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नैया - भाग 1

नैया / सामाजिक उपन्यास/ शरोवन

प्रथम भाग

***

उपन्यास अंश;

सुधा का स्वर फिर तेज़ हुआ तो माँझी पुन: अनुत्तरित हो गया । तब सुधा ने आगे कहा,


" यदि आप मेरी जीवन रक्षा करने का सिला या प्रतिफल ही चाहते हैं, तो मैंने भी आपकी इसी कारण यहाँ मक्रील नदी के किनारे बुलाया भी है । याद है आपको, अब से कई माह पूर्व आपने इसी मक्रील के गर्भ से मुझे निकालकर एक नया जीवनदान दिया था । आपको अपने इस उपकार के बदले में क्या चाहिए ? मैं ? मैं तो नहीं मिल सकती आपको । पर हाँ, अगर आप मुझे एक नई जिन्दगी देने के पश्चात् अपनी कोई धरोहर समझने लगे हैं तो दोबारा फेंक दीजिए मुझे इसी मक्रील की लहरों के बीच में, जहाँ से निकालकर कभी आपने मुझे बचाया था । कम-से-कम आपका सिला तो आपको मिल ही जाएगा। मुझे नहीं चाहिए ऐसा उधार का जीवन, जिसके ऋण का तकाजा मुझसे सारी जिन्दगी भर होता रहे, और मैं एक पाई भी अदा न कर सकूँ । ”


"सुधाजी ! खामोश हो जाइए प्लीज़ ! " माँझी से नहीं सुना गया तो वह एकाएक चीख-सा पड़ा । उसे लगा कि जैसे किसी ने उसके कानों में गर्म-गर्म लावा भर दिया हो । दिल के घावों पर गर्म-गर्म अँगारे रख दिए हों । सुधा ने अपने जोश में आकर जैसे उसके मुख पर तड़ातड़ तमाचे जड़ दिए थे । बडी देर तक दोनों के मध्य खामोशी एक तीसरे वजूद के समान अपना स्थान बनाए रही । दोनों चुपचाप मक्रील नदी के जल की धाराओं को ताकते रहे । बिना किसी उद्देश्य के ... निरर्थक ही । दोषियों समान । एक-दूसरे के दोषों से परिचित होते हुए भी मौन रहने के अतिरिक्त उनके पास कोई दूसरा विकल्प था भी नहीं । .

काफी देर के बाद सुधा ने ही मौन को तोड़ा । माँझी की ओर सहानुभूति और दयाभरी दृष्टि से देखते हुए वह शान्त स्वर में बोली,


"मेरी बातें आपको बुरी अवश्य लगी हैं, मगर वे सत्य हैं । मैं यह भी जानती हूँ कि आप सागर का स्थान लेने का स्वप्न देखने लगे हैँ, पर मैं उसका यह स्थान आपको कभी भी नहीं दे सकती हूँ । मैं आपकी बहुत इज्जत करती हूँ, इसलिए आपको आदेश नहीं दे रही हूँ । केवल विनती कर रही हूँ कि 'स्टेच्यू ' बनाने का कार्य जितनी भी जल्दी हो सके समाप्त कर दीजिए, और यहाँ से चले जाइए... इस उम्मीद पर कि फिर कभी आप मेरे व्यक्तिगत जीवन में, मेरी भावनाओ के साथ छेड़छाड़ नहीं करेंगे । शायद आपको ज्ञात नहीं है कि अब तो सागर भी मुझको सन्देह की नज़रों से देखने लगा है । ”

" ...? ”

इस पर माँझी ने उसे निहारा । अपनी मायूस और थकी-थकी, उदास दृष्टि से । फिर अपने बोझिल स्वर में बोला,

"शायद आप ठीक कहती हैं ? कितना बेवकूफ़ है वह इन्सान जो सदा उस वस्तु को पसन्द करता है जो बाजार में पहले से ही बिक चुकी होती है । जुबान पर आने से पहले ही दबाई गई मेरी भावनाओँ ने यदि आपको कोई ठेस या आघात पहुँचाया है तो मैं कोशिश करूँगा कि उसकी स्मृति का कोई धूमिल प्रतिबिम्ब भी आपके मानस-पटल पर बाकी न रहे । आज के बाद भूल जाइए कि किसी 'माँझी' ने अपनी अकेली, आवारा और खाली नाव में आपको शरण देने की कोई आरजू भी की थी या कोई भटका हुआ पथिक आपके खुशियों भरे 'सागर' में चन्द लम्हों के लिए शरणागत भी हुआ था... "

***

प्रथम परिच्छेद -

काले आकाश मेँ अचानक बादल बौखलाकर गड़गड़ा पड़े, तो अपने 'सागर मेडिकल सेंटर' की प्राइवेट क्लीनिक में गम्भीर बैठी हुई डॉक्टर सुधा का दिल भी दहल गया । बैठे-बैठे उसने एक पल बाहर के वातावरण पर नज़र डाली। पूरा तूफानी माहौल था । हवा की साँय-साँय । बर्फीली ठण्ड । अँधेरी रात का दूसरा पहर । सारे शहर के लोग अपने-अपने घरों में चुपचाप बन्द हो गये थे । पहाड़ी इलाकों पर यूँ भी मौसम अक्सर बिगड़ जाता है । हवाएँ इस क़दर तेज़ थी कि चिनार टूटे पड़ते थे । सारे वातावरण को प्रकृति के इस बिगड़े हुए मिजाज ने अपने शोर से भयभीत कर रखा था, परन्तु डॉक्टर सुधा का नारी मन फिर भी इस बाहर के शोर से बेख़बर होकर अपने मरीज़ की दशा की ओर देखकर भयभीत और परेशान-सा हो जाता था । दिल अचानक ही किसी अज्ञात अनहोनी की पूर्व शंका के कारण धड़क जाता था । धड़कनों पर जोर पड़ जाता था । ऐसा उसके साथ क्यों था ? क्यों हो रही थी वह परेशान ? दिन में न जाने कितनी तरह के मरीज़ उसके पास आते थे, परन्तु उन्हें देखकर वह कभी भी इतना अधिक चिन्तित नहीं हुई थी, न इस क़दर घबराई थी. बाहर तूफानी शोर था, परन्तु डॉक्टर सुधा के मस्तिष्क में अचानक ही एक तूफान आ गया था । दिल की पिछली बातें बार-बार उससे कोई तकाज़ा कर बैठती थी । वे बातें, वे दिन और वह समय जिसको वह अपने गुज़रे हुए दिनों का एक दुखद पृष्ठ समझकर पलट आई थी, आज अचानक से ही एक खुली पुस्तक का रूप बनकर, मानो उससे प्रश्नों की बौछार कर रहा था । कौन जानता था कि जिन हालातों में वह कभी इस मरीज़ को नकार आई थी, वही आज उसके यहाँ उसके भूले-बिसरे प्यार की एक कसक बनकर आ चुका था ।


डॉक्टर सुधा को अपने अतीत का वह दिन उसे आज भी याद था…

याद ही नहीं बल्कि उसके साथ भरतपुर में गुजारे हुए दिनो के वे क्षण बार-बार याद आ रहे थे, जिन्हें कभी वह अपनी विवशता दिखाकर छोड़ आई थी । प्यार के वे गीत, वे मधुर पल, वे यादें, जो उसके अतीत का एक ज्रख़म बनकर भर भी गई थीं, आज़ फिर एक बार इस नए मरीज़ के आने पर घायल हो चुकी थी । आज से कई वर्ष पहले के वे दिन- वह समय और वह साथ, जब एक दिन अचानक ही उसने अपनी कार से एक युवक को टक्कर मार दी थी । टक्कर भी इतनी तीव्रता से हुई थी कि सुधा ने भरपूर ब्रेक लगाए, मगर कार की गति अधिक होने के कारण वह युवक की जाँघ के ऊपर से गुजरकर रुक सकी थी । वह तो उस युवक का भाग्य अच्छा था जो वह बच गया, वरना उसकी तो जीवनलीला समाप्त ही थी । फिर भी वह घटनास्थल पर ही बेहोश हो गया था । भीड़ लगनी आरम्भ हुई तो सुधा ने भयभीत होकर आसपास के कई लोगों से सहायता के लिए कहा तो उन्होंने तुऱन्त उस युवक को उठवाकर कार के अन्दर रखवा दिया था । साथ में दो युवक भी बैठ गए और फिर सुधा गाड़ी लेकर सीधी अस्पताल पहुँची ।

युवक को तुरन्त ही आपात्कालीन-कक्ष में ले जाया गया । डॉक्टरों ने उसकी दशा ख़तरे से बाहर नहीं बताई तो सुधा और भी अधिक भयभीत हो गई । धीरे-धीरे उपचार हुआ । प्राथमिक चिकित्सा ठीक प्रकार और यथासमय होने के कारण युवक को होश भी आ गया और जब उसकी दशा ख़तरे से बाहर हो गई, तो पुलिस ने अपनी कार्यवाही करना आरम्भ कर दी । आरम्भ कर दी तो सुधा की परेशानी भी बढ़ गई, परन्तु तभी उस युवक ने एक ही बयान से पुलिस की सम्पूर्ण कार्यवाही रुक गई । उस अनजान युवक ने सारा दोष अपने ऊपर ले लिया था और स्वयं को इस दुर्घटना का दोषी स्वीकार किया था ।
सुधा उस युवक के इस अप्रत्याशित बयान से आश्चर्य में पड़ गई । चौंकना और आश्चर्य करना बहुत स्वाभाविक भी था, क्योकि वह अच्छी तरह से जानती थी कि दुर्घटना में उस युवक का क़तई दोष नहीं था । सारा दोष और ग़लती स्वयं उसी की ही थी । अचानक ही सड़क की ओर से मन अपने प्रीतम के ख़यालों में खो जाने से यह दुर्घटना हुई थी । सुधा इस तथ्य को भली-भाँति जानती थी । फिर भी उस युवक ने अपनी गलतबयानी से जहाँ उसे कोर्ट-कचहरी आदि की मुश्किलों से बचाया था, वहीं उसके मन-मस्तिष्क को हैरान भी कर दिया था ।
सुधा के ऊपर से केस की कार्यवाही तो हट गई, परन्तु उस युवक की इन्सानियत में छिपी एक अपरिचिता के प्रति आत्मीयता को देखकर वह स्वयं को तसल्ली नहीं दे सकी । ऐसा होना बहुत स्वाभाविक भी था, क्योंकि ऐसी परिस्थिति में जिसमें सारा दोष केवल उसी का था और उसने उस युवक की टाँग भी तोड़ दी थी, उस युवक का एक अनजान युवती के प्रति क्रोधित होने क़े बजाय, उसको क्षमा करना आश्चर्यचकित ही नहीं, बल्कि सन्देह से युक्त भी था । तब उसने उस अनजान घायल युवक से स्वयं मिलना ही हितकर समझा ।
युवक अभी अस्पताल में ही था और वह स्वास्थ्य लाभ ले रहा था । जाँघ की हड्डी में फ्रेक्चर हो जाने के कारण उसके प्लास्टर चढ़ चुका था । सुधा सीधी

उसके वार्ड में जा पहुँची । युवक अंचानक सुधा को अपने क़रीब पाकर चौंक गया । इस प्रकार कि वह तुरन्त ही सुधा को आश्चर्य से देखते हुए बोला, " अरे, आप? आप तो... ?"
"मैं सुधा हूँ ।
"सुधा… " युवक के ओठों ने ही जैसे अनजान बनकर उसका नाम दोहराया, तो सुधा ने आगे कहा, "हाँ, मैं वही लड़की हूँ जिसकी कार से आपका एक्सीडेंट हुआ है । "
“ ओह !" उस युवक ने गौर से सुधा को निहारा ।
"मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ अपनी ग़लती पर । " सुधा पश्चात्ताप के स्वर में बोली तो युवक ने आगे कहा, "तो इसमें परेशान होने की क्या बात है, सारी ग़लती मेरी थी । मैंने अपना बयान दे दिया है । केस समाप्त हो जाएगा । आप निश्चिन्त रहें । "
" फिर भी आपकी इस ग़लतबयानी से मैं सन्तुष्ट नहीं हूँ । ”
"ग़लतबयानी !" उस युवक ने आश्चर्य किया ।
"हाँ, सत्य क्या है ये आप और मुझसे छिपा नहीं है । "
“मैँ आपका मतलब नहीं समझा । " उस युवक ने तनिक हैरानी से कहा ।
"... ? " इस पर सुधा ने पहले तो उस युवक को देखा । बड़े गौर से । उसके खामोश चेहरे पर जैसे कुछ पढ़ना चाहा । उसकी आँखों में झाँका । एक भेदभरी दृष्टि से । फिर गम्भीर होकर बोली, " देखिए, आप ये खूब अच्छी तरह से जानते हैं कि सारी ग़लती मेरी थी । मैँने ही बिना हॉर्न दिए गाड़ी आप पर रौंद दी थी, फिर भी आपने अपने को दोषी कहा । क्या मैं पूछ सकती हूँ कि ऐसा क्यों ? आप मुझे जानते नहीं हैं । आज पहली बार देखा है । फिर भी इस मेहरबानी का कारण ?"
"ऐसा इसलिए क्योंकि मैं जानता हूँ कि एक जिन्दगी कितनी मूल्यवान होती है । "
" ...? ” खामोशी । सुधा खामोश हो गई, तो उस युवक ने आगे कहा, "हाँ, सुधाजी मेरे भी "जीवन के कुछ उसूल हैं । मेरी आपकी कोई दुश्मनी तो थी नहीं । एक्सीडेन्ट होना था, सो हो गया । मेरी चोट यदि आपके सजा भुगतने से ठीक हो सकती, तो कुछ सोचा भी जाता । यही क्या कम है कि मैं बच गया । फिर आपको क्यों परेशान किया जाए ? इसलिए मैंने सारा दोष अपने ऊपर ले लिया । "
“यह जानते हुए भी कि झूठ बोलना भी एक गुनाह होता है । ” सुधा ने कहा ।
" ? "
सुधा के इस कथन पर युवक ने पहले तो उसको निहारा । क्षणभर को । एक प्रश्चसूचक दृष्टि से । फिर उसको जैसे समझाने के स्वर में बोला,


"सुधाजी ! शायद आपको मालूम नहीं है कि किसी की भलाई के लिए बोला हुआ झूठ का एक कतरा भी कई सचों से हजार गुना भारी हो जाता है । "
“...?”
सुधा उस युवक के इस दार्शनिक कथन पर फिर क्षणभर को सोचती ही रह गई । वह कुछ कह नहीं सकी । युवक ने उसको इस मुद्रा में गम्भीर पाया तो तुरन्त आगे बोला, " अच्छा, अब छोडिए भी इस विषय को । वैसे आपका परिचय ? "
"नाम तो आपको ज्ञात ही है । यहीँ इसी शहर में मेरे पिता वकालत करते हैं और मैँ उनकी इकलौती सन्तान हूँ । इस समय मेडिकल के प्रथम वर्ष में हूँ । और आप... ?"
"मैं माँझी हूँ । मैं भी इसी सप्ताह यहाँ आया हूँ क्योंकि पिताजी का स्थानान्तरण हो गया है, वे भी परसों यहाँ पहुँचनेवाले हैं । "
"तब तो बडे ही दुख की बात है । वे भी क्या सोचेंगे कि स्थानान्तरण होते ही ये मुसीबत टूट पड़ी । " सुधा ने जैसे दुखित होकर कहा ।
इस पर माँझी ने उससे कहा, "छोहिए सुधाजी! इसमें इतना गम्भीर होने की क्या बात है ? ”
" फिर भी सोचना तो पड़ता ही है । ”
" क्या सोचना पड़ता है ?”
"यही कि आपने एक ही बार में परोपकार की सारी सीमाएँ ही लाँघ ली हैं । "
“ये कोई परोपकार नहीं है । मैँ जो कर सकता था, वह कर दिया और अब एक्सीडेन्ट हुआ था मेरी वज़ह से । बात भी ख़त्म हो गई है मेरी वज़ह से । "
" और आपकी परेशानी बढ़ गई है, मेरी वज़ह से । "
सुधा ने कहा तो माँझी जोर से हँस पड़ा । हँसते हुए खोला, "आपका भी जवाब नहीं । "
इस पर माँझी के प्रसन्न होने पर भी सुधा भी हँस पडी । क्षणभर में ही उसकी कुछ देर पूर्व की सारी अनभिज्ञता तथा संकोच समाप्त हो गया । वह महिने से ऐसे हिल-मिल गई, जैसे कि उसे बहुत दिनों से जानती हो । फिर बातों का सिलसिला आगे बढाते हुए उसने मुस्कराकर कहा, " आप तो बातें करने में अत्यन्त माहिर हैं । मेरा अनुमान है कि कहीं आप कोई दार्शनिक या लेखक इत्यादि तो नहीं हैं ?"
“मैं दार्शनिक और लेखक तो नहीं हूँ । हाँ, कलाकार अवश्य हूँ । "' माँझी ने बताया तो सुधा और भी अधिक उत्सुक हो गई । तुरन्त ही उसने आगे पूछा,
“आप कलाकार हैं, यह जानकर मुझे प्रसन्नता हुई । क्या आप बता सकेंगे कि किस क्षेत्र में रुचि है आपकी ?"
"स्वभाव से मैं मूर्तिकार हूँ ।”
"बहुत अच्छा ! मुझे कलाकार और उसकी भावनओं से बेहद लगाव है । ” सुधा ने उसे अपने विचारों और अपनी धारणाओं से अवगत कराया तो माँझी ने आगे कहा, " आपकी कलाकारों के प्रति उत्सुकता और रुचि तथा लगाव देखकर मुझे भी प्रसन्नता हुई हैं, वरना इस भरे समाज और संसार में कौन कलाकारों की भावनाओँ की परवाह करता है । "
माँझी ने बेहद गम्भीरता से ये शब्द कहे तो सुधा उसकी तरफ़ से गम्भीर पड़ गई, क्योंकि माँझी के इस कथन में उसका कोई दर्द और निराशा की झलक मिलती प्रतीत होती थी । सुधा ने उसके गम्भीर चेहरे की और ध्यान से देखा । देखा तो माँझी उसे बहुत ही अधिक गम्भीर जान पड़ा । वह सुधा को ही देख रहा था । पलभर में ही वह न जाने क्या सोचने लगा था । अचानक ही उसे न जाने क्या हो गया था । सुधा ने उसकी मलिन पड़ती चेहरे की आभा को देखते हुए विचारा कि, "सचमुच ये कलाकार लोग कितने अधिक कोमल दिल के होते हैँ ? किस क़दर भावुक ? जरा-सी कोई बात हुई नहीं कि उदास पड़ जाते हैं । उदास, मैली चाँदनी के समान फीके । पलभर में ही जाने कहाँ-से-कहाँ पहुँच जाते हैं ? लगता है कि जैसे सारी दुनिया का दर्द इन्हीं की आँखों में समाया रहता है । क्या समाज में इनका घरेलू कोई स्थान नहीं है ?' सोचते-सोचते सुधा ने माँझी की और एक पल निहारा । वह कहीं अन्यत्र ही सोच रहा था । तुरन्त सुधा ने उसे सम्बोधित किया । वह बोली, " आपकी बातों से प्रतीत होता है कि कहीं पर शायद बहुत अधिक सताए हुए हैं आप । क्या कारण है ? क्या आप बता सकेंगे ?"
“सुधाजी ! इस संसार मैं कुछ लोग ऐसे भी तो होते हैं कि जिनका कुछ भी नहीं छिनता है, मगर फिर भी खाली रहते हैं । कुछ भी नहीं लुटता है और तो भी वीरान होते हैँ । दुनिया में रहते हुए भी कहीं के नहीं होते । सबके साथ रहते हैं, फिर स्वयं को अकेला ही महसूस करते हैं । ”
".॰॰ ? " माँझी ने कहा तो सुधा उससे बोली, "ऐसा आप क्यों कह रहे हैं ?"
" इसलिए कि सोच लीजिए कि मैं भी शायद ऐसा ही हूँ' । "
"ठीक है । मैं आपका सारा आशय समझ गई । "
"क्या ?" "यही कि आपको अपने बारे में बात करना शायद पसन्द नहीं है ।
"सुधाजी …?" '
"' अब मैं चलती हूँ । आपके किए गए एहसान का बदला तो मैं शायद कभी चुका नहीं पाऊँगी, पर हाँ, ये मेरा कार्ड है । मैँ मॉडलिंग भी करती हूँ । यदि कभी आपको मेरे लायक़ कोई कार्य पड़ जाए तो संकोच न कीजिएगा । नाउ यू गेट वैल सून ( अब आप जल्दी स्वस्थ हो जाएँ) । बॉय !"


यह कहकर सुधा चली गई । चुपचाप...और माँझी उसे देखता ही रह गया । ख़ामोश-निर्बुद्धि-सा ।
सुधा जैसे ही अस्पताल से बाहर आई तो तुरन्त ही उसे वहाँ प्रतीक्षा करता हुआ सागर मिल गया । सागर !
जैसा नाम वैसा ही उसका व्यक्तित्व भी था । सुन्दर, सुशील, गौरववान चेहरा । अच्छी लम्बाई । कन्धों तक झूलते हुए लम्बे, काले, घुँघराले-से बाल । उसके व्यक्तित्व का एक अनोखापन प्रदर्शित करते थे ।
सुधा सागर को एक लम्बे अरसे से जानती थी । सागर भी सुधा को अपने दिल की गहराइयों से प्यार करता था । स्वंयं सुधा भी उसको बहुत चाहती थी । सागर के हृदय में सुधा के प्रति जहाँ प्यार का समुन्दर उमड़ा पड़ता था, वहीं सुधा के मन में भी उसके लिए जी भर के अपनत्व भरा हुआ था । चूँकि, सुधा को आरम्भ से ही कलाकार तरह के व्यक्तियों से लगाव रहा था, इस कारण सागर में भी उसकी अत्यधिक रुचि होने का यही कारण था । सागर की चित्रकारी बाजार में महँगे दामों सहज ही बिक जाया करती थी ।
“मैँ जानता था कि तुम यहीँ होगी । " सुधा को अस्पताल से बाहर आते देख सागर बोला ।
"तुम क्या अन्तर्यामी हो गए हो ? ” उसकी इस बात पर सुधा ने मुस्कराते हुए आश्चर्य से कहा ।
" समझ लो ऐसा ही है तो ?" सागर ने हँसकर पूछा ।
“कुछ भी नहीँ । अच्छा छोड़ो इसको । ये बताओ कि उस मूर्तिकार का क्या हाल है ?"
सागर ने तुरन्त बात बदलकर माँझी के लिए पूछा तो सुधा ने उसे टोक दिया | बोली, "मूर्तिकार नहीं, एक महान मूर्तिकार कहो । बेचारा बहुत ही भला इन्मान निकला । ” सुधा कहकर माँझी के ख़यालों में गम्भीर पड़ गई । स्वत: ही । अचानक से इस प्रकार कि उसके मुख के इस परिवर्तन को देखकर सागर यूँ चौंक गया जिस प्रकार सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट पर घोड़ा ठिठक जाता है ।
उसने पहले तो सुधा को निहारा । बड़े गौर से । फिर भेदभरी दृष्टि से देखता हुआ अपने मन में ही जैसे सोचने लगा, 'महान् ? बेचारा ? भला इन्मान ? ' फिर सुधा से बोला, "क्या बात है ? क्या वह कुछ अधिक ही भा गया है तुम्हें ?"
सागर से नहीं रहा गया तो उसने पूछ ही लिया । व्यंग्य की भावना का बहाना बनाकर उसने अपने दिल का सारा शक जाहिर कर दिया था ।
"हाँ ! ऐसा ही समझो, लेकिन उतना नहीं, जितना कि तुम समझ रहे हो ! "
फिर सुधा ने उसे संक्षेप में सारी बात बता दी । सागर ने सुना तो वह भी एक बार को आश्चर्य करके रह गया ।


तब काफी देर तक दोनों खामोश बने रहे । दोनों मे से कोई भी कुछ नहीं बोला । फिर थोड़े समय पश्चात् सुधा ने ही बात आरम्भ की । वह बोली,


"सागर !"
"हाँ ! “
"मालूम है कि ये दुर्घटना क्यों हो गई थी ? जबकि आज तक मेरे से कोई भी दुर्घटना, कभी नहीं हुई थी । “ सुधा ने स्वयं ही प्रश्न किया तो सागर ने उसकी और निहारा । आश्चर्य से । फिर सुधा ने आगे कहा, "मैं जब कार चला रही थी, तो तुम्हारे ही ख़यालों में थी । इसी कारण ये सब हो गया । वह तो माँझी का 'लक' अच्छा था, जो वह बच गया । वरना... । "
"उसके साथ-साथ तुम्हें भी सजा हो जाती । " सागर ने तुरन्त बात पूरी कर दी ।
"सजा नहीं होती, तो कम-से-कम परेशानी तो बढ़ ही जाती । "
" अभी भी क्या कम परेशान हो तुम ? "
" क्या मतलब ?”
"यही कि उस मूर्तिकार का ख़याल अभी तक तुम्हारे जेहन से उतरा नहीं ।”
"तुम ऐसा क्यों कहते हो ?”
"क्यों ? नहीं कह सकता क्या ?”
"क्यों नहीं कह सकते । मगर विश्वास भी तो कोई चीज़ होती है । "
"तुम पर तो विश्वास है, मगर उस मूर्तिकार पर नहीं । "
"पुरुष हो न । इस कारण ईर्ष्या तो होना स्वाभाविक ही है । "
"नहीं ! ये बात नहीं है ।"
"तो फिर क्यों इतनी गम्भीरता से ले रहे हो इस बात को ? "
“उसऩे सारा दोष अपने सिर पर ले लिया है । बिना किसी बात और स्रम्बन्ध के । इसी सबब से सन्देह होने लगता है ? "
"ठीक है, मगर मैं क्या भागी जा रही हूँ ? कम-से-कम मुझ पर तो विश्वास करो तुम !"
"'॰.. ?" खामोशी । "
सागर चुप हो गया , तो कुछेक क्षण को दोनों के मध्य मौन छा गया । सुधा भी चुप ही रही ।
आसमान आज स्वच्छ था । सूर्य धीरे-धीरे तपता जा रहा था । बसन्त ऋतु थी । सर्दियाँ समाप्त हो चुकी थी । इस प्रकार कि वायु के एक ही झोंके से सूखी पत्तियों की भूमि पर चादर-सी बिछ जाती थी ।
सुधा अपनी कार ले आई थी । सागर ने उसको हाथ में चाबी पकड़े देखा तो पूछ बैठा,


"गाड़ी लाई हो ? "


"हाँ, क्या घूमने का इरादा है ?" सुधा ने पूछा ।
“हाँ, यदि तुम्हारे पास समय हो ?”
"समय क्या ? कॉलेज तो जाना था, मगर माँझी का हालचाल पूछने आई थी । मगर अब समय तो काफी हो गया है । "
“ हालचाल ? " सागर सुधा के मुख से इस प्रकार की बात सुनकर मन-हीँ-मन फिर सनक गया, परन्तु चाहकर भी वह कुछ कह नहीं सका । चुप ही रहा ।
"चलो, चलते हैँ कही । " कहकर सुधा कार की तरफ बढ़ने लगी । पीछे-पीछे सागर भी चल दिया ।


कार में बैठकर सुधा ने उसकी गति को बाहर सड़क पर आते ही तीव्र कर दिया । ठण्डी-ठण्डी हवाओं ने उसके गालों को स्पर्श करना आरम्भ किया तो अनजाने में ही उसके मुख पर खुशियों की एक लहर काँप गई । विजयभरी मुस्कान । ऐसा होना स्वाभाविक भी था । साथ ही बहुत आवश्यक भी, क्योंकि वह अकेली थी । एकान्त था । उसका दिलराज़-सपनों का संसार उसके साथ ही था । सागर उसकी बगल में बैठा था । फिर ऐसे में उसे अब और क्या चाहिए था । माँझी के साथ हुई दुर्घटना का सारा मामला स्वत: ही ठण्डा पड़ गया था । फिर भी सुधा जब भी उस दुर्घटना के विषय में सोचती तो स्वयं ही माँझी का व्यक्तित्व उसकी आँखों के समक्ष एक अनबूझा प्रश्न बनकर झलक जाता था । तब ऐसे में वह न चाहते हुए भी उसके प्रति सोचने पर विवश हो जाती थी । सोचती थी, और खुद ही परेशान भी हो जाती थी, तब उसके मस्तिष्क में विचार आते । प्रश्नों के ताँते-से लग जाते । यही कि, क्यों ये -दुर्घटना हो गई ? हो भी गई तो माँझी के साथ ही क्यों ? आज़ तक तो उससे कभी कोई दुर्घटना हुई नहीं थी । फिर इतना सब होने के पश्चात् भी माँझी ने क्यों सारी ग़लती खुद ही अपने ऊपर ले ली ? क्यों उसने स्वयं को दोषी मान लिया ? क्या परोपकार की भावना उसके हदय में सदैव ही विराजमान रहती है ? क्या इतना महान् उसका व्यक्तित्व हो सकता है ? इस कदर ऊँचा कि वह अपने एक ही पग में परोपकार की सारी सरहद ही पार कर गया । उस पर एक एहसान छोड़ गया । सिर्फ इसलिए कि वह जब भी इस दुर्घटना के विषय में विचार करे तो उस अनजान पुरुष के बारे में भी सोचने पर विवश हो जाए । शायद ऐसा हो । ऐसी ही उसकी धारणा रही हो । वैसे भी हरेक युवक में किसी-न-किसी सुन्दर युवती के दिल का ख़याल बनने की जिज्ञासा होती ही है । यदि ऐसा है तो क्या वह इतनी अधिक सुन्दर है ? इस कदर खूबसूरत है कि वह भी झुक गया । शायद ऐसा ही है । यदि नहीं होता तो वह मॉडल ही क्यों बनती ? लोग तो उसे देखकर उसकी तरफ़ आकर्षित होंगे ही… ! सुधा ने ऐसा सोचा तो स्वत: ही मुस्करा पडी । सागर इतनी देर तक मौन सुधा के चेहरे को ही पढ़ रहा था । उसके मुख के आते-जाते, बदलते भावों को समझने का प्रयास कर रहा था, इसलिए उसकी अचानक से आई मुस्कान देखकर वह भी चौंक गया । फिर सुधा को टोककर उसने कह ही दिया,


" क्यों, क्या सोच रही हो ?"


“कुछ नहीं । कोई खास नहीं ! ऐसे ही कुछ याद आ गया था । " कहकर सुधा ने टालना चाहा ।
" क्या फिर वह मूर्तिकार तुम्हारे ख़यालों में आ धमका ? " सागर से जब नहीं रहा गया तो उसने कह डाला ।
“'मऩ में यदि संशय का कीड़ा पनप जाए तो बडी कठिनता से मर पाता है । ” सुधा ने गम्भीर होकर कहा तो सागर झेपकर चुप हो गया । थोडी देर को फिर एक बार दोनों के मध्य मौन छा गया । सुधा भी कुछ नहीं बोली । वह चुपचाप कार चलाती रही । मौन । शायद सागर की बात से उसका मन ख़राब हो गया था ।
कुछेक मिनट इसी प्रकार ख़ामोशिर्यों के मध्य ही व्यतीत हो गए । दोनों में से कोई भी कुछ नहीं बोला । सागर बाहर झाँक रहा था तो सुधा कभी-कभी कनखियों से उसके चेहरे को देख लेती थी ।




सुधा और सागर दोनों ही एक-दूसरे को पिछले काफी दिनों से जानते थे । दोनों ही एक शहर के रहनेवाले थे । बचपन से साथ नहीं थे, मगर फिर भी कॉलेज के "दिनो" से वे संग-संग ही थे । दोनों एक-दूसरे को बेहद प्यार भी करते थे । आर्थिक दृष्टि से सुधा की स्थिति मज़बूत थी, तो भी सागर उससे किसी भी बात में कम नहीं था । सुधा के पिता एक वकील थे और सागर एक व्यापारी का पुत्र था । वह बात दूसरी थी कि समय के बदलते हुए रुखों और परिस्थितियोंस्वरूप वह एक कलाकार बन गया था । पहनावे में भी सागर एकदम साधारण था । 'कुर्ता-पाजामा और कन्धों तक झूलते हुए उसके लम्बे बाल तथा सदैव उसकी दो कीर्तिमान आँखें, दूर अँधेरे की धुंध को चीरती . हुई प्रतीत होती थीं ।
सुधा और सागर दोनों एक-दूसरे को बेहद अच्छी तरह से जानते और समझते थे । किसी को भी 'एक-दूसरे से कोई भी शिकायत नहीं थी । दोनों ही एक-दूसरे की भावनाओं को समझते ही नहीं थे, वरन् क़द्र भी करते थे । इसी कारण वे दोनों जीवन के पिछले पाँच वर्षों से एक-दुसरे के सुख-दुख के संगी-साथी थे ।
सागर ने अचानक ही सुधा की बगल में किसी उपन्यास की प्रति पड़ी देखी तो उसने उठा ली । मगर तभी सुधा ने भी कार रोक दी, क्योंकि शहर से दूर इस अनोखे एकान्तमयी हरे-भरे वातावरण का यह उद्यान आ चुका था, जिसमें वे दोनों अक्सर आया करते थे । सरकार की और से भी इस उद्यान की देखरेख होती थी । इसको सुन्दर बनाने के प्रयास सदैव होते रहते थे । इस उद्यान में फूल-ही-फूल थे । अधिकांशत: सभी प्रकार के । गुलाब के भी फूल एक तरह से सभी रंगो में उपलब्ध थे । इस खामोश वातावरण में अधिकतर युगल-प्रेमी ही आया करते थे ।


" क्या देखने लगे ?" सुधा ने सागर को उपन्यास की प्रति पलटते देखा तो पूछ लिया ।
" यह किसका उपन्यास है ? " उत्तर में सागर पुस्तक का कवर पृष्ठ पलटते हुए बोला ।
"शरोवन का ।"
"कौन-सा ?"
"चरवाहा । "
"कैसा है ?”
"बहुत ही प्यारा । दुखों से भरपूर । दर्दभरा । प्यार की एक अनोखी ही कहानी है इसमें । बेचारा नायक दिलोजान से नायिका को पूजता रहा और वह उसको अँगूठा दिखा गई । ”
कहते-कहते सुधा स्वयं ही गम्भीर पड गई । सागर ने उसकी इस अचानक परिवर्तित मुद्रा को देखा तो तुरन्त कह बैठा, "इतनी अधिक गम्भीर हो जाती हो तो क्यों पढ़ती हो इन दर्दीले उपन्यासों को ?"
" इसलिए क्योंकि इसमें किसी को आपबीती का दुख-दर्द भरा हुआ है । ”
"वह किसका है ?"
"स्वयं लेखक का ।"
" ओह ! इसका मतलब है कि तुम 'शरोवन' की...? "
"केवल एक पाठिका हूँ । "
" और प्रेमिका ?”
" सागर की- अपने सागर की ।” कहकर सुधा ने भाव-विभोर होकर सागर का हाथ थाम लिया । बहूत प्यार से। अपना समझकर वह उसके और करीब सरक आई । फिर बड़े प्यार -से उसके कंधे पर अपना सिर रखकर बोली, " सागर !
" हाँ ' ।
"तुम क्या समझते हो कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ ?"
"नहीँ, ऐसी बात नही है ।"
" एक हसरत है तुम्हारे साथ अपनी जिन्दगी गुजारने की। वरना जमाने में है ही क्या ? मैं तो सोचती हूँ कि इस संसार में जिसका भी प्यार सफल हो जाता है, उसका उद्धार तो यहीं हो जाता है, नहीं तो दो बिछड़े हुए प्रेमियों ‘की दर्द व्यथाओं से भारत का साहित्य आज़ भी रिक्त नहीं है ।"
इस पर सागर भी गम्भीर हो गया । उसे सुधा बहुत-ही भावुक लगी । वह उसको ओर सम्बोधित होकर बोला,


" पर तुम क्यों चिन्ता करती हो ? पढ़ाई पूर्ण होते ही हम दोनों विवाह-सूत्र में बँध जाएँगे ।” कहकर सागर ने उसे अपने अंक में भर लिया ।






फिर दूसरे ही क्षण वे दोनों कार से नीचे उतर आए । 'साथ-साथ । 'एक-दूसरे का हाथ थामे हुए वे उद्यान में पड़ी बेंचों की और बढने लगे ।
वातावरण में हल्की- हल्की हवा की लहरें जैसे काँप-सी रही थीं । जगह-जगह प्रेमियों के युगल अपने-अपने प्यार की झूठी-सच्ची कसमे खाने में लीन थे ।
सुधा भी सागर के साथ एक एकान्त स्थान को देखकर बैठ गई । साथ ही सागर भी नीचे बैठकर अधलेटा-सा हो गया ।
"सुधा !" बैठे-बैठे सागर ने वार्ता आरम्म कर दी ।
हाँ!
"तुम्हारे वह ' स्टेच्यु एसोसिएशन ' के डायरेक्टर का क्या हुआ ?" सागर ने पूछा ।
"उनका एक पत्र और आ गया है, परन्तु मैंने अभी कुछ भी नहीं लिखा है ।" सुधा ने कहा ।
“फिर तुमने क्या सोचा हैं ?"
"अभी तक तो कुछ भी नहीं ।”
“वैसे तुम्हारा इरादा क्या है ?”
“मैं तो कुछ सोच नहीं पा रही हूँ । वैसे क्या करना चाहिए ? मैँ तुम्ही से पूछ रही हूँ ।"
" अपनी सहमति दे दो । हानि भी क्या है ? तुम्हारी मूर्ति बनेगी और साथ मेँ तुमको पचास हजार लाख रुपये भी मिलेगे । "
"वह तो ठीक है...मगर... "
" क्या ?" सागर ने आश्चर्य से कहा ।
“प्रतिदिन एक ही मुद्रा में कई-कई घण्टों तक एक गैर व्यक्ति के साथ एकान्त में बैठना ? बस इसी कारण से मैं कतरा रही हूँ । " सुधा ने अपनी परेशानी बताई ।
" अरे, ये तो तुम्हारा भ्रम है । कलाकार बहुत ही नेकदिल इन्सान होते हैं ।" सागर बोला ।
“वह तो सब ठीक है । फिर भी अभी तो काफी समय है ।"
"वह कैसे ?।
"जो मूर्तिकार मेरी मूर्ति बनाएगा, वह भी तो अभी नहीं आया है ।" सुधा ने कहा ।
"नहीं आया है तो आ जाएगा । वैसे मेरा सुझाव तो यही है कि तुम इस अवसर को ठुकराओ मत, क्योंकि इससे तुम्हें दोनों ही वस्तुएँ प्राप्त हो रही हैँ-शोहरत और दौलत भी । सागर ने उसे समझाया तो सुधा उसकी बात मानते हुए बोली,


" अच्छा , ठीक है । मैं कल ही लिख दूँगी और एसोसिएशन के डायरेक्टर आडवाणी से मिल भी लूँगी ।"



कुछेक पल दोनों के मध्य मौन छा गया । सुधा उद्यान में लगे फूलों को ताकने लगी तो सागर स्थान-स्थान पर बैठे हुए युगल-प्रेमियों को देखकर उनमें खो-सा गया । आकाश बिलकूल साफ़ हो गया था । वसन्त का मौसंम था । सूर्य धीरे-धीरे ऊपर चढ़ता जा रहा था । वृक्षों पर पतझड़ हो रहा था । कहीं-कहीं वृक्षों पर नई-नई कोंपलें भी फूटने लगी थीं । इन्सान की नई-नई आशाओं-आकांक्षाओं के समान ही जैसे उनमें नए दिन का प्रकाश-पुंज फूट रहा था ।
" अब की बार गर्मियों में कहाँ ले चलोगे ? " सहसा सुधा ने ही मौन को तोड़ा ।
"जहाँ तुम चाहो । " सागर बोला ।
"मेरी राय तो कुमाऊँ की घाटियाँ देखने की है । "
"तो ठीक है, अब की बार हम वहीँ चलेंगे । मगर कार तुम चलाओगी । ”
"वह क्यों ? " सुधा ने आश्चर्य से पूछा ।
"इसलिए कि पहाड़ी इलाकों पर मुझे 'ड्राइविंग ' अच्छी नहीं लगती है । ” सागर बोला ।
" अच्छी तो मुझे भी नहीं लगती है । टेढे-मेढें पहाड़ी मार्ग । एक और पहाड़, तो दूसरी ओर भयंकर घाटियाँ । अगर मैं कार लेकर नीचे गिर पडी तो... ? ”
"तो क्या ? साथ जी रहे हैं । साथ-साथ मर भी जाएँगे ।'
" सागर ने कहा तो सुधा उसकी इस बात पर मुस्कराकर ही रह गई । उसने कुछ नहीँ कहा । वह चुपचाप सागर को निहारने लगी ।
कहते हैं कि जहॉ प्यार होता है, वहॉ हदय स्वच्छ और साफ़ होता है । वहाँ शब्दों के आदान-प्रदान में वार्ता नहीं हो पाती । वहॉ तो केवल भावनाओँ से ही एक-दूसरे के मन की बात कह-सुन ली जाती है । यही दशा सुधा और सागर की भी थी । दोनों के हृदयों में एक-दूसरे के प्रति अपार प्यार था । असीम अपनत्व था । इसी कारण उनके मध्य केवल भावनाओं का दौर ही एक तीसरे वजूद के समान वार्ता का माध्यम बन जाता था । दोनों एक-दूसरे की दृष्टि में समा जाते । इस प्रकार कि कोई भी पलक नहीं गिरा पाता । यदि आपस में हाथ पकड़ लेते तो छोडने का कोई समय ही नहीँ होता । कहीं बैठ जाते तो उठने का ध्यान ही नहीं रहता । प्यार की बातें आरम्भ हो जाती, तो समाप्त ही नहीं होती और जब ये एक-दूसरे से बिछुड़ते तो दूसरे दिन मिलने का वायदा कर लेते । ऐसा था उनका प्यार । प्यार की भावनाएँ । भावनाओँ की कहानी कि दोनों दूसरे दिन जब तक एक-दूसरे से मिल नहीँ लेते, अपने को अधूरा ही प्रतीत करते रहते थे ।
सुधा और सागर अभी दोनों एक-दूसरे में ही खोए हुए थे कि उनको अचानक ही एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति, उसकी पली तथा एक लइकी को अपनी ओर बढते देखकर आश्चर्य करना पड़ा । जैसे ही वे लोग करीब आए, उनमें से तुरन्त उस अधेड पुरुष ने उन लोगों से सम्बोधित होकर कहा,


"ज़रा सुनिए । "
" ...? " सुधा और सागर ने उन सबको आश्चर्य से देखा । इस पर वह पुरुष, उसकी पत्नी और साथ में आई युवती तीनों ही सुधा को देखकर आश्चर्य से भर गये । वे तीनों ही उसका मुख देखकर फिर आपस में एक-दूसरे को प्रश्चसूचक दृष्टि से निहारने लगे । तब उस अधेड पुरुष ने सुधा से सम्बोधित होकर कहा, "अरे आप... आप तो ...?"
“ क्या ?" सुधा भी आश्चर्य से उठकर खडी हो गई ।
तब वह पुरुष जैसे बात को बदलकर बोला, "खैर छोडिए इसको । हाँ, वह जो यू.टी.एम. 5322 फिएट खड़ी है, क्या आपकी ही है ?"
“ जी हाँ, वह कार हमारी ही है । " सागर बोला ।
"' दरअसल हमारी गाडी यहाँ सड़क पर अचानक ही ख़राब हो गई है । हम लोग जयपुर से आए हैं । ये मेरी पत्नी और लड़की है । यहाँ हमारे लड़के की दुर्घटना हो गई है और वह अस्पताल में है । यदि आप लोगों को कोई कष्ट न हो तो कृपया हम लोगों को मिशन हॉस्पिटल तक छोड दें । ”
“ क्यों नहीं । ये तो हमारा सौभाग्य है जो किसी की सहायता करने का अवसर प्राप्त हुआ । ”


सागर ने कहा, फिर तुरन्त उठकर बोला,


" आइए, हम आप लोगों को छोड़ दें ।'
तब वे लोग तुरन्त उनके साथ चल पड़े । आगे की सीटों पर सुधा और सागर बैठ गए और पीछे वह पूरा परिवार बैठ गया । सुधा कार ड्राइव करने लगी और उद्यान से निकलते ही, उसने खुली सड़क पर आकर कार की गति बढा दी । इस प्रकार कि मार्ग के वृक्ष, मील के पत्थर आदि सभी कुछ द्रुतगति से पीछे भागने लगे । आकाश साफ़ था । सूर्य का गोला ठीक उनके सिरों के ऊपर टिका हुआ था, परन्तु फिर भी मौसम में शीतलता थी । हवा की ठण्डी-ठण्डी वायु की लहरें कार की खिडकियों से प्रविष्ट होकर उसमें बैठे हुए प्रत्येक के गालों से प्यार कर रही थीं । सुधा कार चलाने में लीन थी । सागर कभी सुधा को देखता था तो कभी गाडी मेँ बैठे उस पूरे परिवार को, जहाँ प्रत्येक के मुख पर एक अज्ञात भय की परत थी-दुख और विषाद की झलक थी । सुधा और सागर की उपस्थिति से अनभिज्ञ बना बैठा वह दुखी परिवार किन्ही दूसरी सोचों के दर्दों में शायद डूब चुका था ।
तभी वातावरण के मौन को तोडते हुए सागर ने 'साइड मिरर' में उस अधेढ़ पुरुष के चेहरे को देखते हुए पूछा,


" आपके लडके की दुर्घटना कहाँ पर हो गई थी ? '”
"यहीं इसी शहर में । अच्छा-भला आया था, परन्तु क्या मालूम था कि ऐसा भी हो जाएगा "
"मैं तो उसे आने के लिए मना कर रही थी, परन्तु मकान भी देखना था, और इन बच्चों के एडमीशन्स की भी बात थी, इसलिए चुप रही । " सागर के बोलने से पूर्व ही उस पुरुष की पत्नी ने कहा ।


तब वह कुछ आगे कहता कि तभी उसकी लड़की ने कहा,


"न जाने कैसे-कैसे निर्दयी लोग हैं । ज़रा भी देखकर गाड़ियां नहीं चलाते । ईश्वर करे कि इन लोगों के साथ भी ऐसा ही हो जिनकी वजह से मेरे भैया की दुर्घटना दुई हैं।"
सुधा चुपचाप सभी की बातें सुन रही थी । सुन रही थी और सोचती जा रही थी कि कही ये सब माँझीवाले एक्सीडेन्ट से सम्बन्धित लोग तो नहीं हैं' । पता नही क्यों ऐसा हुआ ? माँझी भी उसको अस्पताल में पहली वार देखकर बुरी तरह चौक गया था । और ये लोग भी उसको देखकर आश्चर्य से भर गए थे ।
इसी बीच सागर ने बात आगे बढ़ा कर पूछा,


" आप क्या कहीँ सर्विस आदि करते है` ? "
"हाँ ! मैं इरिगेशन में एस.डी.ओ. हूँ और जयपुर से स्थानान्तरित होकर यहाँ भरतपुर आया हूँ ।" उस पुरुष ने कहा ।
" क्या नाम है आपके लड़के का जिसकी दुर्घटना हुई है ?"
"राहुलनाथ 'माँझी' । बड़ा अच्छा मूर्तिकार है मेरा बेटा । ”
"... ? " सुधा की छाती पर अचानक ही पर्वत टूट पड़ा ।
इस प्रकार की कार का सन्तुलन तुरन्त बिगड़ गया ।
इससे पूर्व कि वह आगे जाकर फिर किसी दुर्घटना का शिकार होती, उसने कार के ब्रेक कस दिए । इस प्रकार कि कार चीं.॰.ई...ई...करती हुई सड़क की छाती पर रगड़कर रह गई । तुरन्त ही सब-के-सब घबरा-से गए । पीछे बैठे सभी लोगों ने एक साथ आश्चर्य से भयभीत होकर पूछा, ' क्या हुआ ? तबीयत तो ठीक है आपकी "?"
“ ?” सुधा कुछेक क्षण खामोश रही । फिर अपना सिर पकड़कर बोली, "कुछ नहीं ! ऐसे ही कुछ याद आ गया था। '
यह कहकर उसने कार पुन: चालू करनी चाही तो सागर ने स्टेयरिंग हाथ में पकड़ते हुए कहा,


'अगर तबीयत ठीक नहीं हैं तो मैँ ड्राइव करता हूँ । ' कहकर वह स्टेयरिंग के आगे बैठ गया और सुधा कार का दरवाजा खोलकर, दूसरी तरफ़ से उसकी बगल में आकर बैठ गई ।
कार फिर चल पड़ी, तो पीछे बैठा हूआ पूरा परिवार फिर आसक्त हो गया । परन्तु उनकी और से बेख़बर सुधा अपने में ही लीन हो गई थी । सोच रही थी कि क्या ऐसा ही होना था ? आज़ ही; इसी समय ? कार मेँ बैठा हूआ ये पूरा परिवार माँझी का ही सम्बन्धी है । उसके माता-पिता हैं, बहन है । यह सब क्यों हुआ ? क्यों उसके द्वारा माँझी की दुर्घटना हुई ? दुर्घटना भी हुई थी, तो क्यों उसका परिवार फिर उसकी गाड़ी की शरण में आ गया ? अब क्या होगा? क्या होगा जब इन्हें ये ज्ञात होगा कि माँझी की दुर्घटना का कारण यह लड़की ही है । इसी की वज़ह से उनके पुत्र की दुर्घटना हो गई । इस लड़की के भाई की टाँग टूट गई । ये सब सुनें और जानेंगे तो मेरे प्रति क्या-क्या नहीं कहेंगे ? बुरा-भला , उल्टा-सीधा, जो जी में आएगा, नहीं कहेंगे क्या? तब ऐसी स्थिति में इनके मन में बसी हुई मेरे प्रति सारी श्रद्धा, घृणा और नफ़रत में नहीं परिवर्तित हो जाएगी । यदि इन सबको यह पता चल जाए कि उनके बेटे को दुर्घटना करनेवाली लइकी इसी कार में है और वे सब उसी की कार में बैठे हैं । इसी कार की वज़ह से उनके लड़के की दुर्घटना हुई है, तो क्या सब-के सब नीचे नहीं उतर जाएँगे ? घृणा और नफ़रत से । शायद गाली-गलौज करते हुए । उस पर नाराज़ होते हुए, उससे क्या-क्या नहीं कहेंगे ?




सुधा चुप थी । सागर भी चुप था । पीछे बैठा पूरा परिवार भी मौन था । सागर चुपचाप कार चला रहा था । साथ ही वह कभी-कभी सुधा के मौन और चिन्तित चेहरे को भी देख लेता था । वह जानता था कि सुधा क्यों चुप है ? क्यों कार चलाते में माँझी का नाम आते ही, उसका स्टेयरिंग डगमगा गया था । इसी कारण वह भी चुप था ।
थोडी देर के पश्चात् कार मिशन हॉस्पिटल के गेट के बाहर आकर खड़ी हो गई । शीघ्र ही वे चारो लोग उतर पड़े, परन्तु सुधा अन्दर ही बैठी रही । वह सोच रही थी कि इन लोगों के साथ माँझी के समक्ष जाना ठीक नहीं है, क्योकि जब इनको ज्ञात होगा कि इसी लड़की के कारण उनके पुत्र की दुर्घटना हुई है तो सब पर क्या बीतेगी ? जाने क्या-क्या बुरा-भला बक देंगे ? हो सकता है कि माँझी स्वयं ही उनको मेरे बारे में अवगत करा दे । वही उनको सबकुछ स्पष्ट कर दे । इसी कारण वह कार के अन्दर ही रही, परन्तु जब उस अधेड़ पुरुष ने सागर को धन्यवाद दिया तो सागर उससे औपचारिकतापूर्ण बोला,


"चलिए, मैं आपको पहुँचा दू ! "
“ यह तो बहुत ही अच्छा रहेगा । " कहकर वह चलने को हूआ, मगर सुधा को कार में बैठा देख, सागर रुकते हुए बोला,


"चलो, तुम भी चली चलो ।"
"नहीँ, मैं यहीं ठीक हूँ । " सुधा ने टालना चाहा ।
“दीदी चलिए न, यहाँ तक आई हैं तो भैया के पास भी चली चलिए । वे आपको यूँ देखकर कितना अधिक प्रसन्न होंगे, मैं कह नहीं सकती ।' माँझी की बहन ने अनुरोध किया ।
“...?”
इस पर सुधा फिर मना करती, तभी उसकी माँ ने कहा, "बेटी, चली चलो न ! मेरा बेटा तुम्हें देखकर बहुत खुश होगा । "
".. ?" इस पर सुधा गम्भीर हो गई । साथ ही चकित भी । वह माझी की माँ की ओर सन्देहभरी दृष्टि से देखते हुए बोली,


" क्यों ? ऐसा क्या है मुझमें जो आपका बेटा मुझे देखकर बहुत खुश होगा ?"


" यह एक ऐसी बात हैं, जो आप कभी सोच भी नहीं' सकती हैं ।" माँझी की बहन बोली ।
"कैसी बात ? " सुधा और भी अधिक उत्सुक हुई, लेकिन इसी बीच वह अधेड पुरुष बीच में बात काटते हुए बोला,


"आपने हम लोगों की सहायता की है, बस यही एक विशेष बात है । मेरी पुत्री तो नाहक ही आपको सन्देह में डाल रही है । "
कहकर उस अधेड पुरुष ने जैसे नज़रों ही से अपनी पत्नी और पुत्री को आगे बोलने को मना किया, तब सागर ने बात आगे बढाई,


" अच्छा, अब सब चलो भी ।”
फिर विवश होकर सुधा को भी उसके साथ जाना पड़ गया ।
वार्ड में पहुँचकर सबने माँझी से भेंट की । उसकी टाँग पर प्लास्टर चढ़ चुका था । वह अपने सम्पूर्ण परिवार को सामने पाकर प्रसन्न हो गया । माँ अपने बेटे की बलैयॉ लेने लगी । पिता अफसोस कर रहे थे और उसकी बहन दुर्घटना करनेवाले को कोस रही थी । बुरा-भला बक रही थी ...कह रही थी ।
“कैसे निर्दयी लोग हैं ? कार में बैठ जाते हैं, तो बस समझते हैँ कि आकाश में उड़ रहे हैं । ”
सुधा चुपचाप सुने जा रही थी । मन-ही-मन अपनी करनी पर पश्चात्ताप भी कर लेती थी । सोचती थी कि क्या ही अच्छा होता कि यदि दुर्घटना नहीं होती ! नहीं होती तो क्यों उसे इस प्रकार अन्य लोगों की बातें सुननी पड़तीं ?
फिर जब माँझी को ख़याल आया तो उसने सागर और सुधा का परिचय अपने परिवारवालों से करवाया । वह सुधा की मन:स्थिति समझ चुका था । उसके मन की पीड़ा और चेहरे पर छाए हुए भय की छाया को वह स्पष्ट देख रहा था । सुधा चौंक पडी, जब उसने अपनी माँ से सुधा की ओर इशारा करके कहा, "'माँजी ! ये सुधाजी हैं; डॉक्टरी की पढाई कर रही हैं । एक्सीडेन्ट के पश्चात् यही मुझे अपनी कार में लेकर हाँस्पिटल आई थीं; और इनके साथ में जो हैँ, वे सागर हैं -इनके मित्र । ”
“बडी अजीब बात है ? यही लोग अपनी कार में हमको भी बैठाकर लाए हैं । हमारी कार तो बीच में ही ख़राब हो गई थी । " उसके पिता बोले ।
"लेकिन भैया, वह एक्सीडेन्टवाले का क्या हुआ, जिसने आपको टक्कर मारी थी ' माँझी की बहन ने पूछा ।


" मंजु, वह॰॰.वह तो भाग गया था । ” माँझी ने संक्षिप्त उत्तर दिया ।
यह सुनकर सुधा दंग रह गई । आश्चर्य किए बगैर न रही, फिर उसे माँझी के प्रति सोचना पड़ गया । उसने सोचा कि ये माँझी, यह युवक ? क्या वास्ता है इसका उससे ? केवल यही कि यह मेरी कार के नीचे आ गया था । फिर भी ये क्यों क़दम-क़दम पर अपने एहसानों का भार मुझ पर लादता जा रहा है । क्यों ये पग-पग पर झूठ बोलकर मुझ पर पड़नेचाली कीचड़ को बचा रहा है ? इसे तो मुझको और भी गालियाँ देनी चाहिए थीं । मुझे जेल में बंद करवा देना चाहिए था, मगर नहीं, इसने मुझे जेल जाने से बचाया । अपने परिवार के प्रति मेरे मान-सम्मान का ख़याल रखा । क्यों ये ऐसा कर रहा है ? इस प्रकार इसने एहसान और परोपकार की एक डगर और पार कर ली है । क्या कलाकार इतने ही कोमल दिलवाले होते हैं ? क्या इनके मन में इसी प्रकार दया, सहानुभूति और स्नेह भरा रहता हैं ? क्या ये शीघ्र ही दूसरों का दर्द महसूस कर लेते हँ ? यदि यह सच हैं तो सागर भी तो कलाकार है, परन्तु उसमें यह सब इतना कहॉ ? वह तो दूसरों से काफी भिन्न है ।
" अच्छा, अब हम लोग चलना चाहेंगे । " सागर ने आज्ञा माँगी, तो माँझी की माँ ने कृतज्ञ होकर कहा,


"बेटा ! हम तुम्हारे बहुत ऋणी हैं ओर विशेषकर बेटी तुम्हारे, जिसके सहयोग से मेरे पुत्र की जान बच सकी हैं । ”
“...?”
“ सुधा सुनकर भी चुप बनी रही । वह कुछ भी नहीं कह सकी ।
"कभी-कभी आ जाया करना आप लोग । " माँझी के पिता ने कहा ।
"हाँ-हाँ ! क्यों नहीं ! अब तो भेंट हो ही चुकी है । " सागर बोला ।
" और हम लोग भी अब यहीँ ही रहेंगे । अभी मकान तलाश कर रहे हैं । " माँझी की बहन मंजु ने कहा ।
इसके पश्चात सुधा सागर के साथ चली आई ।




बात आई-गई हो गई ।
'कई दिन व्यतीत हो गए । लगभग आठ माह । माँझी बिलकुल स्वस्थ हो गया, परन्तु वह इस वर्ष काँलेज में प्रवेश नहीं ले सका । सुधा और सागर भी इस घटना को अपने जीवन में एक अविस्मरणीय स्मृति समझकर मन में बसाए रहे । सागर के प्यार में सुधा माँझी को बिलकुल ही भूल गई । स्वाभाविक ही था, जब उसकी जीवन-नैया का माँझी हर पल उसके साथ था तो फिर वह किसी अन्य 'माँझी' के प्रति क्योंकर सोचती ? वह सामान्य हो गई । उसकी सारी अभिलाषाएँ सागर पर केन्दित हो चुकी थी ।
एक दिन सागर ने सुधा से पूछा,


' तुम्हारा वह ' स्टेच्यू एसोसिएशन ' का क्या हुआ ?"
“मैंने मना कर दिया है ।” सुधा ने स्पष्ट कहा ।
" क्यों ? ” सागर ने चकित होकर पूछा ।
”मुझे यह सब पसन्द नहीं था । एक गैर पुरुष के समक्ष इस प्रकार बैठूँ । "


सुधा ने अपनी विवशता बताई तो सागर भी क्षणभर को चुप हो गया, मगर तुरन्त ही बोला,


“ लेकिन इसमें तुमको पचास लाख मिलने थे और मूर्तिकार को शायद इससे भी अधिक । फिर भी...?”
" पैसा ही सब कुछ नहीं होता है, और भी बहुत-सी चीजें होती है- ज़माने में जीने के लिए, जिनको सुरक्षित रखना बहुत आवश्यक होता है ।" सुधा गम्भीर होकर बोली ।
इस पर सागर मौन हो गया । कुछेक क्षण दोनों खामोश रहे । फिर सुधा बोली,


"चलो, कॉफी पिएंगे । ” कहती हुई वह सामने एक रेस्टोरेंट में चल दी ।



फ़रवरी का माह था । वातावरण में हल्की सर्दी थी । शरद ऋतु समाप्त हो रही थी और वसन्त का मौसम जैसे आरम्भ हो गया था । वृक्षों पर भी पतझड की शुरूआत हो चुकी थी और प्रकृति के इस बदलते हुए वातावरण के साथ-साथ कॉलेज-जीवन में भी शान्ति छा गई थी । परीक्षाएँ पास आ रही थीं । विद्यार्थियों की चुहलबाजी, शोर-शराबा स्वत: ही बन्द होता जा रहा था, परन्तु सुधा और सागर की दिनचर्या पूर्वत: ही थी । बिलकुल भी दोनों के कार्यक्रमों में कैसा भी परिवर्तन नहीं आ सका था । दोनों समय पर मिलते । समय पर कॉलेज जाते और यथासमय अपने घूमने निकल जाते । आज भी वे दोनों संध्या समय रेस्टोरेन्ट में चले आए थे । परीक्षाओं की समाप्ति के पश्चात दोनों ने विवाह कर लेना सुनिश्चित कर लिया था । ऐसा था उनका प्यार । उनका आपस का मेल-जोल कि दोनों एक-दूसरे के लिए बने थे । जब तक दिन में वे एक-दूसरे से भेंट नहीं कर लेते, वे अधूरे ही रहते । प्यार की बातें करते तो समाप्त होने का नाम ही नहीं लेते` । एक स्थान पर बैठ जाते तो उठने का कोई समय ही नहीं होता । प्रतिदिन वे मिलते । साथ घूमते । साथ-साथ बातें करके जी बहलाते, परन्तु फिर भी दोनों को महसूस होता कि जैसे उनकी वार्ता अधूरी रह गई है ।



रेस्टोरेन्ट के अन्दर वे दोनों अभी कॉफी की चुस्कियाँ ले ही रहे थे कि अचानक से एक जानी-पहचानी शक्ल का व्यक्ति उनको प्रवेशद्वार में आते हुए दिखाई दिया । सुधा ने उसे तुरन्त पहचान लिया । वह माँझी ही था । बढ़ी हुई दाढ़ी, कपडे भी अस्त-व्यस्त-से, आँखों मेँ दूर तक छाई हुई खामोशी, जिन्दगी के अँधेरों में भी जैसे वे कुछ टटोल लेना चाहती हों । सुधा से नहीं रहा गया, तो वह तुरन्त माँझी के समक्ष आ गई । माँझी शायद इस अप्रत्याशित मुलाकात के लिए तैयार नहीं था । वह सुधा को यूँ एकदम से अपने सामने पाकर दंग रह गया । वह कुछ कहता इससे पहले ही सुधा उससे मुस्कराकर बोली,


"हलो मिस्टर माँझी ! '
इस पर माँझी उसे पहचानकर तुरन्त बोला,


"हलो ! लेकिन मिस्टर माँझी नहीं । केवल माँझी । ”


उत्तर में सुधा ने उससे नमस्ते की, फिर वह उसकी टाँगों को देखने लगी ।


इस पर माँझी उसकी और मुसकान के साथ बोला,


" घबराइए नहीं, अब यथास्थान जुड़ चुकी है । "
"चलिए, आपको सही-सलामत देखकर तसल्ली तो हुई । ” सुधा ने कहा । लेकिन थोड़ा उसकी और गम्भीरता से देखा, तब माँझी की परिवर्तित दशा और परेशान-सी हालत देखकर सुधा फिर बोली,


"इतने दिनों में इस कदर परिवर्तन ? खैरियत तो है ?"
तब माँझी ने कुछ नहीं कहा । बस चुप ही रहा । फिर वह सागर से भी मिला और उसके पास ही बैठ गया । सुधा भी बैठ गई और उससे जब नहीं रहा गया तो पुन: पूछ बैठी, "बिलकुल बदल-से गए हैं । कहॉ रहे इतने दिनों तक ?"
"मैँ तो वैसे बाहर ही रहा, कल ही आया हूँ । मगर.. "
"मगर.. मगर क्या ?” सागर ने कहा ।
"मेरे माता-पिता और बहन तो तब से यहीं रह रहे हैं । "
"यहाँ कहॉ रह रहे हैं ? " सुधा बोली ।
"सुरेन्द्र नगर मेँ।”
"और माँजी आदि कैसे हैं ?”
" आपकी कृपा से सब ठीक है, परन्तु पिताजी घर पर ख़ाली ही हैं । " माँझी ने जैसे निराश होकर कहा ।
"क्यों ,क्या बात है ?”
"उनको एक केस के सिलसिले मेँ निलम्बित कर दिया गया है । मंजु पढ़ रही है, और मैं तो आप जानती हैं कि टाँग के एक्सीडेन्ट के कारण कॉलेज में प्रवेश नहीं ले सका था । "
“हॉ, वह तो मैं समझ रही थी । वैसे कैसा है अब आपका पैर ? चलने-फिरने मेँ कोई अन्तर तो नही आया । " सुधा ने सहानुभूति प्रकट की ।
"नहीं कोई विशेष तो नहीं, पर थोड़ा फर्क तो पड़ता ही है । जैसे बगैर टूटी रस्सी, और गांठ लगी हुई रस्सी । ”
"मैं समझती हूँ रस्सी में गाँठ लग जाए तो कोई बात नहीं, पर दिल मैं गाँठ कदापि नहीं होनी चाहिए । "
"मेरा यह आशय नहीं है सुधाजी ! आप इसे अन्यत्र न ले। " माँझी बोला ।
" लेकिन मुझे बहुत दु:ख है, जब भी वह दिन याद आता है तो अपने किए पर बहुत पश्चात्ताप होता है । ' कहते हुए सुधा दु:खी हो गई ।
“आप तो मुझे शर्मिदा कर रही ही हैं । '
दोनों के मध्य बातों का सिलसिला अधिक बढ़ने लगा, तो सागर ने अपनी बात आरम्भ कर दी । वह विषय को बदलते हुए माँझी से बोला,


"वैसे इस समय आप क्या कर रहे हैं ?"


" फिलहाल तो कुछ भी नहीं । एक स्टेच्यू बनाने के लिए काफी अच्छा आँफर मिला हुआ है, लेकिन जिस माँडलर को चुना गया था, उसने अपनी अस्वीकृति दे दी है और अब जब कोई दूसरी माँडलर चुन ली जाएगी, तभी कार्य आरम्भ हो सकेगा । "
माँझी की इस बात को सुनकर सुधा यकायक ही चौंक गई । आश्चर्य से संशय के मध्य उसने पूछा, "यह आँफर आपको कहाँ से मिला है ? "
" एक ‘शालीमार स्टेच्यू एण्ड आर्ट एसोसिएशन ' है और उसका मुख्य कार्यालय इसी शहर में है । ”
“ ?” - सुधा की छाती पर अचानक ही धमाका-सा ही गया । इस प्रकार कि वह भीतर-ही-भीतर जैसे फूट गई । एक नज़र उसने माँझी को निहारा । उसके दाढ़ी से भरे चेहरे को देखा, फिर सोचा कि इतने दिनों के पश्चात उसने माँझी में अचानक से जो परिवर्तन पाया था, उसका एक कारण शायद उसके परिवार की आर्थिक स्थिति का डाँवाँडोल होना भी हो सकता है । साथ ही उसके पिता का निलम्बित होना । स्वयं माँझी के इलाज में भी एक अतिरिक्त ख़र्चा आया होगा । फिर मूर्ति बनाने के मिले-मिलाए अनुबन्ध का बेकार पड़े रहना ? उसे समझते देर नहीं लगी कि माँझी के परिवार की अन्य परिस्थितियाँ चाहे किसी से सम्बन्धित हों, परन्तु मूर्ति बनाने के लिए इस अनुबंध का बिना किसी भी ध्येय के स्थगित रहना । माँडलर का मना करना । इन सबके लिए कम-से-कम वह स्वयं दोषी तो है ही । यदि वह स्टेच्यू एसोसिएशन को अपनी स्वीकृति दे देती, तो अब तक कार्य आरम्भ हो चुका होता । माँझी को कम-से-कम कोई अग्रिम राशि भी प्राप्त हो जाती । इस प्रकार उसकी और उसके परिवार की आर्थिक स्थिति भी सुधर जाती । परन्तु वह यह सब कर नहीं सकी । क्या ही अच्छा हो यदि वह अपनी स्वीकृति दे दे और माँझी का कार्यं आरम्भ हो जाए । इस प्रकार कम से-कम वह माँझी की कुछ तो सहायता कर ही सकती है । वैसे भी उसके कारण माँझी को दुख ही मिला है । पहले दुर्घटना के कारण और अब उसकी असहमति के कारण । माँझी को क्या पता कि वह माँडलर और कोई नहीं, स्वयं सुधा ही है ।
सुधा ने इस प्रकार सोचा, तो उसने मन-ही-मन अपनी मूर्ति बनाने के लिए अपनी स्वीकृति दे देने का निर्णय कर लिया । वह इसी सोच में थी । माँझी और सागर चुपचाप उसकी मन:स्थिति से अनभिज्ञ अपने में खोए-से थे । माँझी कोई ठण्डा पेय पी रहा था, तो सागर कॉफी के घूँट भरता था । रेस्टोरेंट में कोई अधिक भीड़ भी नहीं थी । तीन-चार मेजें ही घिरी हुई थीं । सुधा की कॉफी ठण्डी हो रही थी, तभी सागर ने उसके कप को देखते हुए कहा,


"कहाँ खो गई ? कॉफी ठण्डी हुई जा रही हैं । "


सुधा ने सुना तो चुपचाप कॉफी पीने लगी । फिर उन दोनों से औपचारिक अभिवादन करके माँझी उठ गया और वे दोनों काफी देर तक कॉफी के बहाने अन्दर ही बैठे रहे । जब चलने का समय हुआ तो सागर ने उठते हुए सुधा से कहा ,


" सुधा ! "
“ क्या ?” सुधा ने बगैर उसकी ओर देखे ही पूछा ।
"तुम्हें कुछ माँझी अजीब-सा नहीं लगता ?"
“ क्या मतलब ?" सुधा आश्चर्य से एकदम ठिठक गई । तब सागर ने आगे कहा.


“ एक तो वह हर समय खोया-खोया-सा रहता है । दूसरा तुम्हें देखकर, ऐसा लगता है कि वह कुछ कहना चाहता है, परन्तु कह नहीं पा रहा है । मैंने चेक किया है कि वह अवसर मिलते ही तुम्हें चोर नज़रों से देखता रहता है । कहीं उसके मन में तुम्हारे प्रति कोई... ?"
"सब तुम्हारा भ्रम है । पुरुष हो न, इसीलिए तुरन्त दूसरों को देखकर उन पर सन्देह करने लगते हो । ” सुधा बोली ।
“मैं तुम्हारा रक्षक हूँ । यदि दूसरों की खोटभरी दृष्टि से तुम्हारी रक्षा नहीं करुंगा, तो कैसे चलेगा ?"
"तो ठीक है । रक्षक ही बने रहो । बिना वज़ह किसी की भावनाओँ पर सन्देह मत करो ।”
तब सागर बात बदलकर बोला,


" अच्छा, छोड़ो इस बात को । चलो फिल्म देखने चलते हैँ । ” इस पर सुधा ने भी हाँ कर दी और फिर वे दोनों फिल्म देखने चले गए ।
मिनर्वा टाकीज़ में 'किनारा ’ फिल्म चल रही थी । उन्होंने टिकटें लीं और अन्दर जाकर बैठ गए । सागर तो फिल्म देखने में लीन हो गया, मगर सुधा का मस्तिष्क टाकीज़ से बाहर आकर माँझी के लिए सोचने पर विवश हो गया । क्यों विवश हो गया ? वह क्यों उसके लिए सोचने लगती थी ? ऐसा क्या था माँझी में ? माँझी से उसका कौन-सा रिश्ता था कि सागर के रहते हुए भी वह कभी-कभी उसको अपने जीवन की कोई खोई हुई पतवार समझने लगती थी? क्यों माँझी बार-बार उसके ख़यालों में आ जाता था ? वह क्यों उसकी वज़ह से परेशान हो जाती थी ? क्यों उसको परेशान और तनहा-सा देखकर वह खुद भी बेचैन हो जाती थी ? सुधा ने बहुत चाहा कि अपने जज्बातों से उलझे बगैर उसके इन व्यक्तिगत प्रश्नों का उत्तर उसे किसी भी प्रकार प्राप्त हो जाए। मगर नहीं, उसने जब भी इस विषय में सोचा तो वह पहले से और भी अधिक उलझ गई । परेशान हो गई । कई बार चाहा कि वह माँझी का ख़याल अपने दिमाग़ से बिलकुल ही बाहर कर दे । उसके साथ घटित अनहोनी घटना को भूल जाए । वह भूली भी जा रही थी, परन्तु आज माँझी का यूँ अचानक से मिलना, उसकी गिरी और बिगडी हुई दशा को देखकर वह रो नहीं सकी थी, फिर भी तड़प अवश्य गई थी । इसलिए अब जब कि वह यहाँ आ ही गया है तो वह उसकी मदद भी कर दे, तो इसमें हर्ज ही क्या है ? किसी की भलाई ईमानदारी से करना कोई गुनाह नहीँ होता । उसके एक बार हाँ कहने भर से ही माँझी को बहुत सहारा मिल जाएगा । फिर स्वयं सागर ने भी तो कितनी बार उससे अपनी मूर्ति बनवाने और इस अनुबन्ध को पूर्ण करने के लिए जोर दिया है । बार-बार कहा है ?



इस प्रकार सुधा ने अपनी स्वीकृति देने का निर्णय ले लिया, तो उसे एक बार लगा कि जैसे उसकी डूबती हुई नैया को किनारा प्राप्त हो गया है । ठीक फिल्म 'किनारा' के समान ही उसकी भी परेशानियों, चिन्ताओँ का जैसे समाधान हो गया था । फिल्म समाप्त हुई तो दोनों अपनी कार मे बैठकर वापस चल दिए । रात का अन्धकार घना काला हो चुका था । सड़क वीरान थी । केवल सड़क पर फिल्म देखकर आनेवालों की ही भीड़ थी जो प्रतिपल कम होती जा रही थी । सारा शहर जैसे खामोश हो चुका था । सुधा चुपचाप कार ड्राइव कर रही थी । सागर भी मौन था । सुधा की कार जैसे ही शहर की बस्ती को समाप्त करके दूर नए निर्मित मकानों की ओर जानेवाली वीरान सड़क पर आई । उसने गति तीव्र कर दी । सरकार ने शहर की बढ़ती हुई आबादी को देखकर नए मकान शहर से बिलकुल बाहर बनवाए थे और इस नवनिर्मित मकानों की बस्ती का नाम भी 'नया नगर ' रख दिया था । इसी में सागर और सुधा के पिता ने एक-एक फ्लैट ले लिया था । इस कारण इस बस्ती और शहर के बीच में काफी सुनसान इलाका और वातावरण आ जाता था । दूसरा नदी का किनारा भी पड़ता था जो उस क्षेत्र की मशहूर नदी 'मक्रील' के कारण था । यही सब सोचकर सुधा ने अपनी कार तेज़ कर दी थी ।


अभी वह पुल को पार कर ही रही थी कि सड़क के मध्य में आड़ा खड़ा दुआ एक ट्रक देखकर अपनी कार की गति धीमी करनी पड़ी । यदि वह सही समय पर ब्रेक नहीं लगाती तो दुर्घटना भी हो सकती थी । सुधा ने ट्रक के आसपास निहारा तो उसे कोई भी व्यक्ति नज़र नहीं आया । ट्रक बीच में खराब था, ऐसी भी स्थिति उसे प्रतीत नहीं हो सकी । वह कुछ भी निर्णय ले पाती तभी सागर 'संशय के स्वर में बोला,


"कार को साइड से निकाल लो । "
सुधा ने चुपचाप कार को ट्रक के पीछे की और से निकालना चाहा, और जैसे ही कार आगे बढाई तो उसे फिर अपनी कार रोकनी पडी, क्योंकि उस और एक दूसरा ट्रक खड़ा दुआ था । पलभर में ही उसे समझते देर नहीं लगी कि किसी ने जानबूझकर सड़क का मार्ग रोकने के लिए ये युक्ति अपनाई थी । वह कुछ और सोच पाती तभी अचानक से चार पुरुषों ने उसकी कार को चारों और से घेर लिया. । उन सबके हाथों में कोई-न-कोई हथियार और रिवॉल्वर थी और चेहरे काले कपड़े से ढके हुए थे । राहज़नी करनेवालों ने उन्हें घेर लिया था । सागर और सुधा दोनों ही की भय के कारण बोलती बन्द हो गई । सागर ने परिस्थिति को समझकर सुधा से कहा, " अपना पर्स इन लोगों को दे दो । "
सुधा ने वैसा ही किया तो उन चार में से एक ने अटटहास करते हुए कहा, "खूब समझदार आदमी मालूम होते हो । "


कहकर उसने पर्स छीन लिया । मगर फिर बोला,


"गाड़ी में जो और भी माल है, उसे भी हवाले कर दो । "


इस पर सागर ने शान्त स्वर में कहा, "गाड़ी में और कुछ भी नहीं है । जो था वह हमने दे दिया है । चाहो तो हमारी तलाशी ले लो । "
“ अबे, इतना बढिया माल बगल में बैठा रखा है और कहता है कि कुछ भी नहीं है ।
'जुबान सँभालकर बात करना । " सागर से सुना नहीं गया तो वह क्रोध में कार का दरवाजा खोलकर बाहर निकलने को हुआ, मगर सुधा ने उसे रोक दिया।
" चल बे, निकल बाहर वरना...बड़ा धमेंन्द्र बना फिरता है...अभी पता चल जाएगा । ” एक ने उससे कहा तो सागर चुपचाप बाहर निकल आया । सुधा यह सब देखकर और भी भयभीत हो गई । असहाय होकर वह इधर-उधर देखने लगी, तो उसकी मन:स्थिति को भाँपकर वही युवक फिर बोला,


"इधर-उधर कोई नहीं है मेम साहब, चुपचाप बाहर निकल आओ । ”
“इधर-उधर कोई नहीं है, मगर पीछे तुम्हारा बाप खड़ा है । "
“ ...? ”
एक नई आवाज़ को सुनकर, वह युवक और साथ के दूसरे पुरुष भी चौंक गए । साथ ही सागर और सुधा भी आश्चर्य से उधर देखने लगे, जिधर अन्धकार में एक आकृति रिवॉल्वर लिए खडी थी ।
चारों बदमाश जैसे ही पीछे घूमने को हुए, तभी उस अनजान छाया ने अपनी कड़कती हुई आवाज़ में जैसे आदेश दिया,


"पीछे देखने की भी कोशिश मत करना, तुम सब मेरे निशाने पर हो । "
इस पर वे चारों युवक सहम गए ।
" अपने हथियार और रिवॉल्वरें फेंक दो और नीचे लेट जाओ । "
उस छाया ने फिर आदेश दिया तो चारों ने ऐसा ही किया ।रिवॉल्वरें फेंक कर वे भूमि पर लेट गए ।
उसके बाद उस अनजान, अँधेरे में छिपी आकृति ने आगे कहा, "मिस्टर सागर ! अब आप इनकी रिवॉल्वरें उठाकर कार में बैठिए । "
“.... ?”


सागर ने उस आकृति से अपना नाम सुना तो आश्चर्य करके रह गया । साथ में सुधा भी चौंक गई । लेकिन इस समय उन्हें उस अनजान युवक का आदेश पालन करना था, इसलिए सागर ने उनकी रिवॉल्वरें उठा लीं ।
" अब आप भी कार में बैठ जाइए । " उस अनजान युवक ने कहा ।
इस पर सुधा ने शीघ्र ही ड्राइविंग सीट खाली कर दी और सरककर दूसरी और बैठ गई । वह शायद ऐसी परिस्थिति में अब कार नहीं चलाना चाहती थी । तब सागर भी स्टेयरिंग के सामने बैठ गया । फिर वह अनजान काली छाया घीरे-घीरे उनकी कार की तरफ़ बढ़ी, मगर तभी सागर ने कार चालू कर दी और पीछे ड्राइव करके कार को बीच सड़क पर ही मोड़कर उधर ही चल पड़ा, जिधर से वे लोग आए थे । जब तक वह अनजान छाया उसकी कार की और बढ़ पाती कि अचानक से सागर ने कुछ और पुरुषों को सड़क के किनारे से ऊपर की और उठते हुए देखा तो उसने कुछ भी आगे-पीछे सोचे बगैर कार की गति बढ़ा दी । कार को अचानक से तीव्र होते देख उस अनजान काली छाया ने उसे पुकारा भी । उसे रोकने को कहा, मगर सागर ने सुनकर भी कार नहीं रोकी, क्योंकि वह अब सहज ही कोई दूसरा ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता था । पर सुधा ने आश्चर्य से सागर से कहा,


" अरे, उसे क्यों छोड़ दिया ? उसने तो हमें बचाया है? "
"पागल हो गई हो क्या ? शीघ्र ही हम पुलिस स्टेशन में सूचित कर देते हैं । वह युवक स्वयं ही अपनी मदद कर लेगा और यदि कुछ कम भी पड़ेगा तब तक पुलिस भी आ जाएगी । "
“ पुलिस, कभी और भी आई है समय पर ? मगर वह युवक क्या सोचेगा हमारे प्रति । जाने कौन था ? " सुधा एकदम परेशान होकर बोली ।
" कोई भी हो । इस समय मैंने वही किया है जो एक समझदार को करना चाहिए था । ” सागर ने कहा तो सुधा चुप हो गई ।
फिर पुलिस स्टेशन आ गया, तो सागर तुरन्त कार से उतरा, साथ में सुधा भी निकल आई । दोनों ने रिपोर्ट लिखवाई और जब पुलिस की जीप उनके सामने से चल दी तो वे निश्चिन्त होकर अपने घर वापस आ गए ।
उस रात सुधा एक पल को भी नहीं सो सकी । सारी रात उसके मस्तिष्क में वह घटना एक चलचित्र की माँति अपना प्रदर्शन करती रही । वह आकृति, एक अनजान आवाज़ मगर कुछ जानी-पहचानी-सी । हर क्षण उसके दिलो-दिमाग में शोर मचाती रही । उसने बार-बार सोचा, ' वह कौन था ? कौन था वह उसकी जानी हुई सी आवाज़ ? वह आकृति जो एक देवता बनकर उसके जीवन की रक्षा करने अचानक से आ गई थी । उसे सागर ने अकेला क्यों छोड़ दिया ? पता नहीं उसका क्या हुआ होगा ? न जाने उन बदमाशों ने उसे मार न डाला हो ! कौन हो सकता है वह ? वह हम दोनों को जानता था । नहीं जानता होता, तो क्यों सागर का नाम लेता ? ' सुधा सोचती थी और परेशान हो जाती थी । बार-बार इस घटना की स्मृतिमात्र से ही उसके रोंगटे खडे जाते थे । यदि वे बदमाश उसे पकड़कर ले जाते तो पता नहीं कैसा व्यवहार उसक साथ करते ? उसकी इज्जत-बेइज्जती करके शायद कहीं का भी नहीं छोड़ते? तब वह कहीं की भी नहीं रह पाती । समाज में अपना मुख भी नहीं दिखा पाती । ऐसै में वह अनजान युवक, उसके जीवन का हमदर्द बनकर अचानक से आ गया । नहीं आता तो अब तक तो शायद वह मर भी चुकी होती- यदि वह युवक उसे एक बार मिल जाए तो वह उसके पैर ही पकड़ ले । उसका आभार प्रकट कर दे, परन्तु सागर ने तो उसे वहीं छोड़ दिया था । उसे भी साथ मैं लाना चाहिए था । पता नहीं वह युवक उसके और सागर के विषय में क्या सोच रहा होगा ? कितना बुरा-भला कहता होगा वह अपने मन-ही-मन में । यही कि कितने स्वार्थी निकले ? अवसर मिलते ही यूँ अकेला छोडकर भाग निकले ।



रात काफी हो चुकी थी ।
रात्रि का दूसरा पहर आरम्भ हो गया था । आकाश में चन्द्रमा नदारद था । केवल छोटी-छोटी तारिकाएँ ही इस रात के काले अन्धकार को मिटाने के लिए अपनी जी-तोड़ कोशिश कर रही थीं । वृक्ष चुपचाप सिर झुकाए सो गए थे, परन्तु अपने जीवन की इस भयंकर घटना से भयभीत सुधा का नारी मन अब भी कभी-कभार काँप जाता था । उसके घर में उसके पिता सोए पड़े थे । चौकीदार बाहर गेट पर ऊँघ रहा था, तथा बस्ती के अन्य लोग भी नींद में पड़े सो रहे थे। सुधा अभी तक कमरे की छत को ताक रही थी । सोच और विचारों में उलझी पडी थी, तभी अचानक ही उसके फोन की घंटी बज उठी । उसने रिसीवर उठाया और माउथपीस मैं बोली, "हलो !"
"कौन सुधा ? " दूसरी ओर से आवाज़ आई ।
"हाँ ।”
“मैं सागर बोल रहा हूँ । "
"तुम ? " सुधा के कान अचानक ही ठिठक गए ।
"हाँ, अभी-अभी पुलिस चौकी से फ़ोन मिला है कि जिस युवक ने हम लोगों को बचाया था वह और कोई नहीँ, माँझी था । ”
" क्या ? माँझी ! " सुधा का दिल अचानक ही धड़क गया ।
इस प्रकार कि कौतूहलता में बिस्तर पर उठकर बैठ गई । तभी सागर ने आगे कहा, "हाँ, वह माँझी ही है और वह क्रिश्चियन हॉस्पिटल में घायल पड़ा है । शायद उसकी दशा ठीक नहीं है इसलिए पुलिस ने उसके समक्ष हम लोगों के बयान लेने के लिए अभी हॉस्पिटल बुलाया हैं । "
“चलो, मैं आती हूँ । " सुधा तुरन्त ही उठ गई ।


"तुम वहीं तैयार रहना । मैँ गाड़ी लेकर आ रहा हूँ । ” कहकर सागर ने फ़ोन रख दिया तो सुधा भी कपड़े पहनने लगी । लगभग दस मिनट में वह तैयार भी हो गई । फिर जैसे ही गेट के बाहर कार के रुकने की आवाज़ उसको सुनाई पड़ी तो वह घर में बिना किसी को भी सूचित किए ही सागर के साथ बैठकर चल दी । सड़क पर आते ही सागर ने कार की गति तेज़ बढा दी। दोनों के मस्तिष्कों में अभी तक ताजी घटना का चित्र था । आँखों में उदासी और दिलों में एक अजीब ही भय सिमट आया था । मगर इससे कहीं अधिक बढ़कर सुधा का हदय जीवन के किसी कठोर तमाचे के समान सत्य का एहसास करते ही घबरा जाता था । बार-बार वह यही सोचने पर विवश हो जाती थी कि पता नहीं क्या होगा ? ये माँझी फिर उसके मार्ग में आ गया । फिर उसने एक चार उसकी सहायता कर दी है । उसके एक एहसान से वह और दब गई । भगवान न करे कि 'माँझी को कुछ हो । उसे ईश्वर सही-सलामत रखे । जैसे माँझी ने उसके जीवन की रक्षा की है, ठीक बैसे ही परमेश्वर भी उसकी हिफाजत करे ।



फिर जैसे ही हॉस्पिटल के सामने सागर ने कार रोकी, तुरन्त ही दोनों विद्युत गति समान कार से उतर पड़े । हॉस्पिटल के बाहर पुलिस विभाग की दो जीपें और भी खडी र्थी । सागर ने उनके बाहर खडे हुए दो पुलिसकर्मियों में से एक से माँझी और पुलिस इन्सपेक्टर के विषय मैं पूछा और उनसे बार्ड नम्बर सात ज्ञात करके दोनों माँझी से भेंट करने जा पहुँचे ।



प्राइवेट वार्ड में माँझी का उपचार हो रहा था । वह बेहोश था और उसे रक्त चढाया जा रहा था । उसके सिर के पीछे के भाग में रक्तरंजित पटटी बँधी हुई थी। सुधा ने जैसे ही उसका यह हाल देखा तो उसकी चीख निकलते-निकलते बची । दिल अचानक ही बड़े जोर का धडक गया । उसकी आँखों में आँसू आ गए । गले में सिसकियाँ उभरती इससे पूर्व ही वह माँझी के पास जाकर खडी हो गई । माँझी को घायल अवस्था में देखकर उसका हदय भीतर-ही-भीतर रो पड़ा । मन उदास हो गया । आँखें भीग आई । तब वह अपने दिल से कहे बगैर न रुक सकी । उसने सोचा कि ये माँझी ? यह युवक ? यह मूर्तिकार ? क्या वास्ता है इसका उससे ? क्यों यह बार-बार उसके मार्ग में आ जाता है? आ जाता है तो अपने सुन्दर व्यक्तित्व के साथ-साथ अपनी महानता भी दर्शा जाता है । एक मानवता का प्रमाण क्यों दे जाता है ? क्या माँझी से उसका पूर्व जन्मों का कोई सम्बन्थ है ? यदि नहीं तो फिर क्यों उसका इससे बार-बार संपर्क हो जाता है ? क्यों टूटे हुए सिलसिले के छोर आपस में फिर से जुड़ जाते हैं ? क्यों ये बार-बार अनहोनी घटनाएँ टूटी हुई श्रृंखला की कडियों समान फिर एकत्रित होने का प्रयास करने लगती हैँ ? क्या माँझी पर उसका किसी पिछले जन्म का कोई ऋण बाकी है जो वह इस जन्म में अब इस प्रकार चुका रहा है? वैसे भी उसके द्वारा माँझी को कष्ट-ही-कष्ट प्राप्त हुए हैं । पहले कार की दुर्घटना के कारण लगभग छ: माह अस्वस्थ रहा । बिस्तर पर ही पड़ा रहा । जैसे-तैसे वह अभी कुछ स्वस्थ ही हो पाया था कि फिर यह घटना हो गई । घटना भी हुई तो उसी के कारण । इन सारी बातों का क्या अर्थ है ? विधाता के कौन-से भेद हैं, जिन्हे वह समझाना चाह रहा है, और वह समझ नहीं पा रही है । कार की दुर्घटना । माँझी का जान-बूझकर दोष अपने ऊपर ले लेना । मूर्ति बनने की अस्वीकृति के कारण उसके मिले-मिलाए अनुबंध का बेकार हो जाना...और अब ये दुर्घटना ? इन सारी बातों का क्या अर्थ है ? क्या उसके ही कारण माँझी के जीवन में दुखों के भण्डार पनपे हैं ? सुधा ने इन बातों पर जितना भी सोचा, उतना ही वह और उलझ गई । माँझी से उसे सहानुभूति हो आई । जिस पुरुष के साथ उसके जीवन के असाधारण, और कभी भी न भुलनेवाली घटनाएँ बार-बार आकर टकरा जाती हों, उससे अलगाव भी क्योंकर हो सकता है ? यही कारण था कि माँझी ने स्वत: ही उसके दिल में अपना एक विशेष स्थान सुरक्षित कर लिया था ।



कुछ ही मिनटों में वह जाने क्या-क्या सोच गई थी ? इस प्रकार कि उसे यह भी ध्यान नहीं रहा था कि पुलिस इन्स्पेक्टर सागर के बयान ले चुका था और अब उसकी बारी थी । इन्सपेक्टर ने उससे कई एक प्रश्न किए और कुछेक बातें पूछकर उसका भी बयान लेने के पश्चात् अपनी कार्यवाही बन्द कर दी । फिर उसने सुधा का पर्स भी वापस कर दिया, जिसे बदमाशों ने छीन लिया था और जिसको वह बदहवासी में घटनास्थल पर ही छोड़ आई थी ।
काफी देर तक सुधा और सागर हॉस्पिटल में ही बने रहे । माँझी के वार्ड के बाहर वे माँझी के होश में आने की प्रतीक्षा करते रहे । यह जानकर सुधा को और भी दुख हुआ कि सागर के द्वारा माँझी को कार मैं न बिठाने के कारण माँझी को बदमाशों के साथ हाथापाई करनी पड़ी थी । यदि ऐन वक्त पर पुलिस नहीं पहुँचती तो शायद इस समय माँझी इस संसार में नहीं होता । क्या ही अच्छा होता यदि सागर उसे कार में बैठा लाता । यह तो उसके भाग्य की ही बात थी कि अपने कलाकार स्वभाव के कारण माँझी रात के अन्धकार में भी नदी के किनारे बैठा-बैठा, अकेला शान्त जल की धाराओं को उस समय देख रहा था । वहॉ बैठा-बैठा भावनाओँ के दौर से गुज़र रहा था । अपनी कल्पनाओं में किसी चित्र को सजीव कर लेना चाहता था । उसी समय उसने सुधा की कार को बदमाशों के द्वारा घिरते देखा तो तुरन्त घटनास्थल पर आ गया और अपनी सूझबूझ से वह एक बदमाश की रिवॉल्वर छीनने में सफ़ल हो गया और इस प्रकार उसने सुधा और सागर की जान बचाई थी । माँझी ने यह बयान इन्सपेक्टर को बेहोश होने से पूर्व दिया था ।
डॉक्टर ने माँझी को होश मैं आने के पश्चात् पूर्ण आराम करने की हिदायत दी थी । उससे किसी को भी बात करने के लिए मनाही थी, अन्यथा सिर की घातक चोट के कारण उसकी स्मरणशक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ सकता था । इस कारण सागर ने सोचा कि यदि इस समय माँझी को होश आ भी गया, तो भी वे लोग उससे बात नहीं कर सकेंगे, सो वह सुधा को साथ लेकर वापस चल दिया । सुधा फिर भी माँझी को इस दशा में छोडकर कहीं भी नहीं जाना चाहती थी । मगर वह सागर के शक्की मिजाज के कारण अपने दिल की इस धारणा को चुपचाप ही कैद कर गई और सागर के साथ वापस घर लौट आई।
घर आई तो उसके पिता उसको वापसी की प्रतीक्षा कर रहे थे । चौकीदार ने उसके जाने की ख़बर उनको दे दी थी । आते ही सुधा ने जब सारी घटना दोहरा दी, तो वै भी माँझी के कृतज्ञ हो गए । साथ ही हैरान भी । तब दूसरी सुबह पिता के साथ उसने माँझी से भेंट करने का कार्यक्रम बना लिया । वे उसके कृतज्ञ थे, और उसे देखना भी चाहते थे ।



रातभर सुधा क्षणभर को भी नहीं सो सकी । आँखों में नींद थी, परन्तु इस नींद से बढ़कर कहीं अधिक उसका दिल बेचैन था । पलकें नींद के झोर्कों के कारण बोझल हो चुकी थी, परन्तु माँझी का ख़याल आते ही वह चिन्तित हो जाती थी । इस प्रकार आँखों में ही, बेचैनी के सहारे उसकी ये मनहूस रात कट गई । सुबह हुई तो उसने शीघ्र ही हाथ-मुँह धोया । हलका नाश्ता किया और फिर हॉस्पिटल जाने के लिए तैयार हो गई । साथ में उसके पिता भी जाने को तैयार हो गए ।



सुधा ने ड्राइवर को गाड़ी निकालने को कहा, फिर वह थर्मस में दूध तथा अन्य कई खाने के पदार्थ लेकर कार में जा पहुँची ।
जब वह माँझी के वार्ड में पहुँची, तो वहाँ पर उसके पूरे परिवार को देखकर आश्चर्य से गड़ गई । माँझी को होश आ चुका था, परन्तु वह अभी सो रहा था । सुधा का जब माँझी के माँ-पिता और बहन से सम्पर्क हुआ तो स्वत: ही उसके नजरें झुक गई । इस कारण क्योकि एक समय वह था जब उसने माँझी पर अपनी कार रौंद दी थी और ठीक इसी प्रकार उसका परिवार और वह एक दिन ऐसी ही स्थिति में यहाँ आए थे । तब भी उसी के कारण माँझी घायल हुआ था और आज भी उसी के सबब से वह इस घायल अवस्था मेँ बिस्तर पर पड़ा हुआ था । इसके परिवार में यदि माँ-बाप और उसकी बहन को यदि यह ज्ञात हो गया कि सब-कुंछ करने-धरनेवाली सुधा ही हैं । इसी लड़की के कारण उनके पुत्र का यह हाल हुआ है, तब क्या सोचेंगे वे ? पहले तो माँझी ने सब-कुछ छिपा लिया था, मगर इस बार? सोचने ही मात्र से सुधा का कोमल दिल किसी अज्ञात शंका और भय के कारण पथरा-सा गया । उसने अपने किए पर पछतावा आ गया, मगर इस समय, ऐसी स्थिति में वह रो भी तो नहीं सकती थी । कोई और स्थान होता तो वह रो भी लेती । अपनी भूल की क्षमा भी माँग लेती । उसे विश्वास है कि माँझी उसे अवश्य ही माफ़ कर देगा ।


“ अरे बेटी ! कहॉ खो गई ? वह तो बिलकुल ठीक हैं । केवल सो रहा है । भगवान का शुक्र है कि उसने मेरे पुत्र को बचा लिया । "
माँझी की माँ ने जब उससे ये शब्द कहे तो सुधा की तन्द्रा टूट गई । वह आश्चर्य से सबको देखने लगी ।


"बेटी ! मैं तुम्हारा बहुत ही एहसानमन्द हूँ कि तुमने फिर एक बार मेरे बेटे की जान बचाई है । "
“…. ?"
उसके पिता ने कहा तो सुधा और भी अधिक चौंक गई । उसकी समझ में कुछ नहीं आया । उसने कहना चाहा कि,


" लेकिन मैंने तो... ?"
" भैया ने हम लोगों को सब-कुछ बता दिया है, यदि आप भैया को घायल अवस्था में उठाकर हॉस्पिटल नहीं लाती तो न जाने वे बदमाश मेरे भैया का क्या कर डालते ?" मंजु ने उदास होकर कहा । "
"...?"
सुधा सुनकर दंग रह गई, तभी माँझी की मॉ ने आगे कहा,


"समझ में नहीं आता है कि ईश्वर की क्या लीला है ? वह क्या चाहता है ? पहले भी मेरा लड़का घायल हो गया था, न जाने वह कौन-सी मनहूस घड़ी थी कि जिसके कारण इसकी टाँग टूट गई थी । अभी ठीक से अच्छा भी नहीं हो पाया था कि अब ये बदमाशों से लड़ बैठा । बेटी, मैं किस मुँह से तुम्हारा धन्यवाद करूं पहले भी तुमने मेरे लड़के को बचाया था, और आज भी वह तुम्हारे ही कारण यहा समय पर हॉस्पिटल आ सका था ।"
माँझी की मा ने कहा तो सुधा का दिल अन्दर-ही-अन्दर गल-सा गया । तड़प गया । धड़कनों पर जोर पड़ गया । उसने सोचा, " इतना त्याग ? ऐसी महानता ! इतनी बड़ी नि:स्वार्थ भावना कि माँझी क़दम-क़दम पर अपनी मानवता का सुन्दर और श्रेष्ठ उदाहरण देकर उस पर ऋणों की गठरी लाद देता है । लोग तो प्यार की बातें करके भुल भी जाते हैं । अपने स्वार्थवश बेवफा बनते हैँ । काम निकल जाने के पश्चात् किसी को आँख उठाकर भी नहीं देखते हैं, परन्तु यहॉ तो सब-कुंछ विपरीत था । माँझी से उसकी भेंट एक अपरिचित के रूप में हुई थी । तब से वह हर पग पर अपना बनता जा रहा था । कदम-क़दम पर वह अपने गौरवशील और स्नेहभरे मापदण्ड छोड़ता जा रहा है । एक माँझी है जिसने उसकी प्रत्येक अवसर पर मदद की है । उसे हर तरह से अपनाया है ।बिना किसी भी स्वार्थ के । उपकार करके वह विलीन भी हो जाता है । कभी भूलकर सोचता भी नहीं है कि उसने कभी किसी की कोई सहायता भी की थी, और एक सागर है जो उसका अपना है । उसका अपना होने का दम भरता है । जिसके साथ उसके जीवन का कई वर्षों का साथ-साथ जीने का इतिहास लिखा हुआ है । वह माँझी को उस दशा में छोड़कर आ गया, जबकि स्वयं माँझी के कारण ही उसकी और सागर की जान बच सकी थी । उसने क्षणभर को भी यह नहीं सोचा कि उसके बचानेवाले पर क्या बीती होगी ? वह किस प्रकार अकेला उन चार-पाँच बदमाशों से लड़ सका होगा ? उसने कैसे अपनी हिफाजत की होगी ? '
सुधा ने इस प्रकार सोचा तो स्वयं ही उसका कोमल हदय ग्लानि से भर गया । सागर पर उसे क्रोध भी आया, परन्तु फिर भी प्यार के दिली जज्बातो और अपनत्वभरे सम्बन्धोंवश उसे बुरा भी नहीं कह सकी । बस सोचकर ही रह गई । माँझी के प्रति उसका दिल अपार सहानुभूति और एहसानों से भर गया ।
“ क्या सोचने लगी हैं ?" अधिक देर तक सुधा चुप रही तो मंजु ने उसे टोक दिया ।
" कुछ नहीं ऐसे ही कुछ याद आ जाता है । "
" आप चिन्ता मत करिए । भैया बिलकुल ठीक हैं । वह जल्द ही अच्छे हो जाएँगे । " मंजु ने उसके दिल की परेशानी महसूस की तो उसे तसल्ली दे दी ।
इसी बीच डॉक्टर आ गया तो सभी लोग खडे हो गए । उसने माँझी की नब्ज टटोली । चेहरे को देखा, मस्तिष्क पर हाथ फेरा । फिर जैसे प्रसन्न होकर बोला, "गुड ! वैरी गुड ! बहुत अच्छा, इन्प्रूमेंट है । आशा है, जल्दी ही अच्छा हो जाएगा, लेकिन आप लोगों को एक बात की विशेष सावधानी रखनी होगी । "
"कैसी सावधानी ? " सुधा आश्चर्य से बोली ।
"वह यह कि इनके सिर के पिछले भाग में इस क़दर चोट लगी हैं कि इस बार तो इसने बर्दाश्त कर भी लिया, मगर आगे फिर कभी ऐसी किसी भी चोट और झटके से इन्हे बचाए रखना होगा, वरना हो सकता है कि दूसरी ऐसी कोई भी चोट से इनकी आँखों की रोशनी चली जाए या स्मरणशक्ति ही खो जाए । "
“... ? ”
डॉक्टर की इस बात पर सभी हैरान-से हो गए । वे सब एक-दूसरे का मुख देखने लगे ।
उसके पश्चात् डॉक्टर अन्य हिदायतें देकर चला गया तो तभी अचानक से सागर आ गया । तब सुधा उसको आश्चर्य से देखने लगी । सागर ने आते ही जैसे शिकायत-सी की । वह बोला, " आई थी तो कम-से-कम मुझे तो साथ ले लिया होता । "
"तुम सो रहे होंगे, इस कारण मैंने जगाना उचित नहीं समझा । " सुधा ने कहा ।
"फ़ोन कर लिया होता ? "
"इतनी फुर्सत ही नहीं मिली थी ।"
"फुरसत ?" सागर ने उसके शब्द दोहराए, फिर क्षणिक क्रोध में बोला,


"ऐसी कौन-सी शीघ्रता थी तुमको, जो मुझसे कहने का समय ही नहीं मिला ?”“


"तुम स्वयं समझदार हो । खुद भी सोच सकते हो कि मुझे क्यों जल्दी थी ?" सुधा ने कहा तो सागर मौन हो गया । उसने आगे कुछ कहना चाहा, लेकिन उससे पूर्व ही माँझी ने आँखें खोल दी । इस प्रकार दोनों के मध्य की वार्ता समाप्त हो गई और सभी का ध्यान माँझी पर केंद्रित हो गया ।
“मुझे बहुत दु:ख है कि ऐन वक्त पर मैने आपका साथ छोड़ दिया था।” माँझी को देखकर सागर ने आत्मीयता से कहा । इस पर माँझी ने एक पल सबको देखा । सुधा को देखा । फिर बीला,


" कोई बात नहीं, ऐसे वक्त पर आपने वही किया जो करना उचित था, वरना हो सकता था किकोई अप्रिय घटना घटित हो जाती । ”
इस पर सागर कुछ नहीं बोला । वह चुप ही रहा । माँझी के पिता, माता और बहन उन दोनों के आने पर स्वयं ही बाहर चले गए थे । वे शायद उनको वार्तालाप में कोई विघ्न नहीं डालना चाहते थे । सुधा भी चुप थी । सागर की उपस्थिति के कारण वह कुछ भी नहीं कह पा रही थी । दिल में ढेरों-ढेर बाते थी । एहसान था । माँझी की वह दिलोजान से कृतज्ञ थी । माँझी स्वयं भी सुधा की मन:स्थिति को महसूस कर रहा था । इस कारण उसने भी सुधा को छेड़ना उचित नहीं समझा ।
"वैसे आप यूँ अचानक से आ गए । वहाँ नदी के पुल पर इतनी रात में ? ” सागर ने बातों का सिलसिला दूसरे रूप में आरम्भ किया तो माँझी चौंक गया । साथ ही सुधा भी सागर को आश्चर्य से घूरने लगी । उसने सोचा कि माँझी से सागर को इस प्रकार का प्रश्च नहीं करना चाहिए था । वह क्या सोचेगा ? वह इसी सोच में थी कि माँझी ने कहा,


"दरअसल मैँ अपने स्वभाव के मुताबिक अकेली, वीरान और सन्नाटों से भरी जगहों पर खामोश बैठने का आदी हूँ । कल रात भी मैं आप लोगों से मिलने के पश्चात् नदी के किनारे विचारों में गुम था, तभी ये घटना घट गई । मैंने मौका देखकर एक बदमाश की रिवॉल्वर छीन ली थी । ईश्वर का शुक्र है कि आप लोग भी ठीक-ठाक हैं, और मैं भी सही-सलामत बच गया । वरना... "
"...? “
सागर मौन हो गया । सुधा भी माँझी को चुपचाप निहारने लगी । फिर तुरन्त ही सागर से बोली,


"तुम भी तो आर्टिस्ट हो और आर्टिस्टों का स्वभाव क्या होता है, ये तुम्हें तो ज्ञात होना ही चाहिए ।"
“हूँ ... " सागर इतना ही कह सका ।
तभी सुधा के पिता और उसके चाचा भी आ गए तो दोनों के मध्य हुई बातचीत स्वयं ही समाप्त हो गई ।
सुधा ने एक-एक करके सबका परिचय माँझी से करवाया । माँझी ने भी अपने परिवारवालों का परिचय सुधा के पिता और चाचा से करवाया । इस प्रकार


उस दिन की ये भेंट समाप्त दो गई । सुधा अपने पिता के साथ घर आ गई । सागर भी लौट आया और माँझी को भी दूसरे हीं दिन अस्पताल से छुटूटी दे दी गई । उसके सिर के अतिरिक्त कोई अधिक चोटें तो लगी नहीं थी । पुलिस ठीक समय पर पहूँच गई थी, जिसके कारण सारे बदमाश तुरन्त भाग गए थे ।
सुधा घर आई तो सारे दिन माँझी के प्रति सोचती रही । सोचती रही कि ये कौन-सा युवक है ? इसका उससे क्या सम्बन्ध है ? ऐसा पुरुष...ऐसी भेंट …जो हर बार, हर मोड़ पर आकर उसके दिल मैं एक अमिट छाप छोड़ जाती है । इससे वह न अधिक प्यार कर सकती है और न ही प्यार करने से नकार सकती है । माँझी क्यों उसे मिल गया था ? अनजाने सफर में, एक अनजान अपरिचित से भेंट के दौरान वह उसके जीवन में आया था । भेंट भी ऐसी कि वह उसकी मृत्यु का कारण भी बन सकती थी । तब से माँझी एक अनभिज्ञ अपरिचित होकर भी उसके दिलो-दिमाग पर छाने की कोशिश कर रहा है । हर मोड़ पर । प्रत्येक घटना पर । घटनाएं भी ऐसी कि जिन्हें वह सहज ही भुला भी नहीँ सकती है । क्या माँझी से उसका पूर्व जन्मो का कोई रिश्ता है ? यदि हाँ, तो समय बता ही देगा और नहीं तो उसके प्रति सारी बातें, सभी घटनाएँ यादों के एक कोने में जाकर सदा के लिए चुपचाप जाकर, बैठकर मौन हो जाएगी ।




सुधा के कुछेक दिन इसी ऊहापोह में व्यतीत हो गए । काफी दिनों तक वह माँझी के प्रति सोचती रही । अपनों के साथ घटित बातें मनुष्य सहज ही भुला नहीं पाता है । यही हाल माँझी के प्रति सुधा का भी था । वह उसका अपना नहीं था, मगर पराया भी तो नहीं कहा जा सकता था । यही कारण था कि माँझी का स्थान उसके हदय में एक सम्मानित युवक के रूप में विराजमान हो चुका था । सागर उसका अपना था और माँझी उसके और सागर के बीच के सम्बन्धों की वह कड़ी बन गया था कि जिसे वह न निकाल सकती थी और न ही साथ रख सकती थी । इतने दिनों तक वह माँझी से दो बातें करने के लिए भी इच्छुक थी, 'क्योंकि यह स्वाभाविक ही था कि जिस मनुष्य के कारण उसका जीवन सुरक्षित था, उसके प्रति आभार प्रकट करना भी अति आवश्यक था । कृतज्ञताभरे दो बोल वह माँझी से अस्पताल में भी कह सकती थी, मगर सागर की उपस्थिति के समक्ष उसे यह सब अनुचित लगता था, क्योंकि वह सागर के स्वभाव को भली-भांती जानती थी । फिर दो पुरुषों के मध्य एक स्त्री को किस प्रकार समायोजन करना चाहिए, यह वह अच्छी प्रकार जानती ही नहीं वरन् महसूस भी करती थीं । यही कारण था कि वह आज तक माँझी से अवसर न मिलने के कारण अपना आभार भी नहीं दे सकी थी ।




एक दिन सुधा ने इन सब बातों पर सोचा तो उसे माँझी के प्रति चिन्ता हो गई । माँझी हॉस्पिटल से दूसरे दिन ही डिस्चार्ज कर दिया गया था । मगर तव से उसने एक बार भी उसका हाल नहीं जाना था । एक बार भी वह उसके घर नहीं गई थी, जबकि उसके सारे परिवारवालों ने उसे आमंत्रित भी किया था । सुधा ने कई बार मौका निकालना चाहा । कार्यक्रम बनाया, मगर ऐन वक़्त पर सागर उसके मध्य बाधा बनकर आ जाता था । कई बार स्वयं सागर ने ही उसके कार्यक्रम रद्द कर दिए और उसको किसी-न-किसी बहाने कहीँ अन्यत्र ले जाकर टाल देता था । इससे साफ़ जाहिर था कि सागर कतई नहीं चाहता था कि सुधा माँझी से मिले-जुले । इतना सब-कुछ होने के उपरान्त भी वह अपने दिल की बातें दिल ही में रख रही थी । सागर से वह चाहकर भी कुछ नहीं कह सकी थी । वह नहीं चाहती थी कि माँझी को लेकर कोई ऐसी अप्रिय बात उसके और सागर के मध्य उत्पन्न हो जाए, जिसके सबब से उनके मध्य सम्बन्धों को टूटनेवाली दरार बन जाए । वह तो इतना भी सोचती थी, मगर सागर ? वह इससे कहीँ अलग ही निचले स्तर पर सोचता था । सोचता था और परेशान होता था । स्वयं अपना चैन खोता था, साथ ही सुधा की भी शान्ति समाप्त कर देता था । वह यह नहीं जानता था कि सामाजिक व्यवहार, आपसी मिलना-जुलना एक अलग चीज़ है, और घर के रिश्ते अपनी जगह पर हैं । दोनों को साथ रखकर एक ही स्थान पर उपयोग करने से कभी भी अलगाव की स्थिति आ सकती है । सुधा इन सारी बातों को समझती ही नहीं बल्कि साथ-साथ उनको गहराइयों से भी वाकिफ़ थी । इसी कारण वह कभी भी ऐसा कुछ नहीं होने देती थी कि पलभर में ही कोई बिगड़ने जैसी स्थिति उत्पन हो जाए और वह कही की भी न रहे ।
फिर एक दिन जब सुधा को कोई और अवसर नहीं मिला तो वह स्वयं ही माँझी के घर चल दी । सागर को बिना बताए । उसने अपनी कार निकाली और अकेली हीं ड्राइव करके चलने लगी । माँझी का पता उसे ज्ञात था ही, इस कारण उसको कोई अधिक कठिनाई भी उसका घर दूँढ़ने में नहीं हुई ।
शाम का समय था । सूर्य का गोला लाल होकर क्षितिज के गर्भ में समाता जा रहा था । ऐसे में ही सुधा ने अपनी कार माँझी के घर के सामने जाकर रोक दी। मंजु ने अपने घर के सामने सुधा को कार से निकलते देखा, तो तुरन्त ही उसने सबको सूचित कर दिया । प्रसन्नता में वह शीघ्र ही घर से बाहर आकर सुधा के पास आ गई । सुधा से औपचारिक नमस्ते आदि करने के पश्चात् वह उसे अपने घर में ले आई । मंजु ने तुरन्त सुधा को अपने पिता और माँ से मिलवाया । फिर वह उसे लेकर माँझी के कमरे में गई । परन्तु वहाँ उसे न पाकर आश्चर्य से बोली,


" भैया कहाँ चले गए ? अभी-अभी तो यहीं थे? ”


“पता नहीं । तुम लोगों को देखते ही जाने कहाँ चला गया अचानक से ?” मंजु की माँ बोली ।
सुधा ने सुना तो आश्चर्य किए बगैर न रह सकी । वह जिससे भेंट करने आई थी वह उसे देखते ही चला गया । क्यों ? ऐसा क्या कारण है ? क्या माँझी को उसका आना अच्छा नहीं लगा ? क्या वह उसे देखकर प्रसंन नही हूआ ? क्या मेरे यहाँ आने से उसका कोई विघ्न पड़ता है ? सुधा इन तमाम बातों को सोचें बगैर नहीं रह सकी । मंजु चाय बनाने की तैयारी कर रही थी और साथ-साथ चलते-फिरते सुधा से बातें भी करती जा रही थी ।


मंजु की माँ ने सुधा को बैठने के लिए कहा तो वह अभी आई कहकर माँझी के कमरे की वस्तुओ को निहारने लगी । सामने मेज़ पर माँझी की गम्भीर फ़ोटो फ्रेम में मढ़ी हुई रखी थी । दूर-दूर तक अँधेरों को चीरकर प्रकाश की खोज में ताकती हुई आंखे । आँखों में दुनिया-जहान का दर्द । जिन्दगी की ठोकरों, धचकों के चिन्ह ? लगता था कि जैसे इस आदमी ने जीवन को बहुत करीब से देखा है । जाँचा है । परखा है । इसी कारण उसके अन्दर का कलाकार आज़ तक जीवित है । भीतर का मनुष्य मर नहीं सका है । सुधा ने वहाँ से दृष्टि हटाई तो वह कमरे की अन्य वस्तुओ में खो गई । कोने में एक स्टूल पर माँझी के हाथ की बनाई कोई स्त्री की अर्धनग्न मूर्ति रखी थी । बड़ी ही आकर्षित-चील और बाज जैसे पक्षियों के द्वारा उसका चीरहरण हो रहा था और वह स्त्री अपने हाथ फैलाकर अपने बचानेवाले को पुकार रही थी..., जैसे द्रोपदी को बेपर्दा करने के लिए दुर्योधन फिर जीवित हो चुका था ।
सुधा बड़ी देर तक माँझी के कमरे के आकर्षण में खोई रही...सोचती रही ...विचरती रही कि, कितना महान् है ये पुरुष ? कितना अधिक...किस कदर ऊँचा? मनुष्य के जीवन की गहराइर्यों के हर किरदार को उसकी आँखें कितनी बारीकी से देखती हैं । कितनी पैनी दृष्टि है उसकी । कितना सही अन्दाज़ है उसका तौलने का । वह माप है, उसका, मनुष्यता को देखने का कि बेजान मूर्ति में भी जैसे जीवन के कण पाए हुए प्रतीत होते हैं ।


माँ ने उसे पुकारा तो वह उनके पास चली आई । मंजु ने पहले ही कुर्सी लाकर रख दी थी । उसकी माँ बरामदे में बैठी संध्या की सब्जी काट रही थी । सुधा हल्का-सा मुस्कराती हुई माँ के सामने आकर बैठ गई । माँझी की अनुपस्थिति बार-बार उसे घर मेँ ताक-झाँकने को विवश कर उठती थी । मंजु ने उसके दिल की स्थिति का जायज़ा लेते हुए कहा,


" पता नहीं, भैया कहां चले गए ? ”
" अभी तो वह यहीं था । ” माँ ने कहा ।
"हाँ थे तो मगर इनको आते देख तुरन्त ही न जाने कहाँ चले गए हैं ?" मंजु बोली ।


” क्या मेरे आते ही चले गए थे ?" सुधा ने आश्चर्य से पूछा ।
"हॉ । लगता तो यही है । जैसे ही आपकी कार बाहर रुकी तो मेरे साथ-साथ उन्होंने भी आपको कार से उतरते हुए देखा था । फिर मैं चाय बनाने में लग गई, इसी बीच वह न जाने कहाँ खिसक गए ?“
“...? "
सुधा इस बात पर कुछ भी नहीं बोली । मंजु की बातों से वह सारी स्थिति समझ गई । माँझी उसे आते देख ही चला गया था । क्यों ? उसने मन मे सोचा कि क्या वह मुझसे मिलना नहीं चाहता था ? क्या मेरा उसके घर यूँ अचानक से आना उसे पसन्द नहीं है ? क्या मुझसे कोई भूल हो चुकी है ? अथवा सागर ने उससे कुछ भी मेरे विषय को लेकर कहा हो और क्या कारण हो सकता है ? मैं उसके घर आई हूँ । ऐसे में तो उसे यहीं होना चाहिए था । फिर क्या बात है‘? सुधा माँझी का अपने प्रति अलगाव देखकर इन समस्त बातों को सोचे बगैर नहीं रह सकी । अवश्य ही उसके दिल में मेरे प्रति कोई ग़लतपहमी है । नहीं होती तो उसकी ये रुखाई ? मेरे प्रति कोई दिलचस्पी नहीं ? उसका मुझे यूँ 'इगनोर' कर देना ? ये सब क्या है ? बिना उससे मिले, बात करें कुछ भी नहीं ज्ञात होना था । पहले तो शायद वह उससे भेट करने में टाल भी जाती । मगर उसका ये परायापन देखकर वह माँझी से तुरन्त मिलने के लिए बेचैन हो गई । तुरन्त ही उसने मंजु से पूछा, "वैसे इस समय कहाँ जाते हैं तुम्हारे भाई ?”
"नदी पर । चुपचाप बैठने के लिए । ” मंजु ने चाय की ट्रे रखते हुए कहा । सुधा ने आगे कुछ भी नहीं कहा । उसने चुपचाप चाय का प्याला उठा लिया और धीरे-धीरे सिप करने लगी । मस्तिष्क में उसके माँझी घूम रहा था । आँखों में बार-बार उसकी ही छवि उतर रही थी । वह शीघ्र ही उससे भेंट कर लेना चाहती थी । भेंट करके वह अपने मन का बोझ उतार लेना चाहती थी । नारी सब-कुछ सहन कर सकती है, परन्तु अपने प्रति किसी की भी आँखों में घृणा, नफ़रत और अलगाव की भावना नहीं देख सकती है । यही हाल सुधा का भी था । वह भी इसी ऊहापोह मेँ ऊपर-नीचे हो रही थी । माँझी ने उसका एक प्रकार से अपमान ही कर दिया था । सबकी दृष्टि में उसे गिरा दिया था । उसकी माँ, मंजु क्या सोच रहीँ होंगी ? कहीं उलटा उसे ही न गलत समझ बैठी हों? सुधा यही सोच-सोचकर परेशान हुई जा रही थी ।
माँ और मंजु उससे बातें करते तो वह केवल उनका हॉ-हूँ मेँ ही उत्तर देती । शीघ्र ही वह चाय पीकर समाप्त कर देना चाहती थी । मंजु उसकी मन:स्थिति का केवल अनुमान ही लगा रही थी कि सुधा को माँझी के बगैर अच्छा नहीं लग रहा हैं । वह न जानती थी कि उसके दिल में कोई तूफान भी उठ रहा है । माँझी के प्रति जैसे उसका हदय धीरे-धीरे कोई जला रहा हो । जलाकर राख कर देना चाहता हो ।




सुधा चाय पीकर शीघ्र ही उठ गई । मंजु ने उसे और रोकना चाहा, मगर वह एक आवश्यक कार्य का बहाना बनाकर चल दी । माँझी की माँ, और स्वयं मंजु उसे बाहर तक विदा करने आए । फिर सुधा उन दोनों को नमस्ते कहकर चल दी । बाहर सड़क पर आते ही उसने अपनी कार 'मक्रील' नदी के मुहाने की तरफ़ मोड़ दी...और गति तीव्र कर दी । वह अतिशीघ्र ही वहाँ पहुँच जाना चाहती थी । मक्रील के पुल पर आकर उसने कार रोककर देखा-नदी का जल अत्यन्त वेग से बह रहा था । मक्रील अपने पूरे जोश के साथ अपने यौवन पर थी । दूर बहुत आगे जाकर नाविक अपनी नावों को खे रहे थे, क्योकि वहाँ पर मक्रील चौड़ी हो गई थी और उसके जल की धाराओं का प्रभाव भी सामान्य था । सुधा की बेचैन दृष्टि अभी तक किसी को खोज रही थी । ऐसे ही में उसे नावों से और भी आगे एक छाया नीचे सिर झुकाए बैठी हुई प्रतीत हुई । उत्सुकता में वह ये भी भूल गई कि इसी नदी के पुल पर कई दिन पूर्व वह बदमाशों के चंगुल में फस गई थी, लेकिन अभी दिन था । शाम गहरा रही थी । थोडी ही देर बाद वही इलाका जो इतना मनोरम और शान्तिभरा महसूस हो रहा था, रात्रि के पड़ते ही कितना भयावना और असुरक्षित भी हो जाएगा, वह यह न जानती थी । सुधा ने दूर से ही माँझी को देखा तो उसने अपनी कार नदी के किनारे की कच्ची पटरी पर मोड़ दी ।
माँझी ने जैसे ही अचानक किसी कार के रुकने का स्वर सुना तो उसने घूमकर देखा । सुधा कार से नीचे उतर चुकी थी और वह उसी की और बढ़ रही थी । सुधा को यूँ अपनी ओर आते देख माँझी उठकर खड़ा हो गया और उसको आश्चर्य से देखते हुए पूछा बैठा,


" आप ? ”
"हाँ मैं ! माफी चाहूँगी कि मैंने अनायास आकर आपके विचारों की श्रृंखला को भंग कर दिया, मगर कुछ बात ही ऐसी थी कि मैँ अपने को रोक नहीं सकी, और यहॉ तक आना ही पड़ा । " सुधा ने एक ही साँस में कहा तो माँझी विस्मय से बोला, "ऐसी क्या बात है कि जिसके कारण आपको यहाँ तक आना पड़ा ?"
" एक बात बता सकेंगे आप मुझे ? " सुधा माँझी की आँखों-में-आँखँ डालकर बोली ।
“कैसी बात ?"
"मेरे आपके घर आते ही आप यूँ अचानक-से यहॉ क्यों चले आए ? क्या मैं इतनी... ? "


“नही, सुधाजी, ऐसी कोई भी बात नहीं है । " माँझी का स्वर अचानक ही उदासियों में डूब गया ।
"तो फिर ? सुधा उसी लहजे में बोली ।
"सुनना पसन्द करेंगी आप ?"
“ बेशक... ?" सुधा ने दृढ़ता से कहा ।
"सुधाजी, कुछ लोग इस कदर मनहूस हुआ करते हैं कि उनके शरीर की छाया भी यदि किसी पर पड़ जाए तो वह उसके बरबाद जीवन का कारण बन जाती है । मैं नहीं चाहता था कि मेरे कारण आप बार-बार दुर्घटना का सबब बनती फिरें। आप को कुछ हो ?"
"मिस्टर माँझी ! कैसी बातें करते हैं आप ? आपके सोचने का ढंग बहुत संकरा है, मगर.. ?"
"मगर ?"
"मेरे विचारों का दायरा आपसे बहुत अधिक विस्तृत है । मेरी दृष्टि में आप मेरे बार-बार दिए गए जीवन के आधार हैं, वरना अब तक तो मैं न जाने कौन-से संसार में खो चुकी होती । कभी-कभी मुझे स्वयं भी महसूस होता है कि मेरा जीवन कहीं आपके द्वारा दिए गए उधार का ऋण तो नहीं है? "
"सुधाजी, मैँ कोई ईश्वर तो नहीं, जो आप मुझे इतना अधिक सम्मान दे रही हैं । मैंने तो वही किया है, जो मैं कर सकता था । "
'... ? ' - सुधा खामोश हो गई, परन्तु उसके जी में आया कि कह दूँ कि नारी का भगवान तो उसका कोई पुरुष ही होता है और वह चाहे उसके पति के रूप में हो, अथवा प्रेमी, मित्र या रक्षक । कोई भी हो सकता है । मगर कह नहीं सकी । मन की इन कोमल भावनाओं के तूफान को वह भीतर-ही-भीतर दबा गई।


सुधा चुप थी । माँझी भी खामोश था । दोनों रह…रहकर एकदूसरे को देखते, फिर स्वत: ही मक्रील के जल की धाराओं पर अपनी दृष्टि केन्द्रीत कर देते थे। जैसे दोनों के दिलों में कोई तूफान था । ढेर सारी बातें थी । शिकायतें थी । आपस में उनके मध्य कितनी अधिक दूरियाँ थी, परन्तु जेसे वे बहूत क़रीब हो चुके थे। सुधा किसी की मँगेतर थी । सागर से उसका विवाह होना पूर्णत: निश्चित था ...और माँझी ? एक आवारा-सा । लापरवाह जिन्दगी । जिसे न अपना ख़याल था और न ही उसका, जो स्वयं उसकी भी परवाह करता हो । दोनों में किस क़दर असमानताएँ थीं, परन्तु परिस्थितियाँ बार-बार उन्हें एक ही स्थान पर किसी-न-किसी कारणवश मिलवा देती थी । हालात उन दोनों को दूँढ़-दूँढ़कर बार-बार मिलने को विवश कर देते थे । सुधा के दिल में ऐसे ही कुछ विचार थे । ऐसी ही बाते थी, तो माँझी के मस्तिष्क में भी कुछ ऐसे ही प्रश्न थे, परन्तु इन प्रश्नों का समाधान जैसे किसी के भी पास नहीं था । चाहकर भी वे वह नहीं कर सकते थे, जो वास्तव में होना चाहिए था और जिसके लिए परिस्थितियाँ भी उनका साथ दे रही थीं । उन्हें मिलाती थी । बार-बार-कहीं-न-कहीँ- होटल में- रेस्तरां में । किसी मोड़ पर- दुर्घटनावश अथवा किसी और बहाने से ।


अचानक फिर एक कार के रुकने का स्वर उन दोनों के कानों में पड़ा तो दोनों ही चौंक गए । दोनों के विचारों का ताँता भी टूट गया । घूमकर उन्होंने देखा तो सागर अपनी कार से नीचे उतर रहा था । सागर को यूँ अचानक से आया देख सुधा तुरन्त उसकी ओर आगे बढ़ी और माँझी के पास आने से पूर्व ही, वह सागर के सामने जाकर खडी हो गई । माँझी चुपचाप उन दोनों को देखता रहा । शायद सुधा नहीं चाहती थी कि उसको ले लेकर सागर और माँझी में कोई आपसी मतभेद हो जाए । कोई अनहोनी या अप्रिय बात बने । इसी कारण वह माँझी को तुरन्त छोड़कर सागर के पास जा खडी हुई थी ।
माँझी चुपचाप बुत बना उन दोनों को देखता रहा । साथ ही नाविक तथा नावों में नौकर-विहार करते हुए कुछेक युगलों की भी दृष्टि नदी के तट पर खडी हुई दो कारों की ओर केंद्रित हो चुकी थी । लगभग प्रत्येक निगाह, माँझी, सागर और सुधा को ताकने लगी थी ।
तभी सुधा और सागर मे न जाने क्या बाते हुई कि दोनों गम्भीरता से बातें करते हुए मक्रील के तट पर धीरे-धीरे चलने लगे । सुधा मक्रील के जल की और थी तो सागर उसके बगल में तथा माँझी चुपचाप मूर्खो समान तिरस्कृत-सा उन दोनों को अभी भी देख रहा था । सागर ने उसकी वह उपेक्षा की थी कि उसने क्षणमात्र भी उसकी और दृष्टि नहीं फेंकीं थी । संग में सुधा भी उसको देखकर काँटे में फंसी मछली समान उसकी और खिंची चली गई थी ।
माँझी से जब अधिक नहीं देखा गया तो वह बिना बताए वापस पुल की तरफ लौटने के ध्येय से चलने लगा । माँझी चला जा रहा था । सुधा ने उसे जाते हुए शायद देखा भी नहीं था ।
' कुछेक क्षणों के पश्चात् वह जैसे ही पुल की मुँडेर पर पहुँचा कि अचानक उसके कानों मे एक चीख-सी सुनाई पडी । साथ ही कई मनुष्यों का स्वर भी उसने सुधा और सागर की तरक आश्चर्य से निहारा तो देखकर उसका कलेजा मुँह को आ गया । उसे पलभर मे ही समझते देर नहीं लगी । सुधा मक्रील की विशाल धाराओं में डूबती-उतराती बही चली जा रही थी, और सागर किनारे पर खड़ा-खड़ा, हाथ हिला-हिंलाकर उसी को सहायता के लिए पुकार रहा था...शायद उसे तैरना नहीँ आता था । इसी बीच कई-एक नाविकों ने भी अपनी नावों के लंग़र खौल दिए थे । नौका में विहार करते हुए कुछेक बैठे हुए युगलों के साथ की नावें भी जल में बह रही सुधा को तरक ज़ल्दी-जल्दी बढ़ने लगी थीं, सुधा को पकड़ने के लिए और इसके साथ ही माँझी भी सुधा की और पहुँचने के लिए शीघ्रता से हाथ-पाँव चला रहा था । उसने भी 'पुल से ही मक्रील मेँ छलांग लगा दी थी ।
चूँकि मक्रील के जल की धाराओं का बहाव सुधा की और था, इसलिए माँझी को उस तक पहुँचने के लिए कुछेक मिनट ही लगे । सुधा के पास पहुँचकर उसने उसको पकड़ा, फिर एक हाथ से खींचता हुआ किनारे की तरफ़ बढ़ने लगा, परन्तु सुधा शायद बेहोश हो गई थी । इस कारण माँझी ने सुधा को अपनी पीठ पर लिटाया और तैरता हुआ दूसरे किनारे की तरफ़ बढ़ने लगा । शीघ्र ही उसने किनारे को पकड़ भी लिया । तब तक कई एक नावें भी उसके पास तक आ गई थी, मगर माँझी अभी कुछ दिन पूर्व ही इसी मक्रील के पुल पर बदमाशों के कारण घायल ही चुका था और अब पानी में से सुधा को निकालने के कारण उसको आवश्यकता से अधिक परिश्रम करना पड़ रहा था । जैसे ही उसने सुधा को दोनों हाथों में थामे हुए सागर के हाथों समर्पित किया कि तुरन्त ही उसकी आँखों के समक्ष अन्धकार छा गया । वह बेहोश हो गया । पास में खड़े अन्य नाविकों ने उसे सँभाल लिया । देखते-ही-देखते एक अच्छी-ख़ासी भीड़ वहाँ लग चुकी थी।


फिर वही पुरानी इमारत । वही स्थान । वही क्रिश्चन हॉस्पिटल, जहाँ पर माँझी आज़ तीसरी बार आया था । संयोग से उसे वही प्राइवेट वार्ड भी आज फिर मिला था, जहाँ से वह पहले भी दो बार स्वास्थ्य-लाभ ले चुका था, मगर आज वह अकेला नहीं था । आज उसका साथ देने के लिए सुधा भी उसके पास ही थी । दोनों को एक ही वार्ड में रखा गया था । आज माँझी का वह ‘कारण’ भी दुर्घटनाग्रस्त होना था कि जिसके सबब से वह पहले दो बार इस हॉस्पिटल में भर्ती हुआ था । पहली बार वह सुधा की कार के नीचे आ गया था । दूसरी बार वह सुधा को बदमाशों के चंगुल से बचाने के कारण और अब उसको उसने ये तीसरी बार मक्रील के गर्भ से निकालकर जीवन-ज्योति दी थी।


ये कैसा संयोग था ? कौन-सा आघात-प्रघात था । शगुन-अपशगुन था कि बिधाता बार-बार उसे सुधा के बहुत क़रीब पहुँचा देता था । स्वयं माँझी के कारण सुधा का जीवन ख़तरों से जूझता था अथवा सुधा को बचाने के लिए ईश्वर बार-बार माँझी को नियुक्त कर देता था । विधाता के इस भेद को कौन जानता था? शायद कोई एक भी नहीं? सुधा को होश पहले ही आ चुका था, पर माँझी अभी तक बेहोश ही था । साथ में दोनों परिवारों के परिचित तथा माँ-बाप, बहन तथा अन्य रिश्तेदारों आदि का पूरा एक हुजूम उनके वार्ड के बाहर प्रतीक्षा में दिल थामे खड़ा हुआ था । सभी के मुख पर माँझी और सुधा का ही जिक्र था । जितने मुख उतनी ही बातें भी थीं ।



थोड़ी देर बाद जब माँझी को भी होश आ गया तो सभी के चेहरे प्रसन्नता से खिल उठे । तुरन्त ही सुधा और माँझी को उनके परिचितों ने चारों और से घेर लिया और सागर चुपचाप एक ओर सुधा के पास खड़ा था । फिर औपचारिक बातों का सिलसिला जब कुछ सामान्य हुआ तो सुधा ने लेटे-हीँ-लेटे कनखियों से माँझी को ओर देखा । जैसे ही उससे दृष्टि मिली तो जाने क्यों उसके दिल में एक टीस-सी उठकर रह गई । जैसे कटे हुए घावों को किसी ने दु:खा दिया हो । दिल पर जोर पड़ गया हो । आँखों में किसी के प्रति अपार सहानुभूति, कृतज्ञता तथा एहसानमन्दी का अनकहा दर्द सिमट आया । ऐसा दर्द जिसे न वह बाँट सकती थी और न ही अपने तक सीमित रख पा रही थी । माँझी इधर थोड़े-से दिनों में ही उसके कितने करीब आ गया था ? शायद दिल की धड़कनों में बस गया था । परन्तु वह समय के हाथों विवश थी । उसने सोचा कि ये युवक ! ये माँझी ! ये पच्चीस-छब्बीस वर्ष का युवक । अनजान-अपरिचित-सा, जिसके विषय में वह अधिक जानती भी नहीं है ? सदैव खोया-खोया-सा रहनेवाला । प्राय: कम बोलनेवाला । एक गम्भीर व्यक्तित्व...कलाकार । इससे क्या सम्बन्ध है उसका ? अवश्य उसका इससे पूर्व जन्मो का कोई बडा सम्बन्ध है ? नहीं होता तो वह सब क्यों बार-बार हो जाता है, जो नहीं होना चाहिए । आज को यदि ये नहीं होता तो वह कब की मृत्यु के मुख में जाकर विलीन भी हो चुकी होती । जाने कौंन-से संसार में डूब चुकी होती । अवश्य ही माँझी से उसका कभी कोई विशेष सम्बन्ध रहा है । इस जन्म का नहीं तो किसी पिछले जन्म में वह अवश्य ही उसके साथ थी । क्या पता वह किसी पिछले जन्म में माँझी को अकेला छोड़कर भाग आई हो ? जिसके कारण माँझी इस जन्म में भी उसके पोछे-पीछे है । वह शायद अपने दिल के छिपे प्यार का इज़हार कर भी देता, मगर सागर से उसका सम्बन्ध जुड़ा देखकर मौन हो गया हो ? शायद इसी कारण वह अधिकांशतया खामोश रहता हो ? क्या पता ? सोचते-सोचते. वह बार-बार उस घटना को सोचकर सिहर जाती थी कि जब वह माँझी के बदन से लिपटी-चिपटी हुई बेझिझक मक्रील में बह रही थी । उस समय तो वह यह भी भूल गई थी कि वह किसी गैर की है। माँझी से उसका कोई भी सम्बन्ध नहीं है । माँझी से तो उसे बात भी नहीं करनी चाहिए । भारतीय नारी का शरीर, मन, आत्मा केवल किसी एक के लिए ही सुरक्षित होता है । क्या ईश्वर ने इसी कारण ये दुर्घटना करवाई थी ? इसी सबब से उसका पैर अचानक फिसल गया था कि माँझी उसके बिलकुल ही क़रीब आ जाए । वह उसके शरीर को भी स्पर्श कर ले ? क्या सागर उसे नहीं बचा सकता था ? वह भी तो उस समय वहीँ था । सुधा इन सारी बातों को क्रम से सोचती थी और फिर कोई भी समाधान न मिलने के कारण गुमसुम उदास-सी हो जाती थी, क्योंकि वह जानती थी कि कैसा भी, कुछ भी क्यों न हो ? फिर भी एक बात स्पष्ट थी कि माँझी उसके जीवन की एक बहुमूल्य कडी अवश्य बन चुका था, जिसे वह सहज ही नकार नहीं सकती थी, और न ही अब कभी भी झुठला सकेगी । चाहे उसका उससे कोई सम्बन्ध रहे अथवा नहीं, वह उसके जीवन में एक कभी भी न भूलनेवाली स्मृति लेकर अवश्य आ चुका था ।



प्यार की बातें की नहीं जाती हैं, होने लगती हैं । घटनाओंवश, संयोग से अथवा किन्हीं भी कारणों द्वारा दिल किसी-न-किसी के प्रति आसक्त हो जाता है । यह स्थिति उस समय और भी अत्यधिक पीड़ादायक और कष्टभरी हो जाती है जबकि मनुष्य पहले ही से कहीं अन्यत्र जुड़ चुका हो । नारी के लिए यह स्थिति एक समस्या ही बनकर नहीं आती, बल्कि उसके सारे तन, बदन और मन को झकझोर डालती है । बिके हुए लोग कभी ख़रीदार नहीं बनते हैं, मगर जब कोई बिके हुए और ख़रीदार दोनों का ही मूल्य देनेवाला सामने आ जाता है, उस समय मनुष्य कुछ सोच नहीं पाता है । यही दशा सुधा की भी थी । रीतियों और परिस्थितियोवश वह सागर से जुड़ चुकी थी, परन्तु समय को अनहोनी ने उसे माँझी से भी जोड दिया था । वह उसके प्रति भी सोचने को विवश हो जाती थी । कभी सोचती कि यदि माँझी ने उसके समक्ष अपने प्यार का इज़हार कर दिया तो वह क्या उत्तर देगी ? क्या मना कर सकेगी उसको ? यदि मना कर दिया तो उसके किए गए उन सभी एहसानों का क्या होगा, जिनके कारण वह आज जीवित हैं । माँझी की ख़ामोशिर्यों मेँ अवश्य उसके प्रति प्यार के दीप धीरेधीरे जल उठे हैं । मानो अपना लुटता हुआ प्यार देखकर धीरेधीरे सिसकते हों । तभी वह हर समय चुप-चुप-सा रहता है । कहना चाहता है, परन्तु कह नहीं सकता है । यदि कहेगा तो सागर का प्रश्न उसके सामने है । वरना, इतनी अनहोनी और इस प्रकार की घटनाएँ होने के बाद कोई भी प्यार की इन हवाओं के झोंकों से स्पर्श हुए बगैर नहीं बच सकता है । माँझी अवश्य उसे प्यार करने लगा है । नहीं करता होता तो वह क्यों बार-बार अपने-आप को जोखिम मेँ डालकर उसकी जान बचाता ? उस स्थिति में भी जबकि मक्रील पर सागर भी उसके साथ था । क्या सागर नहीं कूद सकता था दरिया मे ? उसे भी तो तैरना आता है ।फर्ज तो उसका ही था । वह चाहता तो माँझी को क्यों उसके तन को स्पर्श करने का अवसर प्राप्त होता ? यदि ऐसा ही है तो माँझी अवश्य उससे अपने दिल का भेद स्पष्ट कर देगा, क्योंकि सागर से उसकी केवल मंगनी ही हुई है, कोई विवाह नहीं । सगाई तो टूट भी सकती है । अगर टूट गई तो क्या होगा ? क्या वह माँझी को उतना ही भरपूर प्यार दे सकेगी जितना कि एक पत्नी अपने पति को देती है ? उस स्थिति में भी जबकि उसका सम्बन्ध सागर से भी रहा हो ।


सुधा बिस्तर पर लेटी-लेटी ऐसी ही बातें लगातार सोचे जा रही थी, परन्तु उनका कोई भी परिणाम प्राप्त न होने पर निराश-सी होकर रह जाती थी । उसके


पिता, परिचित, सागर तथा माँझी के परिवार के सभी लोग, आपस मे सभी उसकी और माँझी से अलग, अपनी ही बातों में मस्त थे । सुधा के परिचित माँझी का आभार प्रकट करते थे । उसके साहस और धैर्य की तारीफ़ किए जा रहे थे । जिन्हें सुधा सुनती थी और दिल में जैसे बसाकर रख लेती थी । सुन सागर भी रहा था, परन्तु वह इन बातों को कोई विशेष ध्यान न देकर बार-बार सुधा को देखकर मुस्करा देता था । उससे बातें करने की कोशिश करता था ।


थोडी ही देर पश्चात् डॉक्टर ने दोनों को अस्पताल से छुट्टी देकर पूर्ण स्वस्थ घोषित कर दिया । माँझी अपने माँ-बाप तथा बहन के साथ घर आ गया और सुधा भी अपने घर चली गई ।




दूसरे दिन ही सुधा ने बिना किसी को बताए हुए " शालीमार आर्ट एसोसिएशन ' को अपनी मूर्ति बनाने की सहमति दे दी, क्योकि वह जानती थी कि माँझी की पारिवारिक स्थिति अभी आर्थिकरूप से तंग है । फिर यूँ भी माँझी के उस पर सैकड़ों ऋण समान एहसान भी हैं...और इस प्रकार वह माँझी की कुछ तो सहायता कर सकती है । जब उसने अपनी स्वीकृति के विषय में सागर को बताया तो वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ, मगर वह नहीं जानता था कि मूर्ति माँझी ही बनाएगा, इसलिए तुरन्त पूछ बैठा, "तो वह आर्टिस्ट आ गया है ? "
"हाँ ! ”
"अभी मिल सकता हूँ मैं उससे ? " सागर उत्सुक होकर बोला ।
"क्यों उतावले हो रहे हो ? मूर्ति कोई तुरन्त थोड़े ही बन जाएगी । महीनों लगेंगे । कभी भी मिल लेना..॰मैं तुम्हारा उससे परिचय भी करवा दूँगी । ”
यह कहकर सुधा ने फिलहाल बात टाल दी, क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि माँझी को लेकर फिर सागर का मस्तिष्क ख़राब हो । वह सागर का स्वभाव अच्छी तरह जानती थी । फिर युवक वैसे भी ईष्यालु स्वभाव के होते हैं । कोई नहीं चाहता है कि उनकी पत्नी या होनेवाली पत्नी उसके सिवा किसी अन्य पुरुष का भी ख़याल करे । यही सोच और समझकर उसने सागर को मना कर दिया था ।
बातों की समाप्ति के पश्चात् वह कार में जा बैठा । सागर ने कार चालू की और उसे 'डेनमार्क' के सामने जाकर रोक दिया । कल की हुई अप्रिय घटना को वे साथ-साथ कॉफी के घूँटों के मध्य भुला देना चाहते थे । कॉफी पीकर वे बाहर आए तो सीधे घर आ गए, क्योकि सुधा के पिता ने पुत्री की जान बचने के उपलक्ष्य मे एक पार्टी का आयोजन किया था । माँझी और उसके परिवार को भी विशेषरूप से आमन्त्रित किया गया था ।
और जब शाम गहराने लगी । सारे शहर में विद्युत की बत्तियाँ मुस्करा उठी; . तो इसके साथ ही सुधा की कोठी के लॉन में मेहमानों की कारें आकर ठहरने लगी । कोठी की पूरी इमारत को विद्युत की रंग-बिरंगी झालरों, बल्पों आदि के द्वारा नई-नवेली दुल्हन के समान सजा दिया गया था "। मेहमान लोग आते जा रहैं थे । सुधा एवं उसके पिता तथा अन्य परिचित आनेवाले मेहमानों का स्वागत कर रहे थे । सागर भी आनेवाले लोगों को बिठाता जा रहा था । मगर सुधा की दृष्टि बार-बार बाहरी द्धार की ओर एक आशा से उठ जाती थी । माँझी अभी तक नहीं आया था, जबकि सुधा के पिता ने उसको तथा उसके समस्त परिवार को लेने के लिए अपनी कार भी भेज दी थी । अधिकांश मेहमान आ ही चुके थे । हॉल भर चुका था । पार्टी आरम्भ होने मे" कुछ ही क्षण शेष थे कि तभी मुख्य…द्वार से माँझी ने प्रवेश किया । सुधा ने देखा, तो मारे खुशी के उसकी बाँछें खिल गई । माँझी अपने सम्पूर्ण परिवार के साथ' मेहमानों के कक्ष मे आ चुका था । सुधा ने उसे गौर से देखा । देखा इसलिए कि शायद आज माँझी ने अपना हुलिया परिवर्तित कर लिया हो-पार्टी की खातिर । मगर नहीं, वह पहले जैसा ही था । गम्भीरता से भरा उसका चेहरा । कीर्तिमान आँखे, मानो दुनिया के अन्धकार में किसी ज्योति को तलाश कर लेना चाहती हों । बेफिक्री से बने हुए बाल । चेहरे पर हल्की-हल्की बढी हुई दाढी, जिसे वह जब मूड होता तो बना लेता, नहीं तो बेमक़सद ही बढ़ती रहती। हाँ, वस्त्र अवश्य उसके परिवर्तित हो चुके थे । मंजु, उसके पिता और माता जबकि सजधजकर आए थे । सुधा ने अपने पिता के साथ माँझी और उसके परिवार का अभिवादन किया । फिर उन्हे एक निश्चित स्थान पर बैठा दिया, परन्तु माँझी फिर भी खड़ा ही रहा । चुपचाप खड़ा हुआ हॉल मे आए हुए मेहमानों पर अपनी एक उड़ती हुई दृष्टि फेंकने लगा । जब उसने लोगों को देखा तो महसूस हुआ कि आए हुए मेहमानों में अधिकांश की निगाहों का केन्द्रबिन्दु वही है । वह भी शायद इसलिए, क्योंकि उसने सुधा को दो बार मृत्यु के मुँह में जाने से बचाया था ।


फिर जैसे ही पार्टी आरम्भ हुई तो सुधा के पिता माइक के पास आकर मेहमानों का अभिवादन करते हुए बोले, "सज्जनों साथियो एवं मित्रो । जैसाकि आप सबको ज्ञात ही है कि इस पार्टी का आयोजन मैंने अपनी इकलौती पुत्री कुमारी सुधा की दुर्घटना में जीवन-रक्षा की खुशियों मे दी है । मैं आप सबका हदय से आभारी हूँ कि आप लोगों ने अपना बहुमूल्य समय देकर इस अवसर को और भी महत्त्वपूर्ण बना दिया है । साथ ही मैं विशेषरूप से उस दिलेर, साहसी तथा कलाकार युवक मिस्टर माँझी का भी हदय से एहसानमन्द हूँ जिन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए मेरी बेटी सुधा को एक बार नहीं, बल्कि दो-दो बार दूसरा जीवन दिया है । उसकी रक्षा की है । अन्त में मैं पार्टी आरम्भ होने से पूर्व इस खुशी के अवसर पर आपको एक दूसरी खुशख़बरी भी सुनाता हूँ कि मेरी सुपुत्री सुधा का विवाह मिस्टर सागर के साथ अब से दसवें माह की 'उन्तीस तारीख़ को होना निश्चित हुआ है । "



हॉल तुरन्त मेहमानों की तालियों से गड़गड़ा उठा, परन्तु माँझी के सीने पर जैसे किसी ने कोई घूँसा जड़ दिया था । देखने भर से ही लगता था कि जैसे उसे सुनकर कोई प्रसन्नता नहीं हुई थी । वह जैसे सोच ही रहा था कि 'यही सब सुनाने के लिए क्या उसे यहाँ बुलाया गया था ? ताकि उसकी भावनाओँ का भरपूर अपमान हो सके । ' उसने मन में आया कि वह अभी इसी समय यहाँ से चला जाए । भाड़ में गई पार्टी और भाड़ में गए सब, परन्तु समय की नाजुकता को देखकर वह ऐसा नहीँ कर सका । मेहमानों की सभी आँखें उसके व्यक्तित्व पर जमी हुई थी । सब ही उसके विषय में बातें कर रहे थे । ऐसे में यदि वह लौटने लगे तो सब क्या सोचेंगे ? तब क्या उसके हदय के चोर को ये सब लोग नहीं पकड़ लेंगे ? क्या उसने सुधा को इसी कारण नदी में से बाहर निकाला था कि वह उस पर अपना अधिकार समझने लगे ? सुधा तो पहले ही से पराई है । उससे मिलने से पूर्व ही वह सागर से बँध चुकी थी । फिर क्यों वह मलाल करता है ? उसका सुधा पर क्या हक है ? किसी और की अमानत को ताकना और उसके प्रति बुरी नीयत रखना पाप है । सुधा उसका कितना सम्मान करती है । मन-ही-मन उसे पूजती भी होगी । यदि उसको उसकी छिपी भावनाओँ के विषय में ज्ञात हो जाए तो उस पर क्या बीतेगी ? उसका दिल टूटकर चकनाचूर नहीं हो जाएगा तब ? तब क्या वह उसके प्रति घृणा नहीं करने लगेगी ?
नारी तो जब एक चार किसी से बँध जाती है तो फिर चाहकर भी वह किसी अन्य के विषय में सोच भी नहीं पाती है । सुधा खड़े-खड़े अभी तक माँझी का गम्भीर चेहरा देख रही थी । विवाह की बात सुनकर जैसे उसे कोई प्रसन्नता नहीं हुई थी । सबने तालियाँ बजाई थीं, मगर माँझी अपने स्थान से हिला तक नहीं था, बल्कि और भी अधिक गुमसुम हो गया था । सुधा खड़े-खड़े अभी तक माँझी का उदासिंयों से डूबा चेहरा ही देख रही थी । देख रही थी, और वह क्या सोच रहा होगा, केवल अपनी सोचो में अनुमान ही लगा रही थी ।


पार्टी आरम्भ हो चुकी थी । बैरे खाद्य पदार्थ तथा पेय सबको बाँटने लगे थे । तभी सागर ने माँझी को निहारते हुए वहाँ एक एलान और कर दिया । उसने कहा कि,


" हमारे विशिष्ट मेहमान मिस्टर माँझी एक बहुत अच्छे कलाकार, मूर्तिकार होने के साथ-साथ एक अच्छे गायक भी हैं एवं मैं उनसे ये प्रार्थना करूँगा कि वे आपको एक गीत भी सुनाएँ । "
हॉल एक बार फिर तालियों से गड़गड़ा गया । माँझी ने इधर-उधर आश्चर्य से देखा । सभी उसको देख रहे थे । फिर वह चुपचाप माइक के पास आया । हाँल में स्तब्धता छा गई । बैरे एक ही स्थान पर ठहर गए । तब माँझी ने गाना आरम्भ किया । अपनी दर्द और दु:खभरी आवाज़ में-मायूसी के साथ-कुछ इस तरह-
अक्सर क्यों मिलते हैं हम उनसे
जो गैरों के हौते हैं,
हम तो उन लोगों में से हैं
जो कहीँ के भी नहीं होते हैं.



फूलों के बागो में क्यों लें
आती है किस्मत हमको,
हैं काँटे अपने दामन में
ये फूल तो भोंरों के होते हैं.



क्या दाम लगाएँ हम उनका
जो तुलते सोने-चाँदी में,
हम तो उनमें से हैं जो
पहले ही से बिक जाते हैँ.



वे दे तसल्ली सितारों से आगे
जहाँ और भी हैं,
पर कैसे जिएँ वे लोग वहाँ
जो इस लोक मेँ ही मर जाते हैं.



जीने का मजा तो वो जानें
जो रहते महलों में हैं,
गुज़रती तो किस्मतवालों की है
यहाँ तो बस दिन पूरे हो जाते हैँ.


माँझी ने गीत समाप्त किया तो सारा हाँल मेहमानों की तालियों द्वारा बड़ी देर तक गूँजता रहा...लोग सुनकर दंग रह गए । माँझी के इस गीत में जैसे उसकी जिन्दगी का समूचा दर्द घुला हुआ था । उसके इस दर्द को केवल सुधा ने ही महसूस किया । इस प्रकार कि बड़ी देर तक वह माँझी को ही निहारती रही-एकटक । उसे देख-देखकर उसकी मन:स्थिति को महसूस करने का प्रयत्न करने लगी । पार्टी में आए हुए लोग चाहे उसके इस गीत में छिपे हुए दर्द, उसकी मन:स्थिति और दबी हुई प्यार की भावना को चाहे न समझ पाए हो, मगर सुधा के दिल पर अचानक ही कोई चोट हो गई थी । माँझी ने जैसे उसे सब-कुछ बता दिया था- दूसरे पहलू में । अपने दिल के एक-एक कोने को खोलकर दिखा दिया था । उसने क्षणभर को सोचा- माँझी को निहारा । वह भी उसी को देख रहा था । सुधा ने उसके दर्दभरे चेहरे को निहारा, तो फिर उसके विषय में सोचे बगैर न रह सकी । तब उसने माँझी के गीत के बोलों पर ध्यान लगाया । ' इस गीत को तो उसने कभी सुना नहीं । किसी फिल्म का भी नहीं है तो फिर क्या उसका स्वयं का बनाया हुआ है ? हो सकता है, मगर क्या माँझी गीत भी लिख सकता है ? क्या वह एक लेखक, गीतकार भी हो सकता है ? क्यों नहीं ? सुधा के मन ने ही उत्तर दिया तो वह फिर सोचने लगी- उसने सोचा कि जो युवक एक मूर्तिकार हो- कलाकार की भावना जिसके शरीर के एक-एक रोंएं में बसी हुई हो । जिसमें एक और से सारी अच्छाइयाँ हों, जिसमें बुराई नाम की कोई वस्तु नहीं हो तो क्या वह ऐसा गीत नहीं लिख सकता ? ' अवश्य-उसके दिल ने ही उत्तर दिया तो सुधा गीत के बोलों पर फिर ध्यान दे बैठी । उसने विचारा कि माँझी ने क्या कहा है ? यही कि अक्सर क्यों मिलते हैं हम उनसे जो गैरों के होते हैं । हम तो उन लोगों में से हैं जो कहीं के भी नहीं होते हैं। गीत के इन बोलों से स्पष्ट जाहिर था कि 'माँझी ने उससे क्या कहा है ? यहीँ कि वह अक्सर उससे क्यों बार-बार मिलता है । वह तो जबकि गैर की, सागर की हो चुकी है । कभी दुर्घटनावश, कभी पार्टी में, कभी आते-जाते, तो कभी-न-कभी, किसी भी बहाने परिस्थितियों ने उसे माँझी से मिलवाया ही है। बार-बार पास आने को बाध्य किया है । इतनी अधिक कोशिश की है कि यदि वह पहले ही से सागर से न बँधी होती तो शायद कभी की वह माँझी को अपना दिल दे बैठी होती । परन्तु माँझी.. ? उसने सोचा तो वह माँझी के हदय की उन प्यारभरी भावनाओं को समझ और महसूस किए बगैर नहीं रह सकी जो उसने अपने गीत के द्वारा उससे कहने की चेष्टा की थी । उसे समझाया था । नारी चाहे और कुछ भी या जीवन की अन्य बातों को भले ही न समझ सके, परन्तु वह अपने लिए प्यार के किसी भी संकेत का अर्थ तुरन्त समझ जाती है । यही दशा सुधा की भी थी । वह भी माँझी के दिल के छिपे हुए जज्बातों को पहचान गई थी…इस प्रकार कि उसने फिर सोचा तो उसे उत्तर मिला कि माँझी उसे प्यार करता है । मन-ही-मन उसे चाहता है । इतना अधिक उसे चाहता है कि यदि वह पहले ही सागर से न जुडी होती तो शायद अब तक उसने अपने दिल की बात उससे कह दी होती ? सुधा ने जब इस प्रकार सोचा तो उसका कोमल नारी हदय अचानक ही धड़क गया । बड़े जोर का । इस प्रकार कि उसकी साँसों का प्रभाव तीव्र हो गया । माँझी ने उससे क्या-क्या कहा था ? क्या कहना चाहता था ? क्यों नहीं कह सकता है ? उसे अपने इन प्रश्नों का उत्तर तुरन्त प्राप्त हो गया । उसके दिल ने कहा कि " माँझी तुमने मुझसे क्या कहा है ? क्या कहना चाहते हो ? और क्यों नहीं कह सकते हो ? मैँ सब समझ गई-सब-कुछ । तुम्हारे गीत के एकाएक शब्द में मेरे प्रति तुम्हारे प्यार की एक ऐसी हांरी हुई बाजी का जिक्र है, जिसे तुमने अभी खेला भी नहीं' हैं, और जिसे तुम हारकर भी नहीं' हारे हो । तुम्हारी हार होते हुए भी तुम्हारी जीत है, क्योकि पुरुष यदि अपनी प्रेमिका का मन जीतने में सफल हो जाता है तो वास्तविक जीत उसकी ही होती हैं चाहे उसकी प्रेमिका परिस्थितियोंवश अन्यत्र बँध क्यों नहीं जाए । तुम अक्सर मुझसे क्यों मिल जाते हो… ? परिस्थितियों ने मुझे तुमसे बार-बार क्यों मिलवाया हैं... ? में सब जान गई हूँ, परन्तु हमारे हालात ऐसे है' कि हम कभी भी एक नहीं' हो सकेंगे । मैँ तुम्हारे गीत के उन बोलों को बार-बार याद करूँगी, जो तुमने आज कहे है' यही किं तुम बार-बार अपने प्यारभरे फूलों के बागों में पहुँच जाते हो संयोग से ही, मगर तुम्हारे भाग्य में तो असफल प्यार के काँटे है' । तुम्हारा 'पुष्प' तो सागर का हो चुका है । मैं जानती हूँ कि मेरी कीमत अब इतनी अधिक हो चुकी है कि तुम उसका मूल्य चुका नहीं सकोगे । इसीलिए अपने को बिका हुआ महसूस करते हो । मैं चाहे तुमको अब कितनी भी तसल्ली क्यों न दूं चाहे कितना भी ज़माने की अन्य लडकियों का जिक्र, वास्ता और लालसा दूं परन्तु तुम्हारे 'प्रेमी-दिल पर कुछ भी असर नहीं होगा, क्योकि जब तुम मेरे ही प्यार में मर चुके हो तो किसी दूसरी के प्यारभरी जिन्दगी मैं कैसे जी सकोगे । यही अर्थ है तुम्हारे गीत का । तुम्हारी भावनाओँ का । तुम्हारे शब्दों का । मेरी तो जिन्दगी गुजरेगी और तुम्हारी उम्र पूरी होगी । दिन कटेंगे, शायद मुझे याद करते हुए । जिन्दगी के प्रत्येक क्षणों में तुम मुझे याद करते रहोगे । मुझे चाहोगे, परन्तु मैँ किसी अन्य को चाहने पर विवश हूँगी । मुझे आवाज़ दोगे । बुलाओगे । पुकारोगे, और मैं दूसरे की आवाज सुनूँगी । मुझसे अपनी झोली फैलाकर अपने प्यार की भीख माँगना चाहोगे, मगर चुप रहोगे । माँझी, मैं सब समझ गई-सबकुंछ जान गई-अब ऐसा कुछ भी नहीं रहा है कि जो पर्दे में हो । मैं तुम्हारी एक-एक बात, एक-एक भावना का अर्थ अच्छी तरह समझ गई हूँ । '


सुधा भावनाओँ में बही जा रही थी । पार्टी जोरों पर आ चुकी थी । थोड़ी ही देर में नृत्य का कार्यक्रम होना था, तभी उसके कन्धे पर सागर ने अपना हाथ रख दिया तो उसकी विचारधाराओं को श्रृंखला टूट गई । उसने सागर को निहारा, तो वह आश्चर्य से बोला,


" क्या सोचने लगी ? '"
“कुछ नहीं ! यूँ ही .." सुधा ने कहा ।
"तो चलो नृत्य करते है' ।"
कहकर सागर उसका हाथ पकडकर अपने साथ ले गया । अपना समझकर । अपना अधिकार दिखाते हुए- ऐसा अधिकार जिसके कारण सुधा माँझी को चाहकर भी कोई अधिकार दे नहीं सकती थी और वह भी उससे कुछ माँग नहीं' सकता था ।
नृत्य आरम्भ हो गया था । युवा जोडे संगमरमर के फ़र्श के मध्य आकर थिरकने लगे । संगीत बजने लगा था और इसके साथ ही हर पल परिवर्तित होती हुई रंग-बिरंगी विद्युत् बत्तियों के प्रकाश की चकाचौ'ध में हाँल फी दीवारें भी जैसे प्यार की मादकता में नाचने का प्रयत्न करने लगी थीं ।



माँझी अब तक पार्टी छोडकर चला भी गया था । किसी का प्यार जल रहा था तो कहीं किसी के अरमानों की बारात सज रही थी- ये है ज़माना, और उसके रीति-रिवाज़ कि करे कोई और फले कोई । एक का दिल जले तो उसकी रोशनी में दूसरे की बारात सजे । एक की अर्थी उठे तो इसी अर्थी के जनाजे के साथ-साथ कहीं पर खुशियों के दीप जल उठें । एक प्यार करनेवाले की मजार पर दूसरे के प्यार के दीप रोशन होते हैं । किसी के चिथड़े हुए अरमानों की लाश पर किसी दूसरे के प्यार की दुनिया सजाई जाती है । यही जीवन है । नियति है, और मानव की वह बेबस जिन्दगी है कि जिसके आगे वह कुछ भी करने में असमर्थ होता है, साथ ही कुछ भी पाने और खोने में भी वह कितना अधिक विवश हो जाता है ? . ये वह जानता है और उसका दिल; माँझी की भी यही दशा थी । उस पर जो बीत रही थी, यह वह जानता था और उसका बेबस दिल । उसके दर्द में वही तड़प रहा था । अपनी कसक को स्वयं ही झेल रहा था । अपने दिल के इस भेद और दर्द को किसी अन्य से कह भी नहीं सकता था । फिर कहता भी किससे ? जिससे कह सकता था, वह तो न जाने कब की पराई हो चुकी थी; इतनी पहले कि उसके आने से पूर्व ही वह सागर की सदा-सदा के लिए बन चुकी थी ।



उस रात पार्टी समाप्त हो गई ।
लोग अपने-अपने घर चले गए । रात और गहरी होकर मायूस हो गई, तो सुधा एक पल को भी नहीं सो सकी । हर पल माँझी उसके आसपास ही बना रहा। ख़यालों में वह एक'-एक पल तक में वह माँझी के लिए सोचती रही । एक अजीब ही परिस्थिति में वह फँस गई थी । वह समस्या उसके सामने आ गई थी कि जिसका समाधान करने पर भी उसके दिल को कोई तसल्ली नहीं होती थी । माँझी के प्रति न चाहते हुए वह सोचने लगती थी…सोचती थी तो सागर का ख़याल आते ही उसका मन ग्लानि से भर जाता था । बात भी सही थी । माँझी के प्रति सोचकर सागर के साथ अन्याय करना था । वह मन में माँझी को बसाए और व्यावहारिक रूपमें सागर से बँधी रहैं…ऐसा कैसे हो सकता था ? क्या ये पाप नहीं हैं .? ये तो सरासर फरेब है-अन्याय ? किसी की प्यारभरी भावनाओँ के साथ खिलवाड़ करना हैं । सागर का अपमान है, परन्तु वह करे भी तो क्या करे ? माँझी के दिल के दुख-दर्द को वह भलीभाँति महसूस कर चुकी थी । आज पार्टी मै' जैसे उसने सबकुछ बता दिया था । कितना दुखी था वह आज । किस क़दर मलिन और फीका पड़ गया था वह तब जबकि सागर से उसके विवाह की तिथि घोषित उसके पिता ने की थी । माँझी के दिल पर क्या कुछ नहीं बीत ' होंगी ? कितना तड़प रहा होगा वह ? शायद आँसू भी बहाता हो ! इसलिए वह वीरान और बीहड़ जैसे स्थानों में अकेला बैठा करता है । बैठा बैठा अपनी बिमार किस्मस का रोना लिए रहता होगा । आखिरकार माँझी का भी तो कोई अधिकार बनता ही है । उसने कई बार उसको जिवन दिया है । ये माँझी के त्याग और बलिदान का फल है कि वह आज संसार में जीवित है । क्या ऐसे में माँझी को सान्त्वना भी नहीं दें सकती हैं । माँझी की भावनाओं को यदि वह अपने दिल में' विवशतावश कोई स्थान और सम्मान नहीं दे सकती है तो उसको उसकी इन महान प्यार की भावनाओं का अपमान करने का भी कोई अधिकार नहीं जाता है । माँझी ने तो कह दिया, जो उसे कहना था । अब उसे अपना उतर देना है । क्या वह उतर दे सकेंगी ? शायद नहीं । कर भी क्या सकती है... जिस पुरुष ने उसका जीवन बचाया हो, जिसकी बाँहो में वह शरीर से लिपटी रही हो, उसका तिरस्कार वह कैसे कर सकेंगी ? शायद कभी भी नहीं ।



सुधा सोचते सोचते परेशान हो जाती थी । रात्रि प्रत्येक पल बढ़ रही थी । आकाश से शबनम की बूँदे' माना उसके दिल की परेशानियों समान कट-कटकर गिर रही थी' । सारे शहर में खामोशी छाई हुई थी । कभी कभार किसी कुत्ते या चौकीदार के चिल्लाने का स्वर सारी निस्तब्धता को भंग करता हुआ रात के सन्नाटों में` जाकर खो जाता था । सारा शहर सोया पड़ा। था, परन्तु प्यार के झँझटों मे' दुविधावश . पडी हूई सुधा का दिल बार-बार अपने उस प्रेमी के प्रति सोचने पर विवश हो जाता था, जोकि उसके जीवन में बिना कहे ही आ गया था । इस प्रकार कि वह उसके दिल का देवता बना जा रहा था । माँझी का उसके दिल, दिमाग़, तन और भावनाओँ पर कोई हक़ नहीं था, परन्तु यदि वह इन समस्त बातों के लिए तकाजा कर बैठे तो शायद वह मना भी न कर सकेगी । ऐसी थी उसकी स्थिति । ऐसी विवशता और प्यार की वह तक़दीर थी जो अपने पिता के कहने पर अनजाने में बिना सोचे-समझे उसने सागर से बाँध ली थी-एक सिरा उसने सागर से बाँध रखा था, और अब दूसरा सिरा वह न अपने से बाँध पा रही थी, और न ही स्वतन्त्र कर पा रही थी । अपने पिता के द्वारा दिए हुए निर्णय और रिश्ते को स्वीकार उसने बहुत पहले ही कर लिया था । बिना अपने दिल, दिमाग़ और आत्मा से पूछे हुए वह सागर से जुइ गई थी । उसी अनजानेपन का ये परिणाम था कि आज वह कुछ भी करने में असमर्थ थी । उसका प्यार, उसकी मुहब्बत, उसका तन, उसका सभी कूछ आज सागर के लिए सुरक्षित हो चुका था । केवल सागर लिए ही । और अपने प्यार के इस 'सागर' में उसकी जीवनरूपी नैया बहक जाए । तूफानों में फँसी रहे अथवा हिचकोले या धचके खाती हुई तूफानों के थपेडों से टक्करें लेने पर विवश हो । उसे अब सबकुछ मानना और स्वीकार करना था । अब किसी भी अन्य ' माँझी ' का उसके इस जीवनरूपी प्यार के ' सागर' में डूबे, उतराए या मँझधारों में फँसी रहे । पिछले गुज़रे हुए वक्त के साथ अनजानेपन में लिया हुआ उसका ये फैसला आज उसको कितना महँगा पड़ रहा था ? ये सोच-सोचकर सुधा बिस्तर पर पड़ी-पड़ी जाल में फँसी हुईं मछली के समान ही तड़फ़ड़ा जाती थी । रीना चाहती थी, परन्तु रो नहीं सकती थी । भाग्य ने उसे कहीँ अन्यत्र 'समर्पित करने को मज़बूर कर दिया था, मगर अब वही उसका संसार था । उसका अपना घर, जिसे बनाना या उजाड़ना अब केवल उसके ही हाथों में था ।



रात्रि प्रत्येक पल बढ़ रही थी । उदास कामनाओं की अर्थी समान आकाश में चन्द्रमा मायूस, बेजान-सा सारे आलम को निहार रहा था । छोटी-छोटी तारिकाएँ भी मानो सुधा के उदास दिल" की धड़कनों समान सिसक रही थीं । जैसे सारा इलाका ही खामोश था । बुतों समान' । बिलकुल उदास । रात्रि का सन्नाटा भी जैसे पहली रात में ही विधवा बनी दुलहन के समान खामोश और बेजान पड़ गया था । कहते हैँ जब मानव का दिल उदास हो, उसकी जिन्दगी में अन्धकार के काले-काले बादल छा रहे हों । आँखों में आँसू टपकने को उतावले हों । भविष्य के अन्धकार उसे स्पष्ट नजर आने लगे हों, तो इसके साथ ही उसे अपने समान ही सारा वातावरण भी उदास और मायूस प्रतीत होने लगता है ।



यही दशा सुधा की भी थी । वह विवश थी तो उसको सारी वस्तुएँ भी मायूस और बेबस दिखाई देती थीं । उसका दिल उदास था तो जैसे सारी बस्ती ही उदास और खामोश पड़ गई थी । वह रो रही थी । मन-ही-मन । तो प्रकृति की प्रतीक वस्तुएँ, यहाँ तक कि आकाश से गिरती हुईं शबनम की बूँदे आँसुओं समान टपक रही थीं । माँझी उसके दिल में जैसे बहुत ख़ामोशी से आ गया था । आकर उसने उसके जिवन में वह दख़लंदाजी की थी कि जिसके कारण उसका रोम-रोम परेशान हो गया था । दिल तड़प-तड़पकर किसी से लिपटने को बेबस था । एक और सागर तो दूसरी और माँझी । माँझी ? एक युवक-एक परिचय । उसे वह क्या कहे ? ' माँझी ' या 'सागर '-अपना या पराया । ध्यान आता है तो वही उसका ख़ामोश गम्भीर व्यक्तित्व-उदासियों का भण्डार बना हुआ उसका चेहरा । चेहरे पर दुनियाजहान का दर्द समेटे हुए, अँधेरों की और ताकती हुई उसकी दो गहरी-गहरी आँखें-उसकी कार के नीचे कुचला हुआ वह एक अपरिचित, अनजान युवक । उसके साथ क्रम से घटी हुई एक के बाद एक दुर्घटनाएँ । वह मक्रोल का किनारा । फिर उसकी धाराओं में उसके तन से लिपटी हुईं कुँवारी वह एक बेबस नारी । यह सब क्या था ? बहुत-कुछ, इसका अर्थ क्या है ? वही, जो वह समझ रही है; मगर इसके बाबजूद भी वह सब सच नहीं हो सकता है, जो एक सच है-और जिसे उसका दिल, आत्मा स्वीकार भी कर रही थी, क्योंकि ज़माने का चलन इसकी इजाज़त नहीं देता है, इसलिए तब सोचना पड़ जाता है कि धर्म-पूरुषों ने जो उपदेश दिए हैं, वे सब झूठ हैं, मिथ्या हैं-बकवास हैं; क्योंकि उनके चलन में वह सबकुछ भी सच नहीं हो पाता है जो एक सच है । इनका अनुसरण करनेवाला अपने अधिकारों से खूब अच्छी तरह वंचित हो जाता है । उसे वह सब नहीं मिलता है, जो मिलना चाहिए और जिसके लिए वह अधिकारी भी है । सच तो वह है जो वह देख रही हैँ-परिस्थितियों ने उसे दिया है । हालात ने जो कुछ भी उसके आँचल में डाल दिया है, वही एक सत्य है । कड़वा सत्य । बाकी सब तो झूठ है, क्योंकि यही जीवन है । जीने की आस भी और शायद मन की शान्ति भी ।
इस प्रकार की तमाम उलटी-सीधी बातें और ख़यालात सुधा के मन-मस्तिष्क पर हथौड़े समान चोट करते थे, जिसकी पीड़ा के कारण वह बार-बार तिलमिला जाती थी ।



सामाजिक परिवेशों में पली हुई जिन्दगी मनुष्य को दैनिक कार्यों में इस कदर बाँधकर रखती है कि लाख यत्न करने पर भी वह कभी इस माहौल से स्वतन्त्र नहीं हो पाता है । परम्पराएँ टूट नहीं सकती हैं; क्योकि ज़माने का चलन है कि जो लोग जिन्दा हैँ उन पर मुर्दे शासन करते हैं । मरने से पूर्व जो लोग निर्दश दे गए हैं उनका जीवितों के देश में हर किमत पर पालन होना है, अन्यथा पूर्वजों की अवहेलना करनेवाला समाजद्रोही है । दुष्ट है । वह समाज के ऊपर एक कलंक है । शिशु को जन्म से लेकर मृत्यु-शैया तक की यात्रा में कितने भी भोड़ क्यों न आएँ, चाहे कितने भी परिवर्तन क्यों’ न हों, परन्तु फिर भी समाज के दायरे मनुष्य को अपने बंधनों से मुक्त नहीं कर सकते हैं । संसार में ज़न्म लेने का मक़सद ही होता है कि मनुष्य वह सब-कुंछ करें जो पिछली पीढियों में लोग करते आए हैँ । पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ा होना । दो रोटी की तलाश करने के बाद शादी-ब्याह । फिर बच्चों का आतंक । तब अन्त तक आते-आते बच्चों की परवरिश-पढ़ाना-लिखाना, प्रशिक्षण इत्यादि के बाद फिर उनका भी विवाह करके सुख और शान्ति की खोज में तीर्थयात्री बनकर अपने जीवन का अन्त करना-यदि भाग्यशाली हुए तो जीवन के अन्तिम क्षण बैठे-ठाले व्यतीत हो जाएँगे, नहीं तो बहू की लताड़े, उसके बच्चों की सारे दिन रखवाली करते-करते जिन्दगी एक दिन घिसटते हुए समाप्त हो जाएगी ।


सुधा का विवाह भी सागर के साथ उसके बाबा तब तय करके इस संसार से विदा हो गए थे, जबकि वह केवल चार वर्ष की अबोध बच्ची थी । ये सब इसलिए हुआ था क्योकि उसके बाबा और सागर के परिवार में ख़ासा मिलना-जुलना था, इसलिए उन लोगों ने इस मिलने-जुलने की रीति को पारिवारिक सम्बन्धों का स्थायी रूप देना श्रेयस्कर समझा था, तभी वह सुधा को सागर से बाँधकर चले गए थे । उनकी यही बात और वचन का अनुसरण सुधा के पिता ने किया था । सुधा के दिल के अरमानों से बेख़बर, उसकी प्यार की सारी लालसाओं पर वह अपने मृत पिता की आत्मा की सुख और शान्ति के लिए उनकी खुशियों के दीप जला रहे थे और सुधा भी बेबस, दुखिया नारी समान सब-कुंछ स्वीकार कर रही थी । उसने भी अपने पिता की इच्छा और कथनानुसार वह सब करने में अपनी स्वीकृति दे दी थी, जिसे शायद आज वह प्यार को इस दहलीज़ पर पग रखने के बाद सदा के लिए ठुकरा भी सकती थी, क्योकि मरे हुओं की बात और बचपन के मौखिक आधार पर किए गए विवाह का आज इस भौतिक-युग मेँ कोई भी महत्त्व नहीं रह गया है, परन्तु सुधा ने भी अपने पिता का कहना मानकर एक आदर्श पुत्री की भूमिका पूरी की थी ।


कुछेक दिन सुधा के इसी ऊहापोह में समाप्त हो गए । उसके घर में विवाह की तैयारियाँ होने लगीं । इस बीच सुधा एक बार भी बाहर नहीं गई । धीरेधीरे उसने माँझी का विचार अपने मस्तिष्क से निकालना ही ठीक समझा, क्योंकि वह यह अच्छी तरह जानती थी कि ऐसे रिश्तों में जबरन घुसने से क्या लाभ, जिसमें प्रविष्ट होने के लिए उसे कोई अधिकार नहीं दिया गया है । उन बातों को सोचना ही बेकार है, जिनकी पूर्णता के लिए उसका घर, समाज और ज़माने का चलन हामी नहीं भरता है । माँझी को अपने दिल में बसाए हुए वह किस मुँह से उससे प्यार के दो क्षण माँग सकती थी जबकि वह पहले ही सागर से जुड़ चुकी थी , इसलिए उसने इन बातों पर सोचना ही बन्द कर दिया और पूर्णत: अपनी शिक्षा, अपने विवाह, घर-संसार और सागर के साथ आदर्श गृहिणी का जीवन व्यतीत करने का कार्यक्रम ही बनाती थी, परन्तु फिर भी कभी-कभार माँझी का क्षणमात्र को आया हुआ विचार उसके सारे दिल, दिमाग़ और तन-बदन को झकझोरकर रख देता था ।



इसी बीच उसके पास ' शालीमार स्टेच्यू एसोसिएशन ' की और से उसकी मूर्ति बनाने की तिथि आ गई । आ गई तो उसके जी में एक बार आया कि वह अब इस निमन्त्रण को ठुकरा दे और मना कर दे । अग्रिम रूप से ली गई धन राशि को तो वह वापस कर सकती है । क्या फायदा कि वह फिर माँझी के समीप पहुँचे और अब की बार तो उसे एक'-एक घण्टे तक अपने शरीर का प्रदर्शन किए हुए उसके समक्ष उपस्थित रहना पड़ेगा । ऐसी स्थिति में अगर वह बहक गईं-मन उसका डॉवाँडोल हो गया तो ? क्या भरोसा ? जबकि दिल में चोर हो ! माँझी वैसे भी उसके सारे मन-संसार पर छा चुका था । सुधा ने इस विषय पर सोचा तो उसने मूर्ति के कार्यक्रम को मना कर देना ही उचित समझा, परन्तु तभी उसे माँझी की आर्थिक स्थिति का ख़याल आ गया । उसकी आर्थिक सहायता करने के लिए उसने इस बात के लिए हाँ की थी । साथ ही उसने यह भी सोचा कि आज ही माँझी के पास भी पत्र पहूँचा होगा । अगले सप्ताह को बारह तारीख़ को इस कार्य के लिए मीटिंग बुलाई गई थी, जिसमें उसके साथ-साथ माँझी तथा अन्य को भी आना है । तब माँझी के हित में ही सोचकर वह अपने-आपको तैयार करने में लग गई । यह भी सोचकर कि वह अपने मन, मस्तिष्क और समस्त हसरतों को सँभालकर रखेगी । स्वयं को नियन्त्रण में ही रहने देगी, बशर्ते माँझी पूर्णत: सामान्य रहे । वह अपनी और से कोई भी पहल न करे । सागर के प्रति यह सोचकर आसक्त हो गई कि उसके विवाह की तिथि घोषित हो चुकी, सो उसको धार्मिक संस्कारों के अनुसार विवाह से पूर्व अब उसको सागर से विवाह तक नहीं मिलना चाहिए । यदि वह कभी मिल भी गया, या उसने मिलना चाहा तो उसे वह मना लेगी । समझा देगी और माँझी ने यदि उससे अपना प्यार माँगा तो वह उसे स्पष्ट मना कर देगी । एक भारतीय स्त्री का किसी पराए पुरुष के लिए सोचना पाप नहीं कलंक माना जाता है ।



फिर अगले सप्ताह की जब बारह तारीख़ आईं, वह निश्चित समय पर ' शालीमार एसोसिएशन' के निदेशक आडवाणी से मिली । वहाँ पर पहुँचते ही जैसे ही उसने अपना पत्र कार्यालय में रखा तो वहाँ पर माँझी को पहले ही से बैठा देख आश्चर्य तो नहीं कर सकी । हॉ, ठिठक अवश्य गई, परन्तु माँझी उसे देख एकदम आश्चर्य से भर गया । वह चकित होकर बोला,


" अरे, आप... ?"
"हाँ यही हैं वह विशिष्ट माँडलर मिस सुधा, जिनकी आपको 'स्टेच्यू' बनानी है । ” सुधा के बोलने से पूर्व ही आडवाणी ने माँझी का परिचय सुधा से करवाया। इस पर माँझी ने जान-बूझकर सुधा से हाथ जोड़कर अभिवादन किया । मगर सुधा फिर भी चुप थी, क्योंकि वह माँझी की मन:स्थिति को पूर्णत: समझ रही थी । वह सोचने लगी कि उसने माँझी को अपने बारे में पहले न बताकर कोई ग़लती तो नहीं की है । ऐसा कोई कार्य तो नहीँ कर बैठी है कि जिससे माँझी के दिल को ठेस पहुँचे ? क्या पता ? कलाकार लोग तो यूँ भी वैसे भी बड़े कोमल हदय के होते हैं । छोटी-छोटी बात को एकदम गम्भीरता से लेते हैं । तुरन्त बुरा मान जाते हैं । वह चाहती तो पहले भी माँझी को इस बारे में अवगत करा सकती थी ।
" अरे, आप लोग तो ऐसे चुप और हैरान हैं कि जैसे पहले ही से एक-दूसरे को जानते हों ! " आडवाणी ने दोनों को मौन देखा तो कह दिया ।
“जी हाँ ...कुछ ऐसी ही बात है । हम दोनों का परिचय तो बहुत पुराना है, मगर.. ” सुधा कहते-कहते थम गई ।
"मगर क्या ?" आडवाणी ने पूछा ।
"जिस कार्यं के लिए हम लोग यहाँ आए हैं उसके लिए कम-से-कम मिस्टर माँझी अवश्य अनभिज्ञ थे । " सुधा ने स्पष्ट कह दिया ।
“ इसका मतलब ?" आडवाणी बोले ।
"में तो जानती थी कि मेरी 'स्टेच्यू' ये ही बनाएँगे, परन्तु मिस्टर माँझी नहीं जानते थे कि मेरी ही 'स्टेच्यू' बनाएंगे, या मॉडलर मैं ही हूँ । "


"लेकिन ऐसा क्यों किया आपने ? " आडवाणी ने पूछा तो सुधा मुस्कराकर बोली,


"बस, इनको 'सरप्राइज' करना चाहती थी । "
"वेरी इन्टरेस्टिंग !" कहकर आडवाणी बड़े जोर सै हँस पडे ।
माँझी अब तक चुप ही था । किंकतर्व्यविमूढ़-सा । सुधा ने माँझी को निहारा तो क्षणभर को शंकित-सी हुई । फिर माँझी के पास आकर उससे सम्बोधित हुई; बोली,


" अब कहिए कि क्या ख़याल है आपका ? कैसा लगा मेरा 'सरप्राइज'? "
"कोई विशेष नहीं । " माँझी ने छोटा-सा उत्तर दिया ।
“ क्यों ?”
"इसलिए क्योकि मेरी आपके साथ पिछली जितनी भी मुलाकातें हुई हैं, वे भी तो सब एक 'सरप्राइज' ही थीं । फिर ये एक और सही । "
" ओह ! " सुधा के मुख से एक कसक-सी निकली ।
पलभर को वह बुझ-सी गई । फिर अपने को संयत करते हुए बोली,


"मैँ जानती हूँ कि मेरा जीवन आपके किए हुए एहसानों का कर्जदार है और आप अच्छी तरह से जानते हैं कि मैं आपका यह ऋण कभी भी पूर्ण करने की स्थिति मैं नहीं हूँ । “
"सुधाजी ! मैंने आपको पहले भी कहा था और आज फिर दोहरा रहा हूँ कि 'एहसान' जैसे शब्द कहकर बार- बार मुझे मेरी नज़रों से न गिराएँ । ईश्वर की और से दिया हुआ आपका जीवन किसी की भी अमानत नहीं है । यह केवल आपका है और इसको आपकी अपने तरीके से जीने का पूरा-पूरा अधिकार है और हॉ, ईश्वर की मर्जी के खिलाफ़ यदि आपका जीवन जोखिम में पड़ गया था तो ये मेरा सौभाग्य है कि मुझे यह अवसर प्राप्त दुआ कि मैं इतनी बहुमूल्य धरोहर की रक्षा कर सका । यदि उस समय मैं नहीं होता तो कोई और आपको बचा लेता । "
माँझी ने काफी लम्बी बात कही तो आडवाणी भी चकित हो गए । दोनों के मध्य में आकर आश्चर्य से बोले,


" अरे, ये क्या गम्भीर बातें करने लगे आप लोग ?"
"गम्भीर नहीं, रोमांचित । कभी फुर्सत से सब बताऊंगी आपको । " सुधा ने कहा तो आडवाणी चुप हो गए ।
फिर थोड़ी देर बाद माथे पर बल डालकर बोले,


"तो ठीक है, फिर कब से आप दोनों का काम शुरू करने का इरादा है ?" उन्होंने सुधा और माँझी दोनों की और देखते हुए पूछा ।
" अभी तो मैं जाता हूँ । कल सुबह अथवा आज शाम तक मैं टेलीफोन करुंगा । " माँझी ने कहा । फिर बाद में वह वहाँ से चला गया ।
माँझी के यूँ चले जाने पर आडवाणी कुछेक क्षणों को उसे जाते हुए गम्भीर, मौन-से बने रहे । साथ ही सुधा भी असमंजस में पड़ चुकी थी । आश्चर्य इसलिए था कि वह माँझी को जानती अवश्य थी परन्तु शायद अभी तक समझ नहीँ सकी थी । शायद उसे अभी तक उसको अच्छी तरह समझने का अवसर भी नहीं प्राप्त हुआ था । फिर माँझी का व्यक्तित्व भी कुछ ऐसा ही था । गम्भीर-खामोश-अक्सर कम बोलनेवाला । दूर न जाने कितनी अधिक दूरियाँ नापती हुई उसकी आँखें । आँखों में दुनिया-जहान के प्रश्नचिन्ह । ऐसे पुरुष को कोई आसानी से समझ भी कैसे सकता था ? शायद एक सही कलाकार का व्यक्तित्व होता भी ऐसा ही है- संशयभरा- सदिग्ध- अपरिभाषी-सा । फिर सुधा को खामोश देखकर आडवाणी ने उससे माँझी के विषय में कहा,


" यह लड़का तो ठीक है, लेकिन बोलता कम है? "
"हाँ । लेकिन जितना भी बोलता हैँ, वह अमिट ही होता है । " सुधा बोली ।
"वह कैसे ? "
"देखा नहीं आपने अभी । कैसी कठोर सत्य और महत्त्वपूर्ण बातें कहकर वह गया है । " सुधा ने कहा तो आडवाणी प्रश्चसूचक दृष्टि से ताकते हुए उससे बोले,


" भई, यह सब चक्कर क्या है ? क्या आप उसे पहले से जानती हैं ? ”
"हाँ !”
"वह कैसे ? ”
"मैने कहा न कि रोमांचित है । फिर कभी बताऊँगी । ” सुधा ने कहा तो आडवाणी उत्सुक होकर बोले,


" फिर कभी क्यों ? आज बताओ, और अभी । चलो साथ चलकर कॉफी भी पी लेते हैँ । ” कहते हुए आडवाणी उसे अपने कार्यालय में ले गए । अन्दर पहुँचकर उन्होंने चपरासी को कॉफी लाने को कहा और फिर सुधा से बोले,


"हाँ, अब बताइए, सारी बातें विस्तार से । "
आडवाणी कुर्सी पर आराम से निश्चिन्त होकर बोले तो सुधा ने उनको आरम्भ से लेकर सारी बातें बता दीं । उनको बता दिया कि कैसे उसकी माँझी से पहली-पहली भेंट हुई थी । वह घायल हुआ था । उसने उसकी टाँग तोड़ दी थी । कितने जोखिम में अपने को डालकर माँझी ने उसकी जीवन रक्षा की थी । एक बार उसने उसे समाज के बुरे लोगों से बचाया था, और दूसरी बार उसे नदी के जल में डूबने से ।
इतने में चपरासी कॉफी लेकर आ गया तो सुधा कॉफी बनाने लगीं । तब काफी सोचकर आडवाणी ने पूछा,


" आप तो मॉडलर हैँ, और इतनी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ होने पर भी अख़बार कैसे चुप रहे ?"
"वह सागर नहीं चाहता था कि मैं बिना वज़ह सुर्खियों में आऊँ । ”
सुधा के इस उत्तर पर आडवाणी ने एकदम प्रश्न कर दिया । बोले,


" आप सुर्खियों में न आएँ या माँझी जैसा महान् मूर्तिकार लोगों की नज़रों से छिपाया जा सके ?"
" अब यह तो मैं नहीं जानती, पर यह सब सागर की ही इच्छा थी । "
'खैर ठीक हैं, आप कॉफी पिएँ । "


यह कहकर आडवाणी ने बात समाप्त कर दी और सुधा भी कॉफी समाप्त करके चली आई ।




शाम हो चली थी…
सूर्य का गोला दूर क्षितिज मैं अपनी रही…बची रश्मियों के साथ दूसरे दिन की सुबह तक विलीन होने के लिए सारी प्रकृति को नमस्कार कर रहा था । दिनभर के थके-हारे पक्षी भी अपने नीडों की और उड़े चले जा रहे थे ।
सुधा जैसे ही घर मैं घुसी, सागर अपने पूर्ण अधिकार के साथ उसकी प्रतीक्षा कर रहा था । शायद कहीं जाने की तैयारी में था । वह सुधा को देखते ही बोला,


"कितनी देर लगा दी । अब जल्दी से तैयार हो जाओ, चलते हैं । "
"चलते हैं, कहाँ ? " आश्चर्य से सुधा ने पूछा ।
"कहीं भी, जहाँ तुम चाहो !"
"कहीं भी । मतलब ?" सुधा और भी आश्चर्य कर गई, तो सागर मुस्कराकर बोला,


"जहॉ तुम जाना चाहो, वहीँ चलेंगे । ”
" पर मैं तो कहीं जाना नहीं चाहती हूँ । वैसे भी बहुत थकी हुई हूँ । " सुधा ने अपनी मज़बूरी बताई तो सागर ने पूछा,


"ऐसा क्या करती हो दिनभर, जो थक जाती हो ? "
'" क्यों ? कॉलेज, आडवाणी और वह मूर्तिकार मॉझी...क्या ये सब काम नहीं है ? "
" पर अभी तो मूर्ति का कार्य आरम्भ भी नहीं हुआ है । "
" आज़ मीटिंग थी, और शायद काम भी अगले सप्ताह से शुरू हो जाएगा । बस, माँझी के ऊपर निर्भर है, कि वह कब आरम्भ करता है । "
इस पर सागर जैसे चिन्तित होकर बोला,


"सुधा ! "
“हाँ ! क्या ?"
"एक बात कहूँ ?"
“यह अनुमति लेने की आवश्यकता तुम्हें कब से पड़ गई ?"
"भई बात ही ऐसी है ।"
"कैसी बात ? " '
"जब तुम्हारी 'स्टेच्यू' बने तो होशियार रहना । ”
" तुम्हारा मतलब ? "
"माँझी की दृष्टि से । उसकी भावनाओँ से । "
“' ओह ! " सुधा ने एक गहरी साँस ली । फिर प्रश्वसूचक दृष्टि से सागर से बोली,


"तुम्हें मुझ पर विश्वास है कि माँझी की भावनाओँ पर शक ?"
“दोनों ही । "
“ठीक हैं, न मैं उसकी भावनाओँ को उफान दूँगी, और न ही तुम्हारे विश्वास को ठेस । "
सुधा ने कहा तो सागर के मुख पर एक पूर्व आती हुई विजय की मुस्कान जैसे थिरक गई ।
इसी बीच फोन की घंटी बजने लगी, तो सुधा फोन उठाने दूसरे कमरे में चली गई ।
आडवाणी का फोन था ।
वे परेशान थे और चिन्तित भी । साथ ही सुधा ने सुना तो वह भी आश्चर्य कर गई । फिर आडवाणी को आश्वस्त करते हुए बोली,


"आप निरिचन्त रहें, मैँ सब सँभाल लूँगी । मैं मिलती हूँ उससे अभी । ”
बात समाप्त करके सुधा वापस आई तो उसके चेहरे पर आईं परेशानी और विस्मय की लकीरों को देख सागर ने आश्चर्यभरे स्वर में उससे पूछा,


" क्या बात है ? किसका टेलीफोन था ?"
“ आडवाणी का । पर वे । ” कहते-कहते सुधा रुक गई ।


" क्यों, क्या हुआ उन्हें ? सब ठीक तो है ?"
"बड़े परेशान हैं ।"
"क्यों ?”
"वह माँझी...वह... ?"
सुधा बीच में फिर रुकी तो सागर आश्चर्य से उठ खड़ा हुआ । फिर चकित होते हुए विस्मय से बोला,


" क्या हुआ उसे ? "
"हुआ तो कुछ नहीं । उसने मेरी 'स्टेच्यू' बनाने से इनकार कर दिया है । "
" अजीब बात है । कभी हाँ बोलता है, कभी नहीं । कैसा पुरुष' है ? " सागर के मस्तिष्क पर भी विस्मय के बल पड़ गए । फिर थोडी देर के पश्चात् वह सुधा से सम्बोधित हुआ,


"सुनो ! "
" ...?" सुधा ने उसे प्रश्नसूचक दृष्टि से निहारा ।
" तुम्हारी कोई बात तो नहीं हो गई है उससे ?" सागर ने पूछा ।
सागर के इस प्रश्न पर सुधा ने थोड़ी देर शून्य में निहारते हुए सोचा । फिर बोली,


"बात तो कोई ऐसी विशेष नहीं है पर आज जब उसे अचानक से पता चला था कि मूर्ति मेरी ही बनानी है, तो क्षुब्ध अवश्य हो गया था वह । लगता है कि उसे मेरी यह बात पसन्द नहीं आई है ।”
"कौन-सी बात ?"
“यही कि मैंने उसे पहले से अपने बारे में अवगत क्यों नहीं कराया था कि मूर्ति मेरी ही बननी है, ओंर मॉडलर मैं ही हूँ ।"
“नहीं, नहीं, यह नहीं हो सकता है । उसे क्षुब्ध होना था तो तब होता, जब तुमने उसकी टाँग तोड़ी थी । नाराज़ तो तब होना चाहिए था, जबकि मैं और तुम उसे बदमाशों के बीच अकेला छोड़कर भाग आए थे ।" सागर ने तथ्य दिए तो एक बार को सुधा भी उससे सहमत हो गई । फिर विचारते हुए बोली,


" फिर क्या बात हो सकती है ?"
"यही तो मैं भी सोच रहा हूँ । " सागर के मस्तिष्क पर पुन: बल पड़ने शुरू हो गए ! तब सुधा ने उससे कहा,


"तुम ऐसा करो कि आज का कोई भी प्रोग्राम स्थगित कर दो । मैं माँझी से मिलती हूँ । तुम तो जानते हो कि मेरा उससे मिलना बहुत आवश्यक है, वरना अगर वह नहीं माना तो अग्रिम ली गई धनराशि मय ब्याज के वापस करनी होगी । "
"ठीक है, मैं चलता हूँ । तुम मुझे फोन करना, जैसा भी हो । ” सागर ने कहा ।
फिर सागर वहाँ से चला आया ।



उसके जाने के पश्चात् सुधा कुछेक पल को र्किकर्तव्यविमूढ़-सी खडी रही । इसी ऊहापोह में खड़ी-खड़ी सोचती रही कि उसे क्या करना चाहिए । पहले आडवाणी से मिले या माँझी को फोन से बात कर ले ? यहीँ सोचकर उसने उसके घर का नम्बर डायल कर दिया । दूसरी और घण्टी बजी तो फोन का रिसीवर मंजु ने उठाया । मंजु से सुधा ने माँझी के बारे में पूछा तो उसने बताया,


" भैया तो अभी तक वापस ही नहीं 'पहुंचे हैं । "
इस पर सुधा पलभर को खामोश हो गई ।
" क्या कोई विशेष काम है या कुछ कहना है उनसे ? " मंजु ने पूछा ।
"नहीं, कोई खास नहीं । वह वापस आएँ तो कहना मुझे फोन कर लें । "
इतनी सूचना देकर सुधा ने फोन रख दिया । फिर बाद में वह स्वत: ही माँझी के लिए सोचने लगी...
कहाँ जा सकता है ? स्टेच्यू' के कार्य के लिए यूँ अचानक से मना क्यों कर दिया ? फिर मना ही करना था तो पहले अपनी स्वीकृति क्यों दी थी ? अवश्य कोई बात है, नहीं होती तो इतना सब…कुंछ नहीं होता ।" कोई भला क्यों हाथ आई दौलत को अस्वीकार कर देगा ? ऐसी स्थिति मेँ जब उसे पैसों की सख्त आवश्यकता भी है । समझ में नहीं आता कि ये कलाकार लोग किस मिट्टी के बने होते हैं ? पलभर में ही सुबह और शाम की लाली और धुँधलका इनके चेहरों पर देखते रहो । कोई नहीं जानता कि कब क्या कर बैठें ? होनी-अनहोनी, अच्छी और बुरी बात से इन्हें कोई सरोकार नहीं जैसे बस अपने ही में मस्त । अपनी ही धुन में । दुनिया के अन्य लोगों से क्या भगवान् ने भी इन्हे अलग ही बनाया है ? कहाँ मिलेगा ? कहॉ जा सकता है ? ये माँझी-कहाँ ,है इसका ठिकाना ? इस डूबती हुई शाम की ख़ामोशी में ?"
सोचते-सोचते सहसा ही उसे ख़याल आया कि-मक्रील ! नदी का किनारा । खामोशी का दीवाना । सन्नाटों का आशिक । दरिया की लहरों से बातें करने का


आदी । छलछल करती हुईं उसकी लहरों का संगीत सुननेवाला । दुनियावालों की भीड़ से सदा दूर भागनेवाला । एक कलाकार इस वक्त और कहॉ हो सकता हैं ? ऐसा ख़याल आते ही उसने कार 'मक्रील ' की ओर दौड़ा दी । इस प्रकार कि वह शीघ्र ही वहाँ पहुँच जाना चाहती थी । शीघ्रता में उसने कार की गति पर भी ध्यान नहीं दिया । कार भागी जा रही थी । सडक के किनारे खड़े हुए नीम और आम के वृक्ष भी साथ-साथ कार के पीछे भागने लगे थे । शाम गहरा गई थी, इसलिए शहर की जगमगाती हुई विद्युत बत्तियाँ भी तीव्रता से पीछे छूटती जा रही थी।
अपने विचारों के अनुरूप, सुधा का अनुमान भी सही निकला । उसने 'मक्रील' के पुल के ऊपर एक किनारे कार रोककर नदी को दोनों ओर की कच्ची पगडण्डियों की तरफ़ निहारा, तो उसे देखते ही समझते देर नहीँ लगी । दूर कच्चे रेतीले नदी के तट पर, वृक्षों के साये में । एक छाया । बिलकुल खामोश । अपने में खोई हुई । कुछ निराश, उदास-सी बैठी हुई नदी के शान्त जल की लहरों को जैसे अपने दिल की निराश कामनाओं की दास्तान सुनाने में लीन थी ।
वह माँझी ही था । अकेला । नितान्त अकेला । अपनी जीवन-संगिनी 'नैया' से दूर । अपने प्यार से महरूम । तन्हा-तन्हा । अनाथ-सा, जैसे दुनिया के सारे रिश्ते-नाते उसके लिए बेदम हो चुके थे ।
सुधा को पहचानते देर नहीं लगी । शीघ्र ही कार उसने नदी की कच्ची रेतीली पगडगडी पर उतार दी । वह अतिशीघ्र ही उसके पास पहुँच जाना चाहती थी । थोडी देर बाद कार उसने माँझी के क़रीब ही जाकर रोक दी । फिर जैसे ही वह कार से उतरी, माँझी ने कनखियों से उसे निहारा और पुन: नदी के जल की और देखने लगा । "


अच्छा, अब मुख फेरकर दूसरी तरफ देखना और पहचानकर भी अनजान बनना सीख लिया है आपने ? ” सुधा ने पास आकर उससे शिकायतभरे स्वर में कहा
"यहा क्यों आई हैं आप ?"
सुधा के प्रश्न के उत्तर में माँझी ने प्रश्न कर दिया तो वह और भी अधिक विस्मय से चकित हो गई । एक पल उसने माँझी को निहारा, फिर तपाक से बोली, "ऐसे मत बनो जैसे कि कुछ जानते नहीं हो । आपको अच्छी तरह से मालूम है कि मैं यहाँ क्यों आईं हूँ । "
“कहना क्या चाहती हैं आप ? "
"आपको अच्छी तरह मालूम है कि मैं क्या कहना चाहती हूँ ।
” ...?”
" इस पर माँझी ने उसे एक पल निहारा, फिर कुछ कहने को हुआ कि सुधा बीच में ही उसे रोक दिया । बोली,


“मैं यहाँ कोई भी बात नहीं सुनूँगी । पहले आप कार में बैठें । वैसे भी यह नदी का सुनसान इलाका । रात भी पड़ने लगी है और ऐसे में एक जवान लड़की? मुझे कुछ अगर हो गया तो... ? ” सुधा की इस बात पर माँझी तुरन्त कार में बैठ गया । बाद में सुधा भी बैठ गई और फिर उसने कार वापस पुन: शहर की ओर दौड़ा दी । रास्ते भर दोनों मूक बने रहे । कोई भी कुछ नहीं बोला । कार भागती रही । इस क़दर कि साथ ही माँझी का मस्तिष्क जैसे आनेवाली किसी विपत्ति के विषय में सोच-समझकर बेमकसद ही ताने-बानों में उलझा जाता था ।
सुधा चुपचाप कार चलाए जा रही थी । अपनी बगल में बैठे हुए माँझी की उपस्थिति से अनभिज्ञ होकर उसका भी मस्तिष्क विचारों में उलझा हुआ था । फिर थोडी ही देर में उसने कार होटल 'मयंक' के प्राँगण में लाकर रोक दी।
' मयंक ' का बाहर का वातावरण वैसे ही रंगीन दिख रहा था । उसके चारों और रंग-बिरंगी विद्युत् बत्तियाँ जगमगा रही थीं । रंगीन युवा जोड़े उसके अन्दर-बाहर आ-जा रहे थे । कुछेक उसके बाहर के प्राँगण में खड़े-खड़े अपने प्यार की झूठी-सच्ची 'कसमें खाने मेँ लीन थे ।
सुधा कभी की कार से उतर चुकी थी, पर वह माँझी के बाहर आने की प्रतीक्षा कर रही थी । पर वह सारी दुनिया से बेख़बर अपने में ही खोंया हुआ था । " अब बाहर भी निकलोगे या अन्दर ही बैठे रहने का इरादा है ? " सुधा ने खिडकी के अन्दर झाँकते हुए माँझी से कहा तो यकायक चौंक गया । उसने चुपचाप सुधा को देखा । सुधा की आँखों में उसके लिए कोई आग्रह और आमन्त्रण था । एक अपनत्व था, पर शायद अपनी मज़बूरी के दायरे में । छिपी-छिपी विनय-सी ।
वह चुपचाप निकलकर बाहर आ गया और खड़े होते ही बोला,


"सुधाजी ! मैं आपसे बहुत दिनों से कुछ कहना चाहता हूँ । "
“..... ?”
सुधा ने आश्चर्य और संकोच के समन्वय में उसे चुपचाप निहारा । फिर अपने-आपको संयत करते हुए बोली,


" अभी कोई बात नहीं कहनी-सुननी है । पहले चलकर कॉफी पीते हैँ । अपने-अपने दिमाग़ को ठण्डा करो पहले । "
"किसका मस्तिष्क गर्म है ?" माँझी ने पूछा ।
“ आपको नहीं मालूम ?" सुधा ने उसे भेदभरी दृष्टि से देखा ।
"मेरा मस्तिष्क तो सदैव ही ठण्डा रहता हैँ । ” माँझी बोला ।
"'.. ?" - खामोशी रही ।
सुधा ने उसे चुपचाप अपलक निहारा । फिर व्यंग्यभरी मुस्कान बिखेरते हुए बोली,


"हाँ, मुझे मालूम है कि कब आपका मस्तिष्क ठण्डा रहता है और कब गर्म । इसलिए मक्रील के तट से जबरन पकड़ कर यहाँ लाई हूँ ।"


"तो आप क्या समझती है' कि में वहाँ आत्महत्या करने के लिए खड़ा था क्या?"
" क्या भरोसा आवारा बादल का ? जिधर मुँह उठा, उधर ही चल दिया । " सुधा ने कहा । फिर वह अन्दर प्रविष्ट हो गई । पीछे से माँझी भी चला गया-चुपचाप ।
दोनों अन्दर जाकर एक खाली मेज़ पर बैठ गए । बैरा पानी के दो गिलास और मीनू रखकर चला गया था । अधिकांश मेजें भर चुकी थीं । अन्दर का वातावरण और भी अधिक रंगीन लग रहा था... । सामने कोने की ओर रखे हुए वीडियो टीवी. पर प्रशान्त नन्दा की नई फिल्म 'नैया' का कैसेट चल रहा था। टी.वी . पर दृश्य चल रहा था, एक गीत के साथ- 'तेरे आने से सज गई ये टूटी-फूटी नाव….
माँझी चुपचाप उस दृश्य को देखने लगा । गीत को सुनने लगा । गीत के बोल उसे बड़े ही प्यारे और दिल को छूनेवाले-लग रहे थे । माँझी जैसे उस गीत में खो गया था ।
इसी बीच बैरा दोबारा. आया तो सुधा ने उसे खाने का ऑर्डर दे दिया । अपनी पसन्द का । बिना माँझी की पसन्द पूछे बगैर । यह उसका कैसा अधिकार था? कोई नहीं जानता था । माँझी फिल्म देखने में लीन था । सुधा ने उसको इस मुद्रा को देखा, तो वह भी चुपचाप वीडियो कैसेट पर चलती फिल्म का दृश्य और गीत देखने लगी... ।
कैसा संयोग था ? एक फिल्म का ' माँझी ' अपनी नाव में बैठे हुए यात्री को देखकर खुशी से झूम रहा था । नाच…गा रहा था, तो दूसरी तरफ मेज़ पर बैठा हुआ माँझी अपनी सूनी खाली नाव में किसी के आने की आस में नज़रे बिछाए बैठा था।
तभी बैरे ने खाने की प्लेटें लगानी आरम्भ कीं तो दोनों का ' ध्यान भोजन की खुशबू की और आकर्षित हो गया । बैरा रखकर चला गया, तो माँझी ने आश्चर्य से खाने को देखा, फिर सुधा को निहारा । तब कहा,


" यह क्या ?"
"शाम का खाना है और क्या ? दिनभर से तो कुछ खाया नहीं और अब भी कुछ खाने का इरादा नहीं है क्या ? " सुधा ने कहा ।
"इतना खयाल है आपको मेरा ?" माँझी ने कहा ।
“नहीं । ”
"तो फिर तरस खा रही हैं आप मेरी दशा को देखकर ?"
"ऐसी भी बात नहीं है ।"
" आप तो कुछ कहने-सुनने की खातिर ही यहाँ लेकर आईं है' मुझे ?"


"वह बाद में पूछुँगी, आराम से । "


“ इसका मतलब कुरबानी से पहले बकरे का ख़याल रखने की तैयारी है । "
“ मिस्टर माँझी साहब... !" सुधा ने उसे टोका ।
" ...? "
"तो फिर यह सब क्या है ? " माँझी आश्चर्य से बोला ।
" अपने बचानेवाले को बचाने की चेष्टा कर रही हूँ बस । ”
“किस बात से ? "
"दुनिया की ऊँच-नीच से और इसके पश्चात् अब कोई प्रश्व नहीं । "
सुधा ने उसे आदेश-सा दिया, तो माँझी पुन: चुप हो गया । फिर सुधा ने खाना आरम्भ किया तो माँझी भी खाने लगा । खाने के मध्य ज्यादातर दोनों में' से कोई कुछ नहीं बोला ।
फिर खाना समाप्त करके और एक प्याला कॉफी लेने के पश्चात् माँझी के साथ वापस आ गई ।
माँझी अभी तक खामोश ही था । यूँ भी अधिकांशतया मूक और शान्त बने रहना उसकी आदत में समाया हुआ था । सुधा चुपचाप कार चलाए जा रही थी। सड़क का यातायात रात्रि के बढ़ने के साथ-साथ कम होता जा रहा था । अमावस्या का अन्धकार था, इस कारण चन्द्रमा नदारद था और छोटी-छोटी तारिकाएँ ही रात्रि के अन्धकार को छिपाने का एक असफल प्रयास कर रही थीं ।
सहसा ही सुधा ने बात आरम्भ की । उसने धीरे-से शान्त स्वर में कहा,


"आपने क्या कहीं अच्छी-सी नौकरी कर ली है ? "
"नहीं तो । "
"तो फिर आपके पिताजी नौकरी पर पुन: बहाल कर दिए गए हैं । “
"वह भी नहीँ । "
"तो आपकी शायद लॉटरी वगैरह निकल आई है ? "
“किस्मत की रेखाएँ पढ़कर पेट की आग शान्त करनेवाले बुजदिल हुआ करते हैं । मैं कभी लॉटरी नहीं लगाता ! " माँझी ने आश्चर्य से पर चौंकते हुए उत्तर दिया ।
इस पर सुधा ने उसे गौर से निहारा । फिर हल्के-से मुस्कराई । एक व्यंग्यभरी मुस्कान उसके चेहरे पर क्षणभर को आई और चली गईं । तब वह आगे बोली, “कर्म पर विश्वास भी करते हैं; और कर्म करने के लिए आगे बढ़कर पीछे भी हटते हैं । कैसे पुरुष हैं आप ?"
"मैंने मूर्ति बनाने का " आँफ़र' इस कारण नहीं ठुकराया कि मैं कर्मों पर विश्वास नहीं करता । " माँझी ने कहा । इस पर सुधा ने एक फीकी मुस्कान छोड़ी । फिर बोली, "बडी जल्दी समझ गए ? "
"समझुँगा क्यों नहीं । आपको एक ज़माने से जान रहा हूँ । "
"चार माह के समय को आप एक ज़माना कहते हैं । ” सुधा ने पूछा ।
"यह आप कहती हैं' । यह आपका गुणा-भाग हैं । कभी समय आया तां बता दूँगा कि आपको कब से जानता हूँ।"
"खैर, छोडिए इस बात को । सीधी-सीधी बात कर लेते हैं । ये बताइए फि मैं किस अधिकार से आपके व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप करूँ ? "
“ आप किस अधिकार से मुझे 'मक्रील' के किनारों से लेकर यहाँ आई थीं । और किस अधिकार के फलस्वरूप मैंने आपकी आज्ञा का पालन किया है ? " प्रश्न के उत्तर में माँझी ने प्रश्न कर दिया तो सुधा चौंक गई । फिर बोली,


"तो फिर हाथ आई दौलत ‘को यूँ ठुकरा क्यों रहे हैं ?"
" अपनी-अपनी झोली की बात हैं सुधाजी !" कहकर माँझी ने एक गहरी साँस ली, फिर बात को जारी रखते हुए आगे बोला,


" किसी का पेट लाखों-करोडों से भी खाली रहता है, और किसी का अपनी पसन्द का खोटा, चला-चलाया सिक्का आने से ही भर जाता हैं ।"
" क्या मतलब ?" सुधा ने कहा ।
" कुछ भी नहीं । यह बताइए कि मेरे मूर्ति न बनाने से आपको एतराज क्यों है ? " माँझी ने प्रश्न कर दिया तो सुधा भी क्षणेक को चौंक गई । वह थोडी देर को चुप ही रही । फिर कुछ सोचते हुए बोली,


" क्या आपको पैसों की ज़रूरत नहीं है ? आपके पिताजी भी नौकरी से अलग हैं । आपके पास भी कोई आय का अन्य साधन नहीं है । ऐसे में क्या घर का चूल्हा वहाँ नदी के किनारे दिनभर धूप में तपते रहने से जलता है ?"
"इसका मतलब पेट को आग शान्त करने के लिए मनुष्य अपने आत्मसम्मान का भी सौदा कर ले ?"
"आत्मसम्मान ? क्या मतलंब ? मूर्ति मेरी बनेगी । मान-मर्यादा मैरी दाँव पर लगेगी । फिर भी... ?"
“मैं आपका बहुत सम्मान करता हूँ । जिस तरह की मूर्ति मिस्टर आडवाणी बनवाना चाहते हैं उस तरह की बनाकर मैं दुनियावालों के सामने , आपके बदन का तमाशा बनाकर, अपने दिल की भावनाओँ की बेक़द्री नहीं कर सकता सुधाजी...! "
"... ?"
सुधा की छाती पर अचानक ही धमाका-सा हो गया । इस प्रकार कि कार का सन्तुलन भी डगमगा गया तो उसने कार में अचानक ही ब्रेक लगा दिए । कार सड़क के पेट पर चीं...चीं...ई..॰करती हुई एक किनारे जाकर खड़ी हो गई ।
माँझी खामोश था और सुधा ? वह सकते में आ गई थी । इसलिए नहीं कि माँझी ने मना कर दिया था, बल्कि इस कारण कि उसके इतने प्रयासों के बावजूद भी वह इस युवक को समझने में अभी तक असफल ही रही थी । उसे लग रहा था कि वह अब तक इसको जैसे समझ भी नहीं सकी थी…समझ नहीं सकती थी ।


उसका व्यवहार । उसका आचरण । उसके मन के जज्बात और शायद कहीँ चुपचाप उसके दिल के उठते हुए झंझावात्तों का कारण ।
"कैसे मानेगा यह ? कैसा है इसका मस्तिष्क ? न बातों से मानता है, न दौलत से, न बहलाने से और न ही समझाने से । " सुधा चुपचाप ऐसा ही कुछ सोचे जा रही थी ।
फिर थोड़ी देर बाद उसने अपना अन्तिम तीर चलाया । वह माँझी से बोली,


“सुनिए ।”
"क्या ?" माँझी ने उसे गौर से देखा ।
" आप मेरी बहुत इज्जत करते हैं ? "
"हाँ ! "
"तो फिर आप समझते क्यों नहीं कि मेरी इज्ज़त भी इसी में है कि आप आडवाणी जी को अपने दिए हुए वचनों को पालन करें । "
"मैँने उन्हें कोई वचन नहीं दिया है । यह तो एक व्यापारिक समझौता था । " माँझी ने तर्क दिया ।


" फिर भी, मेरी खुशी उसी में है कि आप अपने मन को समझा लें, और अपना कार्य पूरा करें । तथा आप ही मेरी मूर्ति बनाएँ । इसके बाद मैं वायदा करती हूँ कि कभी भी आपको आपकी इच्छा के विरुद्ध कोई भी कार्य करने के लिए बाध्य नहीं करुँगी । ” सुधा ने याचना-सी की ।
“...?”
सुधा के इस आग्रह ने उसे खामोश रहने पर बाध्य कर दिया । वह कुछ भी कह नहीं सका । बस, चुप बना रहा । आँखें नीचे किए हुए । सिर झुकाए अपने विचारों में उलझा रहा । बडो देर तक सोचता रहा । कभी सुधा को देखता तो कसी दूर-दूर तक जगमगाती हुई विद्युत बत्तियों को, जो धीरे-घीरे पीछे खिसकती जा रही थीं ।
सुधा भी चुप थी और प्रतीक्षा कर रही थी माँझी के उत्तर की, जो उसकी इच्छाओं के अनुकूल भी हो सकता था और प्रतिकूल भी, लेकिन इतना तो उसने भी निर्णय ले लिया था कि अब वह माँझी से कुछ भी नहीं कहेगी । चाहे वह अब भी नहीं माना तो भी-वह इस बात को भूल ही जाएगी । कहने से भी क्या लाभ ? फिर किसी को बार-बार कुरेदना और छेड़ना भी तो नहीं चाहिए । सबकी अपनो-अपनी मर्जी होती है ।
"ठीक है सुधाजी, यदि आप यही चाहती हैं...लेकिन… "
" क्या ?" सुधा की आँखों में उम्मीद की एक चमक आई ।
"मेरी एक शर्त होगी ।"
"वह क्या ?"


“मैं" मूर्ति आपको देख-देखकर नहीं बनाऊँगा । ”
“तो फिर कैसे बनाएँगे ? " सुधा ने आश्चर्य से पूछा ।
“ आपको फोटोग्राफ़र से अपनी विभिन्न मुद्राओं की प्रत्येक कोणों से अपनी तस्वीरें खिंचवानी होंगी । फिर वह तस्वीरें आप मुझे दे दीजिए । मैं उन्हीं तस्वीरों के सहारे आपकी सुन्दरता पत्थर में भरने का प्रयास करूँगा । "
“... ?” सुधा माँझी की इस अप्रत्याशित बात पर आश्चर्य से दंग रह गई । एक संशय के भाव से उसने तुरन्त पूछा,


" क्या मूर्तियाँ बनाने का आपका ये पुराना तरीका है, या फिर केवल मेरे कारण... ? ”
" कुछ भी समझ लीजिए । लेकिन मैं ऐसा ही चाहता हूँ । "
माँझी ने गम्भीरता से कहा तो सुधा प्रसन्नता मेँ बोली,


"ठीक है । वैसा ही होगा जैसा कि आप चाहते हैं । "
कहते हुए उसने कार पुन: चालू कर दी ।
फिर थोडी ही देर में कार की गति हवा से बातें कर रही थी तो सुधा के मुख पर एक विजयी मुस्कान भी थी । साथ ही माँझी के चेहरे पर एक भरपूर गम्भीरता । गम्भीरता भी ऐसी जो उसके व्यक्तित्व के लिए ख़ामोशियों की मोहताज बनकर रह गई थी । उसकी इन ख़ामोशियों को चारदीवारी के पीछे क्या-क्या छिपा हुआ था ? दिल की हसरतों का वह कौन-सा दर्द था जिसका एहसास कोई भी नहीं कर सका था । कैसा है यह पुरुष ? इसका स्वभाव । इसकी भावनाएँ । तरसी-तरसी-सी निगाहों के अन्दर कोई छिपी-छिपी-सी आरजुएँ । दूर ज़माने के अँधेरों से प्रकाश की एक रश्मि की भीख माँगती हुई उसकी मूक दृष्टि जैसे अन्दर-ही-अन्दर उसकी प्रत्येक पल कम होती हुई जिन्दगी, रात की शमा की तरह अपनी गलती हुई हसरतों की राख समेट रही हो । उस बेबस माली के समान, जिसके चमन के सारे फूल ’एक-एक करके बगैर किसी बात के उसकी आँखों के सामने कुंम्हलाते जा रहे हों ।
कार चलाते हुए सुधा का दिल कभी-कभी इसी प्रकार की बातें सोचने लगता था । 'बार-बार वह माँझी के लिए सोचने को विवश हो जाती थी ।
जाडे की रात । भरतपुर सन्माटे की गिरफ्त में था... सारी वनस्पति के पेड़-पौधे सिर झुकाए सो रहे थे । रात्रि का दूसरा पहर था और आकाश से ओस की बूँदें रिस-रिसकर धरती की प्यास बुझाने का प्रयत्न कर रही थीं । चारों तरफ़ खामोशी थी । भरपूर रात्रि की नीरवता । कभी-कभार कहीं । दूर किसी चौकीदार के खाँसने का स्वर सुनाई देता था, तो कभी पास ही से गुज़रती हुई रेलवे-लाइन का सीना चीरते हुए कोई ट्रेन क्षणभर को रात की इस खामोशी का गला घोंटकर धड़धड़ाती हुई निकल जाती थी । इस तरह कि अपनी नींद से यकायक चौकन्ने होकर आसपास की बस्तियों के कुत्ते तक भौंकने लगते थे । सारा आलम दुनिया के हर दुख-दर्द से बेख़बर जैसे सोया पड़ा था । चारों तरक एक चुप्पी-सी छाईं हुईं थी । परन्तु फिर भी वातावरण की इस बेकस मायूसी के गर्भ से जैसे कोई अनकही, अनजानी पुकार-सी उठती और अपने बिस्तर पर नींद से बेख़बर पडी सुधा के दिल-दिमाग़ और शरीर को झकझोर जाती थी । कहीं दूर-और बहुत दूर से किसी का दर्दीला स्वर उसे सुनाई देता । उसके पास अाता-फिर उसके कानों से होता हुआ, उसके मस्तिष्क और दिल के ज़ज्बातों को जैसे कलंकित करके, निराश थकाथका-सा मायूस होकर वापस लौट भी जाता था ।



जब से वह माँझी को छोडकर आईं थी, तब से ही उसका यह हाल था । पलकें भारी थी, पर आँखों में नींद नहीं थी । बार-बार माँझी और उसका वजूद उसके सामने आ खड़ा होता था और अपनी खामोशी में भी एक प्रश्चचिह्र छोडकर लुप्त भी हो जाता था । माँझी के चेहरे पर उसको उदास आँखों की गहराइयों में डूबे हुए वे ढेर सारे अनकहे प्रश्न थे, जो अक्सर अपने उत्तरों के मोहताज बनकर उसकी और एक उम्मीदभरी दृष्टि से ताकने लगते थे । कभी-कभी वह इस बात को महसूस तो करती थी कि जैसे माँझी की सारी परेशानियों और उसके दिल की समस्त उदासिंयों का समाधान केवल उसके ही पास है । वह ही उसकी पीड़ा को हल कर सकती है । माँझी के दर्द की दवा उसके पास ही है । वह जैसे उससे कुछ कहना चाहता है । पर कह नहीं सकता है । आँखों से उसे निहारता है, पर मन की बात ओठों पर आने से पहले ही लौट जाती है । वह उससे कुछ भी कहती है तो मान जाता है । ज्यादा तर्क भी नहीं करता है । ऐसा क्यों करता है ? क्यों कर रहा है वह यह सब ? वह तो उसको एक ज़माने से जानता है । माँझी के कहें हुए ये शब्द बार-बार उसके दिल के तारों को झकझोर जाते थे । अभी दो माह पूर्व ही तो वह माँझी से परिचित हुईं है और वह कहता है कि वह उसको एक ज़माने से जानता है । ऐसा कैसे हो सकता है ? "चन्द दिनों की मुलाकातें किसी के दिल के तारों को क्षणभर की झनकारें तो दे सकती हैं, पर जीवनभर का सुगम संगीत नहीं । आपस की जान-पहचान किसी की पसंद तो बन सकती है, पर दो दिन में एक-दूसरे की चाहत और तसल्ली कैसे बन जाएगी ? क्या ऐसा हो सकता है ? क्या ऐसा हो चुका है ? कहीँ माँझी से प्यार तो नहीं करने लगा है ? प्यार ? लेटे-लेटे सुधा ने सोचा तो स्वत: ही उसके सारे शरीर में एक सरसराहट-सी हो गई । इस प्रकार कि वह तुरन्त ही उठकर बैठ गई । उसे लगा कि जैसे किसी अनजानी छाया ने आकर उसको छू लिया हो । एक अनजाने अपरिचित स्पर्श से वह जैसे चौंक गई हो । नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है ? ऐसा हो भी कैसे जाएगा ? माँझी ऐसा नहीं कर सकता । फिर वह कहेगा भी किस आशा पर ? उसे अच्छी तरह ज्ञात है कि वह सागर से शीघ्र ही विवाह करने जा रही है । वह दूसरे की हो चुकी है । दूसरे की पत्नी बनने जा रही "है । वह तो उसकी इज्जत करता है । प्यार कैसे कर सकता है ? फिर पूजा और प्यार में बहुत असमानता भी तो होती है ।



इस प्रकार सुधा ने स्वयं ही प्रश्न किए और स्वयं ही उनके उत्तर लूँढ़कर खुद को संतुष्टि दे ली । वह थोडी देर को निश्चिन्त हुईं तो इसी बीच समस्या का दूसरा पहलू नज़र आ गया । ' क्या करेगी वह, अगर यह सच निकला ? इतना कडवा सच कि जो कोई भी कल को यह सुनेगा कि माँझी तो उसे प्यार करता है । फिर क्या वह यह सब सहन कर सकेगी ? सागर सुनेगा तो क्या वह भी बर्दाश्त कर लेगा ? लोग क्या कहेंगे... ? नहीं, वह इसकी नौबत ही नहीं आने देगी । यदि ऐसा है । अगर यह सच भी निकला-माँझी उसका दीवाना है, उसे प्यार करता है, उस पर जी-जान से मरता है, तो करने दो उसे यह सब । वह उसे प्यार करने से रोक तो नहीं पाएगी, पर अंकुश तो लगा ही सकती है । उसकी भावनाओँ को कोई हवा नहीं देगी । उससे दूर-दूर ही रहेगी । यह उसका एकतरफा प्यार है । इसमें वह सम्मिलित नहीं होगी । वह अगर आगे बढ़ने की कोशिश करेगा तो बहुत-ही अच्छे बहाने से उसे टाल दिया करेगी और ऐसा उसे तब तक करना पडेगा, जब तक कि उसका मूर्ति का कार्यं समाप्त नहीं हो जाता है । जब तक उसका विवाह भी नहीं हो जाता है । विवाह के बाद तो उसकी ये समस्या सागर की समस्या बन जाएगी । फिर वह ही यह सब सँभाल लेगा । लेकिन अभी तो उसे सतर्क रहना होगा । अपना एक-एक पग फूँक-फूँककर रखना पड़ेगा...और कोई भी ऐसा पग नहीं उठाना है कि जिसके सबब से माँझी के दिल में छिपी हुई भावनाएँ _ओठों पर आकर उससे अपने प्यार की भीख माँगने लगें । '



काफी देर तक सुधा बिस्तर पर बैठी-बैठी इसी प्रकार सोचती रही । सोचती थी और अपने-आपको एक झूठी तसल्ली देने की चेष्टा करती थी । खुद ही सवाल ढूँढ़ती । सवालों के ताने-बानें बुनती । उसमें उलझती, और बाद… में हल का एक 'छोटा-सा टुकड़ा पाकर अपने-आपको बहला भी लेती थी ।
रात्रि के वातावरण में एक ठण्डक-सी आ चुकी थी । सारा आलम जैसे ओस की बूंदो से भीग चुका था । सुधा धीरे-से उठी और पंखे का बटन बन्द किया । फिर मेज़ पर रखे हुए गिलास का पानी पीकर बाहर आ गई । बाहर गैलरी में आते हुए उसने अपने पिता के कमरे की ओर निहारा तो देखकर और भी चौंक गई । उसके पिता के कमरे की बत्ती अभी तक जल रही थी । यह इस बात का सूचक था कि वे अभी तक सोए नहीं थे । वह जानती थी कि पेशे से वकील होने के कारण उसके पिता अक्सर रात में देर तक जागते रहते थे । उसकी भेंट अपने पिता से ज्यादातर खाने की मेज़ पर, वह भी सुबह के नाश्ते के समय ही हुआ करती थी ।
घर में वह थी और उसके पिता । तीसरा अगर कोई था तो वह उनके घरका रसोइया था, जो खाना बनाकर चला जाता था । अपनी माँ से तो वह बचपन में ही अलग कर दी गई थी । उसके पिता ने उसकी माँ को तलाक दिया था । इतना तो वह जानती थी, पर इस अलगाव का कारण क्या था । इस तथ्य को जानने की आवश्यकता उसने कभी नहीं समझी थी क्योकि उसकी माँ इस संसार में अब थी भी नहीं । तलाक होने के सात महीनों के पश्चात् ही उनकी मृत्यु हो गयी थी ।
सुधा को अपनी माँ की कमी तो महसूस होती थी, परन्तु उसका कोई हल भी नहीं था और जो समाधान दुनियावालों की दृष्टि में था भी, उसकी न तो आवश्यकता ही रही थी और न ही समय । सुधा यह भी जानती थी कि उसके पिता ने कभी भी उसे उसकी माँ की कमी नहीं अखरने दी थी । उन्होंने उसे माँ-बाप दोनों ही बनकर पाला था । उसकी हर इच्छाओं क आगे उन्होंने हाँ की थी । इसी कारण सागर से विवाह को अनुमति वे दे चुके थे और सुधा-सागर अब दोनों एक-दूसरे की पसन्द भी बन चुके थे । एक प्रकार से उन्होंने सुधा का हर तरीके से ख़याल रखा था ।
पहले तो सुधा की इच्छा हूई कि वह अपने पिता का द्वार खटखटाकर उनके कमरे में चली जाए,परन्तु फिर यह सोचकर कि क्यों उन्हें नाहक परेशान किया जाए, वह गैलरी से निकलकर बाहर बालकनी में आकर खडी हो गई और चुपचाप आकाश की और निहारने लगी । बिना किसी उद्देश्य । आकाश में सप्तऋषि मण्डल के तारे स्थान परिवर्तित करके नीचे चले गए थे ।
आकाश में अधिकांशतया तारिकाएँ लुप्त हो चुकी थीं और जो रह गई थीं, वे भी मद्धिम ज्योति के सहारे रात्रि के अन्धकार को मिटाने का एक असफ़ल प्रयत्न कर रही थीं । सप्तऋषि मण्डल के छ: तारे झुककर क्षितिज की " ओर मुखातिब हो चूके थे, केवल दूर एक कोने में टिमटिमाता हुआ ध्रुव तारा अपने जिद्दीपन की अटलता का विश्वास दिला रहा था ।
सहसा ही उसके पिता ने अपने कमरे का दरवाजा खोला तो क्षणभर को सुधा की तन्द्रा भंग हो गई । उसके पिता दरवाजा खोलकर जैसे ही बाहर आए तो सुधा के कमरे का द्वार खुला देखकर आश्चर्य से उसके कमरे की ओर गए, और वे बाहर से अन्दर की और देखते हुए बोले, "बेटी-सुधा ! "
"जी, पापाजी !"
सुधा ने बालकनी से घूमकर उनकी ओर मुड़कर देखते हुए कहा ।
" अरे तुम...और यहाँ ?”
"अभी तक सोईं नहीं... ?”


उसको बालकनी में अकेला खड़ा देखकर उन्होंने विस्मय से कई-एक प्रश्न एकसाथ कर डाले ।
“बस ऐसे ही नींद नहीँ आ रही थी, सो यहाँ आकर खडी हो गई थी । ”
इस पर उसके पिता ने उसे आश्चर्य से देखा । एक संशय से । फिर चिन्तित स्वर मे बोले " तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न ?"
"हाँ !”
" अच्छा तो चलो जब तक नींद नहीं आती, तुम मेरे कमरे में आकर बैठ सकती हो । "
इस पर सुधा उनके कमरे में आकर बैठ गई । कुछ अनमनी-सी, खामोश और मायूस-सी ।
उसकी इस मुद्रा को उसके पिता ने फिर एक बार निहारा । क्षणभर को सोचा । उसके मुख की परेशानी का कारण जानना चाहा । फिर जब खुद को सन्तुष्टि नहीं दे सके तो पुन: पूछे बगैर न रहे । बोले,


" तुम्हारी कॉलेज की पढाई का काम तो ठीक चल रहा है न ?”
"हाँ पिताजी ! "
' " और तुम्हारी मॉडलिग वगैरह.. ?"
"वह भी ठीक ही है ।"
" और तुम्हारी वह "स्टेच्यू' वाला प्रोग्राम... ?"
"वह शुरू हो जाएगा... । "
"हो जाएगा..॰मतलब ..॰?” उसके पिता आश्चर्य से बोले ।
"उसमें एक समस्या है । " सुधा ने धीरे-से कहा तो वे और भी अधिक विस्मय से बोले,


" क्या प्रॉब्लम ' है ? "
" ?" खामोशी-सुधा चुप ही रही ।
इस पर उसके पिता ने उसे देखा-बड़े ही गौर से । फिर पास आकर, उसके सिर पर हाथ रखते हुए आगे बोले,


"देखो बेटी, मैं तुम्हारा पिता हूँ । बचपन से तुमको पाल-पोसकर बड़ा किया है । मैं जानता हूँ कि अपने फैसले अब तुम स्वयं कर सकती हो । फिर भी दुनिया के तजुर्बो से तुम उतनी वाकिफ़ नहीं हो, जितना मैं हूँ । मुझे बताओ कि क्या परेशानी है तुम्हारी ?"
इस पर सुधा ने कहा, "पहली समस्या तो यह है कि आप माँझी को तो जानते ही हैँ । "
" इस शहर में कौन नहीं जानता है उसे, जिसने इस शहर के मशहूर वकील केशवचन्द्र वर्मा की पुत्री सुधा की एक बार नहीं, दो-दो बार जान बचाई है । "
“ उसी माँझी को ' शालीमार एसोसिएशन' ने मेरी 'स्टेच्यू' बनाने के लिए अनुबन्धित किया है । '


"'क्या...वह ?"
"हाँ, वही ।"
"वह आर्टिस्ट है …अच्छा…लेकिन यह तो कोई बडी बात नहीं है, ...पर आश्चर्यजनक और इन्टरेस्टिंग जरूर है। " उसके पिता ने कहा ।
"मैं जानती हूँ..पर उसे मेरे एक्सीडेन्ट के पूर्व नहीं मालूम था कि 'स्टेच्यू' मेरी ही बननी है । फिर जब अचानक से उसको पता चला, तो उसने यह काम करने से मना कर दिया... ? "
“मना करने का कारण ? "
“वह कहता है कि वह मेरी बहुत इज्जत करता है और लोगों के समक्ष मेरी नुमाइश नहीं बनने देना चाहता है । "
"हूँ !”
" फिर जब मैंने उसे समझाया और आग्रह किया तो सिर्फ" मेरे कहने पर उसने यह कार्य करने के लिए हाँ कह दी है, परन्तु एक शर्त के साथ 'कि वह मेरी मूर्ति मुझे देखकर नहीं बल्कि मेरी विभिन्न मुद्राओं की तस्वीरें देखकर बनाएगा । "
“हूँ..आइ सी.. ?” उसके पिता बुदबुदाए । फिर कुछेक क्षण सोचकर बोले,
"तुम इतनी बड़ी हो गई हो...क्या तुमने उसे समझने की कोशिश की है ? ” उन्होने पूछा ।
"जिन मायूस और हसरतभरी नज़रों से वह मुझे देखता है, मैं उनका मतलब समझती हूँ ।" कहकर सुधा गम्भीर हो गई ।
"देखो बेटी ! भावनाओँ और भावुकताओँ में डूबे हुए जो लोग होते हैं, वे बड़े ही नर्म दिल के होते हैं, और ये आर्टिस्ट, कलाकार जैसे लोग इसी ग्रुप में आते हैं । ये लोग किसी को भी अपने दिल में सारी उम्र के लिए बसा तो सकते हैं, पर इन लोगों को कोई अगर अपने दिल में. बसाने की चेष्टा करता है तो यह उसकी समझदारी नहीं कही जा सकती है । "
“यह तो मैं भी जान रही हूँ पर मैं उसे वह स्थान तो नहीं दे सकती हूँ जो सागर का है ।"
"उसने कहा है कि वह तुम्हारी बहुत इज्जत करता है, कोई शक नहीं, वह करता भी होगा, इसलिए वह तुमको बार-बार मूर्ति बनाने के बहाने देखना भी नहीं चाहता है ।"
"हाँ !."
"जानती हो क्यों ?'" उसके पिता ने पूछा ।
" ?" सुधा ने उन्हें आश्चर्यजनक मुद्रा में निहारा तो वे आगे बोले,
"ऐसे लोग जिसको चाहने लगते हैं, पहले उसे सम्मान देते हैं, फिर बाद में इसी सम्मान के सहारे अपने प्यार की आशा करने लगते हैं और फिर एक दिन सम्मान पानेवाले से अपने प्यार का वरदान माँगने लगते हैँ । ”
"इसी का डर तो मुझे है । " सुधा ने निराश होकर कहा ।
" लेकिन घबराने की कोई बात नहीं है । वह एक अच्छा लइका हैं । नेक दिल का है । जहाँ तक में समझता हूँ, उससे तुम्हें किसी भी तरह के व्यक्तिगत ख़तरे की सम्भावना नहीं होनी चाहिए । न तो तुम्हें उसके दिल को तोड़ना है, और न ही तुम्हें उसकी भावनाओँ का अपमान करना है । अगर तुमने कभी भी ऐसा किया तो वह सदा के लिए टूट जाएगा । "
"तो फिर क्या करूँ मैं ? उसे अच्छी तरह से ज्ञात है कि मेरा और सागर का विवाह होनेवाला हैं, फिर भी मैं उसकी आँखों मैं एक झूठी आस और उम्मीद की झलक देखती हूँ । "


"इसमें उसका कोई दोष नहीं । वह तो देखेगा ही ऐसे । बस, तुम्हें सचेत रहना है । कोई भी ऐसा कार्य न करना कि जिसके सबब से उसकी भावनाओँ को बल मिले और उसकी सोई हुईं हसरतें ओठों पर आकर तुमसे विनती करने लगें । फिर कुछ दिन की तो बात है । विवाह के पश्चात् सब कुछ अपने-आप वैसे भी `ठीक हो जाएगा ।
" इस पर सुधा चुप हो गई । बडी देर तक वह खामोशी से कमरे में मेज़ पर पड़े हुए काग़जों और पुस्तकों को देखती रही ।
सहसा ही उसके पिता ने बात को बदलते हुए आगे कहा,


" और यह देखो तुम्हारे क्लीनिक और छोटे-से अस्पताल का नक्शा । विवाह के बाद मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा अपना एक छोटा-सा अस्पताल हो, जिसकी तुम स्वयं मालकिन होओ । " कहते हुए उन्होंने एक बड़ा-सा नक्शा और कुछ पेपर सुधा के सामने खोलकर रख दिए ।
“नक्शा तो अच्छा दिखता हैं । पर यह जगह है कहाँ ?”
"कौसानी में । "
"कौसानी ! ” सुधा ने आश्चर्य से अपने पिता को देखा, और फिर आगे बोली, "लेकिन यह तो काफी दूर है ।"
"दूर से क्या होता है .? हॉस्पिटल वहाँ खुलना चाहिए, जहाँ इसकी आवश्यकता होती हैं । इस छोटी-सी पहाड़ी जगह में दूर'-दूर तक कोई हॉस्पिटल नहीं है। फिर मुझे वहाँ जगह भी उचित और सस्ती मिल गई है । " उसके पिता ने कहा तो सुधा भी चुप हो गई । कुछेक क्षणों को ।
'" पर पापाजी, आपको इतनी जल्दी क्यों है ? मेरी डॉक्टरी पूर्ण होने में अभी तीन वर्ष पड़े हुए हैं' । " सुधा ने फिर से बात आरम्भ कर दी ।
"अरे, अभी से कार्य आरम्भ होगा, तब कहीं जाकर ऐन वक्त पर पूरा हो पाएगा । "
इस पर सुधा फिर खामोश हो गई ।. आखिरकार वे उसके पिता थे । कोई भी माँ-बाप अपनी सन्तानों के लिए अनिष्ट नहीं करते हैं । चाहे उनकी सन्तानें कैसी भी क्यों न हों ? इस तथ्य को सुधा भी समझती थी और महसूस भी करती आई थी ।
रात हर पल पहले से अधिक खामोश और ठण्डी होती जा रही थी । बिलकूल सुधा के मन के समान । अपने पिता से बातें करके उसे काफी हद तक तसल्ली मिल चुकी थी । दिल का बोझ भी उसे घटता हुआ प्रतीत होने लगा था ।



दूसरे दिन...
रात्रि में अत्यधिक देर तक जागने के कारण सुधा की नींद वैसे भी देर 'से खुली थी । दूसरे दिन उसे कॉलेज नहीं जाना है, या वह देर रात तक जगने के कारण कॉलेज जा भी नहीं पाएगी । ऐसा निर्णय वह स्वयं से रात में सोने से पहले ही ले चुकी थी ।
अब जब जागी थी, तो दिन के दस बज रहे थे । सूरज काफी कुछ ऊपर चढ़ आया था और उसकी नर्म-नर्म रश्मियों में अब दिन की गरमाहट भी भरने लगी थी । धूप पूरी तरह से खिल गई थी ।
सुधा तुरन्त ही बिस्तर पर से उठ गई । पैरों में स्लीपर पहने, फिर अपने कमरे की खिडकी के पट खोले, तुरन्त ही बाहर गई । रात से प्रतीक्षा कर रहे ठण्डी हवा के मद्धिम झोंके ने उसके कोमल गालों को चूमते हुए नई सुबह का सन्देश दे दिया...इस प्रकार कि नए दिन के आगमन की सूचना वायु को ठण्डी-ठण्डी लहरों के साथ उसकी सारे शरीर में पलभर के लिए गुदगुदी मचा गई ।
कमरे से निकलकर वह सीधी स्नानघर में घुस गई । स्वान करने के पश्चात् जब बाहर आई तो शरीर की काफी कुछ थकावट यूँ भी कम हो गई । वह अपनेआपको हल्का महसूस करने लगी । तन से और मन से भी ।
अपने लम्बे, घने, भीगे बालों को पोंछते हुए उसने किचन की और निहारा-रसोइया रामदुलारां शायद दोपहर का लंच तैयार कर रहा था । सुधा ने ऐसा सोचा, फिर बहीं से उसे आवाज़ दी,

" दुलारे ! "
"जी बिटिया ! "
" क्या कर रहे हैं आप ? " सुधा ने पूछा ।
"कर नहीं, सोच रहा हूँ ।"
“क्या ?
"यही कि लंच और नाश्ते के समय के बीच में क्या लोगी तुम ? "
“बस, एक प्याला चाय । "

शेष अगले अंक में...