Haweli - 15 books and stories free download online pdf in Hindi

हवेली - 15

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एक लंबा-सा कमरा, बीच में एक बड़ा सा टेबल। टेबल तरह-तरह के व्यंजनों से सजाया गया था। टेबल को बड़े ही शान से ध्यानपूर्वक सजाया गया है। टेबल के पास खड़े होकर एक बुजुर्ग महिला इशारे से कुछ बता रही है और बाकी लोग उनके इशारे के मुताबिल टेबल को सजा रहे हैं। वह वृद्धा हवेली की अनुभवी परिचारिका है। उनके इशारे के बिना इधर का पत्ता भी उधर नहीं होता। वह खासकर राजमाता की देखभाल करती थी। सुना है कि वे राजमाता की शादी में दहेज में उन्हीं के साथ इस राजमहल में आईं थीं । इसलिए उनको हवेली में खूब मान दिया जाता है।

अंदर प्रवेशद्वार पर दो द्वारपाल खड़े थे। जिनके जिस्म पर लोहे की पोशाक और हाथ में भाले थे। पैरों में मोटे-मोटे पदरक्षक पहने हुए थे। वे सिर्फ रक्षा करने के लिए नहीं थे, जरूरत पड़ने पर युद्ध में भी शामिल हो जाते। वे इस तरह खड़े थे कि जैसे जीवंत मूर्तियाँ खड़ी कर दी गईं हों।

टेबल के चारों ओर चहल-पहल मची हुई है। महिलाएँ मशीन की तरह काम में लगी हैं। पीले रंग के कुरते पयजामे पर लाल रंग के दुपट्टे से सिर ढँके हुए कुछ महिलाएँ खाना परोसने के लिए टेबल के पास तैयार खड़ी हैं। टेबल पर बैठी दो महिलाएँ भारी गहने से सजी हुई हैं। सिर के ऊपर चुनरी ओढ़कर चुपचाप खाना खा रही हैं। उनका पहनावा, किसी रानी,महारानी से कम नहीं था। उनके एक ओर २० साल की महिला है और बाएँ तरफ १२ साल का बालक बैठा हुआ है। उनमें सबसे बुजुर्ग एक महिला सफेद वस्त्र पहनकर टेबल के एक बड़े चेयर पर आसीन हैं। उनकी मौजूदगी में कोई आवाज निकालने का साहस नहीं कर पा रहे थे। उनके सीधे सामने दूसरे तरफ राज परिधान पहने हुए एक शख्स बैठे हुए हैं। उनके परिधान से वह उस हवेली के मुख्य और खास सदस्य होने का एहसास हो रहा था। अगर ठीक से समझने की कोशिश करें तो वह मुख्य सदस्य महाराज मुहम्मद अली खान हैं। उनके दाएँ ओर उनके भाई अहम्मद अली और उनके साथ उनकी सहधर्मिणी साहिरा बेगम बैठे हैं। महाराज की बाईं तरफ उनकी पत्नी मुमताज बैठी हैं। उनकी सुंदरता का बयान करने को, शब्द भी ढूँढना पड़ता है। साफ लफ्जों में कहा जाए तो उनके सामने पूर्णिमा का चाँद भी शरमा जाए।

इनके परिवार के बारे में कुछ कहने से पहले ये जानना जरूरी है कि इस हवेली की बुजुर्ग के अनुसार कितना ही जरूरी काम क्यों न हो, किसी भी हालात में खाने के टेबल पर पूरा परिवार मौजूद होना ही है। उनके परिवार में यह रिवाज जमानों से चलते आ रहा है। वैसे तो पुराने जमाने में औरतें सारे मर्दों के खाने के बाद खाने का रिवाज होता था, लेकिन इस परिवार का कानून सदियों से ऐसे ही चला आ रहा है। इस रिवाज को तोड़ने का साहस आज तक कोई नहीं कर पाया। कुछ मिनटों की देरी भी लापरवाही मानी जाती है। जब वह बुजुर्ग महिला ने देखा कि एक चेयर अभी भी खाली है। उन्होंने एक सदस्य की अनुपस्थिति को तुरंत पहचान लिया। उन्होंने सबकी ओर एक बार देखा और पूछने लगी, "सुलेमा बेटी कहाँ है बहू ?"

“दादीजान, सुलेमा दीदी को तो अभी-अभी अपने कमरे की ओर जाते हुए देखा है। कुछ परेशान लग रही थी। मैं जाकर बुला ले लाऊँ।" कुरते पयजामें में एक १२ साल का बालक टेबल पर से उठने लगा।

"नहीं, आप खाने के पास से नहीं उठेंगे। यह खाने के प्रति और बड़ों के प्रति अपमान समझा जाएगा। कोई है ?” एक नौकरानी सिर झुकाकर पास आ खड़ी हुई

“जी राजमाता ।"

“जाओ सुलेमा बेबी को कहना नाश्ता ख़त्म करने के बाद मुझे मेरे कमरे में आकर मिले।"

“जी राजमाता ।" नौकरानी चली गई।

"बहू अच्छे से समझा देना सुलेमा बेबी को फिर कभी ये गलती न हो। वक्त पर घर के सारे सदस्य खाने की टेबल पर होना ही चाहिए। फिर यह मनमानी दोबारा नहीं होनी चाहिए।" हाथ टॉवल से साफ करते हुए कहा ।

“जी दादीजान, मैं समझा दूँगी। दादीजान आपको कुछ और चाहिए ?”

“नहीं, बस मुझे अब चलना चाहिए।”

“चलिए मैं आपको आपके कमरे तक पहुँचा देती हूँ। आपके आराम करने का वक्त हो गया।” बड़ी रानी मुमताज ने टेबल से उठते हुए कहा। राजमाता जी की खास नौकरानियाँ होते हुए भी मुमताज उनका खास ख्याल रखती है।

“नहीं आप अपना नाश्ता पूरा कर लीजिए, हम अम्मी को कमरे तक पहुँचा देंगे।" कहते हुए उनका बड़ा बेटा मुहम्मद अली खान व्हील चेयर को कमरे की तरफ ले गए। लंबा कद, चौड़ी छाती, गंभीर मुखमण्डल। उन्हें देखते ही सिर भय और इज्जत से झुक जाता था। वह उस हवेली के राजा कहलाते हैं। राजा होने के बावजूद वे अपनी अम्मी की देखभाल खुद करना पसंद करते हैं। उनकी पत्नी मुमताज की बारह साल की उम्र में ही मुहम्मद अली खान से शादी का रिश्ता जुड़ गया था। शादी के कुछ ही साल बाद ही सुषमा और सुलेमा का जन्म हुआ।

मुहम्मद अली खान के छोटे भाई अहम्मद अली खान भी उसी हवेली में रहते हैं। उनका एक बेटा अफताब अली और एक छोटी बेटी सुजला है।

“शहंशाह मुहम्मद।"

“जी अम्मी।”

"कल आपके अब्बू के जन्मदिन की खुशी में मस्जिद में फूलों की चादर चढ़ानी है और सारे शहर में फकीरों को खाना खिलाना है।"

"जी अम्मी। सारी तैयारियाँ हो गई हैं बस आपका हुक्म का इंतजार है।"

"पता है बेटा आप सब कुछ सँभाल लेंगे। आपके अब्बू के जाने के बाद भी पूरा राजपाट तुमने बखूबी सँभाला है। कभी आपको बताने की जरूरत नहीं पड़ी। मेरे मन की सारी बात मेरे कहने से पहले ही पूरी कर दी है आपने।” मन ही मन कहा राजमाता ने । सामने बस इतना ही कहा, "अच्छी बात है। "

उनके बाहर जाते ही एक १६ साल की लड़की भागती हुई आ पहुँची। टेबल पर बैठे सबकी नजर उस लड़की पर अटक गई। नाजुक-सी कली की तरह खिलखिलाती, हिरनी की तरह चंचल, तितली की तरह अपना आँचल लहराते दौड़ती हुई कमरे में प्रवेश कर गई। सबको टेबल पर देखकर उसके पैर अचानक ही रुक गए। धीरे एक-एक कदम बढ़ाते हुए टेबल के पास पहुँचकर, "सलाम अलैकुम अम्मी जान, सलाम अलैकुम चाचा जान। माफी चाहती हूँ, देर हो गई।"

"वा अलैकुम अससलाम, खुश रहो बेटा। बेटा ये सब कब तक चलेगा? अब आप बड़ी हो चुकी हैं। परिवार के नियमों का अनादर नहीं करते। आपका देर से आना शोभा नहीं देता। सब आपका ही इंतज़ार कर रहे थे। आज के दिन भी देर कर दी आपने।"

"माफी चाहती हूँ चाचाजान ।”

“मैंने जानबूझकर देर तो नहीं की अम्मीजान, आपको पता है, असलम है न, मेरा तोता असलम, पता नहीं आज कुछ न खाने की जिद कर रहा था। उसे मनाकर, खिलाकर आते-आते मुझे देर हो गई, सुलेमा ने आँखें ठपठपाते हुए कहा "

फिर चुपके से सुषमा की ओर देखा और धीरे से पूछा, “दादी कहाँ है? बहुत गुस्से में है क्या? और तो और मुझे किसी ने याद भी नहीं करवाया नहीं तो मुझे कभी देर हुई है भला?" अफताब को एक चिमटी काटकर उस पर नाराज होने का बहाना करने लगी।

फिर भी आप देर से आईं। "सुलेमा, आप कहाँ रह गई थी अब तक? तुम्हें पता है न टेबल पर किसी की गैर मौजूदगी पर दादी को कितना गुस्सा आता है।" सुलेमा की दीदी सुषमा ने आश्चर्य जताया।

"दादीजान नाराज है ? अभी जाकर मना लेते हैं, लेकिन इजाजत है तो थोड़ा नाश्ता कर लूँ? बहुत भूख लगी है। "

“ठीक है। बैठ जाओ, जल्दी नाश्ता खत्म कर दादीजान से मिल लेना, दादीजान ने अपने कमरे में बुलाया है।”

“जी अम्मी।" मुमताज के आज्ञा देते में ही फटाफट नाश्ता करने लगी।

"सुलेमा, बेटा आराम से खाओ गले में अटक जाएगा।" गले में नाश्ता भरे होने के कारण जुबान से खाली 'हूँ,' कहकर आवाज़ निकाली।

आवाज धीमीकर चुपके से पास में बैठी सुषमा से पूछने लगी, “दीदी क्या कुछ खास बात है या खूब जोर से डाँट पड़ने वाली है।”

"पता नहीं, आप खुद ही पूछ लेना, लेकिन हाँ, डाँट पड़ भी सकती है।" बड़ी-बड़ी आँख नाटकीय ढंग से घुमाते हुए कहा। सुलेमा घूरते हुए सुषमा की तरफ एक नज़र देखकर जल्दी-जल्दी नाश्ता करने लगी। जल्दी-जल्दी खाने से एकदम से गले में अटक गया। हिचकी के साथ-साथ खाँसी भी होने लगी। सुषमा अपना नाश्ता छोड़कर सुलेमा को पानी पिलाने लगी। माँ ममता ने आकर पीठ पर धीरे-धीरे थपथपाने लगी।

"बेटा आहिस्ता! खाने के समय सावधानी बरतना भी जरूरी है। जल्दबाजी मत करो, आराम से खाओ।” पानी पीकर, “जी अम्मीजान " कहकर जल्दी से नाश्ता खत्म कर दादी के कमरे की तरफ चल पड़ी सुलेमा।

राजमाता सुबह उठते ही स्वर्गवासी पति महाराजा सोहनअली खान की तस्वीर के सामने खड़े होकर कुछ समय मौन वार्तालाप करने के साथ-साथ उनके दिन की शुरुआत होती थी।

डाइनिंग से कुछ दूर जाकर बाएँ से तीसरा कमरा राजमाता यानि जाहिदा बेगम का है। वह ज्यादातर पुरानी चीजों की शौकीन है। इसलिए उनके कमरे की सजावट उनकी पसंद के मुताबिक की गई है। अंदर प्रवेश करते ही चारों दिशाओं में सफेद पर्दे लहराते दिखाई देते हैं। बिल्कुल सीधीसादी सजावट। दो सिंहों से बना शानदार सिंहासन कमरे के बीचोंबीच शोभा देता है। उस सिंहासन के सामने कुछ कुर्सियाँ भी रखी हुई हैं। जब कोई मेहमान उनके कमरे में प्रवेश करता है या कोई गहरी समस्या का समाधान करना होता है तो तब वे उस सिंहसान पर विराजमान होती हैं। वह सिंहसान उनके स्वर्गवासी पति ने खुद खूब प्यार से बनवाकर जाहिदा बेगम को उपहार स्वरूप दिया था। इसलिए जो भी कोई गहरा फैसला लेना होता तब वे उस सिंहासन पर बैठकर फैसला करती थी। हवेली का हर सदस्य उनके फैसले और उस सिंहासन को भी खूब मान देते हैं। कमरे की एक तरफ नमाज़ अदा करने के लिए तैयार किया गया है। दूसरी तरफ तीन फुट ऊँचाई का एक पलंग और उसके नीचे पैर रखने के लिए एक मखमली चारपाई बिछाई गई है। पलंग के सामने बैठने के लिए एक मखमली दीवान बिछाया हुआ था।

जब सुलेमा ने कमरे में प्रवेश किया, तब जाहिदा बेगम दीवान पर बैठी हुई थी। उनके हाथ में सोने की कारीगरी से बना एक बक्सा था। उसे खोलकर उसमें से सारे गहनें निकालकर देख रही थी।

"सलाम अलैकुम, दादी जान।"

"सुलेमा बेबी, वाअलैकुम अससलाम, आ जाओ बेटा।”

"दादीजान, आपने हमें बुलाया ?"

एक सुनहरी पेटी से एक सुंदर-सा हार निकालकर राजमाता ने सुलेमा को दिखाते हुए कहा, "देखिए तो सुलेमा बेबी ये कैसा है ?”

"दादीजान इतना सुंदर हार, लेकिन मैंने आपको पहने हुए कभी देखा ही नहीं।"

"अरे बेटा ये तुम्हारे लिए है ये तुम्हारी शादी में मेरी तरफ से तोहफा है। बोलो कैसा है ? तुम्हें पसंद आया न ?”

"दादीजान जाओ मैं आपसे बात नहीं करूँगी। इतनी जल्दी भी क्या है, मैं तो अभी बच्ची हूँ। मेरी शादी कर मुझे घर से विदा कर देना चाहतीं हैं। क्या मैं इतनी बुरी हूँ ?"

प्यार से सुलेमा को गोद में लेकर समझाते हुए कहा, "बेटियाँ पराया धन होती हैं । कर्मस्थल तो आपका ससुराल है, आप तो हमारी प्यारी-सी गुड़िया रानी हो और हम जिसे भी पसंद करेंगे वह आपको पलकों पर सजाकर रखेंगे। ये हमारा वादा है तुमसे।"

"लेकिन फिर भी इतनी जल्दी क्या है ?"

"हर एक कार्य के लिए एक उपयुक्त समय होता है बेटा, अगर समय पर हम उस कार्य को करें तो उसका महत्व बढ़ जाता है। "

"चलो, ये बताओ कि ये हार तुम्हें पसंद आया कि नहीं।"

"दादीजान, आप बात को टाल रही हैं ।”

"नहीं बेटा, आपके अब्बूजान जो भी फैसला लेंगे ठीक ही होगा और बाकी सब तो रब की इच्छा है। उसने जो तय किया होगा वही होगा। हम कौन होते हैं।"

“कौन? आप तो हमारी दादीजान हैं। किसी की यह मजाल जो दादीजान को कौन कहे।"

"मेरी पोती तो बड़ी सयानी हो गई।" माथा चूमते हुए कहा। कल से समय पर खाना खाने आ जाना, अगर ऐसा न हुआ हम भूखे ही रह जाएँगे कह देती हूँ हाँ।"

"माफ कीजिए दादी आज देर हो गई कल से देर नहीं होगी। हम अपनी दादी को कभी भूखा नहीं रखेंगे।"

"चलो अब जाओ अपने कमरे में, नमाज़ अदा करने का वक्त हो गया।"

“जी दादीजान, खुदा हाफिज।"

"खुदा हाफिज," सुलेमा वहाँ से चली गई।