रमण करने का एक प्रमुख कारण स्वर्णलता को हासिल करना भी था। इसलिए युवराज विक्रम स्वर्णलता को लेकर बेहद चिन्तित थे।

युवराज विक्रम के मन में तरह-तरह की शंकाएँ-आशंकाएँ उमड़-घुमड़ रही थीं। तभी उन्हें गंगा के जल में चप्पुओं के मन्द-मन्द चलने की आवाज़ सुनाई दी। यह आवाज़ पूर्व दिशा की ओर से आ रही थी। युवराज विक्रम सब कुछ भूल कर आवाज़ की दिशा में निहारने लगे। उनका चेहरा ताजे़ फूल की भांति खिल उठा।

धीरे-धीरे चप्पुओं ही आवाज़ पास आती गई। धवल झीने परिधान से चारों ओर से ढंकी हुई एक सुसज्जित डोंगी युवराज विक्रम की डोंगी के पास आ खड़ी हुई। यह डोंगी कौशाम्बी की राजनर्तकी स्वर्णलता की थी। स्वर्णलता इस समय डोंगी पर बिलकुल अकेली थी। और सबसे आष्चर्य की बात यह थी कि फूलों से नाजुक कही जाने वाली कौशाम्बी की राजनर्तकी, इस समय डोंगी को खुद ही खेकर लाई थी। स्वर्णलता अपनी डोंगी से उतर कर युवराज की डोंगी पर आ गई। उसने हाथ जोड़कर युवराज को प्रणाम किया। युवराज ने अभिवादन का कोई उत्तर नहीं दिया। वह एकटक स्वर्णलता के चेहरे को निहारने लगे। उनका चेहरा कुछ उदास हो उठा।

‘क्या बात है युवराज, आज आपके चन्द्रमुख पर चिन्ता की रेखाएँ क्यों दिखाई दे रही हैं?’ स्वर्णलता ने युवराज के और निकट आते हुए पूछा।

‘कुछ नहीं।’ युवराज ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।

‘कहीं आप यवन आक्रान्ता मोहम्मद बिन अख्यतार खिलजी के आक्रमण के भय से तो चिन्तित नहीं हैं युवराज?’ स्वर्णलता ने खिलखिला कर हँसते हुए कहा।

स्वर्णलता की हँसी बहुत मोहक थी। युवराज को ऐसा लगा मानों पास ही कहीं जलतरंग बज उठी हो।

युवराज स्नेहिल नज़रों से स्वर्णलता के मुख कमल की ओर देखने लगे। बोले कुछ नहीं।

‘क्या बात है युवराज, आज यह मौन क्यों साध रखा है? कुछ बोलते क्यों नहीं? एक यवन आक्रान्ता से आपका इतना भयभीत होना ठीक नहीं है युवराज।’ स्वर्णलता युवराज को छेड़ते हुए बोली।

‘युवराज विक्रम ने भयभीत होना नहीं सीखा है स्वर्णलता। मोहम्मद बिन अख्यतार खिलजी तो क्या, एक बार को यदि यमराज भी आ जाएँ तो भी मैं युद्ध में हार नहीं मानूँगा। मैं राजपूत हूँं स्वर्णलता, युद्ध मेरे लिए खेल है। मुझे आक्रमण की चिंता नहीं, मुझे चिंता है तो बस तुम्हारी। तुम तो जानती हो कि यह यवन कौशाम्बी पर आक्रमण क्यों कर रहा है?’ युवराज ने गम्भीर स्वर में कहा।

‘ओह तो अब समझी। युवराज को मेरी चिंता सता रही है। इस अकिंचन के प्रति इतना मोह ठीक नहीं है युवराज। शत्रु सीमा पर आ पहुँचा है इसलिए मेरा मोह छोड़ो और युद्ध की तैयारी करो।’ स्वर्णलता ने गम्भीर स्वर में कहा।

‘मैं कैसे युद्ध की तैयारी करूँ स्वर्णलता? जब से मैंने तुमको देखा है, तब से मेरा किसी काम में मन नहीं लगता है। सोते-जागते, उठते-बैठते हर समय मैं तुम्हारे ही सपने देखता रहता हूँ। किसी काम को करने बैठता हूँ, तो आँखों के सामने तुम्हारा चेहरा नाच उठता है। मुझे चारों ओर तुम ही तुम दिखाई देती हो। अब मैं तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह सकता। मुझे अपने आगोश में छिपा लो स्वर्णलता।’ युवराज भावुक स्वर में बोले।

‘आप कैसी बातें कर रहे हैं युवराज। एक नर्तकी के लिए आप अपना कत्र्तव्य, राजधर्म सब कुछ छोड़ देंगे? शत्रु सीमा पर ललकार रहा है। महाराज बीमार हैं। राज्य की जनता की निगाहें आपकी ओर लगी हुई हैं। आपका कर्तव्य आपको पुकार रहा है। इस समय आपका स्थान युद्ध का मैदान है, स्वर्णलता का आगोश नहीं। अपने कर्तव्य को पहचानो युवराज, स्वर्णलता के कान आपकी विजय का समाचार सुनने को व्याकुल हैं।’

‘नहीं स्वर्णलता, ऐसा मत कहो। मुझे न विजय की कामना है, न राजसुख भोग की अभिलाषा। मुझे न मान चाहिए, न यश और न वैभव, मुझे तो मेरी स्वर्णलता चाहिए, बस स्वर्णलता।’

‘स्वर्णलता आपकी है और हमेशा आपकी ही रहेगी युवराज, इतना विश्वास रखो। यवन कभी स्वर्णलता की परछाईं भी नहीं छू पाएगा। परंतु यह समय प्यार की सरगम सुनाने का नहीं है युवराज! समय की आवाज़ को सुनो और कौशाम्बी के राजकुल की मर्यादा की रक्षा करो। आप स्वर्णलता को हमेशा अपने पास पाओगे।’

‘तुम्हारे लिए मैं सारी मर्यादाएँ तोड़ सकता हूँ स्वर्णलता। मैं यह भूल जाना चाहता हूँ कि मैं युवराज हूँ। मैं यह भी भूल जाना चाहता हूँ कि कौशाम्बी की रक्षा का भार मेरे कंधों पर है। इन सारी चिंताओं से मुक्त होकर मैं एक भावुक प्रेमी की भांति अपनी प्रियतमा को प्यार करना चाहता हूँ। चलो हम कहीं दूर भाग चलें स्वर्णलता, जहाँ ये कर्तव्य की ऊँची दीवारें न हों। जहाँ हमारे प्यार के बीच राजकुल की मर्यादा न आने पाए। चलो स्वर्णलता, चलो।’ युवराज विक्रम हठात स्वर्णलता का हाथ पकड़ते हुए अत्यन्त भावुक स्वर में बोले।

किसी पुरुष के स्पर्श का स्वर्णलता का यह पहला अनुभव था। उसके पूरे शरीर में बिजली की झनझनाहट-सी फैल गई। क्षण भर के लिए भी स्वर्णलता विचलित हो उठी, परंतु शीघ्र ही उसने अपने आपको संभाल लिया।

वह युवराज को समझाते हुए बोली-‘पागल मत बनो युवराज। मैं तुम्हारी प्रियतमा हूँ। मेरे शरीर के रोम रोम, जीवन की हर श्वांस तथा हृदय की हर धड़कन पर तुम्हारा ही अधिकार है युवराज। मेरा यह तन, मन तथा जीवन पूरी तरह तुम्हारे लिए समर्पित है। मैं तुम्हारे एक इशारे पर अपने प्राण दे सकती हूँ। परंतु मैं यह नहीं चाहती युवराज कि मेरा प्यार तुम्हारे अपयश का कारण बने। लोग यह न कहें कि राजनर्तकी स्वर्णलता के मोहपाश में बंधकर युवराज विक्रम अपना कत्र्तव्य भूल गए। यह मेरे पवित्र प्यार का अपमान होगा। इसलिए भावुकता छोड़ो युवराज और युद्ध की तैयारी करो। जब आप युद्ध से विजय का वरण करके लौटेंगे, तो स्वर्णलता राह में आँखें बिछाए आपकी प्रतीक्षा करती मिलेगी।’

‘जिसे तुम मेरी भावुकता कहती हो स्वर्णलता, वह मेरे प्यार की कशिश है। मैं क्या करूँ स्वर्णलता, इस मन को समझा-समझा कर हार गया हूँ, परंतु यह चंचल मन हर पल हर क्षण तुम्हारे आस-पास ही मंडराता रहता है। मैं तुम्हारी याद के सिवाय न कुछ सोच पाता हूँ, न कुछ कर पाता हूँ। मुझे हर चीज में तुम्हारा ही अक्स दिखाई देता है। तुम्हारे प्यार की कशिश मुझे एक पल के लिए भी चैन नहीं लेने देती। मैं क्या करूँ?’ युवराज ने विह्नल नज़रों से स्वर्णलता की ओर देखते हुए पूछा।

‘अगर मेरा यह अकंचन शरीर ही आपके मोह का कारण है युवराज, तो मैं इस शरीर को नष्ट कर दूँगी, परंतु आपको अपयश के मार्ग पर नहीं जाने दूँगी मैं। मैं प्यार करना जानती हूँ, तो बलिदान देना भी जानती हूँ युवराज। मैं इसी समय गंगा की अनन्त लहरों के बीच अपनी जल समाधि दूँगी, परंतु मेरी आत्मा हमेशा आपके प्यार के लिए तड़पती रहेगी। मगर याद रखना युवराज, तुम मेरा प्यार तभी हासिल कर पाओगे, जब तुम आक्रान्ता यवन को युद्ध में परास्त कर, कौशाम्बी के स्वाभिमान की रक्षा करोगे। मैं जा रही हूँ युवराज। स्वर्ग में भी मैं तुम्हारी विजय की कामना करूंगी।’

और इससे पहले कि युवराज विक्रम कुछ समझ पाते, एक छपाक की आवाज़ हुई और स्वर्णलता का कंचन शरीर गंगा की अनन्त लहरों में विलीन हो गया।

युवराज विक्रम इस अनहोनी घटना को देखकर अचेत होकर गिर पड़े। जब उन्हें होश आया तब तक स्वर्णलता का हँसता-खिलखिलाता शरीर गंगा की अविरल धारा में पूरी तरह आत्मसात हो चुका था।

युवराज विक्रम घंटों बुत बने वहाँ बैठे रहे। फिर कुछ निश्चय करके वे उठे और अपनी डोंगी लेकर चल दिए। उनके मन-मस्तिष्क में स्वर्णलता का यह अन्तिम वाक्य बार-बार गूँज रहा था- ‘याद रखना युवराज, तुम मेरा प्यार तभी हासिल कर पाओगे, जब युद्ध में यवन आक्रान्ता को परास्त करोगे।’ युवराज प्राण-प्रण से युद्ध की तैयारी में जुट गए।

इस घटना के तीन-चार दिन बाद यवन आक्रान्ता ने अपनी पूरी शक्ति के साथ कौशाम्बी पर आक्रमण किया। कौशाम्बी की सेना शत्रु का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए युवराज विक्रम के नेतृत्व में बाहर निकल आई। घमासान युद्ध हुआ। युवराज विक्रम उन्मत्त सिंह की भांति शत्रु सेना का संहार कर रहे थे। वह जिधर निकल जाते उधर लाशों के ढेर बिछा देते। कौशाम्बी की धरती यवनों के रक्त से लाल हो उठी।

कौशाम्बी के वीरों की तलवार के जौहर देख शत्रु सेना के पैर उखड़ने लगे। जिस यवन आक्रान्ता के नाम से लोग थर्राते थे, वही यवन आक्रान्ता मोहम्मद बिन अख्यतार खिलजी, युवराज विक्रम का पराक्रम देख अपनी जान बचाकर भागा। उसे भागते देख उसकी सेना के भी पैर उखड़ने लगे। यवन सेना सिर पर पैर रख कर भागी। कौशाम्बी के वीरों ने कौशाम्बी राज्य की सीमा से मीलों दूर तक यवन सेना को खदेड़ दिया।

युवराज विक्रम को विजय-श्री हासिल हुई। लोग उनकी जय-जयकार कर उठे। दिग-दिगान्तर में उनकी कीर्ति पताका फहरा उठी। परंतु युवराज विक्रम के मन में इस सबके प्रति कोई उल्लास नहीं था। वह मन-ही-मन बहुत व्यथित थे। अगले दिन उन्होंने अपने कनिष्ठ भ्राता को सारी बात बताकर राज-पाट उसे सौंप दिया।

फिर रात्रि की नीरवता में युवराज विक्रम गंगा के तट पर पहुँचे। उन्होंने मन ही मन स्वर्णलता को स्मरण किया और गंगा के अनन्त जल में उसी स्थान पर जल समाधि ले ली, जहाँ पर राजनर्तकी स्वर्णलता ने अपने प्राणों को अर्पित किया था। गंगा की चंचल लहरें भी दोनों का यह अमर प्यार देखकर क्षण भर के लिए स्तब्ध रह गई थीं।

अगले दिन पूरे कौशाम्बी राज्य में जंगल की आग की तरह यह बात फैल गई। घर-घर में स्वर्णलता और युवराज विक्रम के अमर प्यार की चर्चा होने लगी। जहाँ दोनों प्रेमियों ने जल समाधि ली थी, वहाँ एक भंवर बन गया है। यह भंवर आज भी कौशाम्बी के घाट पर जाने वालों को राजनर्तकी स्वर्णलता और युवराज विक्रम के अमर प्यार की याद दिलाता है।

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