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बड़ा भाई

अमन कुमार त्यागी

 

कुल मिलाकर लगभग बीस हज़ार एकत्र कर लिए गए थे। विवाह के निमंत्रण के लिए महंगे वाले लाल सुर्ख रंग के कार्ड सस्ते दामों पर मंगा कर रख लिए गए थे। कुछ साड़ियाँ और कपड़े भी निकालकर एक अलग बैग में रख दिए थे। विवाह का उत्साह तो था परंतु उतना भी नहीं था, जैसा कि ऐसे अवसरों पर होना चाहिए। सिर्फ़ औपचारिकता पूरी करने वाली बात थी। विवाह की तैयारी इसलिए नहीं की जा रही थी कि नमन की कोई बहुत बड़ी जिम्मेदारी हो, बल्कि इसलिए की जा रही थी कि कोई रिश्तेदार या समाज का व्यक्ति यह न कह दे कि छोटी बहन का विवाह है और बड़ा भाई कुछ नहीं कर रहा है। यह अजीब सी स्थिति एकाएक ही नहीं हो गई थी। यह लंबी कहानी भी नहीं है और न ही पुरानी ही। नमन को घर छोड़े कोई पांच साल हो गए थे। उसके विवाह के बाद से ही घर में विवाद रहने लगा था। एक दिन पिता जी ने फ़रमान जारी किया कि घर छोड़ दो तो नमन ने इंकार नहीं किया उसने किराए का मकान तलाशना प्रारंभ कर दिया था। अभी सामान बाँधना प्रारंभ ही किया था कि नमन की बहन और माँ ने उसकी पत्नी पर हमला बोल दिया और उसे घर से निकाल दिया। नमन को फ़ोन पर पता चला तो वह तुरंत घर पहुँचा और बिना कुछ कहे बाक़ी बचा सामान भी बांध लिया। सुबह होते ही भैंसा बुग्गी बुला ली गई और सामान लादा जाने लगा। जब अंतिम सामान लेकर नमन, उसकी पत्नी और दो छोटे-छोटे बच्चे घर छोड़ रहे थे, तब नमन की माँ ने नमन का हाथ पकड़ा और कहा- ‘जा रहा है तो घर में फिर कदम मत रखना।’
पाँच साल पूरे होने को थे मगर नमन ने न तो घर में कदम रखा और न ही वह कभी माँ से बोला। बोलता भी कैसे? कोई कसर भी तो नहीं छोड़ी थी माँ, बहन, भाई और बाप ने। पिता जी ने उन्हें घर से निकालने के बाद अख़बार में विज्ञापन भी प्रकाशित करा दिया था कि उनका नमन और उसकी पत्नी से संबंध विच्छेद हो गया है, उनसे किया गया किसी भी तरह का लेन-देन और व्यवहार के लिए उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। भाई ने उसे मरवाने के लिए एक बदमाश को सुपारी देने की बात तय कर ली थी, यह बात अलग थी कि समय रहते बात खुल गई। बात खुली तो फिर दूसरे बदमाश से उसकी पत्नी के चेहरे पर तेज़ाब फ़ेंकने की बात की जाने लगीं। यह बात भी अधिक समय तक छिपी न रह सकी और खुल गई। बात खुली तो नमन ने पिता जी से बात साफ़ करने के इरादे से बात की मगर उन्होंने स्पष्ट इंकार कर दिया। नमन ने भाई को फ़ोन किया तो उसने भी बात करने से आनाकानी की। नमन की हालत गंभीर होती जा रही थी। आर्थिक तंगी से जूझ रहे नमन पर घर के ही लोग उसके व उसकी पत्नी के चरित्र पर कीचड़ उछालने लगे थे। अब उसे दुनिया से उठाने की बातें होने लगीं थीं। नमन छोटे-छोटे बच्चों की तरफ़ देखता तो रोने लगता।
वह रोता तो उसकी पत्नी भी रोने लगती। फिर नमन अपनी जेब से ज़हर की डिबिया निकालता और कहता- ‘जब हद हो जाएगी तो वह आत्महत्या कर लेंगे।’
पत्नी ने चिंता व्यक्त की- ‘बच्चों को किसके सहारे छोड़ें? जहर खाना होगा तो चारों ही खाएंगे।’
घर छोड़ देने के बाद बड़ी बुरी बीत रही थी। घर में कभी आटा नहीं होता तो कभी दाल नहीं होती किंतु नमन या उसकी पत्नी ने कभी किसी के आगे हाथ फैलाया हो यह बात कहने वाला भी कोई नहीं है। यह ऐसा समय था जब उसने अपनी कमज़ोरी किसी भी बाहर वाले पर ज़ाहिर नहीं होने दी। रिश्तेदारी की महिलाएँ आती तो उन्हें शगुन में पैसे देने के स्थान पर साड़ी या कपड़े दे दिए जाते। मेहमानों की आवभगत कर स्वयं रूखी-सूखी खाकर रह लिया जाता। कुछ समय काटने वाली बात थी सो कटने में कोई दिक़्क़त न थी। नमन कामचोर नहीं था और न ही चरित्रहीन, बेईमान या धोखेबाज़। उसकी सब और इज्ज़त थी मगर अब घर के ही जनाज़ा निकालने पर तुले थे तो समाज के दूसरे लोगों को उसमें हिस्सा लेने में क्या दिक़्क़त थी। जो लोग नमन के सामने बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, वो भी उस पर कीचड़ उछालने लगे थे। किसी तरह ज़हर का घूँट पीकर समय बिताने में भी कठिनाइयाँ पैदा की जा रही थी। नमन के रिश्ते के एक भाई ने बताया - ‘सब्र से काम लेना, ये लोग तुम्हें इतना परेशान करना चाहते हैं कि तुम ख़ुद ही आत्महत्या कर लो।’
बात नमन की समझ में पहले से ही आ रही थी। घर में रहते ही उसके कमरे की बिजली बंद कर दी गई थी और बाहरी लोगों को बुलाकर नमन की पत्नी से बैठक में पानी मँगाया जाता फिर बदनाम करने के लिए लोगों से कहा जाता - ‘कोई नमन से मिलने के लिए नहीं आता बल्कि उसकी पत्नी से मिलने आते हैं।
नमन अपनी पत्नी की सच्चरित्रता को अच्छी तरह जानता था। तमाम रिश्तेदार और मौहल्ले वाले भी जानते थे मगर यह ऐसा आरोप था, जिसका नमन या उसकी पत्नी ने स्पष्टीकरण देने के बजाए घर छोड़ना ही उचित समझा। फिर स्पष्टीकरण देते भी क्या? जब खेत की बाड़ ही खेत को खाने लगे तो उसे कौन बचा सकता है?
ऐसे हालात एकाएक नहीं हो जाते हैं। समय लगता है। नमन की पत्नी ने कुछ गलतियाँ कर दी थीं, जिनकी सज़ा उसको मिलनी ही थी। हुआ यह कि नमन से छोटे भाई का किसी लड़की से इश्क चल रहा था। लड़की अंग्रेजी में प्रेम-पत्र लिखती थी जबकि आशिक महोदय का अंग्रेजी में हाथ तंग था। ऐसी सूरत में पिता जी प्रेम पत्र का जवाब लिखकर देते थे। बहू ने टोका तो मोर्चा खोल दिया गया। यही आशिक देवर जी दूसरी लड़कियों से भी आशिकीफर्मा थे। उन लड़कियों से बात करने के लिए पहले अपनी छोटी बहन से फोन मिलवाते और फिर स्वयं बात करने लगते। यह बात भी बहू के गले से नहीं उतरी तो उसने टोक दिया। यह टोकना बहू के लिए ख़तरनाक हो गया। योजना बनी कि बहू को चरित्रहीन सिद्ध किया जाए और नमन से उसे तलाक़ दिलाया जाए। सभी कुछ योजनाबद्ध चल रहा था मगर जब यह बातें नमन के सामने आईं तो नमन समझ गया। उसने अपनी पत्नी को डांटकर कहा- ‘कहने से पहले मुझसे पूछ तो लिया होता?’
नमन की पत्नी ने स्पष्ट कहा - ‘इसमें पूछने वाली बात क्या है? यदि मेरे सामने कोई ग़लत हरकत हो, जिससे बाद में घर की बदनामी हो तो मैं चुप रहूंगी?’
नमन ने पत्नी को समझाने का प्रयास किया- ‘चुप तो कोई भी नहीं रहेगा मगर तुम्हें यह भी सोच लेना चाहिए था कि जहाँ माँ और बाप ही ग़लत राह पर चलने के लिए संतान का साथ दे रहे हों, वहाँ तुम क्या कर पाओगी?’
-‘फिर भी मेरा जो फ़र्ज़ था मैंने किया, अब इसकी जितनी बड़ी सज़ा मिलेगी मैं भुगतने के लिए तैयार हूँ।’ नमन की पत्नी ने लंबी सांस लेते हुए स्पष्ट किया- ‘चरित्रहीन लोग चरित्र के बारे में क्या जानें?’
नमन ने उसे समझाने का प्रयास किया- ‘एक बार मुझसे बात की होती तो मैं कुछ भी न छिपाता। उचित समय आने पर बताता ही, लेकिन चलो कोई बात नहीं मैं तुम्हारे साथ हूँ। साथ इसलिए नहीं हूँ कि तुम मेरी पत्नी हो बल्कि इसलिए हूँ कि यह सज़ा मेरे माँ-बाप की वजह से मेरी बुआ भी भुगत चुकी है।’
-‘क्या मतलब?’ नमन की पत्नी ने चैंकते हुए पूछा।
-‘मतलब समझने का प्रयास मत करो, यदि यहाँ से निकलने का अवसर मिल रहा है, इसे गँवाओं नहीं, ये लोग कितनी बदनामी कर सकते हैं और किस हद तक गिर सकते हैं, मैं अच्छी तरह जानता हूँ।’ नमन ने पत्नी को समझाया।
हुआ भी वही। नमन की पत्नी को कभी चोर, कभी चरित्रहीन, कभी कामचोर और न जाने क्या-क्या कहा गया। घर छूट गया सो छूट गया। बहनें उन्हें देखकर थूककर गुज़रने लगीं। भाई अवांछित तत्त्वों को साथ लेकर सीना फुला देते या दारू पीकर और नशे की गोलियाँ खाकर सामने से इठलाते हुए गुज़रते, बड़ा भाई होकर भी नमन ख़ामोशी के साथ वह सबकुछ बर्दाश्त करता रहा, जिसकी उसे कभी आशा ही नहीं थी।
-‘सच यही है नमन! इसे स्वीकार कर और अपनी जीवन यात्रा आगे बढ़ा।’ नमन अपने आपको समझाने का प्रयास करता और अपने काम में जुट जाता।
कोई चारा भी तो नहीं था उसके पास। बड़े होने के परिणाम के सिवा।