Wo Maya he - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

वो माया है.... - 5



(5)

आंगन में कई लोग थे पर एकदम शांति थी। उमा को अपनी बेबसी में जब कुछ समझ नहीं आया तो रोने लगीं। उनके रोने से चिढ़कर बद्रीनाथ चिल्लाए,
"अब क्यों रो रही हो ? जब जिज्जी ने मना किया था तब तुम हमारे पीछे पड़ गई थीं। कह रही थीं कि बड़ी मुश्किल से घर में खुशियां आ रही हैं। अगर हम नहीं माने तो वह भी चली जाएंगी। देख लिया क्या खुशियां आई हैं इस घर में।"
पुष्कर ने कहा,
"पापा इसमें मम्मी की कोई गलती नहीं है‌। कितने सालों से देख रहा हूँ कि एक वहम को पकड़ कर रखा है आप लोगों ने। उस समय जो हुआ वह हादसा था। लेकिन इस वहम के कारण भइया की ज़िंदगी उलझ कर रह गई है। अब उसका असर मेरी ज़िंदगी पर भी आ गया।"
बद्रीनाथ ने गुस्से में उसे घूरा। उमा ने रोते हुए कहा,
"तुम्हें वहम लगता होगा पर हमारे लिए नहीं है। फिर एक ताबीज़ पहनने को ही तो कहा था। तुम लोग पहन लेते तो क्या हो जाता ?"
"मम्मी आप जानती हैं कि मुझे यह बातें अंधविश्वास लगती हैं। दिशा तो बिल्कुल भी उस बात के लिए तैयार नहीं होती है जिससे वह सहमत ना हो।"
बद्रीनाथ ने गुस्से में कहा,
"वाह.... दोनों पति पत्नी बड़े आदर्शवादी हैं। अगर हमारी तसल्ली के लिए मान लेते तो क्या चला जाता। सहमत तो हम भी बहुत सी बातों से नहीं थे। पर उन्हें अनदेखा करके तुम्हारी बात मानी कि नहीं।"
रविप्रकाश ने आगे आकर कहा,
"माफ कीजिएगा मौसा जी आपके घरेलू मामले में बोल रहे हैं। पर बारात विदा होकर आए आज दूसरा दिन ही है। घर में इतना कुछ हो गया इसलिए बोलना पड़ रहा है। आप लोगों ने जहाँ इतना कुछ नज़रअंदाज़ किया है इस बात को भी अनदेखा कीजिए‌। घर में शांति रखने का यही एक उपाय है।"
उसने एक नज़र पुष्कर पर डाली उसके बाद आगे बोला,
"अब आपकी बहू सेल्फ डिपेंडेंट है‌। नौकरी करती है। फिर ऐसे घर में पली भी नहीं है जहाँ दूसरों के बारे में सोचकर चलना सिखाया जाता। जब घर में मर्द ना हों तो मर्यादा भी नहीं रहती है।"
रविप्रकाश अक्सर पुष्कर को छेड़ने वाली बात करता था। क्योंकी एक बार उनके बीच कहासुनी हो चुकी थी। पुष्कर उसकी बातों को अनसुना कर देता था‌। पर आज उसने हद पार करके दिशा और उसकी परवरिश पर टिप्पणी की थी‌। पुष्कर से बर्दाश्त नहीं हुआ‌। उसने गुस्से में कहा,
"मर्यादा की बात आप तो मत करिए। मेरी पत्नी के बारे में बकवास कर रहे हैं। अपनी हद में रहिए नहीं तो अच्छा नहीं होगा।"
रविप्रकाश उसे घूरने लगा‌। पुष्कर की बात पास खड़े उसके मौसा दीनदयाल और संध्या मौसी को भी चुभ गई। मामला बिगड़ रहा था‌। बद्रीनाथ ने डांटते हुए कहा,
"हद तो तुम पार कर रहे हो पुष्कर। यह भी भूल गए कि यह हमारे मान्य हैं। अब चुपचाप तुम यहाँ से चले जाओ। नहीं तो बहुत बुरा होगा।"
पुष्कर ने रविप्रकाश को घूरा फिर सीढ़ियां चढ़कर ऊपर चला गया। रविप्रकाश कमरे में चला गया। दीनदयाल ने अपनी पत्नी संध्या से कहा,
"खड़ी क्या हो ? चलने की तैयारी करो या अभी और सम्मान पाना बाकी है।"
वह भी अपने दामाद के पीछे चले गए। उमा बुत बनी खड़ी थीं। वह कुछ समझ नहीं पा रही थींं।

पुष्कर ऊपर पहुँचा तो दिशा कमरे का चक्कर लगा रही थी। पुष्कर चुपचाप बिस्तर पर बैठ गया। दिशा उसके पास जाकर बोली,
"नीचे क्या कहा जा रहा था सब मेरे कानों में पड़ रहा था। तुम्हारे जीजा जी ने मेरी मम्मी का अपमान किया है। मुझे अच्छा नहीं लगा।"
पुष्कर परेशान था। उसने रुखाई से कहा,
"तो सुना होगा कि मैंने भी उन्हें जवाब दे दिया। अब क्या करूँ ?"
दिशा को इस तरह रुखाई से पेश आना अच्छा नहीं लगा। उसने कहा,
"तुम तो ऐसे पेश आ रहे हो जैसे कि सारी गलती मेरी है‌।"
पुष्कर उसे दोष नहीं दे रहा था। उसने कहा,
"मैं तुम्हें क्यों दोष दूँगा। बस इस समय मेरा दिमाग बहुत परेशान है।"
वह उठकर खड़ा हो गया। उसने कहा,
"दिशा मैं कुछ देर कहीं घूमकर आता हूँ।"
यह कहकर वह वहाँ से चला गया। दिशा ने अपना सर पकड़ लिया। एक तो सुबह से चाय नहीं मिली थी। ऊपर से इतना बवाल हो गया था। उसका सर दर्द कर रहा था। उसने उठकर दरवाज़ा बंद कर दिया और लेट गई।
पुष्कर नीचे आया। वह बाहर जाने के लिए मुख्य द्वार की तरफ बढ़ रहा था बद्रीनाथ ने उसे रोक दिया। उन्होंने कहा,
"बिना ताबीज़ पहने तुम और दिशा इस घर के दरवाज़े के बाहर नहीं जाओगे। चुपचाप वापस लौट जाओ।"
उमा ने पुष्कर का हाथ पकड़ लिया था।‌ उन्होंने कहा,
"हर बात अपने मन की नहीं करनी है। या तो ताबीज़ पहनो नहीं तो घर पर बैठो।"
पुष्कर मजबूर हो गया। अब वह और अधिक अपने मम्मी पापा की बात का उल्लंघन नहीं कर सकता था। ताबीज़ उसे पहनना नहीं था। उसने बाहर जाने का इरादा छोड़ दिया। इस स्थिति में उसका दिशा के पास जाने का मन नहीं कर रहा था। कुछ समझ ना आने पर वह बैठक में जाकर बैठ गया।

रविप्रकाश और उसके सास ससुर जाने के लिए तैयार खड़े थे। उमा कई बार उनसे मनुहार कर चुकी थीं कि इस तरह बिना कुछ खाए पिए ना जाएं। पर वह लोग सुनने को तैयार नहीं थे। बद्रीनाथ ने कहा,
"पुष्कर की बदतमीजी के लिए हम माफी मांगते हैं। इस तरह नाराज़ होकर मत जाइए।"
उनके साढ़ू दीनदयाल ने कहा,
"भाई साहब आप क्यों माफी मांगेंगे। वैसे भी दामाद जी के अपमान का हमें और संध्या को बहुत बुरा लगा है। इसलिए हमें जाने दीजिए।"
उन्होंने हाथ जोड़ दिए। उमा ने कहा,
"कम से कम बायन और भेंट तो ले जाइए।"
रविप्रकाश ने उनके और बद्रीनाथ के पैर छुए और मुख्य द्वार के बाहर जाकर खड़ा हो गया। पीछे पीछे उसके सास ससुर भी निकल गए। तीनों जा रहे थे उसी समय विशाल अपने चाचा केदारनाथ के साथ पहुँचा। अपने बहनोई और मौसा मौसी को गुस्से में जाते देखकर विशाल को आश्चर्य हुआ। वह कुछ बोलता उससे पहले ही तीनों निकल गए।
विशाल अंदर आया तो माहौल में तनाव था। बद्रीनाथ और उमा दुखी बैठे थे। उसने इधर उधर देखा‌। बुआ दिखाई नहीं पड़ीं। उसने बद्रीनाथ से पूछा कि बात क्या है ? उन्होंने सारी बात बता दी। सब जानकर विशाल परेशान हो गया। केदारनाथ चुपचाप खड़े थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि इस मौके पर क्या बोलें।
घर में एक शांति सी छाई हुई थी। सब अपने आप में खोए चुपचाप बैठे थे। सुनंदा और नीलम रसोई में बैठी इसी विषय पर बात कर रही थीं। नीलम ने कहा,
"बड़ी जिद्दी लड़की मालूम पड़ती है। अपनी ऐंठन में घर में कलह करा दी।"
सुनंदा ने कहा,
"रविप्रकाश ने एकदम सही कहा था कि घर में मर्द ना हों तो मर्यादा भी नहीं रहती है। दिशा की माँ बनिया परिवार में पैदा हुई थी। शादी किसी पंजाबी से की। उससे भी निभा नहीं पाई। अब ऐसी औरत अपनी बेटी को क्या सिखाती।"
"इतना सब जानते हुए भी बद्रीनाथ जी और उमा दीदी मान कैसे गए ?"
सुनंदा ने नीलम की बात का जवाब देते हुए कहा,
"बेटे पर बस कहाँ रहा है। देखा नहीं पत्नी ने माँ बाप का अपमान किया फिर भी उसका पक्ष ले रहा था‌। सच कहूँ तो उसे अपने अलावा किसी से मतलब नहीं है। कितने सालों से तो बाहर ही रह रहा है।"
दोनों चुप हो गईं। चाय नाश्ता बना हुआ रखा था। पर किसी ने खाया नहीं था। नीलम को भूख लग रही थी। उसने कहा,
"सुबह से झगड़ा शुरू हो गया। अन्न का एक दाना भी नसीब नहीं हुआ। भूख के मारे पेट कुलबुला रहा है।"
सुनंदा की भी यही स्थिति थी। उसने कहा,
"तो हम दोनों क्यों भूखे रहें। हम दोनों चाय नाश्ता कर लेते हैं। फिर बाकी लोगों से पूछ लेंगे।"
नीलम को उसकी बात ठीक लगी। सुनंदा ने सोनम और मीनू को भी बुला लिया। चारों नाश्ता करने लगीं।
केदारनाथ भी भूखे थे। पहले तो वह संकोच में खड़े रहे। फिर उन्होंने सोचा कि अपनी पत्नी से जाकर बात करें। वह रसोई में चले गए। सुनंदा और नीलम को बच्चियों के साथ खाते हुए देखकर बोले,
"तुम लोग खा रही हो। बाकी सब भूखे बैठे हैं।"
सुनंदा ने कहा,
"इसके दोषी हम लोग तो हैं नहीं। हमने तो अपनी ज़िम्मेदारी निभा दी थी। चाय नाश्ता बना दिया था। घर में तनाव है तो हम लोग कब तक भूखे रहते।"
केदारनाथ ने कहा,
"सही कह रही हो। मुझे भी भूख लगी है। नाश्ता दे दो।"
सुनंदा ने उन्हें भी नाश्ता दे दिया। वह भी नाश्ता करने लगे। नाश्ता करते हुए वह घर में जो हुआ उस पर बात कर रहे थे। जो कुछ हुआ केदारनाथ को अच्छा नहीं लगा था। उन्होंने सुनंदा से कहा,
"मेरी मानो तो तुम भी घर चलो। अब यही सब होगा यहाँ। बार बार नाश्ते खाने के लिए दौड़कर आना अच्छा नहीं लग रहा है। कल से काम पर भी जाना है।"
सुनंदा ने कुछ सोचकर कहा,
"ठीक है। शाम तक दीदी से बात करके आ जाते हैं।"
केदारनाथ ने अपनी बेटियों से कहा कि वह नाश्ता करके घर चलें। कुछ दिनों बाद छमाही इम्तिहान हैं। घर चलकर पढ़ाई पर ध्यान दें। बहुत दिन मौज मस्ती कर ली। जो कुछ हो रहा था उसके बाद सोनम और मीनू का मन भी यहाँ ठहरने का नहीं था। दोनों जाने के लिए तैयार हो गईं।