Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 41 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 41


गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।2/64।।

इसका अर्थ है,अन्तःकरण को अपने वश में रखने वाला कर्मयोगी साधक राग और द्वेष से रहित अपने नियंत्रण में की हुई इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता हुआ, अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त हो जाता है।

जब आसक्ति रहित होने की बात आती है,इंद्रियों को उनके विषयों से मुक्त करने की बात आती है तो मनुष्य पूरी तरह इनके निषेध पर बल देता है।इसका मतलब है हमारा इंद्रियों के विषयों के प्रति शून्य हो जाना।इंद्रियां जिन चीजों को ग्रहण करती हैं, उन्हें पूरी तरह रोक देना।

वास्तव में व्यवहार में यह असंभव स्थिति है। इसके लिए कोई और रास्ता ही श्रेयस्कर हो सकता है।इंद्रियों द्वारा किए जाने वाले अनेक कार्य व्यापार ऐसे हैं जिन्हें पूरी तरह छोड़ा नहीं जा सकता है।उदाहरण के लिए आंखें दृश्य इंद्रिय हैं।अब मन यहां-वहां भटकता है,यह देखते हुए हम आंखें बंद नहीं कर सकते हैं।अगर हम पूरी तरह आंखों को बंद कर लें तो दैनिक कार्य व्यवहार कैसे होगा? यही बात अन्य इंद्रियों के साथ भी लागू होती है।पूरी तरह निषेध और मनाही के अपने खतरे हैं।ऐसे में हमारा मन शून्य हो जाएगा।हमारा मन जब इच्छाओं से रहित हो जाएगा,यह तो पूर्णता की स्थिति होगी,जो केवल ईश्वर और बड़े साधक तपस्वियों के लिए ही संभव है।

मन को पूरी तरह बंद नहीं रखा जा सकता है।हम साधारण मनुष्यों के सामने तो इंद्रियों के विषय उपलब्ध होंगे ही।उनमें से क्या हमें ग्रहण करना है और क्या नहीं,इसके लिए चयन और नीर-क्षीर विवेक वृत्ति को विकसित करना होगा। भोग हमारे सामने उपस्थित होंगे और चले भी जाएंगे।विषयों को ग्रहण करने की स्थिति भी बनेगी।यहां पर हमें यह सूझ रखने की जरूरत होगी कि क्या ग्रहण किया जाए और किन बातों की उपेक्षा की जाए। अगर आंखें दिन भर टीवी और मोबाइल देखने से दुखती हैं और स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से हानिकारक है तो हमें इनका नियंत्रित उपयोग करना ही होगा। अगर हमने खुद पर लगाम नहीं लगाई, स्थिति बिगड़ने पर कोई दूसरा व्यक्ति हमारी मदद कर नहीं सकेगा। आत्म कल्याण का रास्ता ऐसा ही होता है जिस पर स्वयं को चलना होता है।


इंद्रियों के विषय के ग्रहण और त्याग में राग-द्वेष का न होना अत्यंत महत्वपूर्ण बात है। यहां भगवान कृष्ण ने इंद्रियों द्वारा विषयों के ग्रहण या मनाही का निर्देश नहीं दिया है।वास्तव में मनुष्य द्वारा व्यावहारिक जीवन में इंद्रियों और विषयों के प्रयोग से शून्य हो जाना असंभव है। हम इनका प्रयोग करते हुए भी इनसे आसक्ति और राग-द्वेष न रखें,यह महत्वपूर्ण है।क्या आंखें दृश्य का संज्ञान लेना बंद कर दें? संभव ही नहीं है।इनका उपयोग करते हुए भी दृश्यों के पसंद-नापसंद को लेकर अपनी धारणा बना लेना और फिर इसके अनुसार परवर्ती व्यवहार करना,यह स्थिति मोह माया वाली है।अतः इस दृष्टिकोण में परिवर्तन की आवश्यकता है।चिंताजनक स्थिति तब उत्पन्न होती है जब हम इंद्रियों के विषयों पर केंद्रित चिंतन और व्यवहार करने लग जाते हैं।

साधना का प्रयत्न करने वाले लोगों को अंतः करण को वश में रखना आवश्यक है। इसके लिए इंद्रियों से आचरण करते हुए भी मन को कर्ता या भोग भाव से रहित रखना आवश्यक है। जब किसी वस्तु के पाने पर आसक्ति और अधिकारजन्य प्रसन्नता नहीं होगी और त्याग या अप्राप्ति से हताशा और निराशा नहीं होगी, तो मनुष्य अंतःकरण की प्रसन्नता वाली स्थिति में रहेगा। भोग और त्याग भावना को परे रखने से भविष्य की अन्य जटिलताएं या साइड इफेक्ट्स भी निर्मित नहीं होंगे। यही तो है परमात्मा में बुद्धि का स्थिर हो जाना। केवल दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने से अनेक विचलन,क्षोभ और अशांति के बिंदु स्वतः ही पानी के बुलबुलों की भांति आपके मन से तिरोहित हो जाएंगे।यह कठिन जान पड़ता है लेकिन इतना कठिन भी नहीं है।हम उस परं सत्ता से अपनी अंतरात्मा की लौ लगाने की कोशिश शुरू तो करें।

डॉ.योगेंद्र कुमार पांडेय