Prem Gali ati Sankari - 24 books and stories free download online pdf in Hindi

प्रेम गली अति साँकरी - 24

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व्यस्तता के बावज़ूद हम सब ही कोशिश करते कि खाने की मेज़ पर तो साथ-साथ बैठें | और कुछ नहीं तो थोड़ी देर के लिए ही सही सबके चेहरे आमने-सामने तो रहेंगे| उत्पल इधर अम्मा-पापा के भी बहुत करीब आता जा रहा था इसलिए कभी-कभी जब वह चाय या खाने के समय वहाँ होता, अम्मा उसे अपने साथ टेबल पर बैठने का आग्रह करतीं | धीरे-धीरे वह इतना खुल गया कि चर्चा में भी सम्मिलित हो जाता और अम्मा को न जाने एक तसल्ली सी होने लगती | वह उस पर भाई यानि अपने बेटे जैसा प्यार लुटाने लगी थीं| वास्तव में वह संस्थान के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता जा रहा था| सब जान रहे थे कि उत्पल मुझमें रुचि ले रहा था लेकिन सब समझकर भी नासमझ थे| 

उत्पल मेरी ओर आकर्षित था लेकिन प्रश्न यह था कि क्या मैं उसकी ओर आकर्षित नहीं थी ? बहुत अजीब था, मेरे साथ के कितने मित्रों ने मुझमें रुचि दिखाई थी लेकिन न जाने मेरे दिल के भीतर क्या बैठा था कि मैं बहुत अच्छी मित्रता होने के बावज़ूद उनके प्रपोज़ल को नहीं स्वीकार कर पाई थी और उन्होंने मेरे देखते ही देखते अपनी गृहस्थी बसा ली थी| मेरे मन का आँगन कोरे कागज़ की तरह रह गया था जिस पर मैं प्रेम की बरखा के झरने की प्रतीक्षा करती रही थी| 

‘आकर्षण और प्रेम की आखिरी सीमा विवाह ही क्यों है ? ’मेरा मन जूझते हुए कुछ ऐसे ही सवाल मुझसे ही करता रहता था | सड़क के इस पार हमारे इलाके में भी कितने ही परिवारों में प्रेम-विवाह हुए थे लेकिन कुछ दिनों बाद उनका प्रेम न जाने किस दिशा में उड़ जाता था कि वह शीतल पवन न होकर तूफ़ान का आभास देने लगता था| हर दूसरे दिन सुन लो, आज इस घर में तनाव है, आज उस परिवार में झगड़े हो रहे हैं| जो लोग एक दूसरे के बिना खाना नहीं खाते थे, पानी नहीं पीते थे, वे एक –दूसरे को ज़हर देने के लिए तैयार दिखाई देते थे | कैसे रिश्ते? कैसा प्यार? इससे अच्छा नहीं इंसान अकेला रह ले लेकिन उसके लिए भी बहुत से कारण निकल आते | परिवार, समाज यानि कि कोई न कोई कारण ! कोई न कोई बहाना ! क्या स्वयं का अकेलापन चुभन नहीं देता था ? इंसान लाख सबसे छिपा ले लेकिन क्या अपने मन से कुछ छिपाकर रख सकता है ? लेकिन शादी ! इस नाम से मैं ऐसी भयभीत होती कि समझ में ही नहीं आता क्या करूँ ? 

किसी भी रिश्ते में समायोजन यानि ‘एडजस्टमेंट’ करना ही पड़ता है, सही भी है | यह सब जगह होता है, कहीं काम करने जाओ, अपना काम करो, परिवार के सदस्यों के साथ रहो या अकेले लेकिन सब ही जगह एडजस्टमेंट रखना है | हम सबकी कुछ सीमाएं होती हैं उनमें रहना है, एडजस्ट करना है, | कोई भी बात सीमा के आर-पार जाकर कुरूप ही तो हो जाती है ---लेकिन सीमा हमें स्वयं तय करनी पड़ती है | हमारी बड़ी सोसाइटी में क्या नहीं होता था ? मुझे तो बहुत कुछ ऐसा ही लगता जैसे सामने वाले मुहल्ले में होता था | फ़र्क था तो केवल यह कि हमारी तथाकथित सभ्य सोसाइटी में सब कुछ पर्दों के भीतर होता था और सामने वाले मुहल्ले में वह निकलकर कमरे से बाहर चौंतरे पर या फिर गली में भी आ जाता | वैसे समाज कोई भी हो, ऊँचा-नीचा मुझे उसकी सीमाएं अपने लिए कुछ और दूसरों के लिए कुछ अलग दिखाई देती थीं | क्या वह सीमा ठीक थी जितना एडजस्टमेंट रतनी कर रही थी? समाज के भय से या अपने संस्कारों के तहत जो भी वह भुगत रही थी, मेरी कभी समझ में नहीं आया | 

किसी की ओर ऊँगली उठाने में कहाँ देर लगती है ? लेकिन जो तीन ऊँगालियां अपनी ओर होती हैं, उन पर कौन ध्यान देता है ? रतनी या शीला दीदी अथवा उस घर के बच्चों का जीवन !इस प्रकार से खुद को खत्म कर देना था, न कि ज़िंदगी जीना ! शायद रतनी जैसी सभी औरतें अपने ज़िंदा रहने की सज़ा भुगतती रहती थीं और मैं उस सज़ा को दूर से देखकर प्रताड़ित होती रहती थी| इतना संवेदनशील होना ठीक नहीं था, मैं जानती थी लेकिन क्या करती ? मनुष्य की संवेदना प्रकृति प्रदत्त है, उसकी अपनी ओढ़ी-बिछाई नहीं| प्रकृति ने तो हमें बहुत कुछ दिया है किन्तु उनका उपयोग हम कैसे करते हैं ? यह हम पर ही निर्भर है न !

उत्पल से कितनी ही बातें शेयर करने लगी थी मैं, वह भी मुझसे!जिस दिन उत्पल न आता मुझे सूनापन लगता और जब वह आता, वह भी अपनी सफ़ाई देने में देर न करता। बिना पूछे ही, बिना बात ही सफ़ाई देने लगता| हम कब करीब आते गए, न मुझे पता चला न ही उसे | अम्मा ने तो न जाने कबसे सूंघ लिया था कि उनकी बेटी के दिलो-दिमाग में कुछ तो चल रहा था | फिर भी न कभी पापा ने मुझसे पूछा, न ही अम्मा ने ! शायद वे इस बात से ही खुश थे कि भाई के विदेश जाने के बाद आखिर मुझे कोई तो ऐसा मित्र मिल सका जिससे मैं खुलकर बात कर पा रही थी | उनकी दृष्टि में यह खुलकर बात करना बहुत जरूरी था| 

मैं उत्पल के साथ प्रोजेक्ट्स डिस्कस करते करते न जाने किस दिशा में मुड़ जाती थी। उत्पल मेरे चेहरे को ताकता रह जाता और मैं न जाने कहाँ खो जाती | वह मुझे पुकारता और मुझे पता ही न होता तब वह मेरे कंधे धीरे से हिला देता | 

“कहाँ हैं आप ? ” वह पूछता| 

कहाँ होती थी मैं ? अपनी सूनी आँखों से मैं उसको ताकती और वह चुटकी बजाकर ऐसा मुँह बनाता कि मेरे मुख पर मुस्कान खिल सके लेकिन उसे निराश ही होना पड़ता| मैं सूखी टहनी सी होती जा रही थी जबकि उत्पल के होने से मुझमें हरियाली फूटनी चाहिए थी| मैं केवल संस्थान के कार्यों में व्यस्त रहना चाहती और अम्मा-पापा चाहते कि कुछ देर के लिए तो मुझे उसको छोड़कर कहीं बाहर जाना चाहिए| 

“अब तो हमारे बीच दोस्ती हो गई है ---नहीं --? ” उत्पल ने एक दिन यूँ ही कह दिया था शायद| 

मैंने उसकी ओर एक फीकी मुस्कान से ताका---–मेरा दिल अचानक लरजने लगा| कहीं यह दोस्ती वह तो नहीं थी जो मैं जाने कबसे तलाश कर रही थी? नहीं, वह दोस्ती उस भविष्य का पहला चरण था जिसका स्वप्न हर युवा की पुतलियों में सपना बनकर समाया होता है | मेरी युवावस्था सरपट भागी जा रही थी और वह दोस्ती अभी तक मुझ तक नहीं पहुंची थी | 

“हम कभी दुश्मन थे क्या ? ” मैंने उत्पल को उत्तर देने के स्थान पर उल्टे उससे प्रश्न पूछ लिया| 

“आप मुझसे बातों को शेयर क्यों नहीं कर लेतीं ? आप हल्की हो जाएंगी | ”

“क्यों मैं तुम्हें भारी लगती हूँ क्या ? ” मैंने उसकी आँखों में देखते हुआ फिर से पूछा | 

मेरा यह प्रश्न उसके चेहरे पर मुस्कान नहीं ला सका क्योंकि मेरे प्रश्न को परोसने का तरीका ऐसा था ही नहीं कि कोई उस पर मुस्कुरा सकता | पत्थर सी मैं खुद से ही भीतर ही भीतर झगड़ने लगी थी| खुद से झगड़ना किसी और ले साथ झगड़ने से कहीं अधिक कष्टदाई होता है | यह तो सब जानते ही हैं | में वह कष्ट पी रही थी और भीतर से बिल्ली बनी, बाहर से खुद को हमेशा शेर दिखाने की कोशिश करती रही थी| पर क्यों?