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मैं तो ओढ चुनरिया - 43

 

मैं तो ओढ चुनरिया 

 

43


इन्हीं व्यस्ताओं में पांच दिन बीत गये । छटे दिन चाचा जी को कुएं से पानी लाकर उबटन मल मल कर नहलाया गया । नये नकोर कपङे पहनाए गये । कंगना बंधा । सेहरा सजा । हाथ में तलवार पकङ कर वे राजा बन गये । घोङी पर बैठ कर वे गलियों में घूमे । आगे आगे बैंड बजता चला । गरीबों की इस बस्ती में ये सब कौतुहल की चीज थी । वे सब अपने घर के दरवाजे पर खङे अचरज से इस जुलूसनुमा बारात को जाते देख रहे थे । बैंड के आगे आगे पिताजी हाथ में थैली लिए चल रहे थे । थोङी थोङी देर बाद वे थैली से मुट्ठी भर पैसे निकालते और सिक्के हवा में उछाल देते । इन सिक्कों को लूटने के लिए बच्चों और औरतों में होङ हो जाती । वे छीना झपटी करते नजर आते । चार पांच घलियों से होती हुई ये बारात एक गुरुद्वारे में जा पहुँची । रात को बारात के सभी लोग गुरुद्वारे में सोए । सुबह गुरुद्वारे के खुले से आंगन में एक बङी सी बस आ लगी और सब लोग बस में सवार हो गये । बैंड बाजों के साथ बारात पटियाला के लिए चली ।
चाची के तीन बहनें और तीन भाई थे । बङा भाई फार्मेसी का कोई कोर्स कर रहा था । बाकी बहन भाई भी पढ रहे थे । बारात का भव्य स्वागत हुआ । शादी धूमधाम से सम्पन्न हुई । पांच बजे विदाई हो गई और एक छुई मुई जैसी लङकी चाची बन कर हमारे घर आ गई । चाची पटियाला यूनीवर्सिटी की विद्यार्थी रही थी । हमेशा कोएजुकेशन में पढी थी । वैसे भी पटियाला राजशाही का हिस्सा रहा था तो नजाकत और नफासत पटियाला के लोगों के खून में रची बसी थी । चाची बेहद आधुनिक और समझदार थी ।
बारात घर आई तो तरह तरह की रस्मे की गई । छटियां तोङ कर लाई गई और चाची को परिवार के लोगों के साथ शहतूत की छटी मारने का खेल खिलाया गया । फिर द्रमण बोरी खेली गई । पिताजी ने एक रुपयों और सिक्कों से भरी थैली का मुँह खोल दिया और चाची को कहा गया कि इसमें से जितने चाहे पैसे निकाल ले । चाची ने मुट्ठटी भर पैसे निकाले । वे पैसे मंदिर और गुरुद्वारे में चढाने के लिए अलग रख लिए गए । दूसरी बार निकाले पैसे मुझे मिले और तीसरी बार के पैसे चाची के अपने हिस्से आए । फिर कंकण खेला गया जिसमें चाचा हार गये और चाची जीत गई । वहाँ मौजूद औरतों ने चाची को एकदम तेजतर्रार घोषित कर दिया । चाची एकदम उदास हो गई । उनकी बङी बङी आँखों में आँसू छलक आए ।
अब तक शाम के आठ बज रहे थे । नाचते गाते रिश्तेदार खाने की तैयारी में जुट गये । चाचा और उनके दोस्त अलग बैठक में बैठे आपस में हंसी मजाक कर रहे थे कि अब तो सभी दोस्त शादीशुदा हो गये । आज से विनोद भी हमारी बिरादरी में शामिल हो गया । अचानक उनकी नजर एक कोने में बैठे शांत लङके पर गई ।-
अरे यह तो रह ही गया । भई अब तेरी भी शादी हो जानी चाहिए ।
कर दो ।
अच्छा , कर देते हैं । पहले कोई लङकी तो ढूंढ लें । तुझे कोई लङकी पसंद है तो बता , आज ही तेरी शादी कर देते हैं ।
पक्का कर दोगे ।
हां हां कर देंगे । लङकी का नाम तो बता ।
उसने मेरी तरफ इशारा कर दिया । मैं उन लोगों के लिए मिठाई और नमकीन ले कर उनकी ही तरफ आ रही थी । सुनते ही मुझे काटो तो खून नहीं ।ये लङका पिछले सात दिनों से मुझे देख तो रहा था पर ये इस तरह सोच रहा था ये तो मैंने सोचा ही नहीं । शादी के घर के हजार कामों ने कभी इस ओर सोचने का अवसर ही नहीं दिया था । दोनों थालियां वहीं रख मैं भीतर भागी भीतर चाची जमीन पर ही बिछे गद्दों पर गठरी हुई बैठी थी । मैं चाची के पास जाकर छिप गई ।
चाचाजी ने उसे देखा , वह पूरी तरह से गंभीर था । वे और उनके एक जीजा उठे । उन्होंने उसका हाथ पकङा और पिताजी के पास ले आए । पिताजी और फूफा जी उस समय खाना खत्म कर हाथ धो रहे थे ।
भाऊ , हमने रानी की शादी के लिए एक लङका ढूंढा है । आप क्या कहते हो । शादी अभी करनी है या कुछ दिन ठहर के ।
पिताजी ने फूफा जी की ओर देखा ।
और फूफा जी ने पकङ कर लाए गये लङके की ओर । ये उनकी दूर की बहन का लङका था । बी ए पास था । आजकल सरकारी नौकरी में था । नौ सौ रुपए तनख्वाह पा रहा था ।
ओए तुम लोग सीरियस हो न या हंसी मजाक के मूड में हो ।
जवाब उसी लङके ने दिया – मैं जानता हूँ मामा जी ... । आप जैसा कहेंगे । वह सिर झुका कर सजा सुनने को तैयार अपराधी की तरह से खङा हो गया ।
फूफा जी खुश हो गये । लो भाऊ , घर बैठे इतना अच्छा लङका मिल रहा है और क्या चाहिए । बुआ ने सुना तो वह भी खुश हो गई । अभी भाई भाभी साल में एक बार आते हैं । बेटी ब्याह कर जल्दी जल्दी आएंगे । ऊपर से बुआ भतीजी एक साथ रह सकेंगी ।
पिताजी उठे । उन्होंने स्टोर से दो डिब्बे मिठाई निकाली । मिठाई पर रख कर एक सौ एक रुपए शगुण बढा दिया – लो बेटा ।
लङके ने डिब्बे पकङ लिए और बङों के पैर छू लिए । यह सब कुछ इतना अप्रत्याशित और अचानक हुआ कि कुछ सोचने समझने की गुंजाइश ही न रही । माँ तो इस फैसले से सदमें में ही आ गई । इतनी जल्दी । इस तरह । कुछ सोचने समझने तो दिया होता पर यह वह जमाना था जब औरतों से खास तौर पर घर की बहुओं से किसी मसले पर सलाह लेना मर्द अपना अपमान समझते थे । हर छोटा बङा फैसला पुरुषों का होता था । औरतों को सिर्फ सूचना दी जाती थी । औरतों को सिर झुका कर उनका हर फैसला मानना होता था ।
तभी बुआ ने आवाज दी – अरी लङकी कहाँ छिप गई । इन लोगों को भीतर से खेस और तकिए लाकर दो । मैं तकिए लेने भीतर स्टोर में गई । वहाँ एकांत में अंघेरा था तो आँखों से छम छम आंसू बह निकले । तभी तकिए लेने ये भीतर आए । कौन जाने मुझसे बात करने ही आए हों । मुझे रोते देखा तो अवाक रह गये – तुम्हें मैं पसंद नहीं हूं ।
मुझे कोई बात नहीं सूझी । मुँह से निकला – मुझे अभी पढना है ।
उन्होने इत्मीनान का सांस लिया – तो पढ लेना , जब तक तेरा मन चाहे ।
ये दो तकिए उठाकर बाहर चले गए ।
मैंने अपने आंसू पौंछे । ये हमारी पहली अकेले में बात थी । इससे पहले हमने एक दूसरे की आवाजें तो सुनी थी पर कोई बात की नहीं थी । आमने सामने से कई बार गुजरे होंगे पर कभी किसी को नजर भर देखा न था । मन के किसी कोने में तीखी सी लालसा जगी कि सामने आए तो एक बार देखूं तो सही कौन है जिसने मेरा हाथ मांगा है । संकोच पैरों की बेङी बना हुआ था ।

 


बाकी फिर ...