Bhaktaraj Dhruv - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

भक्तराज ध्रुव - भाग 4

भगवान्‌ की आराधना से सब कुछ हो सकता है, अब तक होता आया है और आगे भी होता रहेगा। संसार के इतिहास में ऐसा कोई दृष्टान्त नहीं है कि किसी ने आराधना करके अपनी अभिलषित वस्तु न प्राप्त की हो। सभी कुछ-न-कुछ चाहते हैं। सभी कुछ-न-कुछ पाने के लिये अशान्त हैं। सभी अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त करने के लिये प्रयत्न कर रहे हैं। परंतु किसी को भी पूर्ण सफलता मिलती नहीं दीखती। इसका कारण क्या है ? सफलता का जो वास्तविक मार्ग है, उस पर बहुत लोगों की दृष्टि ही नहीं है। अपनी बुद्धि की शक्ति से; अपने शरीर की शक्ति से अथवा अपने धन-जन की शक्ति से अब तक पूरी सफलता न किसी को प्राप्त हुई है और न हो सकती है; क्योंकि वे शक्तियाँ ही अपूर्ण हैं। बिखरी हुई हैं। इधर-से-उधर भटका करती हैं। उनके द्वारा कोई काम पूरा हो ही कैसे सकता है। अल्प शक्ति के द्वारा अल्पकालस्थायी अल्प कार्य ही हो सकते हैं, परंतु यदि अनन्त की शक्ति से, अनन्त के बल से कोई कार्य किया जाय तो वह चाहे उसका स्वरूप जो हो, अनन्त तक पहुँचा देता है। लौकिक, पारलौकिक मोक्ष सभी प्रकार के कार्य भगवान् की आराधना के द्वारा ही वास्तव में पूर्ण होते हैं, अन्यथा अधूरे और क्षणिक होते हैं। आधुनिक प्रवृत्तियाँ अधिकांश ऐसी ही हैं।
प्राचीन काल में ऐसी बातें नहीं थीं। ब्रह्मा की इच्छा हुई कि सृष्टि करूँ। उन्हें आज्ञा मिली— “ब्रह्मा ! तप करो, भगवान् की आराधना करो, तब तुम्हें सृष्टि की शक्ति प्राप्त होगी।” उन्होंने आराधना की। अनन्त सत्ता, अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति के साथ उन्होंने अपने-आपको मिला दिया, आराधना के फलस्वरूप वे अभिलषित सृष्टि करने में समर्थ हुए। आराधना के पहले उन्होंने जब-जब सृष्टि करने की चेष्टा की थी, तब-तब अवाञ्छनीय सृष्टि का ही विस्तार हुआ था।
उनके पुत्र स्वायम्भुव और शतरूपा ने जब उनके सृष्टिकार्य में सहयोग देने का विचार किया तो पहले उन्हें यही आज्ञा दी गयी कि “तप करो, भगवान् की आराधना करो।” आराधना के द्वारा ही वे कर्म करने की क्षमता प्राप्त कर सके, प्रजापति हो सके और तो क्या, उनकी ही प्रार्थना और आराधना से स्वयं शक्ति प्रकट हुई तथा उन्हीं की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान्ने पृथ्वी को धारण किया। यह एक सत्य है और पूर्ण सत्य है कि भगवान् की आराधना से ही पूर्णता प्राप्त होती है। ब्रह्मा से लेकर स्वायम्भुव मनु तक इस सत्य का अनुसरण ठीक-ठीक होता रहा और कार्य-संचालन में भी कोई अड़चन नहीं आयी।
उत्तानपाद स्वायम्भुव मनु के ही पुत्र थे; परंतु इन्होंने अपने पिता की भाँति भगवान् की आराधना नहीं की थी। ये सुरुचि के अधीन हो गये थे, इन्होंने सुनीति की उपेक्षा कर दी थी। यही कारण था कि इन्हें इनकी अभीष्ट वस्तु नहीं मिल रही थी। ध्रुव के तप से, ध्रुव की आराधना से और ध्रुव की सिद्धि से उत्तानपाद की आँखें बहुत कुछ खुल गयीं। उन्होंने देखा कि मेरा ही लड़का, मेरी ही गोद में पला, मेरा ही पाला-पोसा ध्रुव भगवान्‌ को प्राप्त कर ले और मैं न प्राप्त कर सकूँ यह कितनी लज्जा की बात है। वे आस्तिक तो पहले से ही थे, भोग-विलास में आसक्ति के कारण भगवान् का भजन लगन के साथ नहीं कर पाते थे, अब उनकी लगन के लिये सामने ही उच्चतम आदर्श उपस्थित हो गया था। वे दिन-रात देखते ध्रुव के मुँह से किस प्रकार भगवान् के नाम निकल रहे हैं, ध्रुव किस प्रकार पूजा कर रहा है, भगवान् के ध्यान में ध्रुव किस प्रकार तन्मय हो जाता है और यह सब होने पर भी माता की, पिता की और कर्तव्य की सेवा में किस प्रकार संलग्न रहता है। उन्हें ध्रुव से बड़ी सहायता मिलती। राजकाज के साथ ही वे प्रायः भगवत् स्मरण करते रहते।
ध्रुव की दिनचर्या बड़ी ही अद्भुत थी। वे चार घड़ी रात रहते ही अपनी शय्यापर उठकर बैठ जाते और हाथ-पैर, मुँह धोकर, आचमन करके भगवान् के स्मरण में लग जाते। उनकी आँखों के सामने भगवान् का अनन्त सर्वात्मरूप प्रकट हो जाता और वे
उसके रस में, आनन्द में मस्त हो जाते, अनुभव करते कि विश्व के अणु-अणु में, परमाणु-परमाणु में भगवान् व्याप्त हैं तथा वे सब और मैं भी भगवान्‌ में ही डूब-उतरा रहे हैं। बल्कि यह सब भगवान् का ही व्यक्त रूप है। सब भगवान्-ही-भगवान् हैं, ऐसी समाधि में वे घंटों डूबे रहते। अरुणोदय के पूर्व उठकर शौच, स्नान आदि नित्य क्रिया करते और घर लौटने पर जब से यज्ञोपवीत-संस्कार हो गया था, तब से विधिपूर्वक संध्या-वन्दन करके गायत्री का जप करते। सूर्योदय के समय भगवान् सूर्य को अर्घ्य देते और भगवान्‌ के मङ्गलमय नामों का उच्चारण करते हुए गुरुजनों की वन्दना करते। सुरुचि के साथ उनका सद्व्यवहार अत्यन्त ही प्रशंसनीय था। वे सुरुचि के हृदय से कृतज्ञ थे; क्योंकि उसी के कहने से भगवान्‌ की आराधना में उनकी रुचि हुई थी। सुरुचि ने किस भाव से वह बात कही थी, इस पर ध्रुव की कभी दृष्टि ही न गयी। वे सदा सुनीति से पहले सुरुचि का सम्मान करते और उनकी सेवा अपने हाथों ही करते।
उन दिनों सुनीति का हृदय हर्ष से भर रहा था। सारी पृथ्वी का सम्राट् अपना पति है, सारे विश्व के स्वामी भगवान् का अनुग्रह अपने पुत्र पर प्रकट है। पुत्र भक्त, विनयी और सेवा परायण है। माता को और क्या चाहिये ? वह ध्रुव को अपनी गोदी में बैठाकर उनकी तपस्या, उनके भगवद्दर्शन और उनकी अनुभव की बातें पूछतीं। ध्रुव बड़े ही प्रेम से माता की आज्ञा का पालन करते और भगवान्ने किस प्रकार पद-पद पर उन पर अपनी कृपा प्रकट की, इसका वर्णन करते हुए तन्मय हो जाते। नारद और सप्तर्षियों के दर्शन के पहले ध्रुव की जैसी मानसिक स्थिति थी, उसका वर्णन सुनकर सुनीति की आँखों में आँसू आ जाते। तपस्या में निराहार रहने की बात सुनकर उसे बड़ा आश्चर्य होता कि मेरा नन्हा-सा
बालक इतनी कठिन तपस्या कैसे कर सका। वह विघ्न करने-वालों में अपना स्वरूप धारण करके आने वालों की बात सुनकर सोचती कि देवता भी कितने छली होते हैं। क्या ध्रुव को धोखा देने के लिये मैं ही मिली। भगवान् के दर्शन की बात सुनकर
सुनीति का रोम-रोम खिल उठता और वह भगवान् के दर्शन के लिये उत्कण्ठित हो जाती। अनायास ही उसके मुँह से भगवान् के नाम निकलने लगते। उसका हृदय आनन्दातिरेक से उमड़ जाता।
ध्रुव और उत्तम प्रायः साथ ही रहते। ध्रुव की रहन-सहन, उनकी भाव-भक्ति देखकर सारी प्रजा उन पर अनुरक्त थी। ध्रुव के
हृदय में, आँखों में भगवान् समाये हुए थे। उनसे जो भी मिलता, उसे वे भगवत्-रूप में ही देखते। इसी से उनके व्यवहार में प्रेम, शान्ति, सद्भाव और सेवा हमेशा ही रहती। उनके मुँह से कभी कटु भाषण नहीं होता, किसी के प्रति दुर्व्यवहार नहीं होता और किसी पर क्रोध नहीं आता। इसका कारण क्या था ? एकमात्र यही कारण था कि ध्रुव के हृदय में भगवान् थे और वे सबके हृदय में भगवान् का दर्शन करते थे।

सारा संसार अशान्ति से ऊब गया है। सब चाहते हैं कि संसारमें शान्ति स्थापित हो। उन्हें आँखें खोलकर देखना चाहिये और बुद्धि को निर्मल करके समझना चाहिये कि सर्वत्र भगवद्भाव से बढ़कर शान्ति का और कोई साधन नहीं है। एक-दूसरे पर अविश्वास करते रहें, एक-दूसरे को धोखा देने की चेष्टा में रहें, एक-दूसरे की उन्नति से ईर्ष्या करते रहें और मुँह से कहें कि संसार में शान्ति स्थापित हो जाय तो यह कदापि सम्भव नहीं है। शान्ति-स्थापन के लिये एक को दूसरे से निश्छल प्रेम करना होगा, एक को दूसरे पर विश्वास करना होगा और एक को दूसरे से सहानुभूति रखनी होगी। यह सचाई, यह प्रेमभाव केवल आस्तिकता में ही रह सकते हैं, केवल भगवान् पर विश्वास करने से ही रह सकते हैं। नास्तिक संसार-शान्ति-स्थापन का चाहे जितना प्रयत्न करे, वह असफल होगा, असफल होगा, यह निश्चयपूर्वक घोषणा की जा सकती है। शान्ति स्थापन के प्रयत्न में केवल आस्तिक ही सफल होंगे, केवल भगवान् पर विश्वास करने वाले ही सफल होंगे, केवल वे ही सर्वत्र भगवान्‌ की दृष्टि से सबसे निश्छल प्रेम करने में सफल होंगे। प्रजा पर ध्रुव का एकाधिपत्य था। प्रजा उन्हें प्राणों से प्यारी थी और प्रजा उन पर पूर्ण विश्वास रखती थी। ध्रुव अभी राजा नहीं थे, शासन सत्ता पूर्णतः उनके हाथ में नहीं आयी थी, फिर भी प्रजा के कर्त्ता, धर्त्ता, विधाता सब कुछ वही थे। सब उनके निष्कपट व्यवहार और स्वार्थहीन सेवा के कायल थे। प्रजा के साथ व्यवहार करते हुए भी ध्रुव भगवान्‌ का स्मरण रखते थे। माता-पिता के भोजन के पश्चात् उत्तम के साथ भगवान्‌ का प्रसाद पाते और संत एवं विद्वानों से भगवान् के महत्त्व, प्रभाव आदि की बातें सुनते। समय पर सन्ध्या आदि करके रात में भगवान्‌ का ध्यान करते-ही-करते सो जाते और स्वप्न में भी भगवान्‌ का ही दर्शन करते। जगत् का व्यवहार तो केवल भगवान्‌ की आज्ञा से ही करते, उनका हृदय निरन्तर भगवान्‌ में लगा रहता।
युवावस्था होने पर माता-पिता के आग्रह से ध्रुव के भी दो विवाह हुए। एक पत्नी का नाम था भ्रमि; वह प्रजापति शिशुमार की पुत्री थी और दूसरी पत्नी का नाम था इला; यह वायु की पुत्री थी। इन दोनों के साथ भक्तराज ध्रुव आनन्दपूर्वक रहने लगे। अपने पुत्र को नवोढा पत्नियों के साथ सुखी देखकर माता-पिता के हृदय में बड़ा ही आनन्द हुआ। वे इसे परमात्मा का परम अनुग्रह मानकर बारंबार भगवान् की कृपा का अनुभव करने लगे और उनके स्मरण में तल्लीन रहने लगे।
राजा उत्तानपाद की अवस्था अब ढल चुकी थी। प्रजा-पालन की कोई चिन्ता थी ही नहीं; क्योंकि ध्रुव इस काम के लिये पूर्णतः योग्य थे। उन्होंने सोचा कि इतने दिन तो भगवान्‌ को प्राप्त किये बिना बीत ही गये, अब यह बुढ़ापा भी यों ही बीत जाना चाहता है। जो दिन बीत गये, उनकी चिन्ता से तो क्या लाभ है, अब अगले दिनों को भजनमें ही बिताना चाहिये। जिन विषयों को भोगते-भोगते मैं इतने दिनों तक तृप्त नहीं हो सका, उनसे अब तृप्त हो जाऊँगा, यह आशा कैसे की जा सकती है? यह विषयों की लालसा कैसी धधकती हुई आग है, इसमें जितनी आहुति डालो, उतना ही अधिक यह प्रज्वलित होती जाती है।
मैं सारी पृथ्वी का सम्राट् हूँ; फिर भी मुझे सन्तोष नहीं। यदि मैं त्रिलोकी का स्वामी होता तो भी मुझे विषयों के भोग से तृप्ति न मिलती। अब इन विषयों से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। इन आँखों की सफलता तो तब है, जब वे त्रिभुवन सुन्दर भगवान्‌ की अनूप-रूप-राशि में समा जायँ। अब ध्रुव राज्य करे, मैं वन में चलकर भगवान् की आराधना करूँ।
ध्रुव के इतने दिनों के सत्सङ्ग से उनका अन्त:करण निर्मल हो गया था, वे विषयों की असारता और भगवद्भजन की सारवत्ता समझ गये थे। उनके मन में पर्याप्त संयम और दृढ़ता आ गयी थी। उन्होंने सारी प्रजा के सामने ध्रुव के राजा होने की घोषणा की। प्रजा ने उन्मुक्त हृदय से ध्रुव का राजत्व स्वीकार किया और आनन्द मनाया। राजा उत्तानपाद सन्तों में जाकर आत्मविचार एवं भगवच्चिन्तन में अपना समय बिताने लगे। ध्रुव का राज्य कितना सुन्दर हुआ होगा, इसकी कल्पना तो वर्तमान काल के अशान्ति में पले हुए लोग कर ही नहीं सकते। क्योंकि वह भगवद्भावना का राज्य था, प्रेम का राज्य था और अखण्ड शान्ति का राज्य था।