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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 62

सोई तकदीर की मलिकाएं  

 

62

 

 

गेजा दिन ढलने से पहले कम्मेआना जाकर लौट आया । आकर उसने भोला सिंह और बसंत कौर को बताया कि सरदार जी , सुभाष तो घर गया ही नहीं । परसों उसने कम्मेआना से कोटकपूरे वाली बस ली और छोटी सरदारनी के साथ ही बस में सवार हुआ था । उसके बाद का गाँव में किसी को कुछ पता नहीं । उन्हें तो यह भी पता नहीं था कि वह यहाँ छोटी सरदारनी जी को बस अड्डे पर उतार कर कहीं चला गया है । आपके दिए पैसे मैंने माँ को पकङाए । उसकी माँ रकम पकङ ही नहीं रही थी । सुभाष के हवेली न पहुँचने की खबर सुनते ही रो रो कर उसका बुरा हाल हो गया । बार बार बिलख कर एक ही बात कहे जा रही थी कि मैंने पैसे क्या करने हैं । मुझे तो मेरा बेटा ला दो । उसका रोना बिलखना देखा नहीं जा रहा था । उसके भाई भाभी भी बहुत उदास हो गये थे । मैं तो वहाँ आधा घंटा रुक कर चला आया ।
तो भाग चाचा सही कह रहा था । वह उसी हरिद्वार , मोगे वाली बस में सवार होकर कहीं चला गया था । अगले दिन सुबह ही रमेश आ पहुँचा । सुभाष की चिंता में उस रात घर में कोई नहीं सो पाया था । भोला सिंह ने उसे भाग चाचा की बताई बात बताई तो वह हरिद्वार जाने के लिए तैयार हो गया ।
ठीक है , जाना चाहता है तो जोरे को साथ ले जा । दोनों साथ रहोगे तो थोङा होंसला रहेगा । वैसे इतने बङे तीर्थ में एक खो गये बंदे को ढूंढना बहुत मुश्किल है । परदेस में कोई अपना साथ में रहना चाहिए ।
जोरे तू ऐसा कर , घर जाकर अपने कपङे लत्ते ले आ और माँ बापू को बता भी आना कि वहाँ दो चार दिन लग जाएंगे , चिंता न करें । जोरा तुरंत घर चला गया ।
इस बीच बसंत कौर ने चाय बना ली थी । उसने चाय के साथ दो परांठे मक्खन रख कर रमेश को ला पकङाए । नानुकर करते भी बसंत कौर ने जबरदस्ती तीन पराठे उसे खिला ही दिए । परांठे खाकर अभी वह चाय पी ही रहा था कि जोरा एक थैले में कपङे लिए आ पहुँचा । भोला सिंह ने जेब से पांच हजार रुपए रमेश को निकाल कर दिए तो उसने हाथ जोङ दिए – न सरदार जी इसकी कोई जरुरत नहीं । अभी कल ही तो आपने पांच हजार रुपए भिजवाए है । मेरे जेब में तीन हजार रखे हैं ।
कोई न , ये भी रख ले । परदेस की बात है । वहाँ रहना भी है और खाना पीना भी । जेब में पैसा तो होना ही चाहिए ।
रमेश ने फिर कुछ नहीं कहा । पैसे पकङे और जेब में डाल कर सरदार और सरदारनी के पैर छू लिए - सरदारनी , ये जयकौर कहाँ है ?
भीतर ही होगी । बुला देती हूँ । - सरदारनी ने आवाज लगाई – जयकौर , ओ जयकौर।
जयकौर भीतर कोठरी में छिपी थी काम के बहाने से । रमेश भाई साहब का सामना वह कैसे करे । सरोज भाभी उसके और सुभाष के रिश्ते का सच जानती थी फिर रमेश भाई को भी तो वह सच पूरा न सही , आधा अधूरा तो पता होगा ही । आज वह खुद को इस सारे फसाद का अपराधी मान रही थी । मन ही मन चाह रही थी कि ये धरती फट जाय और वह उसमें समा जाय पर अब सरदारनी की आवाज की अवहेलना कैसे करे । आखिर हौंसला करके वह बाहर आई और रमेश को सामने देख कर हाथ जोङ दिए । रमेश ने सिर उठा कर उसे देखा । इन दो तीन दिनों में ही वह कुम्हला गई थी । रंग पीला जर्द हो गया था । इस समय कई दिनों की बीमार लग रही थी । रमेश उससे कई सवाल पूछना चाहता था पर सामने सरदार सरदारनी खङे थे और ऊपर से जयकौर की शारीरिक एवं मानसिक दशा किसी सवाल का सामना करने जैसी थी ही नहीं तो वह क्या पूछता । उसने सिर को हल्की जुम्बिश देकर जयकौर के अभिवादन का उत्तर दिया और जोरे के साथ बाहर चल पङा ।
सुनो हरिद्वार जाने की कोई सीधी बस न मिले तो यहां से लुधियाना की बस ले लेना । वहाँ से हरिद्वार के लिए बहुत बसें चलती हैं - भोला सिंह ने पुकार कर कहा । रमेश ने पीछे मुङ कर नहीं देखा और चलता हुआ नजरों से ओझल हो गया ।
दोनों हरिद्वार पहुँचे । वहाँ सात दिन भटकने के बाद भी उन्हें सुभाष का कोई सुराग नहीं मिला । रमेश और जोरे ने हरिद्वार के रेलवे स्टेशन और बस अड्डे के कई चक्कर लगाए । वहाँ खडे कई लोगों को सुभाष का फोटो दिखाया पर कोई फायदा नहीं मिला । फिर धर्मशालाओं और मंदिरों की खाक छानी गई । घाटों के कई चक्कर लगाए गये । बाजार की तरफ भी वे दिन में पाँच छ चक्कर तो लगा ही लेते । अस्पतालों में जाकर भी पूछताछ की गई पर सुभाष तो ऐसा लापता हो गया कि जैसे धरती खा गई या आसमान निगल गया ।
सातवीं रात को रमेश ने जोरे से कहा – बाई हम तो हार गये । अब यहाँ कब तक बैठे रहेंगे । वहाँ घर में रोटियों के लाले पङे होंगे । सब जन फिकर में डूबे होंगे । अगर किस्मत में मिलना लिखा होगा तो खुद ही गाँव चला आएगा । उसे कौन सा रास्ता मालूम नहीं है । हम कल सुबह घर लौटते हैं ।
जोरा तो पहले ही इस सब में उकताया पङा था । वह फौरन लौटने को तैयार हो गया । अगले दिन सुबह गंगा जी में एक डुबकी लगा कर उन्होंने सहारनपुर की बस ली । सहारनपुर अड्डे पर भी उतर कर उन्होंने कई फेरी वाले और लोगों से पूछा । फिर अंबाला के अड्डे पर , लुधियाना के अड्डे पर भी और मोगा में तो वे कई दुकानों पर गये , कई रिक्शा वालों , आटोवालों और आसपास दिखाई देते लोगों से मिले पर सुभाष को न मिलना था , न मिला । अगले दिन वे दोपहर ढलने तक मोगा की गलियों में भटकते रहे फिर थक हार कर उन्होंने बस पकङी और रात होते होते वे संधवा आ पहुँचे ।
भोला सिंह , बसंत कौर और काफी हद तक जयकौर भी मन ही मन यह समझ रहे थे कि इस तरह ढूंढने से सुभाष का मिलना नामुमकिन है पर फिर भी किसी चमत्कार की उम्मीद लगाए बैठे थे कि शायद कहीं घूमता हुआ सुभाष इन लोगों को दिख जाय और वे उसे डांट कर , मना कर साथ ले आएं । इन लोगों को इस तरह खाली हाथ लौटे देख जयकौर का दिल बैठ गया । वह बेहोश होते होते बची । रात जैसे तैसे काट कर रमेश सुबह कम्मेआना लौट गया ।

बाकी फिर ...