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नैया - भाग 4 - अंतिम भाग

नैया/ सामाजिक उपन्यास/ चतुर्थ व अंतिम भाग/ शरोवन

तृतीय परिच्छेद व अंतिम परिच्छेद

***


माँझी की दर्दभरी दुर्घटना की खबर कौसानी के मशहूर थिएटर 'नृत्य-संगीत निकेतन' में पलभर में ही जंगल में लगी आग के समान फैल गई । निकेतन की निदेशक श्रीमती राजभारती जिन्होंने माँझी को अपने यहाँ नौकरी दी थी, भी सुनकर आश्चर्य से दाँतों तले अँगुली दबा गईं । फिर क्या था कि तुरन्त ही निकेतन के हरेक कर्मचारी की आँखों में दर्द और विषाद के काले बादल मँडरा उठे । प्रत्येक के ओठों पर विभिन्न प्रकार की बातें थीं । इसके साथ ही माँझी के सभी जानकार और निकेतन के कर्मचारियों का पूरा हुजूम 'सागर मेडिकल सेन्टर' के प्रांगण में जा पहुँचा… और नैया ? वह तो इस दुख के कारण सारी रात सो भी नहीं सकी थी । रात्रि का एक-एक पल उसने माँझी के जीवन की भीख माँगने और मनौती में ही व्यतीत कर दिया था । उसके लिए वह रात उदास थी । पहाड़ों पर भरपूर उदासी की चादर-सी बिछ गई थी । चाँदनी फीकी पड़ चुकी थी । चीड़ और चिनार के वृक्षों ने भी इस मनहूस खबर को सुनकर जैसे बहुत मायूसी के साथ अपने मस्तक झुका लिए थे । आकाश पर लापरवाही से धमाचौकड़ी करते हुए बादल भी जैसे दुबककर कहीं भाग गए थे और लगता था कि नैया के दुख के साथ ही जैसे सारा इलाका ही रो रहा था । हर स्थान पर आँसू थे । किसी उजड़े हुए प्यार की दुखिया के दिल की कतरनों के टुकड़े जैसे उसकी आँख से टप-टप करती हुईं अश्रु की बूँदों समान गिर रहे थे... ।

और फिर दूसरे दिन की पौ फटने से पूर्व ही नैया से जब नहीं रहा गया तो वह हल्का-फुलका नाश्ता बनाकर और उसको एक टिफिन में रखकर अस्पताल जा पहुँची । वहाँ पहुँचकर उसका सामना सबसे पहले डॉक्टर सुधा से ही हो गया । सुधा ने उसको देखा और नैया ने सुधा को, तो दोनों ही एक-दूसरे को देखकर ठिठक गए । दोनों ही की आँखों में पिछली रात की उदासी और खोई हुई नींद की बेचैनी थी । लगता था कि नैया के समान सुधा भी जैसे सारी रात सो नहीं सकी थी । दोनों ही माँझी के प्रति चिन्तित और उसके अच्छे स्वास्थ्य के लिए परेशान दिख रही थीं ।

समय का यह कैसा खेल था ? किस प्रकार का अनहोना संयोग था कि दोनों एक ही मार्ग के पथिक थे । दोनों ही की खुशियों का लक्ष्य माँझी का अच्छा स्वास्थ्य था । दोनों ही ने उसको प्यार किया था और दोनों ही के हृदयों में माँझी ने अपनी मुहब्बत के प्रतिबिंब बना दिए थे, पर यह भाग्य की विडम्बना ही थी कि जहाँ नैया बिना किसी भी भय के अपने प्यार का प्रचार करती थी, तो वहीं सुधा अपने मुख से इस बारे में एक शब्द भी नहीं निकाल सकती थी । एक का प्यार, प्यार की चरमसीमा पर आकर प्रकृति के कोप के कारण डगमगा रहा था, तो दूसरे ने उसी प्यार की वेदना और उसके दर्द को महसूस न करते हुए तिरस्कृत किया था ।

“जी... वे... वे कैसे है अब?” नैया ने आशा और भय के समन्वय के मध्य घबराते हुए सुधा से पूछा ।
“ पहले से बेहतर हैं... लेकिन... ”
"लेकिन क्या ? ” नैया की आँखों में भय की एक झलक आ गई ।
"लगता है कि तुम्हारे अथाह प्यार की दुआओं ने उसका जीवन तो बचा लिया है, मगर... " सुधा कहते-कहते फिर थम गई ।
"शीघ्र ही बताइए न कि क्या बात है... ? " नैया और भी अधिक घबरा गई ।
"उनको पूर्ण स्वस्थ होने में महीनों या वर्ष भी लग सकते हैं और तुरन्त भी हो सकते हैँ ।" सुधा ने कहा ।
"मैं समझी नहीं । ” नैया और भी अधिक विस्मय से भर गई ।
"वे होश में तो आ गए हैं, लेकिन मस्तिष्क के पिछले भाग में बेहद चोट आने से उनकी स्मरणशक्ति जाती रही है । "
"जी... ? "
"तुम्हारा माँझी अपना पिछला जीवन, पिछली बातें, अपने अतीत की एक-एक बात और यहाँ तक कि तुमको भी अब बिलकुल भूल चुका है । ”
“नहीं... नहीं... यह ग़लत है । यह नहीं हो सकता है । ऐसा कभी नहीं होगा । मेरा माँझी सबको भूल जाएगा... लेकिन, ...अपनी नैया को कभी नहीं... कभी नहीं... " कहते-कहते नैया की सिसकियाँ फूट पडीं । उसकी आँखों में आँसू भर आए । दिल की धड़कनों पर जोर पड़ गया । वह फूट-फूटकर रो पड़ी ।
“नैया ! साहस से काम लो । यह समय रोने का नहीं, बल्कि संघर्ष करने का है । तुम्हारा माँझी बिलकुल ठीक हो जाएगा । मुझ पर भरोसा रखो । मैं उसका अच्छे-से-अच्छा इलाज करूँगी... " यह कहते हुए सुधा ने नैया को अपने अंक से लगा लिया और उसकी आँखों के आँसू पोंछने का प्रयत्न करने लगी । उसके सिर पर तसल्ली और भरोसे का हाथ रखा तो नैया के दुखी दिल को थोड़ी-सी ठंडक प्राप्त हुई । साथ ही नैया का दुख देखकर स्वयं सुधा की भी आँखें नम हो गई थीं । नैया का वह दुख जो एक प्रकार से सुधा के दिल का भी कोई छिपा दुआ दर्द था । उसके

दिल का वह भेद था, जिसके विषय में नैया जानती तक न थी । जान जाती तो शायद वह सुधा के इतने क़रीब कभी भी न आती । और सुधा ? उसको क्या कहा जाए ? नैया की मित्र ? उसकी बहन ? सौत... एक डॉक्टर ? अथवा मानवता की एक अनमोल मिसाल ? क्योंकि सुधा को तो सबकुछ ज्ञात था । अपने बारे में । माँझी के प्रति । और नैया के बारे में भी, मगर फिर भी वह मानवीय आधार पर टिकी हुई प्रेम और कर्तव्य की वह तस्वीर पेश कर रही थी, जिसकी आशा एक त्रिकोण पर आधारित कहानी के लिए कम ही की जाती है ।
"मैं माँझी से मिलना चाहती हूँ । ” काफी देर के बाद नैया ने सुधा से जैसे याचना-सी की ।
"हाँ… हाँ क्यों नहीं ! लेकिन तुमको अपने-आप पर अत्यधिक नियंत्रण रखना पड़ेगा । खुद को सँभालना पडेगा, अन्यथा तुम्हारी एक छोटी-सी भूल तुम्हारे अपने माँझी के जीवन के लिए घातक भी हो सकती है । " सुधा ने कहा तो नैया ने अनुरोध किया,

“मुझे उनके पास ले चलिए, प्लीज़, मैं उनको देखना चाहती हूँ । ” इस पर सुधा का डॉक्टर दिल भी पिघल गया । उसने पलभर को सोचा । नैया को निहारा । उसकी आँखों में छिपे माँझी के प्रति असीम प्यार के अनुरोध का अनुमान लगाया तो वह सोचे बगैर नहीं रह सकी । तुरन्त ही उसने महसूस किया- नैया के प्यार की सीमा नापने की चेष्टा की । इतना प्यार ? इस क़दर चाहत ? ऐसा अनुरोध ? इतनी अधिक माँझी को एक पल देखभर लेने की याचना ? ऐसी लालसा... ? तुरन्त ही उसे ध्यान आया कि शायद इतना ही प्यार तो सती सावित्री ने अपने पति सत्यवान से किया होगा ? कहीं सती सावित्री अपने पति के लिए फिर एक बार सती तो नहीं हो जाना चाहती है ?
"ठीक है, चलो मेरे साथ । लेकिन अपने-आपको सँभाले रखना और इतना याद रखना कि तुम्हारा माँझी तुम्हारा कोई भी होने से पहले, मेरा भी कुछ है ।"
"जी... ? " .
"मेरा मतलब इस समय वह मेरा मरीज़ पहले है और तुम्हारा कुछ भी बाद में... ” सुधा ने कहा तो नैया चुपचाप उसके पीछे-पीछे चलने लगी । जाते समय उसके दिल में एक अजीब ही धड़कन थी । आँखों में विस्मय की चमक, और मन में किसी भी अनिष्ट की शंका और भय ।
माँझी को सुधा ने अस्पताल के विशेष वार्ड के विशेष कमरे में रखा हुआ था । फिर जैसे ही, वे लोग उसके कमरे में पहुँचे तो माँझी उस समय अपने बिस्तर पर बैठा हुआ था । पीछे पीठ से टेक लगाए, और चुपचाप कमरे की छत जैसे बिना किसी ध्येय के ताक रहा था ।
नैया ने उसको देखा तो क्षणभर के लिए उसके चेहरे पर खुशी की एक चमक तो आईं, परन्तु फिर तुरन्त ही गायब भी हो गई, क्योंकि माँझी ने उन दोनों के अन्दर आने पर उन्हें चौंककर देखा तो था, पर शीघ्र ही वह जैसे उनकी उपस्थिति से अनभिज्ञ भी हो गया था ।
इस समय उसके शरीर के विभिन्न भागों में चोटों के कारण पट्टियाँ बाँधी हुई थीं । सिर के पिछले भाग में भी पट्टी बाँध दी गई थी । नैया से जब नहीं रहा गया और नहीं देखा गया तो वह तुरन्त ही भागकर उसके पास चली गई और उसके बिस्तर पर एक तरफ़ बैठकर उसके हाथों को अपने दोनों हाथों में थामकर फफक-फफककर रो पड़ी। उसके गले से सिसकियाँ फूट पडीं। फिर भी वह जब अपने को नहीं सँभाल पाई, तो माँझी के चेहरे को अपने दोनों हाथों में थामकर उससे रोते हुए बोली,

"यह क्या कर लिया तुमने ? क्या इसी दिन के लिए मैंने तुम्हें चाहा था ?"
"... ?" खामोशी... आश्चर्य...
और माँझी ? वह केवल आश्चर्य और संकोच के समन्वय में केवल नैया को अभी तक देख ही रहा था और शायद समझ नहीं पा रहा था कि उसे इस स्थिति में क्या करना चाहिए ? कभी वह नैया को हैरानी से देखता तो कभी सुधा को एक प्रश्नसूचक दृष्टि से ताकने लगता था ।
" इतनी जल्दी भूल गए मुझे ? मुझे देखो- अपनी नैया को पहचानो । मैँ वही हूँ । तुम्हारा प्यार। तुम्हारी नैया । देखो, मैं कितना रो रही हूँ तुम्हारे कारण... ? ” नैया पुन: उससे रो-रोकर जैसे गिड़गिड़ा रही थी ।
“... ?” परन्तु माँझी' पर जैसे फिर भी कोई प्रभाव नहीँ पड़ा था । उसने पुन: एक बार सुधा को देखा, और बाद में नैया की और से मुँह फेर लिया । एक न समझने और न सोचने की स्थिति में ।
" अब क्या मैं इतनी अधिक अजनबी हो गईं हूँ तुम्हारी दृष्टि में ? मुझे पहचानो । मेरी आँखों में देखो । मैं नैया हूँ । तुम्हारी नैया । माँझी की नैया... । ” कहते-कहते नैया की पुन: हिचकियाँ बँधने लगीं, तो माँझी ने एक बार फिर सुधा की ओर निहारा । फिर जैसे नैया की उपस्थिति से परेशान होकर बोला,

" यह कौन हैं ?"
“यह नैया है, आपकी मँगेतर । ” सुधा ने कहा ।
"मेरी मँगेतर ? " माँझी ने आश्चर्य किया । फिर जैसे मस्तिष्क पर जोर डालकर उसने सोचने की चेष्टा की, पर कुछ न समझते हुए पुन: बोला,

"मेरी... मँगेतर.. ?”
“जी हाँ' ! आपकी होनेवाली पत्नी । ” सुधा ने कहा ।
“हूँ.... कैसी बातें करती हैँ आप ? मैं तो इन्हें जानता भी नहीं, फिर पत्नी कहाँ से हो गईं ?" यह कहते हुए माँझी ने पुन: नैया की तरफ से मुख फेर लिया तो नैया और भी अधिक सिसक पड़ी । इस पर सुधा माँझी के क़रीब आईं और उसके पास ही एक कुर्सी पर बैठकर पहले तो उसने नैया को उसके बिस्तर से उठाया, फिर उसे एक और हटने को कहा और तब माँझी से बोली, " देखिए, मुझे मालूम है कि आपको अपने बारे में कुछ भी याद नहीं रहा है, क्योंकि आपकी दुर्घटना हो गई थी ओंर इसलिए आपको सबकुछ नया-नया-सा लग रहा है । "
"... ?" - माँझी ने सुधा को आश्चर्य से देखा तो सुधा ने बात आगे बढाई । वह बोली,

" यदि आपको कुछ भी याद नहीं रहा है तो अब जो कुछ भी मैं डॉक्टर होने के नाते कह रही हूँ उसे तो याद रखिए । मैंने आपको पहले भी कहा था कि आप ज्रख्मी हैं और इस समय आप मेरे अस्पताल में मेरे लिए एक मरीज़ हैं । यह लड़की जो आपके सामने रो रही है । दुख मना रही है । आपको देख-देखकर परेशान होती है, यदि आपका इससे कोई भी सम्बन्ध नहीं होता तो क्यों यह सब करती ? आपको अपना पिछला जीवन याद नहीं रहा है, परन्तु इसे तो मालूम है । अगर आपका इस नैया से कोई भी सम्बन्ध नहीं था तो यह ही क्यों रो रही है ? क्यों परेशान हैं? यहाँ काम करनेवाले और भी लोग हैं, वे क्यों नहीं रो रहे हैं, आपको इस दशा में देखकर ?"
"डॉक्टर... ? ”
"इसलिए मैं जो कुछ भी कहती हूँ उसे सुनो और समझने की चेष्टा करो । यह लड़की जिसका नाम नैया है, आपकी मँगेतर है । इससे आपका विवाह होनेवाला था । एक तरह से यह आपकी आत्मा है । यह आपको अपने जीवन से भी बढ़कर प्यार करती है । अब यही मुझसे ज्यादा आपका ख़याल रखेगी । आपकी देखभाल करेगी । आपकी हिफाजत करेगी, ताकि आप जल्दी-से-ज़ल्दी ठीक हो जाएँ और अपने प्यार की दुनिया बसा सकें । " सुधा ने इतना सबकुछ एक साथ कहा तो माँझी जैसे मायूस होकर बोला,

"तो डॉक्टर मैं क्या करूँ... ?”

'' जैसा नैया कहती है, वैसा करो । उसका कहना मानो और समय से दवा इत्यादि लेते रहिये। ”
"... .? ” - तब माँझी हैरत से ताकता हुआ खामोश हो गया, चुप और मायूस-सा । एकदम मूखों जैसा ।

"ठीक है । अभी आप आराम करें, और जल्दी से अच्छे होने के लिए अपने-आपको तैयार करें । जब आप चलने-फिरने लायक हो जाएँगे, तो बाहर भी जा सकेंगे । ”
“… ? ”- इस पर माँझी जैसे किंकर्तव्यविमूढ़-सा सुधा को देखता ही रहा । संकोच, आश्चर्य और कुछ भी न कर पाने जैसी स्थिति में वह अपने-आपको जैसे असहाय महसूस कर रहा था ।
फिर जब सुधा चलने को हुईं तो उसने इशारे से नैया को भी अपने साथ आने को कहा । तब नैया चुपचाप सुधा के पीछे आ गई ।

सुधा अपने कार्यालय में आई और नैया को भी एक कुर्सी पर सामने बैठने को कहा । तब सुधा ने नैया को जैसे समझाया । वह बोली,

"मैं डॉक्टर अवश्य हूँ पर उससे पहले मुझे अपना और माँझी का एक अच्छा मित्र ही समझना और एक मित्र होने के सबब से मैं जो कुछ भी कह रही हूँ उसे ध्यान से सुनो । सबसे पहली बात यह है कि इस समय तुम्हारा माँझी तुम्हारे लिए कोरा काग़ज़ है । उस पर तुम जो कुछ भी लिखोगी वह उसके लिए बिलकुल ही नया होगा, इसलिए उसके मस्तिष्क पर ऐसी कोई भी छवि नहीं बननी चाहिए कि जिसके कारण वह तुमसे नफ़रत करने लगे, क्योंकि उसको ठीक करने के लिए तुम ही एक ऐसी अकेली लड़की हो, जो अब तक उसके बहुत करीब रही हो। दूसरी बात, उसकी स्मरणशक्ति वापस लाने के लिए उसके मस्तिष्क पर जबरन कोई बोझ नहीं डालना है, बल्कि धीरे-धीरे बहुत प्यार और मानवता के सहारे उसे वे सारी बातें याद दिलाने की कोशिश करो, जिनसे उसका बहुत ही पास का सम्बन्ध रहा है । "
"लेकिन डॉक्टर, यह सब कैसे होगा ?” नैया ने दुखी स्वर में कहा ।
"तुम्हारा मतलब ?"
"वे मुझको तो अब पसन्द ही नहीं करते हैं । देखा नहीं कि वे मुझे कैसे गैरों के समान देख रहे थे । " नैया का स्वर पुन: बोझिल हुआ तो सुधा बोली,

"मैं जानती हूँ, पर तुम उसके सामने पुरानी नैया बनकर नहीं, बल्कि एक नई नैया के समान फिर से उसका दिल जीतना होगा । उसे अपना बनाना होगा, तब ही वह तुम्हारे कहने के अनुसार चल सकेगा । "
"पहली बार ही जब इतनी कठिनाई से उन्हें अपना बना पाई थी, तो अब दूसरी बार.. ?” कहते-कहते नैया जैसे और भी अधिक परेशान हो गई ।
“उसे ठीक करने के लिए यह सब करना तो तुम्हें ही होगा, लेकिन पहली बार तुम्हें ऐसी क्या कठिनाई आ गई थी उसका दिल जीतने के लिए ? आखिरकार वह भी तो तुम्हें प्यार करता ही होगा ? ताली तो दोनों हाथों से ही बजाई जाती है । ” सुधा ने आश्चर्य से कहा ।
".. .?" - खामोशी. तब नैया ने सुधा को आश्चर्य से देखा ? थोड़ा सा सोचा । फिर जैसे गम्भीर होकर बोली,

"मैंने आपको पहले भी बताया था कि जब माँझी यहाँ' आए थे, तो एकदम ठण्डे, बुझे-बुझे-से, किसी मैदानी क्षेत्र की, आधुनिक माँडलर लड़की के द्वारा ठुकराए हुए प्यार में इस कदर मर चुके थे कि जीते जी ही, अपने-आपको जलती हुई चिता के शोलों मेँ बैठा हुआ महसूस करते थे। इसी कारण ये किसी अन्य लड़की को प्यार तो करना दूर रहा, बल्कि उसकी तरफ़ ढंग से देखना भी पसन्द नहीं करते थे । मगर पता नहीं, जाने क्यों फिर भी ये मुझे अच्छे लगने लगे थे ? यह जानते हुए भी कि जिस सूखे हुए वृक्ष की छाया की आस में, मैं उसे फिर से हरा-भरा करने की कोशिश कर रही हूँ उसकी मुस्कुराहट कोई पहले ही से नोच चुका है । मैं इन्हें प्यार करने लगी थी । ये तो इतने अच्छे हैं कि मैं वर्णन नहीं कर सकती हूँ । काश: वह मूर्ख लड़की ही इनके प्यार को स्वीकार कर लेती तो आज को ये कम-से-कम सुखी तो रहते । "
"... ?"- खामोशी ।
सुधा को लगा कि अचानक ही नैया ने जैसे उसकी छाती पर गर्म-गर्म अंगारे रख दिए हों । इस प्रकार कि वह एकदम ही विचलित-सी हो गई । उसके दिल में कोई हूक-सी उठी । गले में एक आवाज़-सी उभरी । क्षणभर में ही वह परेशान-सी हो गई । चाहा कि नैया को सबकुछ बता दे, परन्तु समय की नाजुकता को देखते हुए वह अपने दिल की कसक को वहीं दबा गई, इसलिए अपनी आँखों को नम होने से पहले ही, स्वयं को सँभालते हुए जैसे मायूस होकर बोली,

"हाँ, नैया ! तुम शायद ठीक ही कहती हो । कितना ही अच्छा होता कि यदि वह अभागी लड़की माँझी के प्यार को स्वीकार कर लेती । उसके प्यार की तड़पती हुई आवाज को अपने दिल का दर्द समझकर अपने अन्दर बसा लेती, तो शायद... "
"क्या … ?”
" आज का यह मनहूस दिन न तुम्हें देखना पड़ता, और ना ही माँझी को ।"
"... ?" - नैया से कुछ कहते नहीं बना तो सुधा ने आगे कहा,

"खैर ! यह तो मानव जीवन है । इसमें उतार-चढाव तो आते ही हैं । मनुष्य अपने जीवन में बहुत कुछ पाता है तो कभी बहुत कुछ खो भी देता है । हो सकता है कि तुम्हें भी माँझी को अपना बनाने के लिए काफी परिश्रम करना पड़े ? काफी कुछ त्याग भी करना पड़े, लेकिन साहस मत छोड़ना । "
"मैं वह सबकुछ करूँगी जो आप कहेंगी । " नैया ने विश्वास से कहा ।
"मैं जानती हूँ । अच्छा, अब जाकर माँझी को नाश्ता आदि कराओ । उसके साथ बैठो । बातें करो, इत्यादि... । अगर कोई परेशानी हो तो बताना । मुझे अभी और भी कार्य करने हैं । " यह कहकर सुधा ने बात समाप्त की तो नैया उठकर चली आईं और सीधे ही माँझी के कमरे की ओर चल दी ।

फिर उसके कमरे के द्वार के पास आकर थोड़ी देर को वह ठिठक गई । गम्भीर हुईं । सोचा कि यूँ अकले जाने से कहीं वह फिर से परेशान न हो जाएँ ? यह भी कैसी विडम्बना थी कि एक समय था कि जब वह उसके सामने कभी भी, बेधड़क, बगैर किसी भी भय के पहुँच जाती थी और आज वह दिन था कि सबकुछ उसके लिए अनजाना-सा बन चुका था । वह माँझी जो उसके दिल का बहुमूल्य टुकड़ा था । उसके जीवन का सहारा था । जिसके प्यार में खोकर वह घण्टों सपने देखा करती थी । अवसर पाते ही उसके शरीर से लिपट जाती थी; आज किस्मत के फेर से वह उसके कमरे का द्वार तक खटखटाने में हिचक रही थी । एक पल पहले तक माँझी उसका अपना था । वह उसकी थी और दूसरे ही पल उसका अपना माँझी इस कदर अजनबी बन जाएगा? इतना अधिक उसको नकारेगा ? सोचते-सोचते नैया की आँखों में पानी भर आया । गला जैसे भर आया । क्षणभर में ही वह अपने बीते हुए दिनों की सुखद स्मृतियों पर यूँ उदासियाँ की चादर पड़ते ही तड़प गई ।

फिर उसने जैसे-तैसे अपने को सँभाला । अपनी नम हो आई आँखों को साफ किया और साहस करके कमरे के द्वार पर दस्तक दी,

"खट.. खट..."
" ...? - माँझी ने कहा तो कुछ भी नहीं, पर वह आश्चर्य से दरवाजे की और देखने लगा । तब नैया ने धीरे-से दरवाजे के पट खोले और आहिस्ते-से कृत्रिम मुस्कान के साथ माँझी की ओर देखते हुए कहा,

"देखा नहीं, सुबह के आठ बज रहे है । नाश्ता कराने आई हूँ । " यह कहकर वह उसके लिए प्लेट में नाश्ता निकालने लगी ।
“आप मेरे लिए यह सब लेकर आई है' ? " माँझी ने आश्चर्य और विस्मय के साथ नैया को नाश्ता परोसते हुए पूछा ।
"हां ! क्यों ?" नैया बोली ।
'” ... ? " - इस पर माँझी खामोश हो गया तो नैया ने ही आगे कहा । वह गम्भीर होकर बोली, "मैं आपको खाना खिला रही हूँ । आपकी देखभाल करूँगी और यहाँ अस्पताल में आपका हर तरह से ख़याल भी रखूँगी । इससे आपको कोई परेशानी हैं क्या ?"
" परेशानी तो नहीं परन्तु हिचक ज़रूर लगती है । " माँझी ने कहा तो नैया ने तुरन्त पूछा, “क्यों ?"
" आप मेरे लिए अजनबी हैं इसलिए । मैं तो आपको जानता भी नहीं हूँ । "
"मैं आपके लिए अजनबी हो सकती हूँ परन्तु आप मेरे लिए नहीं और फिर आप मुझे नहीं जानते हैं तो यहाँ किसे जानते हैं ? " नैया जैसे परेशान होकर बोली ।
“डॉक्टर को- आपने देखा कि कितनी अच्छी हैं वे ? कल सारी रात मेरे पास ही बैठी रही थीं । "
“हाँ, जानती हूँ । वह भी इसलिए कि आप उनके मरीज़ हैं और अपने मरीजों की देखभाल करना उनका कर्त्तव्य ही नहीं, बल्कि एक मानवीय भावना भी होती है । ” नैया ने स्पष्ट किया ।
" आप भी क्या डॉक्टर की सहयोगी हैं ? " माँझी ने पूछा ।
“नहीं ! मैं आपकी सहयोगी अवश्य हूँ । "
"मतलब ? "
“थोड़ी देर पहले डॉक्टर ने क्या कहा था आपसे मेरे लिए ?” नैया ने पूछा ।
“मुझे याद नहीं । "
" आपको तो अब कुछ भी याद नहीं रहा है । मैं आपकी होनेवाली पत्नी हूँ । मेरा आपसे विवाह होनेवाला था, पर दुर्भाग्य से आप घायल हो गए । "
"आप मेरी सेवा क्यों करती हैं ?" माँझी ने पूछा ।
" क्योंकि मैं आपकी होनेवाली पत्नी हूँ । "
"' पर सेवा तो डॉक्टर भी बहुत करती हैं… ?"
" अच्छा । तो फिर क्या है ? उन्हें भी अपनी पत्नी बना लेना । " नैया जैसे तनिक खीझकर बोली ।

" ... ?"- इस पर माँझी खामोश हो गया और आश्चर्य से नैया का मुख देखने लगा । तब नैया ने जैसे उसे डाँटते हुए कहा,

"पहले तो आप कतई नहीं बोलते थे और अब बीमार पड़ते ही देखो ... ? चलिए खाना शुरू करिए । "
“... ? " - इस पर माँझी नैया को और भी अधिक आश्चर्य के साथ निहारने लगा ।
“ऐसे क्या देख रहे हो ? " तब नैया ने पूछा ।
“ आप तो ऐसे डाँट लगा रही हैं कि यदि मैंने खाना नहीं खाया तो जैसे मुझे मारेंगी भी ।" माँझी बोला ।
"हाँ ! मारूँगी नहीं, पर नाराज़ अवश्य ही हो जाऊँगी । जानते हैं कि आपने मुझे किस कदर रुलाया है । "
"मैँने ? “
"और नहीं तो क्या ?"
“... ? " फिर से खामोशी- माँझी पुन: बेबस होकर खामोश हो गया तो नैया ने आगे कहा,

" आप खुद खाते हैं या फिर मैं अपने हाथों से खिलाऊँ ? "
“नहीं, नहीं । मैँ स्वयं ही खा लूँगा । " यह कहकर माँझी स्वयं ही खाने लगा । फिर जैसे ही उसने पहला ग्रास मुख में रखा तो स्वाद लेते हुए बोला,

" अरे ! यह तो बेहद स्वादिष्ट है... "
"जानती हूँ । आलू के भरे हुए पराँठे हैं, जो आपको हमेशा से पसन्द रहे हैं । " नैया बोली ।
"मेरी पसन्द, आपको कैसे मालुम हुई ? " माँझी जैसे चौंक गया ।
"आपकी पत्नी जो हूँ न ? " नैया ने उसके मस्तिष्क पर थोड़ा दबाव डालना चाहा ।
" पत्नी... ' ? "
“हाँ- पत्नी- बीबी- वाइफ- जोरू- और कितने पर्यायवाची याद दिलाऊँ मैं ?” नैया जैसे बिफर गई।
" आप तो नाराज़ हो रही हैं । " माँझी मायूस हो गया ।
“तो आप भी तो पटापट ही करे जा रहे हैँ । " नैया ने शिकायत की ।
"यह पटापट क्या होता है ? ”
" लगातार बोलना ।"
“तो ठीक हैं, मैं नहीं बोलूँगा । " यह कहकर माँझी चुपचाप खाने लगा ।
तब नैया भी ख़ामोश हो गई और चुपचाप उसकी गतिविधियों को देखने लगी । वह धीरे-धीरे खाता रहा बगैर नैया से आँखें मिलाए ही । पर नैया बराबर उसकी आँखों में झाँकती रही । देखती रही । और शायद तलाशती रही, अपनी उस बहुमूल्य कृति को जो उसके भाग्य की बिगड़ी हुई लकीरों की वज़ह से जैसे कहीं शून्य में जाकर लुप्त हो गई थी ।

इसी बीच नैया ने आपस के मध्य छाई खामोशी को तोड़ा । वह बोली,

" आपको अपना नाम मालूम है ? "
"डॉक्टर ने माँझी बताया था । "
" और अपने बारे में क्या जानते हैं आप ? "
“अपने बारे में ?"
"हाँ… "
"मैं जो हूँ न- मैं हूँ बस ।" माँझी ने कहा ।
और मुझे ?
" आप ? आप एक अच्छी-सी लइकी हैं । प्यारी-सी । सुन्दर.. पर.. "
" पर क्या ?"
" पर डॉक्टर से अधिक सुन्दर नहीं । "
" ...? " - नैया इस पर खामोश हो गई और उससे कुछ भी कहते नहीं बना, लेकिन फिर थोड़ी देर पश्चात् उसने पूछा,

" आपको डॉक्टर बहुत अच्छी लगती है न ? "
“हाँ ! "
“ क्यों ? “
"वह बहुत अच्छी है इसलिए । और फिर आती हैं तो अपना कार्य करती हैं और तुरन्त चली भी जाती हैं । " माँझी ने कहा तो नैया ने आगे जानना चाहा । वह बोली,

" और.. मैं... ?"
" आप तो लगता है कि जैसे मेरे पास से कहीं जाना ही नहीं चाहती हैं । "
“मैं कहाँ जा सकती हूँ आपको अकेला छोडकर ? ” नैया उदास होकर बोली ।
"जहाँ डॉक्टर चली जाती हैं, मुझे देखने के बाद । "
"उनके पास तो आपके अतिरिक्त और भी मरीज़ हैं, पर मेरे लिए केवल आप ही हैं । मुझे तो केवल आपको ही देखना है ।”
“ अच्छा ! वह तो डॉक्टर हैं और आप भी उन्हीं के साथ काम करती हैं क्या ? " माँझी ने पूछा।
"नहीं ! मैं तो दूसरी जगह काम करती हूँ । ”
“कैसा काम ? "
" नाचती हूँ. गाती हूँ और लोगों का मनोरंजन करती हूँ और आप भी तो बीमार पड़ने से पूर्व मेरे साथ ही काम किया करते थे । ” नैया ने कहा तो माँझी जैसे चौंक गया और प्लेट का अन्तिम ग्रास मुँह में रखते हुए बोला,

" क्यों व्यंग्य करती हैं मेरे साथ ?"
"' शाबाश !" उसको नाश्ता समाप्त करते देख नैया ने जैसे प्रसन्न होकर कहा । फिर पास के तौलिए से उसका मुख पोंछा, हाथ साफ़ किए और फिर उसके मुख को अपने दोनों हाथों की हथेली में थामकर उससे कहा,

"ज़रा इधर तो लाइए अपना मुँह. तब माँझी ने जैसे ही अपना मुख उसकी और बढाया, तो अवसर मिलते ही नैया ने अपने ओठों का एक मधुर-सा चुम्बन उसके ओठों पर रख दिया, “पुच्च... "
“ यह क्या था ? " माँझी जैसे आश्चर्यचकित रह गया ।
“ यह इस बात की साक्षी है कि आपने नाश्ता कर लिया । ” नैया हल्के-से मुस्कराकर बोली ।
“ अच्छा !" माँझी आश्चर्य से नैया को निहारने लगा । फिर थोड़ी देर बाद वह नैया को बर्तन ठीक से रखते, देखते हुए बोला,

" अब आप क्या करेंगी ?"
"आपका बिस्तर ठीक करूँगी । कपड़े उतारूँगी, फिर उन्हें धोऊँगी और फिर घर से दोपहर का खाना बनाकर लाऊंगी । " नैया बोली ।
“ ?"- खामोशी रही ।
तब माँझी आश्चर्य और विस्मय के साथ उसे देखता ही रहा । देखता रहा और सोचने का प्रयत्न करने लगा, 'कौन है यह ? क्यों मेरा इतना अधिक सम्मान और ख़याल करती है ? अवश्य ही इससे उसका कोई सम्बन्थ था ही वरना एक लड़की होकर वह क्यों इतना आगे बढ़ती ? क्यों उसको अपना समझती ? क्यों उसके लिए आँसू बहाती ?"
पर उसे क्या ज्ञात था कि एक माँझी वह था, जो मक्रील नदी की तनहाइयों में अपने प्रथम प्यार की दर्दभरी पुकार में सुधा को तलाशता फिर रहा था । एक वह माँझी था जिसने नैया को अपने जीवन की 'नैया' समझकर ही उसकी चाहतों को अपने दिल में स्वीकार कर लिया था और एक माँझी यह है जो घायल होने के पश्चात् अपनी जिन्दगी के हरेक पिछले दुख-दर्द से बेगाना हो चुका है- हर बात से लापरवाह और बेफिक्र हो गया है । समय के चक्र ने एक ही मनुष्य में जीवन के तीन विभिन्न प्रकार के रूप दिखा दिए थे । पहला माँझी ? जिसने सुधा को अपना बनाना चाहा था । दूसरा माँझी ? जिसे नैया ने किसी उजड़े हुए चमन का कुम्हलाया हुआ फूल समझ कर अपनी धड़कनों से लगा लिया था और अब यह तीसरा माँझी ? जो अब किसी का भी नहीं था । कहीं का भी नहीं था और लगता था कि जैसे वह अब कोई भी नहीं था ।

सुधा भी अपने कार्यालय में बैठी हुई इसी तीसरे माँझी के बारे में सोचकर परेशान हो जाती थी । सारी रात वह भी नहीं सो सकी थी । दिन ऐसे ही सरकते जा रहे थे । दिन-रात वह अभी तक इसी ऊहापोह में थी । प्रतिदिन जब वह सोकर उठती तो इसी आशा में अस्पताल की मुख्य नर्स को पहले एक आशा पर टेलीफोन करती और माँझी के बारे में पूछती पर हर सुबह उसकी सभी आशाओं पर पानी फिर जाता था । माँझी के शारीरिक स्वास्थ्य में तो सुधार हो रहा था । उसकी काफी कुछ चोटें अब तक ठीक भी हो चली थीं । घाव भरने लगे थे, परन्तु मस्तिष्क की भूली हुई यादों में अभी तक कोई भी चमत्कार नहीं हो सका था । वह बिलकुल वैसा ही था, जैसाकि दुर्घटना के पश्चात् हो गया था । वह न तो नैया को ही पहचान सका था और न ही सुधा को । सुधा भी उसके परिवारवालों को सूचित करने में पूर्णत: असमर्थ हो गई थी, क्योकि माँझी के माता-पिता और उसकी बहन का अता-पता केवल माँझी से ही लग सकता था और माँझी वह अब तक इस लायक़ भी नहीं था कि किसी को कुछ भी अपने पिछले अतीत के बारे में बता भी सकता ।

माँझी की भूली हुई स्मृतियों को वापस लाना ? यह एक ऐसी चुनौती थी कि जो सुधा के लिए उसके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण बात बन गई थी, पर अब वह भी यह सोचकर परेशान और हताश हो जाती थी क्योंकि यह एक ऐसा कार्य था जो उसकी डॉक्टरी इलाज की सीमा से बाहर होता जा रहा था एवं वह भी अब धीरे-धीरे यह महसूस करने लगी थी कि अब यह कार्य तो कोई चमत्कार ही कर सकता था । माँझी के मस्तिष्क पर कोई भी ऐसा भीषण झटका, प्रहार या कोई प्रभाव पड़ना आवश्यक था जो केवल उसकी भूली हुई स्मृतियों को वापस ला सकता, वरना आगे क्या होना था और क्या नहीं ? इस बारे में वह अभी तक कोई भी निर्णय नहीं कर सकी थी ।
कभी वह नैया की परिस्थिति पर ध्यान देती तो स्वत: ही उसका नारी मन उसकी पवित्र भावना के तले माँझी के प्रति बसे हुए प्यार की अति देखकर पिघल जाता था और कभी वह माँझी के विषय में सोचती तो उसके लिए ऐसी स्थिति में, अवसर मिलने पर भी बहुत कुछ करने की चाहत में, कुछ भी न कर पाने की असमर्थता से वह स्वत: ही एक हीनभावना और ग्लानि से भर भी जाती थी । ऐसी स्थिति में अक्सर उसे वह क्षण भी याद आ जाते थे, जो उसने माँझी के साथ कभी भरतपुर के कला मन्दिर में व्यतीत किए थे और तब वार्तालाप के दौरान उसने माँझी से व्यंग्य के रूप में ये शब्द कह दिए थे, 'देखिए अगर मेरी वज़ह से बीमार पड़े तो ऐसा इंजेक्शन दूँगी कि आँख खुलने पर न मुझे पहचान सकोगे, और न अपने-आपको । ' तब उसे क्या ज्ञात था कि उसके द्वारा अनजाने में कही हुईं यह बात इस क़दर सत्य भी हो जाएगी । माँझी को तो इंजेक्शन उसने होश में लाने के लिए ही दिया था, पर वह होश में आया, मगर अब भी वह जागकर भी जैसे बेहोश ही था । वह सचमुच ही अपना होश खो बैठा था । वह न खुद को पहचान सका था और न ही सुधा को और न ही उस नैया को, जिसने उसको अपने शरीर का कोई भाग समझकर अपने दिल से लगा लिया था । फिर भी कुदरत ने सुधा के साथ इतना न्याय तो कर ही दिया था कि बीती हुई यादों का दूसरा पक्ष भी सच कर डाला था । इस बार माँझी कम-से-कम उसके कारण तो बीमार नहीं दुआ था । इसी कारण वह उसकी जी भरके सेवा कर रही थी और अपनी जान में उसका अच्छे-से-अच्छा इलाज करने का प्रयत्न भी कर रही थी और यह उसके परिश्रम और अथाह लगन का ही फल था कि माँझी अब तक कम-से-कम शरीर से काफी सीमा तक स्वस्थ हो चुका था । मन से चाहे वह अभी तक बेगाना और अपरिचित ही था, परन्तु तन से वह ठीक हो चला था ।

इतने दिनों में वह नैया से भी काफी हद तक घुल-मिल चुका था, परन्तु उसकी गतिविधियों में जो परिवर्तन आया था वह यही था कि उसके समस्त कार्यकलाप, विचार और सोचने की शक्ति बिलकुल जैसे बच्चों समान ही थी । वह भी शायद इसलिए क्योंकि स्मरणशक्ति भूलने के पश्चात् अब सबकुछ उसके लिए नया-नया ही था । वह सारी बातें फिर से सीख रहा था । उसकी उम्र और शरीर के अनुसार उसमें परिपक्वता नहीं आ सकी थी, इसलिए नैया अब जैसे उसकी अध्यापिका समान ही थी । वह जैसा उससे कहती मान लेता । जो खिलाती वह खा लेता और जो समझाती वह समझने की चेष्टा करता था । सुधा अपने कार्यालय में जब भी उसे फुरसत होती तो यही सब सोचा करती थी । कभी वह सोचती की माँझी को अस्पताल से छुट्टी दे दी जाए, परन्तु फिर यह सोचकर रुक जाती कि ऐसी स्थिति में वह जाएगा कहाँ ? यह और बात थी कि नैया उसके साथ साये के समान लगी हुई थी । उसका हर तरह से ध्यान रखती थी, परन्तु सामाजिक मान्यताओँ में वह अभी उसकी पत्नी तो नहीं बन सकी थी । प्यार की बलिवेदी पर खिले हुए फूलों का साथ, सामाजिक बंधनों के प्रभाव से कभी भी अलग भी तो हो सकता है । अगर ऐसा हो गया तो फिर माँझी का क्या होगा ? वह कहाँ जाएगा ? उसे तो अपना भी पता नहीं है । फिर वह कैसे अपने को सँभाल पाएगा ?

यही तमाम बातें ध्यान में रखकर सुधा माँझी को अस्पताल से छुट्टी नहीं देना चाह रही थी । मगर फिर भी उसने कभी-कभार माँझी को नैया के साथ बाहर अपने-जाने के लिए कह रखा था, ताकि वह बार-बार उन स्थानों पर जाए, जहाँ से उसका कभी गहन सम्बन्थ रह चुका था । शायद हो सकता है कि इससे उसके मस्तिष्क की भूली हुईं स्मृतियों में कोई चिंगारी उत्पन हो जाए, और उसकी स्मरणशक्ति पुन: वापस आ जाए ।

फिर एक दिन यही सबकुछ सोचती हुई वह माँझी के कमरे में गई । वह भी उस समय जैसे किसी के आने की प्रतीक्षा कर रहा था और कहीँ जाने के लिए तैयार बैठा था । सुधा को देखते ही वह हल्का-सा मुस्कराया, साथ में सुधा भी मुस्करा दी ।
"कैसी तबीयत है आपकी ?" सुधा ने उसकी कलाई अपने हाथ में पकड़ते हुए पूछा ।
"मैं तो ठीक हूँ । पता नहीं अब क्यों आप मुझे यहाँ रोके हुए हैं ?" माँझी ने प्रश्चसूचक दृष्टि से सुधा की ओर देखते हुए कहा ।
"मैं जानती हूँ । आपकी चोटें तो ठीक हो चुकी हैं, …परन्तु अभी भी और सुधार की आवश्यकता है । "

"कैसा सुधार ?"
"' थोड़ा-सा मानसिक सुधार । आपको अपने बारे में कुछ भी याद नहीं है । उसके लिए । " सुधा ने कहा तो माँझी आश्चर्य से बोला,

" आप और नैया दोनों अक्सर यही कहते हैं, पर मैं तो सब जानता हूँ । आपको, नैया को, अपने-आपको भी... "
"ठीक है, लेकिन अभी आपको कुछ दिन और यहाँ ठहरना पडेगा । ” सुधा ने कहा ।
“ ?”- तब माँझी आश्चर्य से उसे देखने लगा पर बोला कुछ भी नहीं । फिर सुधा ने उसका रिपोर्ट चार्ट देखते हुए पूछा,

"आपने दवा ली है आज ?”
"हाँ !"
“गुड । “
उसके पश्चात सुधा चलने को हुई तो माँझी ने उसे रोक दिया । बोला,

"डॉक्टर ! "
".. ?” सुधा वहीँ ठिठक गई और आश्चर्य से माँझी को देखने लगी ।
"इधर आइए । मेरे पास । ” माँझी ने अनुरोध किया ।
तब सुधा उसके सामने आ गई ।
" थोड़ा और नज़दीक... ” माँझी बोला ।
" ...?"- सुधा थोड़ा-सा और आगे आई पर आश्चर्य के साथ । तब माँझी ने उसके चेहरे को अपने दोनों हाथों में थामा और बोला कि,

" आप जब देखो तब यही पूछती रहती हैँ कि दवा खाई? दवा खाईं या नहीं? इसलिए अब आपको बार-बार पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी । "

यह कहकर उसने बडी ही शीघ्रता से सुधा के ओठों का चुम्बन ले लिया -

'पुच्च... ?'”
" ...?"- सुधा को काटो तो खून नहीं । वह तुरन्त ही उसके हाथ झटकते हुए, आश्चर्य से बोली, " यह क्या करते हैं आप ?"
" यह इस बात का सबूत है कि मैंने दवा खा ली है । " माँझी ने बड़े भोलेपन से कहा तो सुधा कुछ सहज हुईं । पर वह विस्मय से बोली,

" आपने कहाँ से सीखा है यह सब ?”
“नैया करती है प्रतिदिन मेरे खाना खाने के बाद । ”
“... ?”- खामोशी... सुधा इस पर थोडी देर तक कुछ नहीं बोल सकी । पर गम्भीर अवश्य ही हो गई थी । फिर कुछेक क्षणों के पश्चात् वह माँझी से बोली,

“सुनिए ?
“जी ? “
"यह चीज़ हर किसी के साथ नहीं की जाती है । केवल पत्नी ही अपने पति के साथ कर सकती है ।”
"तो आप मेरी पत्नी क्यों नहीं बन जातीं ? आप तो मुझे और भी अच्छी लगती हैं । नैया से भी अधिक ।"

"नहीं ! केवल एक मनुष्य के साथ एक ही पत्नी रहने का नियम होता है । "

सुधा ने कहा तो माँझी क्षणभर को खामोश हो गया । तब सुधा ने आगे और कहा । वह बोली, “क्यों, नैया क्यों नहीं अच्छी लगती हैं आपको ? वह तो मुझसे भी अधिक प्यारी और सुन्दर है।"
"अच्छी तो है, लेकिन आपसे अधिक नहीं ।

" वह क्यों ?”
"जब देखो, तब ही कुछ-न-कुछ कहती रहती है । कभी डाँट भी लगा देती है और कहती है कि यह करो, वह न करो, ऐसे बैठो, बिस्तर ठीक से रखो...इत्यादि… "
"बहुत प्यार करती है आपको, इसलिए कभी ऐसा भी करती है ।" सुधा ने हलके-से मुस्कराकर कहा तो माँझी ने उससे उत्सुक होकर पूछा,

“ क्या आप प्यार नहीं करती हैं मुझको ?"
“करती हूँ लेकिन नैया से पहले नहीं । "
"... ? " - माँझी कुछ और कहता इससे पूर्व ही नैया ने द्वार खोला तो वह आश्चर्य से उसकी तरफ़ देखने लगा । वह भी तैयार होकर आई थी और साथ में माँझी के धुले हुए कपड़े तथा कुछ खाने-पीने की सामग्री भी साथ में लाई थी ।
नैया ने सुधा को देखकर पहले उससे नमस्ते आदि की फिर सुधा से बोली,

"मैं आज फिर इनको कहीं घुमाने ले जा रही हूँ । ”
"ज़रूर ले जाना; लेकिन मुझे पहले तुमसे कुछ विशेष बातें करनी हैं ।” सुधा ने कहा, तो नैया थोड़ा चौंककर बोली,

" क्या माँझी के बारे में ?”
"हाँ, उसी के स्वास्थ्य के विषय में, मैं तुम्हें कुछेक निर्देश देना चाहती हूँ ।”
“ अच्छा, आप चलिए । मैँ ज़रा इनको ठीक-ठाक करके आपके कार्यालय में आती हूँ । " नैया ने कहा तो सुधा अपने कार्यालय में चली आईं ।

फिर थोडी देर बाद नैया भी उसके कार्यालय में जा पहुँची । फिर सुधा ने उसको कुर्सी पर बैठने को कहा और अपनी बात आरम्भ की । वह बोली,

"देखो नैया ! मुझे जितनी हमदर्दी माँझी से है, उससे कहीं अधिक तुमसे भी है । एक तरह से देखा जाए तो तुम दोनों की खुशियाँ ही अब मेरे लिए मेरी सुख-शान्ति और सन्तुष्टि है । मैं इतने दिनों से माँझी का इलाज कर रही हूँ और वह शारीरिक रूप से तो स्वस्थ हो चुका है, परन्तु वह अभी तक अपना अतीत याद नहीं कर सका है, इसलिए अब मैं भी कभी-कभी यह समझने और सोचने पर विवश हो जाती हूँ कि माँझी की स्मरणशक्ति पुन: वापस लाना इस डॉक्टरी सीमा के अन्तर्गत एक टेढ़ी खीर बनता जा रहा हैं... ”
"तो क्या मेरा माँझी क्या अब कभी भी ठीक नहीं हो पाएगा ?” नैया भरे गले से बोली ।
“क्यों नहीं हो सकेगा ? पर उसके लिए जितनी मेहनत मैं कर रही हूँ उससे कहीं अधिक शायद तुमको ही करनी पड़े । "
“मैं तो कुछ भी करने के लिए तैयार हूँ । बस, वे ठीक हो जाएँ । पहले समान मुझको पहचानने लगें, और मुझे कुछ भी नहीं चाहिए । " कहते-कहते नैया की आँखें फिर नम हो आईं ।
“ इसलिए मैं सोचती हूँ कि माँझी की स्मरणशक्ति पुन: वापस लाने का अब केवल एक ही उपाय हमारे लिए शेष रह गया है । " सुधा ने गम्भीर होकर कहा तो नैया उत्सुक होकर बोली, "वह क्या है ?"
"वह ? तुमने मुझे बताया था कि जब माँझी घायल हुआ था, उस समय तुम कोई गीत गा रही थीं और नृत्य भी कर रही थीं । "
"हाँ !”
"इस कारण उसकी स्मरणशक्ति वापस लाने का अब केवल यही उपाय हमें फिर से अपनाना पडेगा । "
"... ? " - नैया ने प्रश्नवाचक दृष्टि से सुधा को देखा तो सुधा ने बात आगे बढ़ाईं । वह बोली, "मेरा कहने का आशय है कि माँझी की स्मरणशक्ति खोने का मुख्य कारण उसके गिरकर चोट लगना ही नहीं है बल्कि तुम्हारा वह गीत और नृत्य तथा माहोल भी हो सकता है जो वह घायल होने से पूर्व देख रहा था । इसलिए तुमको केवल . यही करना है कि ठीक उसी स्थान पर तुम्हें माँझी को अपने उसी गीत, उसी प्रकार के नृत्य तथा वस्त्रों में वह सबकुछ फिर से प्रदर्शित करना होगा जिसकी तस्वीर उसने घायल होने से पूर्व अपने मस्तिष्क में बना ली है । साथ ही उसके सामने तुमको पहाड़ से नीचे गिरने का अभिनय भी माँझी को करके दिखाना होगा । मेरा अनुमान है कि तुम यदि ऐसा करोगी तो शायद हो सकता है कि माँझी की स्मरणशक्ति तुरन्त वापस आ जाए । ”
"... ?”- तब नैया काफी देर तक गम्भीर बनी सोचती रही । साथ ही सुधा भी मौन बनी नैया के परेशान और भोले चेहरे को बैठी गम्भीरता से देखती रही ।
“ यह मैं इसलिए और भी कह रही हूँ कि मेरा अनुमान है कि जिस भयानक हादसे के कारण माँझी का यह हाल हुआ है और जो शायद तस्वीर उसके मस्तिष्क में बन चुकी है, यदि वह फिर से उसी घटना-चित्र को देखेगा तो शायद वह सबकुछ फिर से याद करने लगे । और अपनी सामान्य स्थिति में आ जाए ।"

सुधा ने नैया के परेशान चेहरे को देखते हुए कहा तो नैया ने दुखित स्वर में कहा,

"ठीक है । मैं यह भी कर लूँगी । "
“वैसे मैं अन्य डॉक्टरों से भी राय ले रही हूँ और मैंने माँझी का केस भारत के विशेषज्ञ डॉक्टरों के पास भी भेजा हुआ है । सो परेशान न हों, भगवान ने चाहा तो माँझी फिर से भला-चंगा हो जाएगा । "
"... ?" - तब नैया कुछ और नहीं कह सकी । बस चुपचाप, बहुत खामोशी से सुधा के चेहरे को देखती रही. उसकी आँखों को पढ़ने का प्रयास करती रही । जहाँ पर उसे कभी उम्मीदभरी आशाओं के प्रतिबिम्ब नज़र आते थे, तो कभी क्षणभर में ही चिन्ताओं और मज़बूरी के घुमड़ते हुए बादलों के रंग । मगर सुधा के अतीत से बेख़बर भोली-भाली नैया को भला क्या ज्ञात था कि सुंधा की आँखों ने इन्हीं हर पल बदलते रंगों में कभी माँझी ने भी अपने प्यार का रंग भरने का प्रयास किया था, परन्तु तब सुधा ने उसके प्यार के रंग को साफ कर दिया था । कभी हँसकर, कभी टालकर और कभी शायद मन-ही-मन रोकर भी ।

अचानक ही काल मटमैले बादल के लिहाफ ने चन्द्रमा को अपने अंक में छिपा लिया तो पलभर में ही कौसानी का सारा इलाका हल्दी अन्धकार के साये में डूब गया । इसके साथ ही अन्धकार को थोड़ा-सा सहारा मिला तो कुछ देर पूर्व चंद्रमा के दूधिया प्रकाश में टिमटिमाती हुईं तारिकाओँ के चेहरों पर भी एक मुस्कान-सी थिरक गई । वे पहले से और भी अधिक ज्योति से भर गईं ।
इस समय रात धीरे-धीरे गहराती जा रही थी । कौसानी क्षेत्र का शायद हर मनुष्य नींद में खो गया था । पहाड़ों पर एक अजीब ही शान्ति थी । चिनार चुपचाप सिर झुकाए सो गए थे । वनस्पति के हरेक पेड़-पौधे की हरकतों पर एक ठहराव-सा था । सारा इलाका । इलाके का चप्पा -चप्पा शायद हर दुख-सुख से बेख़बर अपने सुन्दर सपनों की नींद मेँ खो गया था, परन्तु अपनी बे-मुरब्बत किस्मत पर आँसू बहाती हुई नैया इस समय अपने उस प्यार की बाजी का शोक मना रही थी, जो धीरे-धीरे शायद उसके हाथों से खिसकती हुई उसकी पूर्व हार का दुखद सन्देश दे रही थी । वह इस समय उसी पहाड़ी के एक पत्थर पर बैठी हुई विचारमग्न थी, जहाँ से कई माह पूर्व उसका माँझी, उसके दिल की धड़कनों का प्यार, दुर्घटनावश उसके जीवन के लिए अपरिचित हो गया था । उसके दिल में दुख था । दुखों का सारा सागर ही था । आँखों में नमी थी और ओठों पर एक आह के साथ-साथ दुनियां बनानेवाले से थकी-थकी शिकायत भी थी ।
कभी वह अपने एकान्त जीवन के बारे में सोचती तो कभी माँझी के जीवन के विषय में सोचकर ही परेशान हो जाती थी । कभी वह सारी दुनिया के हँसते-मुस्कराते हुए लोगों के लिए विचारने लगती, तो कभी अपनी मज़बूर मुहब्बत के विषादभरे बादल देखकर परेशान होकर अपने हाथ मलने लगती । जीवन के हर पल बदलते हुए रवैयों ने उसके लिए क्या कुछ नहीं बिगाड़ डाला था । माँझी की एक दुर्घटना के फलस्वरूप ही उसके प्यार की बाजी का रुख़ उलटा हो गया था । पलभर में ही उसकी हँसती-मुस्कराती हुई दुनिया में ग़म और विषाद के मनहूस बादल मँडराने लगे थे ।
सुधा के निर्देशानुसार उसने अब तक कितनी ही बार अपने उस गीत और नृत्य के साथ माँझी की स्मरणशक्ति वापस लाने का भरपूर प्रयास किया था । कितनी ही बार वह उसकी दृष्टि के समक्ष गिरी थी, उठी थी और हर तरह का अभिनय वह कर चुकी थी, परन्तु माँझी के मस्तिष्क पर जूँ तक नहीं रेंगी थी । बजाय उसकी याददाश्त वापस आती । वह थोड़ा-बहुत गम्भीर भी होता, वह नैया के गीत, नृत्य और इस प्रकार के अभिनय को देख प्रसन्न होकर हँसने और खिलखिलाने लगता था । कभी-कभी वह ताली भी बजाने लगता था । जिस प्रकार से एक बच्चा जीवन के नए-नए कौतूहल देखकर प्रसन्न होता है, ठीक वही हरकतें माँझी भी करता था, तब ऐसी स्थिति में नैया के चेहरे की समस्त आशाएँ, उदासिंयों की घोर पीड़ाओं में परिवर्तित हो जाती थीं । उसकी समस्त उम्मीदों पर निराशाओँ का कफ़न पड़ते देर नहीं लगती थी । ...दूर कहीं क्षितिज के उस पार बिजली कौंधती थी, तो कभी कौसानी के इस इलाके में उसकी चमक का सन्देश भी क्षणभर के लिए प्रसारित हो जाता था । ठीक नैया के दिल के समान ही । कभी उसे उम्मीद और आशाओं-भरी खुशियों के ढेर सारे पुष्प दिखते प्रतीत होते थे, तो कभी उजड़े हुए चमन का मनहूस दृश्य-सा ।

अब तक माँझी के इलाज में काफी समय व्यतीत हो चुका था । सुधा भी अब धीरे-धीरे काफी परेशान और मायूस-सी अक्सर नज़र आने लगी थी । इस तरह दोनों में से किसी की भी समझ में यह नहीं आ पाता था कि माँझी के सुधार के लिए अब कौन-सा पग उठाया जाए ? नैया तो दुखी और चिन्तित थी ही, परन्तु वह अभी तक निराश नहीं हुई थी, परन्तु सुधा ? वह एक डॉक्टर भी थी । मरीज़ के भविष्य के अच्छे-बुरे का पूर्व आभास उसे था । इस कारण वह कभी-कभी आशा और निराशा के मध्य अत्यधिक ही चिन्तित और परेशान नज़र आती थी । उसके चेहरे पर अब घोर चिन्ताओं के बादल, और असमर्थता की लकीरें स्पष्ट झलकने लगी थीं ।
तब बैठे-बैठे नैया ने अपने -आप ही एक ठोस निर्णय ले लिया... उसने सोचा कि कल ही वह डॉक्टर सुधा से माँझी के विषय में गम्भीरता से बात करेगी, अन्यथा वह माँझी के और भी अच्छे इलाज के लिए वह उसे कौसानी से बाहर भी ले जाएगी, क्योंकि थिएटर की निदेशक श्रीमती राजभारती ने भी माँझी के पूर्ण इलाज के लिए निकेतन की ओर से भरपूर सहायता करने के लिए कह दिया था ।

फिर दूसरे दिन ही वह सुधा के कार्यालय में जा पहुँची, पर वहाँ पहुँचकर उसको निराश होना पड़ा। सुधा इस समय कार्यालय में नहीं थी, जबकि उसके कार्यक्रम के अनुसार उसे इस समय अपने कार्यालय में होना चाहिए था । नैया थोड़ी देर को सुधा की अनुपस्थिति का कोई कारण नहीं समझ सकी । उसने सोचा था कि वह माँझी के पास बाद में जाएगी और सुधा से पहले उसके बारे में बात करेगी । पर सुधा तो थी ही नहीं । तभी अपने पास से गुज़रती हुई एक नर्स से उसने सुधा के लिए पूछा तो उसने बताया,

"डॉक्टर सुधा तो पिछली सारी रात से ही अस्पताल में हैं । किसी आपात्कालीन मरीज़ के आने के कारण वे घर पर भी नहीं गई थीं ।

" इतना जानकर नैया पहले से भी अधिक हैरान हो गई, परन्तु चिन्तित नहीं हुई । इसलिए उसने फिर यह सोचकर कि सुधा से बाद में मिल ली, तब तक माँझी को देख लिया जाए और उसे नाश्ता वगैरह खिला दिया जाए, वह माँझी के कमरे की ओर बढ़ गई ।
फिर वह जैसे ही माँझी के कमरे के द्वार तक पहुँची, तो अन्दर से किसी के वार्तालाप का स्वर सुनकर अचानक ही ठिठक गई । उसने कमरे की बगल से झाँककर देखा तो डॉक्टर सुधा को माँझी के बिस्तर के किनारे बैठे देख चौंकी तो नहीं, परन्तु आश्चर्य अवश्य ही कर गई । वह भी इसलिए क्योंकि आज तक उसने किसी भी डॉक्टर को अपने मरीज़ के बिस्तर पर बैठे नहीं देखा था । स्वयं सुधा को भी नहीं । सुधा अक्सर ही पास मेँ रखी कुर्सी पर ही बैठकर माँझी का मुआयना किया करती थी ।
तब नैया ने अन्दर जाना उचित नहीं समझा और वहीं बाहर खडे रहकर जाने क्यों उनकी वार्तालाप को सुनने का प्रयास करने लगी । सुधा के हाथ में इस समय कोई एलबम थी, जिसकी एक-एक फोटो वह माँझी को दिखाती जा रही थी, और माँझी अजनबियों समान उन्हें देखता जा रहा था, तभी सुधा ने एक फोटो के ऊपर अपनी अँगुली रखते हुए माँझी से कहा,

“यह देखो, ये तुम ही हो । इस समय मेरे पिता के घर में, मेरी मँगनी के अवसर पर । जब तुमने एक दिल तोड़नेवाला गाना गाकर परोक्षरूप में मुझसे अपने एकतरफा, छिपे हुए प्यार का इज़हार किया था । "
" ...? ” - तब माँझी ने अपनी फोटो देखकर आश्चर्य से सुधा की ओर उसकी आँखों में झाँका।
“ये देखो, दूसरी फोटो, जिसमें तुम मेरी ओर एक हसरतभरी निगाहों से देख रहे हो । तुम्हें तो कुछ याद आना चाहिए, ये मेरी ही तस्वीर है और मुझे देखो, मैं वही सुधा हूँ जिसको तुम मन-ही-मन प्यार करते थे, परन्तु मैं तब तुम्हें चाहकर भी प्यार नहीं कर सकी थी, क्योंकि तुमसे पहले मैं सागर से जुड़ चुकी थी । "
“ ...? "- माँझी ने पुन: उसे विस्मय से देखा तो सुधा ने उसको दूसरी फोटो दिखाई । वह बोली " और इसे भी देखो । इसमे भी तुम वही गीत गा रहे हो जिसके बोल थे, 'अक्सर क्यों मिलते हैं हम उनसे, जो गैरों के होते हैं… । पहचाना तुमने अपने-आपको ? "
"हाँ!, फोटो तो मेरी ही है, परन्तु गीत गाते हुए... ? मुझे तो गीत गाना आता ही नहीं है । ” माँझी ने निराश मन से कहा ।
“ अब आगे देखो यह रही तुम्हारे जयपुर के घर मेँ मेरी पत्थर की वह बेमिसाल मूर्ति जो तुमने मेरे प्रति अपने अथाह प्यार की गहराइयों के वशीभूत होकर बनाई थी । अब तो याद करो कुछ? कैसे भी अपनी स्मरणशक्ति पर जोर डालो । मैं चाहती हूँ कि तुम जल्दी-से-जल्दी ठीक हो जाओ । जानते हो कि मैंने अभी तक नैया को भी _ तुम्हारे और अपने बारे में कुछ भी नहीं बताया है । उस बेचारी को तो कुछ भी नहीं मालुम है कि मैं ही वही अभागिन सुधा हूँ जिसने तुम्हारे असीम प्यार को ठोकर मारकर बेकद्री की थी । "

....सुनते-सुनते नैया की छाती पर पहाड़-सा टूट पड़ा । आँखों के समक्ष तुरन्त ही तस्वीर का रुख़ उलटा हो गया । वह सकते में आ गई । आश्चर्य और विस्मय के मध्य वह पलभर में कोई निर्णय भी नहीं कर सकी । उसके दिल में एक हूक-सी उठी । दर्द का विस्तार बढ़ा तो आँखों के किनारे भी नम हो गए । दिल की कसक आँखों से गंगा-जमुना की धाराओं समान फूटती, इससे पहले ही उसने चुपचाप चले जाना ही उचित समझा और अब रुकने से लाभ भी क्या था ? सारी सच्चाई तो उसके समक्ष आ ही चुकी थी । माँझी और सुधा इस समय भले ही एक-दूसरे के लिए अनजाने और अपरिचित थे, परन्तु थे तो एक ही राह के पथिक? क्या हुआ जो वे अपने अतीत में एक दूसरे के हमसफ़र नहीं बन सके थे...?
इतना सोचते ही नैया तुरन्त ही वहाँ से चली आईं । टिफिन में लाए हुए माँझी के नाश्ते को वापस लिए हुए ही वह भागती हुई अस्पताल के बाहरी गेट से बाहर निकली और बेतहाशा दौड़ती हुई सीधे अपने घर में जाकर ही रुकी । रुकते ही बिस्तर पर गिर पडी और फूट-फूटकर रो पड़ी। रो पड़ी इसलिए क्योंकि जिस माँझी को उसने पराया समझकर अपने दिल से लगा लिया था, उसको अपना न कहनेवाली ही उसको पुन: अपना कहने के लिए ही उसका इलाज कर रही थी ।
तब उसको समझते देर नहीं लगी कि क्यों सुधा ने माँझी को अस्पताल का सबसे महँगा और विशेष कमरा दिया है ? क्यों वह उसके स्वास्थ्य के लिए बेहद चिन्तित और परेशान दिखती है? क्यों उसने माँझी का इलाज नि:शुल्क करना स्वीकार कर लिया था ? इन समस्त प्रश्नों के उत्तर भी उसके सामने स्पष्ट थे । माँझी सुधा के लिए कोई पराया नहीं था । सुधा के जीवन का वह पहला-पहला प्यार था, जिसने उसको अपने दिल की गहराइयों से पूजा या । उसे अपना बनाना चाहा था । उसे अपना कहकर अपने दिल से लगाने की कभी आरजू की थी । क्या हुआ जो सुधा माँझी को तब अपना नहीं कह सकी थी, परन्तु आज ? आज तो वक्त ने करवट ली है। गुज़रे हुए दिनों की तस्वीरें पलट भी तो सकती हैं । और अब उन्हें पलटने में कोई देर और परेशानी भी क्या है ? वही सुधा है । वही माँझी है । बीच में अगर कोई है तो केवल नैया । नैया- पर्वतों की एक ग़रीब, भोली, बेहद असहाय बाला । उसकी अब हैसियत भी क्या है, इन दोनों के बीच में ?

नैया सोचती थी और रोती थी । रोती थी तथा साथ ही तड़पती भी थी । कितना बुरा उसके प्यार का हश्र हुआ है ? वह तो आरम्भ से ही भूल में थी । माँझी तो उस का अपना था नहीं । वह तो पहले ही से पराया था । जब पराया था, तब उसे अपना-सा दिखता था और आज जब अपना है तो उसे पराया दिखने लगा है और यूँ भी अभी तो वह अस्वस्थ है । उसे कुछ याद नहीं है । कल को जब वह स्वस्थ हो गया, और उसकी स्मरणशक्ति वापस आ गई, तो क्या वह सुधा को पहचानेगा नहीं ? और जब पहचानेगा तो फिर किस प्रकार सुधा को नकार सकेगा ? यह तो वही सुधा है जो कभी उसके दिल की धड़कनों में समाई हुई थी । जिसकी वह आराधना करता था । हर रोज, हरपल दिल में न जाने कितनी ही बार उसकी आरती उतारा करता था और यह सुधा वही लड़की है जिसके प्यार का नाम माँझी के दिल की एक-एक रग में लिखा हुआ है?
नैया उस सारे दिन उदास रही । सारे दिन वह रोती ही रही । अपनी किस्मत पर आँसू बहाती रही । दिनभर घर में ही पड़ी रही । कहीं जाने का उसका मन ही नहीं हुआ । स्वयं सुधा ने भी उसके बारे में न आने के लिए अस्पताल का चपरासी भेजा तो नैया ने कहलवा दिया कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है इसलिए उस दिन माँझी को अस्पताल का ही खाना खाना पड़ा और वैसे भी वह मानसिकरूप से अस्वस्थ ही था, इसलिए वह भी नैया की परवा क्यों करता ? उसने भी नैया की कोई ख़बर नहीं ली, कोई चिन्ता नहीं की ।
और तब नैया सारे दिन घर में पड़ी-पड़ी सोचती रही । अपनी उजड़ती हुई प्यार की बगिया के उन फूलों को हर बार समेटने की चेष्टा करती रही, जिन्हें उसने अपने कोमल दिल की लालसाओं के द्वारा खिलाया था- जिनकी एक-एक कली की हिफाजत में उसने अपने जीवन का बहुमूल्य समय बरबाद किया था और साथ ही अपनी दिल की उन आरजुओँ पर भी आँसू बहाती रही, जिन्हें उसने कभी अपनी मजबूर हसरतों से बड़ी ही कठिनाई से आजाद कराया था । इसके साथ ही उस सारे दिन मौसम भी ख़राब ही रहा । पिछली रात से आकाश पर वैसे भी बादल छाए हुए थे । सारे वातावरण पर बादलों का आवरण इस प्रकार छाया हुआ था कि चारों ओर अन्धकार की काली चादर ही बिछी हुई थी । आकाश पर कभी बादल घुमड़ते थे तो कभी-कभार रो भी देते थे । प्राय: ही बरसात हो जाती थी । हर तरफ़ मौसम में एक भीगापन था । चीड़ और चिनारों पर भी वातावरण की उदासी और मायूसी थी । ठीक नैया के दुखी और मज़बूर दिल की हसरतों के समान ही । वह अभी तक अपने-आपसे यह निर्णय नहीं कर सकी थी कि अब सबकुछ स्पष्ट हो जाने के पश्चात् उसे कौन-सा पग उठाना चाहिए ? उसे क्या करना चाहिए ? उसको माँझी को स्वतन्त्र कर देना चाहिए अथवा नहीं ? उसका माँझी पर कोई अधिकार है भी या नहीं, क्योंकि वास्तविक रूप में माँझी ने तो प्यार सुधा को ही किया था । सुधा ही माँझी के दिल की रानी थी, पर वक्त ने नैया को भी माँझी से लाकर जोड़ दिया था । इसलिए वैसे भी उसको माँझी और सुधा के मध्य आने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए ।

फिर दूसरे दिन बहुत कोशिश करने पर भी जब उसका दिल नहीं माना तो उसने माँझी के लिए खाना बनाया । उसे टिफिन में रखा, और अपने दिल पर उदास हसरतों की गठरी रखे हुए अस्पताल की और चल दी । रास्ते भर उसके मन-मस्तिष्क में सुधा और माँझी के अतीत के वे प्यारभरे दिन किसी चलचित्र के समान आते-जाते रहे, जिन्हें उसने कभी देखा भी नहीं था, जिनके बारे में वह केवल सोच ही सकती थी, और अनुमान से उनकी अस्थाई रूपरेखाएँ ही बना सकती थी ।

फिर जब वह जैसे ही अस्पताल के अन्दर प्रविष्ट हुई तो अचानक से उसका सामना सुधा से ही हो गया । वह सुधा को देखकर कह कुछ तो नहीं सकी । केवल निगाहें ही झुका लीं, तब सुधा ने उसकी और विस्मय से देखते हुए कहा,

"क्या बात है नैया ? तबीयत तो ठीक है न ? "
"हाँ ! " नैया ने इतना ही कहा ।
"कल आई भी और नहीं भी । मन तो ठीक है । मुझे तो बहुत ही आश्चर्य हूआ कि जब एक नर्स ने मुझे बताया कि तुम अस्पताल आई थीं पर माँझी को बगैर खाना खिलाए ही वापस भी चली गई । "
"... ? ” सुधा ने कहा तो नैया चकित होकर उसे केवल देखने लगी ।
तब सुधा ने नैया को गौर से देखा । परखना चाहा । फिर उसकी भूरी आँखों को पढ़ते हुए सन्देहभरी दृष्टि से बोली,

"सब ठीक-ठाक तो है, ज्यादा परेशान तो नहीं हो ?"
"नहीं, ऐसे ही मन उदास था । " नैया का उत्तर बहुत ही छोटा था ।
"मैं जानती हूँ पर मुझे देखो, मैं भी तो कितनी ही कोशिश कर रही हूँ । अब आगे क्या होगा, ये तो ऊपरवाला ही बेहतर जानता है । " सुधा ने कहा तो नैया चुप ही रही । साथ ही गम्भीर और मायूस भी ।
" अच्छा जाओ, और माँझी को पहले देख लो । फिर मुझसे मिलकर जाना । " सुधा ने कहा तो नैया अपने टूटे मन से आगे चल दी ।
जब माँझी के कमरे में पहुँची तो वह दूसरी ओर करवट लिए हुए लेटा था । नैया चुपचाप से उसके कमरे के अन्दर घुसी और खामोशी से बैठ गई और माँझी को देखने लगी । माँझी को देखते ही स्वत: ही उसकी आँखों में आँसू भर आए । मन रोया-रोया-सा हो गया । उसने सोचा, 'ये माँझी? ये युवक ? कितना प्यार किया है उसने इसको ? किस कदर चाहा है ? इतना अधिक उसके पास आ चुकी है कि उसके पास से हटने की कल्पनामात्र से ही उसकी आँखें भीग जाती हैं । दिल में दर्द उठने लगता है । कितना ही अच्छा होता कि वह इसको प्यार नहीं करती। इसके पास नहीं आती । इसको अपना बनाने के सपने नहीं देखती । नहीं देखती तो आज़ उसके सारे सपने रेत के बने हुए महलों समान यूँ आसानी से ढहते हुए प्रतीत नहीं होते ? उसकी जिन्दगी के प्यार के दुखों में यूँ बढ़ोतरी तो नहीं होती । क्यों उसने इस बेगाने युवक को प्यार किया ? क्यों वह उसके इतने पास आ गई ? पास भी आ गई थी तो फिर क्यों वह इसको सदा अपना बनाने के ख्वाब देखने लगी थी ? यह युवक तो आरम्भ से ही उसका नहीं था । पराया था और जिसका भी था, उसको अपना कहने वाली कोई छोटी-मोटी हस्ती नहीं है । वह तो एक मशहूर मॉडलर, एक मशहूर सम्मानित डॉक्टर युवती है । डॉक्टर सुधा के समक्ष एक ग़रीब, असहाय और थिएटर की नर्तकी की क्या बिसात ?'

तभी अचानक से माँझी ने करवट बदली और मुड़कर जैसे ही उसने नैया को अपने पास बैठे देखा, तो आश्चर्य से उठकर बैठ गया, फिर एकदम से बोला,

“ अरे आप ? आप कब आ गई ?"
“... ?”- नैया ने कोई उत्तर नहीं दिया । वह केवल भरी-भरी आँखों से माँझी को देखती रही ।
"नाश्ता लाईं हो । पर मुझे तो आज डॉक्टर सुधा ने खिला दिया है... ।” माँझी ने सामने रखे टिफिन को देखते हुए आश्चर्य से कहा ।
तब नैया के मन में आया कि कह दे, ' एक ही दिन में बात यहाँ तक आ पहुँची ? अब वह अपने हाथों से खाना भी खिलाने लगी .?' पर मन की बात मन में ही रखकर वह माँझी से बोली,

“ कोई बात नहीं, यह खाना दोपहर में खा लेना । ”
"नहीं , डॉक्टर सुधा ने आज दोपहर का खाना अपने साथ अपने घर में खाने के लिए बुलाया है।”
"... ?" - माँझी को इस बात पर नैया के दिल में छाले पड़ गए, तुरन्त ही नैया के दिमाग़ में यह बात आई कि उसकी ज्ररा-सी लापरवाही पर सुधा के मन में माँझी के प्रति छिपे हुए उसके अपने अधिकार के पग बढ़ने आरम्भ हो गए ? उसके कल अस्पताल में आने और आकर भी खाना न खिलाने की वज़ह से ही बात यहाँ तक पहुँची है? फिर भी उसने अपने मन के दर्द को छिपाने का प्रयास किया और माँझी से पूछा,

"मैं कल नहीं आई थी, पर तुमने भी नहीं पूछा कि क्यों नहीं आई थी? "
"मैं क्यों पूछता .? फिर डॉक्टर सुधा तो थीं ही यहाँ । वे भी तो प्राय: यहीँ बैठी रही थीं । मुझे ढेर सारी अपनी और मेरी फोटो दिखाईं थीं । मुझे तो अब ऐसा लगता है कि डॉक्टर सुधा ही मेरी पत्नी हैं, आप नहीं । यदि आप हैं तो आपके साथ भी मेरी कोई फोटो होनी ही चाहिए ।"
माँझी ने कहा तो नैया ने चाहा कि रो दे । पर ऐसा वह चाहकर भी नहीं कर सकी । फिर भी वह अपने दिल पर पत्थर रखकर बोली,

" अगर ऐसा हो जाता है तब भी मुझे कोई परेशानी नहीं है । मुझे तसल्ली मिल जाएगी, कि कम-से-कम तुम तो प्रसन्न रहोगे ही । "
" आपकी आँखों में आसू ? " माँझी ने नैया को रोते देखा तो पूछ बैठा ।
"हाँ अक्सर आ जाते हैं तुम्हें देखकर । " नैया बोली ।
“मुझे देखकर ? “
”हाँ ' ” "क्यों ?”
"लगता है कि मैं या तुम दोनों में से कोई भी किसी को खो देगा । " नैया बोली ।
"मैं समझा नहीं ।” माँझी विस्मय से बोला । "

“ मतलब यही कि शायद किस्मत में अब मेरा और तुम्हारा साथ अधिक दिन का नहीं है । " नैया ने उदास होकर कहा तो माँझी पुन: आश्चर्य से बोला,

" आपकी बातें मेरी समझ में नहीं आती हैं । "
"इसी बात का तो रोना है । काश । तुम कुछ तो समझ पाते । समझ लेते तो आज़... खैर ! छोड़ो यह सब । यह खाना रखा है, अगर भूख लगे तो खा लेना, वरना मैं शाम को फिर आऊँगी। अभी डॉक्टर सुधा ने बुलाया है । वहीं जा रही हूँ । फिर वहाँ से थिएटर जाऊँगी । थोड़ा-सा काम है । "

यह कहकर नैया अपनी आँखों को पोंछती हुई कमरे से बाहर निकल गई और माँझी उसको बुत समान केवल देखता ही रहा... किंकर्तव्यविमूढ़-सा ।

और फिर जब नैया सुधा के कार्यालय में पहुँची तो सुधा अपने पेपरों में उलझी हुई थी । वह नैया को आते देख प्रसन्न होकर बोली,

" आओ -आओ, मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही थी । ”
"... ? "- तब नैया चुपचाप बैठ गई । उदास और गम्भीर-सी ।
"कहो, क्या हाल हैं ? कल से काफी उदास लगती हो । क्या कोई विशेष जात है ?"

सुधा ने नैया के उदास चेहरे और उसकी दर्द में दूबी आँखों ' को गम्भीरता से देखते हुए एक साथ तीन प्रश्न पूछ डाले ।
" ? "- इस पर नैया तब भी कुछ नहीं बोली । बस वह खामोशी से कभी सुधा को देखती, तो कभी कार्यालय की अन्य वस्तुओं को ।
"मैं एक बात नहीं समझ पाईं कि कल तुम माँझी के लिए खाना लेकर आई भी और उसको बगैर खिलाए वापस भी चली गई । ऐसा क्या हो गया था तुम्हें ?” सुधा ने पूछा तो नैया पहले तो इधर-उधर देखने लगी फिर बोली,

" आपको क्या बताऊँ ? आप तो डॉक्टर हैँ और एक स्त्री भी । क्या स्वयं समझ नहीं सकतीं कि क्या परेशानी हो सकती थी ?"
“ ओह ! आइ सी- लेकिन फिर उसके बाद भी नहीं आईं क्यों ? ” सुधा ने पूछा ।
“जब भी ऐसा होता है तो तबीयत काफी ख़राब-सी हो जाती है । सारे बदन में दर्द होने लगता है। चक्कर भी आते हैं इसलिए नहीं आ सकी थी । ”
नैया ने झूठ का सहारा लिया तो सुधा ने उसे समझाया । वह बोली,

" मुझे बता दिया होता, मैं दवा दे देती । ”
"कभी आज तक तो ली नही है । फिर ऐसे ही अपने-आप सब कुछ ठीक भी हो जाता है ।" नैया ने कहा तो सुधा पलभर को ख़ामोश हो गई ।
"चलो, ठीक है । मैं तो समझी थी कि कुछ और ही बात है । खैर, मैंने तुम्हें इसलिए बुलाया है कि मुझे अब यह आशा हो गई है कि माँझी की स्मरणशक्ति अब कभी भी वापस आ सकती हैं। मैं जब उससे विभिन्न प्रकार की बातें करती हूँ तो लगता है कि वह अब शीघ्र ही सबकुछ याद कर लेगा, इसलिए उसको अब केवल एक हल्का -सा झटका लगने की देर भर है । "
“ तो आप क्या चाहती हैं; कि मैं क्या करूँ ?” नैया ने पूछा ।
“मैं चाहती हूँ कि तुम उसे फिर एक बार उसी स्थान पर ले जाओ ओर उसके सामने फिर नृत्य करो... गीत गाओ और पहाड़ी से नीचे गिरने का अभिनय करो । अब मुझे पूरी उम्मीद है कि इस बार तुम्हें फिर निराश नहीं होना चाहिए । " सुधा ने कहा ।
"ठीक है; मैं पूरी कोशिश करूँगी, पर.. ? "
"क्या "?"
" आपको एकदम से इतनी अधिक आशा कैसे हो गई ? " नैया ने भेदभरे ढंग से पूछा ।
"वह इसलिए कि कल जब तुम नहीं आईं थीं तो मैँने माँझी को खाना खिलाया था, तभी वह मुझे गौर से देखते हुए बोला था कि, 'आपको शायद पहले भी कहीं देखा है ?" सुधा ने कहा तो नैया ने तुरन्त ही प्रश्न कर दिया । वह बोली,

"परन्तु माँझी ने तो आपको इससे पहले कभी भी देखा नहीं है ।"
"वह… हाँ... पर... उसका... इतना कहना ही... मेरी और तुम्हारी उम्मीद के लिए काफी है. सुधा ने तुरंत बात बदलना चाही, क्योंकि वह समझ गई थी कि ऐसा कहने में उससे भूल हो गई है, इसलिए बात को तुरन्त सँभालते हुए वह आगे बोली,

"इसलिए मैंने उसको आज़ भी नाश्ता करा दिया था । सोचा था कि तुम शायद आज़ भी न आ सको । "
"वैसे मैं एक बात कहूँ ?" नैया ने पूछा ।
"हाँ.. हाँ, क्यों नहीं ? " सुधा चौंकते हुए बोली ।
" आजकल माँझी आपको पसन्द बहुत करने लगे है... ?" नैया ने कहा तो सुधा तनिक झेंपते हुए, हल्की मुस्कान के साथ बोली,

"बीमार है न, इसलिए कुछ समझता भी नहीं है । जो उसके जी मेँ आता है, वही कह देता है ।”
"... ?" - तब नैया पुन: खामोश हो गई । वह कुछेक पलों तक कुछ भी नहीं बोली । फिर सहसा ही मेज़ के एक ओर रखे हुए बड़े से एलबम को देखते हुए पूछने लगी,

"यह एलबम क्या आपके विवाह का है ?"
“नहीँ, विवाह का तो नहीं, पर मेरे अतीत का अवश्य है । " सुधा बोली ।
“मैँ देख सकती हूँ क्या ? " नैया ने अनुमति चाही ।
"देख तो कभी भी लेना, पर आज नहीं । मैं ज़रा काम से बाहर जा रही हूँ, शाम तक वापस आऊँगी । फिर तुम्हें माँझी को बाहर भी तो ले जाना है । उसे दोपहर का खाना आदि... वगैरह'... वगैरह । ” सुधा ने एलबम हाथ में उठाते हुए कहा, तो नैया ने तुरन्त भेदभरे ढंग से कहा,

"पर माँझी तो कह रहे थे कि वे आज दोपहर का खाना आपके साथ खाएँगे... ?"
"हाँ, कार्यक्रम तो बनाया था पर एक ज़रूरी कार्य आ गया हैं, इसलिए उसे मना कर देना । फिर कभी देखा जाएगा । ”

यह कहकर सुधा ने एलबम अलमारी में रखी । फिर उठते हुए बोली,

" अच्छा, अब तुम जाओ । मेरी बात पर ध्यान रखना । एक बार और कोशिश करके देख लो । मुझे पूरी आशा है कि अब की बार तुम्हें सफलता अवश्य ही मिलेगी । "
तब नैया वहाँ से चली आई । आते समय उसके मस्तिष्क मे ढेरों विचार थे । अनेक प्रश्चचिह्र थे। इसी तरह के कि, 'सुधा ने अपने और माँझी के पूर्व अतीत के विषय में उससे क्यों छिपाया हैं ? माँझी सुधा को प्यार करता था, पर सुधा तो नहीं करती थी । फिर भी उसने यह सब मुझे क्यों नहीं बताया ? इसके साथ ही सुधा का तो विवाह भी हो चुका है । उसके पति का क्या हुआ ? कभी भी उसके पति को उसके साथ तो देखा नहीं है । क्या दोनों के सम्बन्ध ठीक नहीं हैं ? क्या सुधा के मन में अभी भी कोई चोर है जो उसका दिल बदल गया है ? ...ऐसी कितनी ही बातें नैया के दिल और दिमाग़ में आती थीं, और उसका चैन-सुख नोचकर चली भी जाती थीं। कभी दिल में एक कसक-सी उठती तो उसका असर चेहरे पर क्षोभ और विषाद के बादलों के रूप में आ जाता और आँखें स्वत: ही भीग जाती थीं । वह रोने लगती- अपने को असहाय समझकर विधाता की ओर एक उम्मीद-भरी दृष्टि से देख लेती परन्तु फिर थोड़ी देर में अपनी मज़बूरी और बेबसी को सामने पाकर उदास कामनाओं की अर्थी समान अपनी सारी हसरतों की जलती हुईं चिताओं के प्रतिबिम्ब देखकर अपनी किस्मत पर आँसू बहाती रहती, क्योंकि जीवन में प्यार के रास्तों पर कदम रखने से पहले उसने कभी सोचा भी नहीं था कि उसके प्यार की शुरूआत जितनी अच्छी और सन्तुष्टिपूर्ण हुईं है, वहीं इसकी इति इस प्रकार पीड़ादायक भी हो जाएगी ? दिल की आरजुओँ पर अपने मनपसन्द प्रीतम के प्यार की खुशबू अपनी मात्र एक आहट देकर वापस चले जाने का सन्देश देने लगेगी ? उसकी 'जीवन नैया' का 'माँझी' ही दुनिया के 'सागर' में आते ही बीच में ही पतवार छोड़ने को मजबूर हो जाएगा ? ऐसी तमन्ना ऐसी अनहोनी के बारे में तो उसने कभी सोचा भी नहीं था । क्या प्यार की पूजा का प्रतिफल ऐसा ही होता है ? दिलों की तपस्या करनेवालों को क्या वरदान की लालसा में, दिल-ही-दिल में, चुपचाप घुटने और तड़पने का श्राप ही दिया जाता है ?

नैया की पीड़ा गीली लकड़ियों की तरह धीरे-धीरे धुआँ देने लगी तो वह स्वत: ही अपने आपमें टूटने लगी । फिर इसके सिवा उसके पास और चारा भी क्या था ? वैसे भी एक अकेली, असहाय लड़की और कर भी क्या सकती थी ? यही सब सोचकर उसने अपने प्यार का निर्णय विधाता के हाथों में सौंप दिया और केवल अपने कर्तव्यों को पूर्ण करने में लग गई । सुधा से उसने कुछ भी नहीं कहा । कुछ भी उसे जाहिर नहीं होने दिया । केवल उसके सामने पहले के समान सामान्य बनी रहने की चेष्टा करने लगी । उसने सोचा कि उसका सबसे प्रथम कार्य तो माँझी को स्वस्थ करना ही था । जब तक वह पूर्णत: स्वस्थ नहीं हो जाता, तब तक कुछ भी कहना-सुनना और सोचना नाहक़-निरर्थक ही था और वैसे भी वह पहले भी तो यही सब कर भी रही थी। यदि उसे सुधा की वास्तविकता पता नहीं चलती तब भी तो वह माँझी के स्वास्थ्य के लिए चिन्तित ही थी, ऐसी ही धारणा मन में रखकर उसने सोचकर ठोस निर्णय ले लिया कि पहले वह माँझी को पूर्णत: स्वस्थ करने के लिए सबकुछ करेगी, चाहे इसके लिए उसे कुछ भी क्यों न करना पड़े । कितने ही बलिदान क्यों न देने पड़ें। आखिरकार उसने माँझी से प्यार किया था । उसे अपने मन-मन्दिर का देवता मानकर उसकी पूजा की थी । उसे अपना सर्वस्व स्वीकार कर लिया था; एक प्रकार से माँझी ही उसके जीवन की साँसों का आधार था । उसका अपना जीवन था । उसी के सुरक्षित जीवन की आधारशिला पर उसका भी जीवन टिका हुआ था । उसके जीवन का समस्त सुख-चैन माँझी के जीवन की खुशियों के साथ ही तो था और जब माँझी पूर्णत: स्वस्थ हो जाएगा तो वही उसके प्यार, उसके मन में बसे हुए सपनों का निर्णय करेगा, तब वह चाहे सुधा का हाथ पकड़ ले, अथवा उसको अपने दिल की धड़कनों में समा ले । सुधा और नैया दोनों में से किसी एक को तो अपने हाथ मलने ही पड़ेंगे । एक ठोस वास्तविकता और किसी एक निर्णय पर सन्तुष्ट होना ही पड़ेगा, क्योंकि यह तो दुनिया की रीति है । उसका चलन है कि एक 'नैया' का केवल एक ही 'माँझी' होता है । एक म्यान में दो तलवारें नहीं रखी जाती हैं। प्यार चाहे कितनों से ही किया जाए पर जीवनभर का धागा तो केवल किसी एक के साथ ही बाँधा जाता है, इसलिए माँझी के स्वस्थ होते ही यदि वह सुधा को अपना बनाना चाहेगा तो फिर वह बहुत खामोशी से उसके जीवन से निकल भी जाएगी और वैसे भी माँझी ने पहले प्यार तो सुधा से ही किया था । नैया तो बहुत बाद में उसके जीवन में आई है ।

फिर वह दिन भी आ गया, जब नैया फिर एक बार माँझी को कुलगुड़ी के पहाड़ पर ले गई । आज उसने फिर एक बार वही कपड़े पहने थे । वही ढेरों-ढेर घेर का घाघरा, खुले बाल, कूल्हे से भी नीचे हर समय धरती को प्यार करने की चेष्टा करते हुए- सब ही कुछ ठीक था । वातावरण में खामोशी और शान्ति-सी थी, परन्तु मौसम स्वच्छ नहीं था । पिछले कईं दिनों से आकश पर वर्षा के मटमैले बादल अपना डेरा डाले पड़े थे । मौसम में हल्की-हल्की ठण्डक थी । पर्वत भीगे और नम थे, क्योंकि अक्सर ही वर्षा हो जाती थी । संध्या डूबने के लिए केवल अवसर की ताक में थी, हालाँकि नैया इस ख़राब मौसम को देखते हुए आज माँझी को यहाँ लाना नहीं चाह रही थी, परन्तु सुधा के बार-बार अनुरोध और आग्रह पर वह और अधिक टाल भी नहीं सकी थी, क्योंकि सुधा का कहना था कि माँझी की दशा इन दिनों चरम-बिन्द पर आ गई थी । वह काफी कूछ याद करने की चेष्टा करता था । अक्सर सुधा को और नैया को बहुत ही गौर से देखने लगता था । अपने अतीत की कुछेक बातें भी दोहराता था, इसलिए इस बात में अब और अधिक देर करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए । उसका सोचना था कि इन दिनों माँझी को केवल एक आघात जैसा भर लगने की आवश्यकता थी और उसके पश्चात् उसकी स्मरणशक्ति वापस आ जानी चाहिए...इसलिए नैया ने यह कार्यक्रम बना लिया था ।

यूँ तो वह प्राय: ही माँझी को घुमाने-फिराने ले आती थी, परन्तु आज वह पहले के बनाए हुए कार्यक्रम के अनुसार ही आईं थी । साथ में सुधा भी आईं थी, पऱन्तु माँझी को यह बात ज्ञात नहीं थी क्योंकि सुधा का कहना था कि जैसे ही माँझी की याददाश्त वापस आएगी, उसको उस समय तुरन्त सँभालना बहुत ही आवश्यक है, क्योंकि सबकुछ पुराना अतीत एकदम से सामने आने पर वह कुछ भी कर सकता था । इस कारण सुधा भी चुपचाप एक बोल्डर की ओट में खड़ी यह सब देखती थी, और एक आशा निराशा के समन्वय में आकर गम्भीर भी हो जाती थी।
तभी नैया माँझी के पास आई और उससे बोली,

"तुम्हें मालूम है कि मैं आज तुम्हें यहाँ क्यों लाईं हूँ ?"
"… .? " - माँझी ने खामोशी से, आश्चर्य से उसे देखा ।
'" आज हमारे प्यार की जन्मतिथि हैं । तुम्हें याद है कि आज से कईं वर्ष पूर्व हम दोनों इसी पहाड़ी पर पहली बार प्रेमी-प्रेमिका के रूप में मिले थे । ” नैया ने कहा तो माँझी आश्चर्य से बोला,

" फिर ? ”
" फिर ? फिर क्या, हम दोनों आज अपने प्रेम की वर्षगाँठ मनाएँगे । ” नैया बोली ।

" वह कैसे " ?

“मैं नृत्य करूँगी, गीत गाऊँगी और तुमसे छिपने की कोशिश करूँगी । फिर तुम मुझे ढूँढ़ना' पकड़ना और मुझे फिर से खोने मत देना । "
"... .?"- तब माँझी फिर चुप हो गया और गम्भीरता से नैया की भूरी आँखों को देखने लगा । इस पर नैया ने उसका मुखड़ा ऊपर उठाकर, आश्चर्य से पूछा,

" क्या सोचने लगे .? "
"मुझे तो ऐसा लगता हैं कि आप मेरी अध्यापिका हैं; जो प्रतिदिन नई-नई बातें सिखाती है ? "
“चलो अध्यापिका ही समझ लो; पर आज का पाठ बहुत आवश्यक हैं । " नैया ने कहा ।

फिर वह काफी दूर भागती हुई-सी चली गई और माँझी से बोली,

"तैयार रहना, मैं आरम्भ करती हूँ । “ यह कहकर वह अपने नृत्य की मुद्रा में आ गई । उसके पैरों के घुँघरू छनक उडे... तुरन्त ही आस-पास के सारे वातावरण की खामोशी घुँघरुओँ की झनकार में कैद हो गई । इस प्रकार कि चारों ओर की वनस्पति, पेड़-पौधों तक में जैसे हलचल-सी मच गई । इसी बीच बादलों में कहीं गड़गड़ाहट हुई तो धीरे-धीरे वर्षा की रिमझिम भी आरम्भ हो गई । आकाश से वर्षा की छोटी-छोटी बूँदों ने छेड़छाड़ शुरू की तो नैया के नृत्य में और भी अधिक तीव्रता आ गई । इसके साथ ही दूर बोल्डर की ओट में खड़ी हुई सुधा भी देखकर दाँतों तले अँगुली दबा गई । नैया का नृत्य देखकर वह भी आश्चर्यचकित रह गई । उसने सोचा, ' विधाता ने इस अबोध बाला को क्या कुछ नहीं दिया था- रूप, संगीत, नृत्य-कला... ? फिर भी इसके साथ यह सब क्यों हुआ ? क्यों उसके प्यार को ठेस लगी ? क्या ही अच्छा हो कि माँझी ठीक हो जाए । पहले जैसा, स्वस्थ और सामान्य । यदि ऐसा हो गया तो वह अपने भाग्य को धन्य कहेगी । उसको सन्तोष मिल जाएगा- उसके जीवन का एक सबसे बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य भी पूर्ण हो जाएगा । शायद इसलिए कि कहा जाता है कि दो बिछुड़ें हुए दिलों को फिर से मिला देना बिलकुल वैसा ही है, जैसा कि मृत्यु शैया पर जानेवाले को कोई अचानक से नवजीवन की ज्योति दे दे ।'

सुधा नैया का नृत्य देखते हुए इन्हीं ख़यालों में खो गई थी कि तभी एक सुरीली, आकर्षक और दिल को छू लेनेवाली मधुर आवाज़ ने उसका ध्यान और भी आकर्षित कर दिया । नैया ने अपने मीठे, सुरीले सुरों में गीत गाना आरम्भ कर दिया था । इस प्रकार से –
" बादल आते, छाँव फैलाते

झरने गाते, कल-कल करते,
पंछी उड़ते, पंख फैलाते
एक तुम हो, जो कभी न आते,
'माँझी' साथ और 'नैया' डोले
प्रीत का बन्धन अब क्यों खोले,
राह दिखाकर फिर क्यों लौटे
साजन मेरे तुम क्यों रूठे ,
वह देखो, वे सावन के झूले
वृक्षों से लिपटे प्यार की बेलें
मुझको देखो मैं कुछ नहीं भूली
और तुम हो जो सब कुछ भूले …”
...नैया गा रही थी । सुधा सुन रही थी, और इसके साथ ही माँझी भी जैसे अपने-आपमें परेशान-सा दिख रहा था । पर सुधा महसूस कर रही थी कि नैया के इस गीत में जैसे एक तड़प थी । कसक थी । ओठों पर आहें थीं और दिल में छिपी-छिपी कोई वेदना थी और दिनों के विपरीत आज नैया पहले से कहीं अधिक दुखी, परेशान और उदास लग रही थी । उसके इस गीत में । गीत के बोलों में, जैसे उसके जीवनभर का दर्द समाया हुआ था । उसकी आँखों में नमी थी । ओठों पर तड़प थी । दिल में कसक और गीत के हरेक शब्द में दुख और दर्द था- सुधा चुपचाप सुने जा रही थी । अपनी आँखों से देख भी रही थी और सोच भी रही थी, 'यह लडकी- यह नैया? क्या दोष है इसका ? क्या किया है इसने ? क्या इसकी ग़लती हो सकती है ? जो इस प्रकार का दुख इसको मिला है ? दुख भी वह जो प्यार में- तड़पने और सिर्फ तड़पने का है । क्या यही इसकी सजा है कि इसने एक ठोकर खाए हुए इन्सान को अपने गले से लगा लिया ? उसको प्यार किया । उसके दुख को अपने कलेजे का दर्द समझकर अपनी धड़कनों में बसा लिया? माँझी जिसके लिए मक्रील नदी के सन्नाटों और विरानों में अपनी रोती हुई धड़कनों के द्वारा हाथ फैलाकर भीख माँगता रहा, वही उसको इस नैया ने दे दिया । क्या यही इसका दोष है? क्या इसी गुनाह की सजा नैया को विधाता ने दी है ? ' सोचते-सोचते सुधा की भी आँखें स्वत: ही भीग आईं । वह मन-ही-मन दुखित हो गई । साथ ही परेशान और व्याकुल भी । वह सुधा जो कभी भी अपने बुरी-से-बुरी दशा के मरीजों को देखकर रोईं नहीं थी, आज केवल नैया के दर्दभरे गीत के बोलों को सुनकर ही रो आईं । उसकी आँखें छलक गई । वर्षा हो रही थी । माँझी भीग रहा था । नैया गा रही थी- नृत्य कर रही थी । आज वह भी जैसे अपने दुख के साथ, सारे आकाश को भी जी-भरकर रुला देना चाहती थी ।

सहसा ही नैया ने अब धीरे-धीरे इधर-उधर छिपना भी आरम्भ कर दिया था और माँझी के स्वभाव मेँ एक परिवर्तन-सा आता प्रतीत हो रहा था । वह अब काफी परेशान और विचलित-सा दिखता था । नैया जब भी छिपती थी तो वह उसे दौड़कर पकड़ना चाहता था । यही सिलसिला काफी देर तक चलता रहा । नैया के नृत्य और गीत में भी एक तीव्रता आ गई थी । उसने अब गीत के बोल भी परिवर्तित कर दिए थे और ये बोल लगते थे कि जैसे उसके दिल की आहों के वे टुकडे थे जो कतरन-कतरन होकर कुमाऊँ-मण्डल की इस छोटी-सी पहाड़ी की हवाओं में टूट-टूटकर गिर रहे थे । गिर-गिरकर बारिश में भीगते भी जा रहे थे और नैया गा रही थी, तड़प रही थी-रो रही थी- लगातार- बार-बार । ऐसे –
“तुम क्या याद करोगे वे दिन
जब मैं भी खो जाऊँगी एक दिन,
अब भी आ जाओ वापस जाकर
नहीं तो मैं जाती हूँ न वापस आकर,
बढ़ गई दूरी पास तुम्हारे आते-आते
मैँ बुलाती और तुम नहीं आते...
बादल आते छाँव फैलाते
एक तुम हो, जो कभी न आते... "
अचानक ही गाते और नृत्य करते हुए नैया का पैर जो फिसला तो वह देखते-देखते ही आनन-फानन में नीचे गिर गई । पलक झपकते ही उसका सुन्दर, मोहक शरीर नीचे घाटी के गर्भ में पत्थरों आदि से टकराता हुआ नीचे जा पड़ा और नैया के मुख से एक दर्दनाक रोती-तड़पती चीख इस प्रकार निकली कि उसकी वेदना से क्षणभर में ही कौसानी इलाके का चप्पा-चप्पा तक सहम गया… माँझी .....माँझी.. माँझी… झी झी... ईं... ई… माँझी...
माँझी ने अचानक से यह सब सुना और देखा तो तुरन्त ही उसके मस्तिष्क को एक झटका-सा लगा । उसके सिर में अचानक ही एक जानलेवा पीड़ा हुई, इस प्रकार कि वह बौखलाता हुआ, घबराता-सा, बेतहाशा होकर भागता हुआ बुरी तरह चिल्ला पड़ा, "नैया... नैया... नैया... या... या... नैया.............या "
और फिर घाटी यें नीचे देखता हुआ बिलख-बिलखकर रो पड़ा... रोते हुए कहने लगा कि,

"नैया… नैया... मैरी नैया- मेरी अपनी नैया... यह क्या किया तुमने ? कयों किया ? कैसे किया...? मुझे छोड़कर क्यों चली गईं... ? मुझे छोड़कर मत जाओ । मत जाओ । मैं तुम्हारे बगैर जी नहीं सकूँगा । मर नहीं सकूँगा । आ जाओ वापस । जल्दी आओ । अभी आओ... नहीं तो मैं भी तुम्हारे पास आता हूँ... ”

बिलख-बिलखकर कहता हुआ वह जैसे ही स्वयं भी घाटी में कूदने को हुआ कि तुरन्त ही उसके पीछे खड़ी हुई सुधा ने झपटकर अपने दोनों हाथों से उसे अंक में कस लिया और उसको पीछे धकेलते हुए जैसे तड़पकर बोली,

"पागल मत बनो ! यह क्या बेवकूफी है ? जिस प्यार की देवी ने तुम्हारी जान बचाने के लिए अपनी जान दे दी, उसी के सामने फिर से मरना चाहते हो ? "

"... ? " - इस पर माँझी अचानक ही चौंक गया । सुधा की आकस्मिक उपस्थिति से वह चौंका ही नहीं बल्कि क्षणभर को घबरा भी गया । वह उसको आश्चर्य, विस्मय के साथ, ऊपर से नीचे तक देखता हुआ दंग होकर बोला,

" आप ? आप... और यहाँ ? ”
"हॉ... मैं... ! ” सुधा अपनी आँख के आँसू पोंछती हुईं केवल इतना ही कह सकी । किसे क्या ज्ञात था कि सुधा की आँखों में आए हुए ये आँसू माँझी को पुन: प्राप्त करने के उपलक्ष्य में थे अथवा नैया की दर्दनाक मृत्यु के वियोग में ?
तभी अचानक ही दूर कहीं बादलों के पीछे बिजली इतनी जोर की तड़की कि उसके स्वर से सारा इलाका ही काँप गया । फिर जो बादल गला फाड़कर चिल्लाए, तो सारे वातावरण में एक दहशत-सी छा गई… लगता था कि दूर कहीं बिजली टूटकर गिर पडी थी । वर्षा हो रही थी । वर्षा के प्रभाव में भी तीव्रता आ रही थी । अब हवाओं में हरकत आ गई थी, इस प्रकार कि चिनार भी हिलने लगे थे । धीरे-धीरे बारिश इस क़दर तेज़ हो गई कि उसकी बूँदों से शरीर पर चोटें-सी लगने लगी थीं । लगता था कि नैया की आकस्मिक मृत्यु के दुख में समस्त वातावरण के हदय भी फूट पड़े थे- सभी रो रहे थे । चारों तरफ़ वेदना थी । दुख था । वनस्पति की एक-एक पत्तियों तक में रुदन छा गया था । माँझी और सुधा अभी तक खड़े हुए थे- चुपचाप, गम्भीर, उदास और बेहद दुख: के मारे हुओं से ...... इतना अधिक कि वर्षा के तीव्र जोश में भीगते हुए भी उन्हे' जैसे किसी भी बात का होश नहीं था । केवल मलाल था । बहुत कुछ करने की इच्छा रखते हुए भी कुछ भी न कर पाने का । नैया... जो उन दोनों के जीवन में एक कली के समान खिली थी , और देखते-ही-देखते फूल बनकर, चारों तरफ़ अपने प्यार की खुशबू बिखेरकर, पलभर में इस संसार से चली भी गई थी ।

कितनी करुण और दर्दभरी नैया की मृत्यु हुईं थी ? मरने से पूर्व वह किसी से कुछ कह भी नहीं सकी थी । अपने दिल की कोई अन्तिम इच्छा और आरजू भी जाहिर नहीं कर सकी थी । कौन जानता था कि कौसानी की मनमोहक, सुन्दरतम पहाड़ियों और खामोश घाटियों की एक प्यारी और भोली देन, जिसने शायद इस संसार में हँसते-मुस्कराते हुए कभी अपनी आँखें खोली होंगी; आज यूँ अचानक से अपनी भरी-भरी, रोती, डब-डबाती हुईं आँखों को सदा-सदा के लिए बन्द भी कर लेगी । वह लड़की, वह व्यक्तित्व जिसने कौसानी के चप्पे-चप्पे में अपनी कला और नृत्य की धूम मचा रखी थी, इस तरह रोते-बिलखते हुए इस संसार से चली भी जाएगी । किस्मत ने शायद उसकी कोई भी इच्छा पूर्ण नहीं होने दी थी । उसके जीवन में, उसके प्यार का कोई भी सुख नहीं लिखा था । शायद इसी कारण उसके प्यार का अन्त भी बेहद दुखद हुआ था ।
सुधा और माँझी अभी तक खड़े हुए थे । शान्त, खामोश, गम्भीर, मायूस और बेहद उदास । खड़े-खड़े जैसे अपने मुकद्दर और कर्मों का रोना रो रहे थे । दोनों अभी तक यह नहीं समझ पाए थे कि उनकी जिन्दगी के प्यार की वह कहानी जो वर्षों पूर्व अपने-आप शुरू हो गई थी, उसका अन्त इस कौसानी की घाटियों में क्यों हुआ था ? पर यह बात सत्य थी कि नैया के जीवन के अन्त का जो भी कारण था- चाहे, कोई भी दोषी रहा हो, उसकी किस्मत- ईश्वर या विधाता की इच्छा ? अथवा समय की परिस्थितियाँ ही क्यों न, पर सुधा और माँझी दोनों ही ने नैया को अब सदा के लिए खो दिया था । साथ ही नैया ने भी उन दोनों के लिए मरते-मरते भी अपना कर्तव्य पूर्ण कर दिया था । सुधा के ठुकराए हुए प्यार को अपने दिल की धड़कनों से बेहद प्यार करके और माँझी के जीवन को जीने का एक नया रास्ता दिखाकर । शायद वह भी इसीलिए कि प्यार की दुनिया में कदम रखनेवाले यह सबक लें कि सच्चा और पवित्र प्यार करनेवाला इन्सान अपने प्यार के लिए कुर्बानी दिया करता है । केवल एक बलिदान ही करता है और कभी भी अपना कोई स्वार्थ नहीं देखा करता है ।

सुधा के लिए यह समय और परिस्थिति तो और भी अधिक असमंजस की थी । नैया को मृत्यु... उसकी क्षत-विक्षत बेजान लाश... एक प्रियजन का इस संसार से उठ जाने का दुख । बारिश का प्रकोप । ख़राब मौसम । साथ में, अपने धूँ-धूँ करके अरमानों की चिता को जलता देखता हुआ एक नितान्त अकेला माँझी । एक मरीज़ जो अभी-अभी ठीक ही हुआ था । सुधा न तो माँझी को ही अकेला छोड़ सकती थी, और ना ही नैया के बेजान शरीर को घाटी के सुपुर्द करना चाह रही थी और माँझी था कि वह वहाँ से एक पल को भी हटना नहीं चाह रहा था । इसलिए सुधा की समझ में नहीं आ पा रहा था कि वह इस समय क्या करे और क्या नहीं ? माँझी को सँभाले, खुद को तसल्ली दे, अथवा नैया के बेजान शरीर को नीचे घाटी की कोख में अकेला पड़ा हुआ वर्षा के थपेड़ों से भीगने दे । ऐसी भीषण परिस्थिति में अपने को असहाय और मज़बूर जानकर सुधा की भी आँखों में रह-रहकर आँसू आ रहे थे । वर्षा में लगातार भीगते रहने से वह कभी-कभी अकारण काँप भी जाती थी । शीत का प्रभाव होने लगा था और माँझी ? उस पर तो जैसे कोई प्रभाव ही नहीं हो पा रहा था । वह अभी तक चुप था । बहुत-ही उदास, गुमसुम-सा ।
तभी सुधा ने पास की पगडणडी पर जो कुंलगुड़ी गाँव की ओर जाती थी, किसी को जाते हुए देखा, तो उसे सहायता के लिए बुला लिया और जल्दी-जल्दी उसे थोडे…से- शब्दों में अपनी मज़बूरी और नैया की दुर्घटना के बारे में बताया तथा साथ ही उससे अस्पताल तक या कुलगुड़ी गांव तक सहायता के लिए कहने को कहा तो वह व्यक्ति भी सुनकर आश्चर्य और विस्मय से दंग रह गया और फिर सीधा भागता हुआ कुंलगुड़ी गाँव में पहुँचकर उसने सबको इस दुर्घटना की ख़बर दे दी ।
फिर क्या था ? दूसरे ही क्षण नैया की बे-दर्दीसे घटनास्थल पर ही हुई मृत्यु की ख़बर किसी गाँव में अचानक से आईं हुई बाढ़ के समान फैल गई । पलभर में सारा-का-सारा गॉव मनुष्यों, स्त्रियों और बच्चों का हुजूम उस पहाड़ पर आ पहुँचा. नैया इतनी प्यारी थी । उसका स्वभाव इस क़दर मीठा था कि उसकी मृत्यु की ख़बर ने सारे गाँव को हिलाकर रख दिया था । सभी को रुला दिया था, इस प्रकार कि उस छोटी…सी पहाड़ी पर कुछेक क्षणों के अन्तर में ही देखते-ही-देखते कोहराम-सा मच गया था । सभी रो रहे थे । चिल्ला रहे थे और स्त्रियाँ रो-रोकर अपनी छाती पीट रही थीं ।
देखते-ही-देखते नैया के जीवन के दुखद अन्त का समाचार अस्पताल और निकेतन में पहुँचा तो चारों ओर से सभी सहायता के लिए दौड़ पड़े । फिर क्या था; किसी प्रकार रस्सियों के द्वारा नैया का बेजान, क्षत-विक्षत शरीर बाहर निकाला गया और दूसरे दिन की सुबह में, जब धूप निकली तो नदी किनारे चिता के शोलों को अन्तिम-संस्कार के रूप में सुपुर्द कर दिया गया और इसके साथ ही समाप्त हो गया 'नैया' का शीर्षक- कौसानी के मशहूर थिएटर 'नृत्य…संगीत निकेतन ' की मशहूर नर्तकी का इतिहास और मानवीय विचारों के अनुसार एक बहुत ही सभ्य-दिलो से भी अधिक कोमल- नम्र कौसानी की सुन्दर और मशहूर घाटियों की रूप-छटाओँ में पली-बड़ी प्यार की देवी की कहानी, जिसने किसी मानव को इतना प्यार किया- इस क़दर चाहा कि अपनी प्यार की इस बलिवेदी पर वह स्वाह भी हो गई और संसारवालों के लिए छोड़ गई, एक प्यार की कहानी । दिल से किसी को चाहने का पाठ । ऐसा पाठ कि जिसमें किसी के प्यार का उदय भरें-पूरे उगते हुए सूर्य की रश्मियों के साथ हुआ था और अन्त एक करुण, रोती…बिलखती चीखों के साथ ।

यह बात भी सत्य है कि यूँ तो हर रोज़ दिन निकलता है और रोज़ शाम होती है, परन्तु मानव जीवन का सवेरा केवल एक बार ही होता है और जब भी उसके जीवन की शाम होती है, तो रात्रि आती है और रात्रि के पश्चात् कोई भी प्रकाश, किसी भी दिन के सवेरे की एक मद्धिम ज्योति की झूठी आशा तक नहीं की जाती है, क्योंकि इस अन्त के बाद फिर कोई अन्त नहीं होता है- केवल एक कहानी अवश्य ही आरम्भ हो जाती है- मृत्यु की गोद में सोनेवाले के भूतपूर्व जीवन की । उसकी भूली-बिसरी स्मृतियों की । उसके अच्छे-ब्रुरे कार्यों की, जो बाद में केवल एक अन्तहीन-अन्त बनकर ही अपने पूर्णविराम पर सदा के लिए स्थिर हो जाती है ।

***

अन्तिम परिच्छेद-
कितने दिन गुज़रे… कितने महीने और कितने ही वर्ष ? किसी को कुछ याद नहीं रहा । कौसानी… क्षेत्र का विस्तार बढ़ा । सड़कें लम्बी हुईं । गलियारे बदल गए । लोग बदल गए, परन्तु अपने पर्वतीय सौंन्दर्य के लिए प्रसिद्ध कौसानी के पहाड़ों और घाटियों में अभी भी वही प्राकृतिक सुन्दता है । वही पहाड़ हैं- वही घाटियाँ और वही इठलाते, झूमते हुए चिनारों के शीर्षों पर आवारगी से आते-जाते बादलों के काफिले... ।

कुलगुड़ी के इतिहास में नैया के असीम प्यार की कहानी जो दफन तो हो गई है, परन्तु समाप्त नहीं हो सकी है । उसके लिए अभी भी कितने ही लोग हैं, जो समय-असमय उसकी यादों को दोहरा लते हैं । उसका नाम लेते हैं । उसकी स्मृतियों को अपने दिलों के दुखों के हिस्सों में सुरक्षित रखे हुए हैं और जब भी वे याद करते हैं तो स्वत: ही उनकी आँखें भीग आती हैं । एक दर्द के स्वरूप । ऐसा दर्द जो प्यार का है । अपनत्व का है और जो उनके जीते जी शायद कभी भी कम नहीं हो सकेगा ।
दूसरी तरफ़ 'सागर मेडिकल सेन्टर' नामक अस्पताल का विस्तार भी काफी बढ़ गया है । उसमें कई-एक विभाग नए भी खुल गए हैँ । अब यहाँ हदय के रोगियों के साथ-साथ और भी विभिन्न प्रकार के रोगियों .का इलाज होता है । एक समय था जबकि कौसानी के मरीज अपने विशेष इलाज के लिए कौसानी से बाहर जाया करते थे परन्तु आज दूसरे इलाकों के रोगी भी अपने विशेष इलाज के लिए अब कौसानी के दरवाजों पर प्रतिदिन ही दस्तक देते हैं ।
अस्पताल के इन्हीं नवनिर्मित विभागों में एक विभाग ऐसा भी है, जो विशेषकर मानसिक रूप से अस्वस्थ रोगियों के लिए है. हांलाकि, अस्पताल की मुख्य डॉक्टर सुधा को इस विभाग की इतनी आवश्यकता नही थी, परन्तु उसने यह विभाग अपने एक विशिष्ट मरीज के कारण ही खुलवाया है । इस मानसिक मरीज से सुधा को जाने क्यों लगाव है ? कितनी ही सहानुभूति है किस कदर अपनत्व है ? इसका अनुमान कोई नही लगा सकता है ।
और जब भी चन्द्रमा की रात्रि होती है । आकाश पर तारिकाओं की बारात सजती है और पहाड़ों पर चन्द्रमा अपनी चाँदनी की बरसात कर देता है, तभी डॉक्टर सुधा के इस विशिष्ट मरीज़ को कुलगुड़ी गाँव के उस छोटी-सी पहाड़ी के ऊपर से एक करुण पुकार-सी सुनाईं देती है… कोई उसे अपने पास बुलाना चाहता है । उसे अपने दर्द-भरे गीत से, किसी नृत्य के साथ, घुंघरुओं की झनकारों की झनक से । वह उसे अपने पास बुलाकर समेट लेना चाहता है- इस प्रकार से,
" बादल आते छाँव फैलाते
झरने गाते कल-कल करते,
पंछी उड़ते पंख फैलाते
एक तुम हो, जो कभी न आते..."
फिर इस गीत के बोलों के साथ ही डॉक्टर सुधा का वह मरीज़ अपने को रोक नहीं पाता है । वह भागता है । रोता है । तड़पता है और शीघ्र ही उस पहाड़ी के शीर्ष पर पहुँचने के लिए कोशिश करता है । जब वह अपने को सँभाल नहीं पाता है तो अस्पताल के कर्मचारी उसे रोकते हैं, पकड़ते हैं और कभी-कभी उसे बाँध भी देते हैं । इसके फलस्वरूप भी जब वे उसे नियन्त्रण में नहीं ले पाते हैं, तो डॉक्टर सुधा को विवश होकर, अपनी आँखों में पश्चाताप के आँसू भरे हुए उसे नींद का इंजेक्शन देकर सुला देना पड़ता है । वह उसे शान्त कर देती है । डॉक्टर सुधा का यह विशिष्ट मरीज़ कोई अन्य नहीं, वही माँझी है, जो नैया की दर्दनाक मृत्यु के सदमे की वज़ह से अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठा है ।
लेकिन अस्पताल के अनेक कर्मचारियों को माँझी के इस मानसिक रोग का कारण ज्ञात भी नहीं है । इस बात को केवल डॉक्टर सुधा ही बेहतर समझती है.. महसूस करती है और दिल-ही-दिल में सुनती भी है…एक नाम, एक आवाज़, एक याद और एक ही आहट- नैया ! वह दर्दभरी स्मृति जो कभी वर्षों पूर्व प्यार की अनुभूति बनकर उसके जीवन में आईं थी और कभी भी कम न होनेवाले दर्द की कसक बनकर उसके मन की स्मृतियों में बस भी गई है । उसकी यादों का प्रभाव कौसानी के चप्पे-चप्पे में इस कदर है कि हर स्थान पर एक ही नाम है- नैया... पहाड़ों पर एक ही आवाज़ है- नैया... झरनों में एक ही शोर है…नैया... हवाओं में एक ही गुनगुनाहट है-नैया.... नैया... नैया... और सिर्फ नैया...
नैया जो शायद प्यार के आँगन में पैदा हुई थी । प्यार के लिए हमेशा जीती रही थी और प्यार के अपने अस्तित्व को समाप्त करके इस दुनिया से मिट भी गई थी ।
ऐसी थी नैया । ऐसी थी उसकी कहानी । ऐसा था उसका प्यार । उसका जीवन । उसका प्यार-भरा सन्देश । उसका बलिदान और उसके जीने का अन्दाज़ कि इस संसार से सदा लिए उठ जाने पर भी हर स्थान, हर दिल और कौसानी के हरेक ओठों पर एक ही नाम था- नैया... ! वह नैया जो अपने 'माँझी' की धड़कनों मेँ समाकर भी उसकी बन तो नहीं सकी थी, परन्तु प्रेम के सागर' में अपनी आहुति देकर, उसके अन्तराल में सदा-सदा के लिए समा अवश्य गई थी ।

-समाप्त.

इस उपन्यास में कुछ स्थानों के नाम वास्तविक हैं, पर इसकी कहानी एक कल्पना है. - शरोवन.