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मन न भये दस बीस

“मन न भये दस बीस”

आरुषि ने ट्रैक सूट पहना कटे बालों को पोनी बना कर हेयर बैंड के हवाले किया। स्पोर्टस शूज के तस्मे कसे। एक झलक खुद को शीशे में देखा और फ्लैट से बाहर हो ली। सामने वाले फ्लैट में रहने वाले विभोर जी हमेशा की तरह उसे कॉरिडोर में मिल गए। उफ, वह मन ही मन झुंझलाई। उसे सुबह सवेरे किसी को भी दुआ सलाम करने से बहुत परहेज था। इसी डर से रोज टाइम 10-5 मिनट इधर-उधर कर देती थी लेकिन विभोर जी अक्सर ही उसे कॉरिडोर में लिफ्ट की वेट करते हुए ही मिलते हैं। ‘अजीब इत्तेफाक है,।
“नमस्कार आरुषि जी...आप एकदम चुस्त-दुरस्त रहती हैं” उनके स्वर में प्रशंसा कम, उसे खुश करने की मानसिकता अधिक झलक रही थी, “सुबह की सैर स्वास्थय के लिए बहुत ही आवश्यक है। एक हमारी श्रीमती जी हैं...घोड़े बेच कर सो रही हैं” कह कर विभोर जी उस का समर्थन पाने के लिए हें हें कर हंसने लगे। उसे अजीब सी वितृष्णा हुई।
“जी नमस्कार.. “ प्रत्यक्ष में उस ने शालीनता से हाथ जोड़ दिए। लेकिन मन ही मन उन से छुटकारा पाने का रास्ता तलाशने लगी। उसे रोज ही कोई न कोई बहाना बनाना पड़ता है। कभी रास्ते में आते-जाते काफी कम जानने वाले को देख कर भी रुक जाती है। कभी रास्ता बदल देती है। कभी कुछ याद आ जाने जैसा बहाना बना कर फ्लैट में वापस घुस जाती है। अब तो सभी बहाने भी बासी होने लगे हैं। रोज क्या बहाने लगाए आखिर।
उसे आश्चर्य भी होता है कि विभोर जी जैसे लोगों को क्या उस के बहाने समझ में नहीं आते होंगे? लेकिन कुछ लोग अपना स्वाभिमान औरतों के मामले में खूंटी पर टांग आते हैं। फिर वह तो कुंवारी ही है, चाहे 49 बसंत पूरे कर कुछ ही महीने में 50 की होने वाली है। पर उस से क्या फर्क पड़ता है। खूबसूरती उसके तन व चेहरे पर ही नहीं मन में भी जवां है और इसे विभोर जी जैसे पुरुष अच्छी तरह से देख-सूंघ लेते हैं।
तभी लिफ्ट का दरवाजा खुल गया, “आइए..” विभोर जी अंदर घुस कर लिफ्ट में उस के लिए जगह बनाते हुए बोले।
“ओह, आप चलिए...मुझे एक जरूरी कॉल करनी है...” कह कर वह वापस मुड़ गई। बंद होती लिफ्ट से विभोर जी का बुझा चेहरा उससे छिपा न रह सका।
फ्लैट में वापस आ कर सोच रही थी, अभी जाना तो बेकार ही है। विभोरजी 10-15 मिनट बिल्डिंग के अंदर ही टहलते मिलेंगे। उनके जाने की इंतजारी में उसे देर हो जाएगी। खिन्न हो वह काउच पर अधलेटी हो सोचने लगी अब क्या करे। शनिवार, रविवार ऑफिस की छुट्टी थी। न तो नींद ही पूरी हो पाई और न वॉक ही। एकाएक मुस्कान उसके होंठो पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ गई। जान्हवी से बात करती हूं। कुछ दिनों से उससे बात भी नहीं हो पाई थी।
दोनों साथ ही पढ़ीं, बड़ी हुई। साधारण शक्ल-सूरत की जान्हवी अपने लचीले स्वभाव के कारण किस्मत की धनी रही। उस ने कॉलेज की पढ़ाई के बाद करियर को बाय-बाय किया और एक इज्जतदार घर के उच्च पदस्त पति की ठसकदार बीवी बन गई। तब कितना मजा़क उड़ाया था उस ने जान्हवी का। रही न आखिर देसी की देसी। अब बन जा लज्जा की नायिका और डालती रहना खीर में किसमिस-मेवा, चाहे सामने से जुलूस निकल जाए।
“तो तू है न झांसी की रानी बनने के लिए...मैं तो लज्जा की नायिका ही ठीक हूं” जान्हवी बिना चिढ़े बोली थी, “देख आरुषि तू तो पढ़ने में हाशियार है। तेरा बेड़ा तो पार लग जाएगा। लेकिन मेरे लिए यही सब से सही है” फिर आरुषि ने उसे कभी नहीं चिढ़ाया। लेकिन दोनों की दोस्ती बनी रही। बल्कि कहना चाहिए चोली-दामन का सा साथ रहा दोनों का।
करियर में सब कुछ हासिल करने के बाद एक वक्त आरुषि की जिंदगी में भी ऐसा आया, जब उसने भी लज्जा की नायिका बनना चाहा। पर खूबसूरत होते हुए भी उसकी अफसरी की ठसक के सामने बड़े-बड़े न टिक पाए और वह अकेली ही रह गई। लज्जा की नायिका बनने की इंतजारी में समय फिसलता चला गया और वह आजकल करते-करते 50 के पास पहुंच गई। जान्हवी की भरी पूरी गृहस्थी देख उसे रश्क होता था। एक स्त्री के लिए जिंदगी के तराजू में संतुलन क्यों नहीं रहता। सब कुछ आधा-अधूरा सा ही रह जाता है। एक आम सी लड़की की तरह आज भी उस का दिल तरस जाता है किसी की बांहों में बंधने के लिए। किसी से रूठने-मनाने के लिए। किसी की मीठी छुवन के लिए जो तन-मन को तरंगित कर जिंदगी के प्रति सारे के सारे उलाहने, कसक समाप्त कर दे। हर वो बात जो एक युवा मन में उठ सकती है, उसे आज भी पुलकित करती है, लेकिन सब कुछ उस की अफसरी की कड़क दीवारों के पीछे बेमौत ही दफन हो कर मरा जा रहा था। आज उम्र भले ही हाथ छुड़ाने पर आमादा हो लेकिन तन-मन की उन तरंगो को तो अभी सिला मिलना शेष था। कभी-कभी अफसोस से भर जाती है आरुषि, क्या ऐसे ही चली जाएगी इस दुनिया से।
कुछ दिनों से उसे जान्हवी को एक बहुत जरूरी बात बतानी थी। सोच कर उस ने जान्हवी को फोन मिला दिया। उसे पता था इस समय जान्हवी उठ जाती है। उस की एक रिंग पर ही जान्हवी ने फोन उठा लिया।
“हाय स्वीटहार्ट कैसी है...अभी तुझे ही याद कर रही थी” चहकते हुए जान्हवी बोली, “क्या बात है आज वॉक पर नहीं गई?”
“नहीं यार बस ऐसे ही..तुझे कुछ बताना था,”
“उसी हैंडसम के बारे में...”
“अरे, तुझे कैसे पता...?”
“मेरी ये सुंदर, मगर नीरस सी सखी...किसी पुरुष के बारे में एक से दूसरी बार जिक्र नहीं करती और उस का जिक्र तो तू कई बार कर चुकी है” जान्हवी छेड़ू अंदाज में बोली, “अब बता, क्या बात है?”
“बात तो कुछ खास नहीं...वह काफी दिनों से दिखाई नहीं दे रहा..”
“हे भगवान, पहले तो ये शिकायत थी कि वह रोज तेरे टाइम पर ही वॉक पर क्यों आता है। फिर ये कि वह जब तुझे क्रॉस करता है तो 4 हाथ की दूरी से...अब आ नहीं रहा, तब भी तुझे चैन नहीं...एक बात कहूं?”
“क्या?”
“कोई मुड़ कर देखे तो क्यों देख रहा और न देखे तो क्यों नहीं देख रहा...औरतों का भी कोई जवाब नहीं..” जान्हवी खिलखिलाते हुए बोली।
“झूठ, औरत तू है...मैं तो अभी भी लड़की हूं..” आरुषि ने इतराते हुए नहले पर दहला मारा।
“तो प्रॉब्लम क्या है...कहीं दिल-विल के तार तो नहीं अटक गए?”
“बेकार की बात मत कर..दिल के तार अटकाने के लिए बस वही रह गया” लेकिन कहते-कहते न चाहते हुए भी आरुषि के कपोल आरक्त हो गए थे।
“तो फिर छोड़ उस की चिंता...गया होगा कहीं शहर से बाहर...कुछ ही दिनों में आने लगेगा। तू भी कुछ दिनों के लिए मेरे पास आजा”
“सोचती हूं...” कह कर आरुषि ने बात खत्म कर फोन रख दिया। लेकिन जिस बेकरारी से उस अजनबी के बारे में बात करने के लिए उस ने आरुषि को फोन किया था उसे करार न मिला था। बात मात्र इतनी सी नहीं थी कि उसे उसका इंतजा़र था। पिछले लगभग 5 साल से वह वॉक पर जा रही थी और दो साल से उस अजनबी का दिखना बदस्तूर जारी था। उसे एक तरह से उस की आदत सी हो गई थी। पहली बार उसके दिखने में यह बिघ्न-बाधा आई थी जिस ने उसे अपसेट कर दिया था।
वह कुछ खोई-खोई सी हो गई। एक रिक्तता थी उस के जीवन में जिसे अनायास ही उस का इंतजा़र या होने का अहसास भरने लगा था। ‘अब यह कोई इस उम्र में प्यार जैसी चीज तो नहीं हो सकती न’ आरुषि खुद को समझाती हुई बोली, ‘जान्हवी भी बस...जहां स्त्री-पुरुष खड़े हुए नहीं...प्यार वहां से शुरू हुआ नहीं। उसे तो बस एक चिंता सी है कि इस क्रम में आखिर यह व्यवधान आया क्यों। ऐसी क्या बात हो गई। बाहर भी गया हो तो अभी तक तो आ जाना चाहिए था। कहीं बीमार न हो। कैसे पता चले। पता नहीं कहां रहता होगा‘
तभी मोबाइल की घंटी बज गई। उसकी ऑफिस-कर्मी रूमा का फोन था। ऑफिस में उस की सबसे अधिक रूमा से ही बनती थी, हालांकि दोनों के विभाग अलग थे।
“हाय आरुषि...मूवी देखने का और शॉपिंग का इरादा हो तो चलें” रूमा पूछ रही थी।
“क्यों, पतिदेव कहां गए आज...?” उस ने भी हंसते हुए पूछा।
“पति को अपने एक दोस्त के बेटे की शादी में शहर से बाहर जाना पड़ गया। मैं दो दिन बिलकुल फ्री हूं...तेरे लिए...” वह हंस रही थी।
“अच्छा, जब कोई नहीं, तब मैं,...चलते हैं...मै ठीक 11 बजे तुझे पिक कर लूंगी”
“ओके डन...”
ठीक 11 बजे वह रूमा के अपार्टमेंट के नीचे से उसे कॉल कर रही थी। आज रूमा का निमंत्रण उसे अच्छा लगा था। जाने क्यों मन कुछ अधिक ही उदास हो रहा था। लग रहा था शरीर की ताकत कम हो गई या फिर उस के उत्साह में कमी आई है जिससे शरीर में शिथिलता पसर रही है। दिल कर रहा था थोड़ा रो ले पर क्यों? तभी रूमा नीचे आ गई। धम्म से कार में बैठी तो खुशबू का झोंका उसके नथुनों में भर गया। उसने खूब भड़कीला सा फुल ड्रेस पहना हुआ था। वह हमेशा ऐसी ही तैयार होती है। लगे हाथों आरुषि को भी टोक देती थी, ‘क्या विधवा का सा भेष बनाए घूमती रहती है। बस नीली जींस और सफेद के आसपास का टॉप। तेरे पास कपड़े नहीं है क्या?‘ सोचते हुए आरुषि ने कार स्टार्ट की कि रूमा बोल पड़ी,
“तेरे पास कपड़े नहीं है क्या...हमेशा इसी हुलिए में दिखाई देती है?” आरुषि हंस पड़ी।
“मैं हमेशा अलग पहनती हूं...पर बस दूसरे को दिखाई नहीं देता है”
“हम्म..” रूमा ने मुंह बनाया। आरुषि ने कार आगे बढ़ा दी। 20-25 मिनट की ड्राइव के बाद वे मॉल में पहुंच गए। मूवी स्टार्ट होने को थी। टिकट ऑनलाइन बुक्ड थे। इसलिए जल्दी से लेकर अंदर घुस गए। मूवी देख कर लंच करने बैठ गए।
“क्या खाएगी बता...” रूमा मेन्यू कार्ड चेक करते हुए बोली।
“कुछ भी जो तुझे पसंद हो” वह खिन्न सी हो रही थी। मूवी में भी उस का मन जरा भी नहीं लगा था। रूमा ने लंच आर्डर कर दिया।
“आज मैं पूरा दिन फ्री हूं...लंच के बाद तेरे लिए कुछ कलरफुल कपड़े खरीदते हैं”
“मेरा खरीददारी का बिल्कुल भी मूड नहीं है..”
“है कैसे नहीं...?”
लंच के बाद रूमा उसे जबरदस्ती शॉपिंग के लिए ले गई। वह जींस-टॉप के बजाए सूट्स-सेक्शन की तरफ जाने लगी तो आरुषि ने टोक दिया, ‘वहां कहां जा रही है?”
“आज तू कुछ सूट्स खरीद ले कलरफुल...”
“हां जैसे तू पहनती है...”
“हां यही सही...” वह उसे खींचती चली गई।
आरुषि रूमा के साथ खिंची चली जा रही थी कि सामने से आते सैर के साथी वाले ‘उस अजनबी‘ को देख कर तो पलभर में जैसे ब्रह्मांड ही घूम गया। जिसे ढूंढा गली-गली वह मिला भी तो मॉल में मिला, वो भी बिना ढूंढे। इस के बाद एक आश्चर्य और होना शेष था,
“अरे शिशिर जी आप...आज मॉल में...? खुशी हुई आप को देख कर..” रूमा प्रसन्नता से उस की तरफ मुखातिब थी।
“हां, मां और नीतू दी भी आई हैं...वे जबरदस्ती ले आईं..” ‘वो अजनबी‘ जिसको अभी-अभी रूमा ने शिशिर नाम से संबोधित किया था, उससे नजरे चुरा कर उन से पीछा छुड़ाने की फिराक में लग रहा था।
“आप नीतू दी व मां से मिल लीजिए...उधर रेस्तरां में बैठी कॉफी पी रही हैं...मुझे थोड़ा सा काम है, अभी आया” कह कर वह तो यह गया और वह गया। आरुषि उसे खोई निधी सी निहारती रह गई।
“अरे तुझे क्या हुआ...और शिशिर को ऐसे क्या देख रही है..?”
“तू इन्हें कैसे जानती है?”
“इनकी बड़ी बहन नीतू, मेरी बड़ी बहन की बहुत अच्छी फ्रेंड है...इसी नाते दीदी के साथ कभी-कभार इनके घर में जाना हुआ करता रहा...कभी नीतू दीदी को शिशिर भी हमारे घर लेने-छोड़ने आते रहे”
“इनके परिवार में और कौन है...?” आरुषि के मुंह से न चाहते हुए भी फिसल गया।
“अरे मत पूछ...इनका अपना परिवार तो कोई नहीं है...ले दे कर एक मां ही है साथ में...किस्मत ने बहुत बुरा किया इनके साथ..”
“क्या..?” आरुषि की व्यग्रता उसके चेहरे पर उछाल मार रही थी।
“इनकी शादी हुई थी...मां-बाप की मर्जी से...अच्छी लड़की, घर-परिवार देख सुन कर। लेकिन लड़की लेस्बियन निकली। खुद तो जो भी थी पर इनसे पीछा छुड़ाने के लिए इन्हें गे साबित कर दिया। बेचारे की इतनी बदनामी हुई कि तब से औरत नाम की चीज से ही नफरत करने लगा”
“क्या..?” आरुषि का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया, “लेकिन तुझे क्या पता कि सच आखिर है क्या?”
“सब पता है यार...छोटे से ही देखा है शिशिर को...दोनों की दीदियां स्कूल फ्रेंड रही हैं। जिस दौर से यह लड़का गुजरा है उस अवसाद के दौर को यही जानता है या इसका परिवार। अपनी पहली नौकरी तक छोड़ दी थी इस ने। बाद में किसी दूसरी जगह बहुत मुश्किल से नौकरी ज्वाइन की। मुझे तो यही समझ नहीं आता कि अगर कोई मेल या फीमेल यह महसूस कर जाते हैं कि वे गे या लेस्बियन है तो दूसरे की जिंदगी क्यों लपेट लेते हैं साथ में। शादी से पहले अपने माता-पिता को अपनी फीलिंग्स के बारे में दृढता से समझा नहीं पाते हैं और बाद में इतना बड़ा कदम उठाने की हिम्मत आ जाती है। दूसरा ऐसे बच्चों के माता-पिता को भी समझदारी से काम लेना चाहिए। आज यह छुपने-छुपाने वाली बात नहीं रह गई। लेकिन लगभग 20-21 साल पहले जब शिशिर के साथ यह हुआ था तब, सब को ये बातें समझ में नहीं आतीं थीं। लड़की ने इसके पौरुष पर कई सवाल उठा कर इससे तलाक की मांग कर दी थी। हकीकत तो यह थी कि उस ने इसे छूने भी न दिया था और स्वयं शिशिर से कहा था कि वह पुरुष के प्रति कोई आकर्षण महसूस नहीं करती, उसके आकर्षण का केंद्र हमेशा महिला ही रहती है”
“तो शिशिर जी ने इतनी बात बढ़ने क्यों दी। जब लड़की नहीं रहना चाहती थी तो इतनी छिछालेदर क्यों करवाई..तलाक दे देना चाहिए था”
“शादी तोड़ना किसी भी शरीफ घर परिवार के लिए बिना बाहरी कारण के इतना भी आसान नहीं होता है। माता-पिता को और समाज को क्या जवाब देता। उस समय किसी लड़की का लेस्बियन होना या किसी पुरुष का गे होना सामाजिक रूप से न स्वीकार्य था न ही समझ में आने वाली बातें थीं। ये तो महसूस करने वाली बातें हैं जिन्हें सिर्फ वे ही समझ सकते हैं जिनके साथ यह होता है। मेडिकली तो प्रूव नहीं किया जा सकता न। फिर समय के साथ सब कुछ ठीक हो जाएगा की उम्मीद में शादी बचाने की कोशिश सभी करते हैं आरुषि। इसी दुख में इसके पिता भी हार्ट अटैक से चले गए” रूमा दुखी स्वर में बोली।
“पर तू शिशिर को कैसे जानती है?” रूमा को एकाएक खयाल आया।
“व्यक्तिगत रूप से तो नहीं जानती हूं...पर ये मुझे हमेशा सुबह की सैर की दौरान मिलते हैं। लेकिन काफी समय से नहीं आ रहे थे” आरुषि ने सच्ची बात कह दी।
“अरे, कहीं तूने शिशिर की तरफ ज्यादा देख-वेख तो नहीं लिया न...यह किसी महिला का अपने प्रति जरा भी अटेंशन से बहुत घबराता है। रास्ता बदल देता है”
“सारी बातें सुन कर तो यही लग रहा है” पिछले कुछ समय से उसे शिशिर में दिलचस्पी होने लगी थी। शायद उसकी निगाहों का मुग्ध भाव वह भांप गया हो। इतने हैंडसम और अच्छे इंसान की जिंदगी का ऐसा अजीबोगरीब स्याह पहलू सुन कर तो आरुषि का दिल ही खराब हो गया था।
“हां यार, बहुत जतन किए इनकी मां व बहन ने कि दोबारा शादी कर ले। लेकिन एक तो तलाक में हुई बदनामी, किस-किस को विश्वास दिलाते बेचारे कि सच क्या था, दूसरा शिशिर शादी के लिए तैयार भी नहीं होता था। यह तो किसी से मिलना भी पसंद नहीं करता था। बहुत मुश्किल से ही अपनी जिंदगी के अंधेरों से बाहर निकल पाया है”
थोड़ी देर दोनों गमगीन सी खड़ी रह गईं।
“अच्छा चल...मेरी शापिंग तो करवा दे..” आरुषि बात बदल कर मुस्कुराते हुए बोली।
“हां चल...पर तू अपनी ही पसंद का ले ले आरुषि..सही में किसी पर अपनी पसंद जबरदस्ती थोपनी नहीं चाहिए...” रूमा वेस्टर्न कपड़ों के सेक्शन की तरफ मुड़ती हुई बोली।
“उधर नहीं इधर...” आरुषि ने उसका हाथ खींचा।
“इधर क्यों?” जींस-टॉप तो उधर हैं न..”
“हां, पर तू कुछ अपनी पसंद के ले न....कुछ कलरफुल सूट्स...मुझे चलेंगे” आरुषि की काली आंखों में जुगनू चमक रहे थे।
“पर...अचानक, यह परिवर्तन कैसे?” रूमा उसे आश्चर्य से देखती हुई बोली।
“एक बात और...कल भी तू फ्री है न...रविवार भी है...शिशिर के घर चलेंगे, बिना बताए...ताकि वह घर से कहीं भाग न सके”
“क्या..? तेरा इरादा तो नेक है न...” रूमा ने उस की आंखों में झांका तो कुछ जुगनू उस की पकड़ में भी आ ही गए।
“ठीक है...” वह मुस्कुरा कर सिर हिलाती हुई सूट्स सेक्शन की तरफ मुड़ गई।

लेखिका- सुधा जुगरान