Prem Gali ati Sankari - 20 books and stories free download online pdf in Hindi

प्रेम गली अति साँकरी - 20

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सब कुछ बहुत अच्छी तरह हो गया जैसे अम्मा-पापा की आदत थी किसी ने मुझसे कुछ नहीं पूछा | मैं गलत थी इसीलिए अंदर से गिल्ट महसूस कर रही थी | सबसे बड़ी बात जो परेशान कर रही थी, वह यह थी कि वह अभी तक रतनी से बात नहीं कर पाई थी कि आखिर सुबह-सुबह उनके घर में शोर कैसा था? कुछ दिनों से शांति थी तो अच्छा लग रहा था | वैसे वह क्या सब ही जानते थे कि सड़क के पार वाले घर में शांति हो ऐसा तो लगभग असंभव ही सा था लेकिन फिर भी ---

आज ऐसा हुआ क्या होगा ? उसका मन उद्वेलित होने लगा ,ऊपर से उत्पल की दृष्टि उसे क्यों परेशान कर रही थी? अपने सुबह के सपने में भी उसने इसके जैसी कोई आकृति देखी थी जिसे वह पहचान नहीं पा रही थी लेकिन कुछ था ऐसा ही | अचानक रतनी कुछ कागज़ लेकर उसके कमरे में आई----

“अम्मा जी ने ये कागज़ भेजे हैं ----”उसने उसके हाथ में कागज़ पकड़ाए और जाने लगी | 

“अरे!बैठो न ---कुछ जरूरी काम है क्या?”मैंने पूछा | 

“वो---टेलर्स बैठे हैं,उन्हें आगे का काम बताकर आती हूँ ---”वह भी समझ गई थी कि मैं उनसे पूछे बिना तो रहूँगी नहीं इसलिए जल्दी आने का कहकर चली गईं | मेरा मन उलझनों में घिरा न जाने क्या-क्या सोचता रहा | कभी कहीं और कभी कहीं भटकता रहा | मन था कि लग ही नहीं रहा था | मैं कागज़ खोलकर पढ़ने लगी थी | अम्मा ने आज ही साइन हुए नए ‘प्रपोज़ल’ की कॉपी भेजी थी कि एक बार मैं उस पर निगाह डाल लूँ | मुझे बेचैनी हो रही थी रतनी से बात करने की | मैंने कागज़ों को बिना पढे ही अपनी मेज़ के बड़े से ड्राअर में रख दिया और रतनी का इंतजार करने लगी | दसेक मिनट में वह आ गईं और मेरे सामने कुर्सी पर बैठ गईं | उनके हाथ में एक ट्रे थी जिसमें दो कॉफ़ी के मग थे | 

“बहुत अच्छा किया आपने,थैंक यू ----”

मैंने मुस्कुराते हुए रतनी के उदास चेहरे पर एक हल्की सी नज़र डाली | अभी तक उनका चेहरा कोई अनजानी कहानी बयान कर रहा था | अभी तक हम दोनों खिड़की के पास आमने-सामने की कुर्सियों पर चुपचाप बैठे थे | मेरी निगाह अब भी खिड़की की चौखट को पर करती हुई सड़क के पार फिसल रही थी लेकिन मैं चुप थी | 

“मैं जानती हूँ आप मुझसे बात करना चाहती हैं --- | ”रतनी ने मेरे चेहरे को पढ़ते हुए धीमे से कहा | 

हम दोनों ही जानते थे कि क्या बात करनी है?क्यों करनी है?लेकिन दोनों एक-दूसरे की ओर बस ताक भर रहे थे | जब उन्होंने कहा तो मैंने भी उनकी ही सी भाषा में उनके उत्तर के साथ प्रश्न परोस दिया---

“तो –बताती क्यों नहीं ?” कई बार मुझे लगता था कि रतनी और शीला दीदी भी कितना लज्जित महसूस करती होंगी लेकिन फिर भी घर में मैं उस सड़क के पार के मुहल्ले की सबसे अधिक सी.आई. डी करती थी | क्यों करती थी, यह भी नहीं पता था ---बस, सड़क पार का थोड़ा सा शोर सुनकर भी एक अजीब सा गुस्सा मेरे भीतर बलबलाने लगता | 

रतनी की आँखें बरबस बरसने लगीं जैसे हर बार बरसने लगती थीं | वैसे भी केवल एक मैं ही थी अब जिसके सामने रतनी अपने दिल के फफोले दिखती थी | मेरे सामने वह रोतीं गातीं और जैसे उनके फूटे हुए फफोलों पर मेरे कंधे पर सिर रख देने से मरहम लग जाता | 

“आज करवाचौथ है ----”रतनी के आँसू रुक ही नहीं रहे थे | 

“ओ!हाँ,----तो---आज तो आपका व्रत होगा ?”मैंने कहा | हमारा परिवार आर्यसमाजी था ,वैसे भी हमारे यहाँ अम्मा से दादी ने कोई व्रत-उपवास कभी नहीं करवाए थे | दादी का कहना था कि व्रत-उपवास से कुछ नहीं होता | मन की ईमानदारी सबसे बड़ी बात है---यदि रिश्तों में प्यार, परवाह और ईमानदारी है तो सब कुछ ठीक रहता है | हाँ,यज्ञ हमारे यहाँ हर त्योहार, वर्षगांठ और विवाह की सालगिरह पर हुआ करते थे | मुझे याद आया कि सामने वाले मुहल्ले में हर साल औरतें कितनी सजती-धजती थीं और खूब शोर होता था | पतियों की आयु के लिए भूखी-प्यासी,सजी-धजी बीवियाँ पति के इंतज़ार में भूखी बैठी रहतीं और पतियों का मूड होता कि अपनी पत्नियों के लिए समय पर आएँ या अपने मूड के अनुसार खा-पीकर जब आना चाहें आएँ | रतनी के आदमी का तो यही हाल था,वह किसी भी दिन बिना पी हुए कैसे आ सकता था | 

“भाई, ये भूखी बैठी रहती है,कम से कम एक दिन तो टाइम पर घर आ सकता है, एक दिन बिना पीए नहीं रह सकता? ये बेचारी सारे दिन की भूखी-प्यासी बैठी रहती है!”शीला दीदी रतनी की तरफ़दारी लेने की कोशिश करतीं | 

“किसने कहा भूखा बैठने को—आदमी को जो चहिए वो तो देने में इसकी माँ मरती है—क्या है ये बरत-वरत रखने से? मैंने तो कभी नहीं कहा भूखा बैठने को---?”वह चिल्लाता और रतनी बेचारी लज्जित होती रहती | 

‘क्या इसे प्यार कहते हैं ?’मेरा दिल प्यार के नाम से धड़कता लेकिन भय से बिना किसी कारण ही मैं जैसे परेशान हो जाती | 

‘ऐसे पतियों के लिए व्रत-उपवास आखिर क्यों? ’मेरा उपद्रवी मन सोचता और मुझे बड़ी संतुष्टि हुई थी जब मुझे पता चल था कि रतनी ने व्रत रखना छोड़ दिया था | फिर आज वह व्रत की बात क्यों कर रही थीं ?

“आपने तो व्रत करना छोड़ दिया था फिर ----?”मेरे मन में कई बेकार के सवाल मुँह बाए खड़े हो गए थे | 

“नहीं, मैं व्रत कहाँ करती हूँ ?आपको तो पता है ---कुछ साल पहले कितना उपद्रव किया था, कि व्रत रखने से मेरी उमर थोड़े ही बढ़ जाएगी –आदमी को खुश रखना आता नहीं और --- ”रतनी ने रोते हुए कहा | 

“फिर---?” मेरे मन में उत्सुकता चरम सीमा पर थी | 

“आपको तो पता है, डॉली को मेंहदी लगाने का कितना शौक है | कल वो ज़िद में आ गई ,पड़ौस की सारी औरतों और लड़कियों के हाथों में मेंहदी लगी देखकर उसने मेंहदी लगाने की ज़िद की | दीदी ने कहा कि बच्ची के शौक को क्यों मारते हैं हम ? दीदी मेंहदी का कोन ले आईं थीं और उन्होंने डॉली के हाथों में मेंहदी लगा दी | डॉली अपनी सहेलियों की मम्मियों के हाथों में मेंहदी लगी देखकर ज़िद करने लगी कि मेरे हाथों में भी लगाएँ----” रतनी सुबक-सुबककर रोने लगीं | 

“तो-----इसमें क्या हो गया?”मैंने पूछा | 

“आपको पता है न इनको मेंहदी की खूशबू से कितनी चिढ़ है?” रतनी ने रोते हुए कहा | आगे बोलीं—

“बच्ची की ज़िद ने मेरे हाथों पर मेंहदी लगवा दी और आज ये सुबह लगभग चार बजे झूमते हुए आए और अपनी ज़रूरत के लिए मुझे घसीटकर ले गए और जैसे ही मेंहदी की सुगंध इन्होंने सूंघी,शोर मचाना शुरू कर दिया | ” रतनी अपने साथ हुए पति के बर्ताव को बताती जा रही थी और सुबकियाँ लेकर बुरी तरह रो रही थी | 

“इन्होनें मुझे बहुत मारा और घसीटकर बरामदे में पटक दिया | इतने बौखला गए थे कि इनकी सारी मस्ती उतर गई और पूरे मुहल्ले में शोर बरपा हो गया | बच्चे घबराकर नींद से उठ खड़े हुए और घर के बाहर हर बार की भाँति भीड़ इक्कठी हो गई | सुबह-सुबह मुहल्ले भर ने बिना टिकिट की पिक्चर देख ली | ” रतनी फिर चुप हो गई और आँखों पर अपना दुपट्टा रखकर ज़ोर ज़ोर से सुबकने लगी थी | 

“ऐसा नहीं लगता कि इस आदमी को छोड़कर भाग जाऊँ !लेकिन बच्चे ---!!”बेचारी रतनी –

“इसे छोड़कर अपने उस दोस्त के पास चले जाना ठीक नहीं जो तुम्हें प्यार करता है,तुम्हारी परवाह करता है | 

शीला दीदी का जीवन भी बर्बाद कर दिया है | ” मैंने गुस्से से भरकर कहा | क्या शादी होने के बाद औरत अपने शौक भी पूरे नहीं कर सकती ?”मैं बुरी तरह भन्न चुकी थी | मन विद्रोह से पागल हुआ जा रहा था | महसूस हो रहा था कि मैं ऐसा कुछ काम न कर बैठूँ जो न मेरा अधिकार हो और न ही इस परिवार के हित में!

सामने मेज़ पर ठंडी पड़ी कॉफ़ी मुँह चिढ़ा रही थी |