reality of life books and stories free download online pdf in Hindi

जीवन का यथार्थ

बड़े घर की अनीता के विवाह का जश्न अपने चरमोत्कर्ष पर था, पांच सितारा होटल तो अनीता से भी अधिक जगमगा रहा था, हर तरफ बस मेहमान ही मेहमान नजर आ रहे थे... कोई सोने का हार तो कोई हीरे का हार पहने अलग - अलग स्टालो पर भोजन का लुफ्त उठा रहा था। अनीता अपनी मां और भाई के साथ खिलखिला कर हंस रही थी, मानो यह कि बिल्कुल राजशाही अंदाज में सब कुछ हो रहा था।
वर भी किसी राजकुमार से कम नहीं लग रहा था, स्विमिंग पूल में जब बिजली टिमटिमा रही थी तो वहां का वातावरण बिल्कुल स्वर्ग सा प्रतीत होने लगा।
तभी रतन अंकल अपने परिवार के साथ विवाह में शामिल होने पहुंचे और पहुंचते ही अनीता की मां से पूछें "भाई साहब" कहां हैं? वह बात को टालना चाही मगर रतन जी तो मानो "भाई साहब" से ही मिलने आए हो, मजबूरन अनीता की मां ने बताया वह तो घर पर ही हैं, यहां आने की हालात में नहीं थे इसलिए...।
रतन जी "तारों से भरी महफिल" छोड़कर उल्टे पांव उनके घर पहुंचे, "भाई साहब का सेवक" रतन जी को उनके कमरे तक ले गया...। दोस्त को देखते ही "भाई साहब की आँसुओं की धारा बह चली" ऐसा लग रहा था मानो आज उन आँसुओं से यह घर प्रशांत महासागर में तब्दील हो जाएगा... बहुत समझाने के बाद वह शांत हुए, बस इतना ही बोल पाए आज "पूरे पांच साल बाद" मुझसे मिलने कोई मेरे कमरें में आया है ।
रतन जी ने सवाल किया... तुम, व्हीलचेयर पर बैठकर तो विवाह में जा ही सकते थे फिर यहां क्यों...?
 
भाई साहब ने जवाब दिया मेरा काम तो बस "चेक और बिल" पर दस्तख़त करने भर की ही रह गई है, वह "दस्तावेज" भी मेरा यही नौकर लेकर कमरे में आता है...। तुमको यह जो बंगला, गाड़ी, शानो शौकत दिख रहा है ना यह मेरे ही पुरुषार्थ से कमाए हुए धन का है और आज जो पांच सितारा होटल से आलीशान विवाह हो रहा है, वह भी मेरे ही कमाए हुई दौलत से संभव हो पाया है... जब मैं ठीक था, कमाता था तब पूरे दिन यही पत्नी और बच्चे मेरे ऊपर जान छिड़कते थे और आगे - पीछे घूमते रहते थे... परंतु जब से मैं लकवा ग्रस्त हुआ तब से इस कमरे की चार दीवारी और मैं एक - दूसरे का सहारा बन गए... पिछले पांच वर्षों से कोई मुझसे मिलने नहीं आया... मेरे खुद की पत्नी भी नहीं, कम से कम पत्नी से तो मुझे यह उम्मीद नहीं ही थी... पूरा जीवन मैं बस इनके लिए "धन बटोरने" में ही व्यस्त रहा और आज अपनी ही बेटी के विवाह में कमरे में कैद हूं।
 
यह सब सुनकर रतन जी को मानो काठ मार गया हो और उनके भी आंसू मानो थमने का नाम नहीं ले रहे थें...