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मैं तो ओढ चुनरिया - 42

मैं तो ओढ चुनरिया 

 

42

 

स्टेशन पर चाचाजी हमें साइकिल पर लेने आए हुए थे । पिता जी ने एक रिक्शा लिया । माँ पिताजी और मैं सामान के साथ रिक्शा पर बैठे । भाई चाचा जी के साथ साइकिल पर । टेढी मेढी तंग गलियों से होते हुए हम जैसे सारा शहर पार कर गये । ये चाचा जी हमें कहाँ लेकर जा रहे थे । अगर मैं दो तीन साल छोटी रही होती तो जरूर ताली बजाकर खिलखिला कर हँसती कि चाचा जी अपना घर भूल गये । हमारा घर तो गुरद्वारा बाजार में था । एकदम चौंक के बीचोबीच और चाचा जी तो बिल्कुल सारा शहर खत्म कर चुके थे पर अब मैं बङी हो चुकी थी तो बचपना कैसे दिखा सकती थी । तभी फिर से कुछ कच्चे पक्के घर दिखने शुरू हो गये और साथ ही एक बङा सा पोखर भी दिखाई दिया जिसे यहाँ की भाषा में छप्पङ कहते थे । उसमें इस समय भैसों के साथ कुछ नंगधङंग बच्चे नहा रहे थे । आखिर पिता जी ने पूछ ही लिया – इधर कहाँ जा रहे हैं हम मुन्ना ।
बहन जी के घर ।
महताब अब इधर रहने लगी है ? पिताजी ने हैरानी से पूछा । पिछली बार जब वे बहन से मिलने आए थे तो वे सब सङक किनारे के एक दो कमरे के घर में रहते थे ।
जी भाऊ जी ।
और एक गली में मोङ कर उन्होंने साइकिल एक पक्के घर के सामने लगा दिया । रिक्शा वाले को पैसे चुका कर वे सामान घर के भीतर ले गये । तो इस तरह हम महताब बुआ के नये घर पहुँचे । बुआ और उनकी सास ने बङे प्यार से हमारा स्वागत किया । यहाँ आकर पता लगा कि शादी पुश्तैनी घर से न होकर महताब बुआ के घर से होगी क्योकि बुआ के दो छोटे छोटे बच्चे थे । बुआ की अभी थोङे दिन पहले सरकारी नौकरी लगी थी तो बच्चों के देखभाल के लिए वे अपनी ताई को जो चाचा के नौकरी पर जाने के बाद अकेली रह गई थी अपने घर ले आई थी । उस घर से ज्यादातर सामान बर्तन , बिस्तर आदि भी धीरे धीरे इधर आ गया था । थोङा बहुत बचा सामान एक कमरे में रख कर ताला लगा दिया गया था । वह घर अब किराये पर चढा दिया गया था । माँ ने दबे स्वर में इसका विरोध किया कि अपना घर होते हुए बेटी के घर से शादी क्यों पर वहाँ उनकी बात किसी ने नहीं सुनी ।
यह मोहल्ला धक्का बस्ती कहलाता था । गली में सभी घर फूफा जी के रिस्तेदारों के थे । आधे कच्चे , आधे पक्के घर । हर घर में एक कमरा पक्का और बाकी सारा घर कच्चा । सभी के घर में गाय भैंसे थी । साथ वाले दो घर फूफा जी के भाइयों के थे और उसके बाद का घर बहन का । उसके बाद पोखर । पोखर के किनारे खुली जमीन पर उपलों के ढेर । कुछ सूखे कुछ गीले बिखरे हुए । बुआ के घर में नीम का एक बहुत बङा पेङ था और एक जामुन का । जामुन के पेङ पर रसीली जामुन लगी थी जो पूरा दिन टप टप गिरती रहती और धरती जामुनी हुई रहती । नीम के पेङ पर मोटी सी रस्सी बांध कर झूला डाला गया था । मुझे इस पूरे माहौल में यह पेङ और झूला बहुत मन भाया । मैं जाकर इस झूले पर बैठ गई । झूला झूलना शुरू किया ही था कि इतने में मेरी दादी जिसे यहाँ सब बुआ के रिश्ते के कारण ताई कहते थे , नहा कर बाहर आई । मुझे झूले पर झूला झूलते देखा तो सीधे मेरे पास चली आई ।
अरे वाह तू तो इतनी बङी हो गई । अब तेरे लिए कोई लङका देखना पङेगा ।
उन्होंने मुझे अपनी छाती से लगा लिया ।
ये मेरी दादी बेशक कद चार या सवा चार फुट का ही था पर गोरे रंग और तीखे नयननक्श के काऱण सत्तर को छूने की इस उम्र में भी बेहद खूबसूरत थी । मैं एकटक उनका रूप देखती ही रह गई । सारी जिंदगी सादगी और तप का जीवन जिया था उन्होंने । मात्र बाईस साल की उम्र में विधवा हो गई थी । सारा जीवन देवर और देवरानी की चाकरी करते हुए बिना शिकायत किए बिता दिया । अब यहाँ बुआ के घर आ गई थी ।
इतने में बुआ आई – ये क्या तू आते ही झूला लेकर शुरू हो गई । पहले कुछ खा पी , नहा धो ले फिर झूल लेना इसे । ये कहाँ जा रहा है । यहीं रहेगा ।
मैने झूला छोङ दिया । माँ ने मेरे कपङे निकाल दिए थे । मैंने नहाने चली गई । वापस आई तो दादी ने आलू के परांठे बना लिए थे । साथ में दही घी और मक्खन अलग अलग कटोरियों में । हमने स्वाद लेकर परांठे खाए ।
चाय नाश्ते के बाद बुआ ने चाची के लिए खरीदे सूट साङियां और गहने दिखाए । माँ को भला क्यों नापसंद होते । बकौल माँ के , पैसे उनके लगे । खरीदे उन्होने । पहनने पहनाने उन्हें तो मुँह बना कर किसी को नाराज क्यों करना तो उन्होंने बरी की खुल कर तारीफ की । बुआ खुश हो गई ।
अगले दिन से शादी की रस्में शुरु हो गई । हल्दी की गांठे तोङ कर हल्दी पीसी गई । दाल पीस कर बङियां बनाई गई । रात को सेहरा और बन्ने गाए गए । साथ ही ईंटों का चूल्हा बना कर बङी सी तवी चढाई गई । इस तवी पर एक साथ पांच बङी बङी रोटियां बनती थी । एक औरत पेङें बनाती । दो औरतें चिमटे से रोटी पलटती । सेंकती । एक औरत रोटी घी से चुपङती । करीब घंटे भर में दो टोकरे रोटियां बन गई । बुआ के ससुराल का सारा कुटुम्ब वहीं खाना खाता । चार जेठ जेठानी , उनकी बहुएं , पोते पोतियां , बेटे , दो बहनें उनका पूरा परिवार बेटे बेटियां पोते पोतियां सब कुल सौ के लगभग लोग ।
सब चारपाइयों पर बैठे चाय पीते , मिठाइयां खाते । बातें करते , ठहाके लगाते , बीच बीच में गीत गाते । सारी बहुएं मिल कर गीत गाती , काम निपटाती । कोई नौकर नहीं , कोई महरी नहीं , कोई हलवाई नहीं । सारा काम बहुओं के हवाले । हलवाई आया सिर्फ एक दिन । सुबह से लेकर शाम तक लड्डू , बूंदी , मट्ठियां , नमकीन , बालूशाही , गुलाबजामुन , बर्फी सब बने । एक कमरे में चारपाइयां बिछाई गई । उस पर पुरानी धुली चादरें बिछाई गई । उस पर ये मिठाइयां फैलाई गई । कमरे को ताला लगा दिया गया । बीच बीच में एक परात भर कर मीठा और नमकीन निकाली गई और आए हुए मेहमानों को खाने के लिए दी गई । मेरे लिए यह माहौल बिल्कुल नया था । मैं इसमें अपने आप को एडजस्ट करने की कोशिश कर रही थी । तवी पर मैं रोटी बेलने बैठी तो जैसी छोटी छोटी रोटी हमारे घर में बनती हैं वैसी ही रोटियां बेली । बुआ की सास मेरी रोटियां देख कर खुश हो गई । उठा उठा कर सबको उन्हें दिखाय़ा । मेरे घर में आठ नौ फुल्के ही बनते थे तो मुझे तो ज्यादा काम करने की आदत ही नहीं थी पर यहाँ तो दो टोकरे रोटियां बननी थी । मैं धीरे धीरे रोटियां बेल रही थी जबकि भाभियां उतनी देर में दो या तीन बेल कर तवी पर डाल देती । अचानक बुआ को मेरी जरूरत पङी । उन्होंने मुझे बुलाया तो मैं हाथ की रोटी बेल कर उठ गई । तब मैंने जो राहत की सांस ली , उसे याद करके आज इतने साल बाद भी होठों पर मुस्कराहट आ जाती है ।

 

बाकी फिर ...