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ऐकले चलों रें, अकेले बढ़ो रें ..!

लेखन परिचय

रिक्तत्व की सन्निकट प्रकटता हैं शरुप्ररा अर्थात् मेरी प्रत्येक शब्द प्राकट्यता, सत्य मतलब की अज्ञान के अहसास से मुक्ति की इच्छा अर्थात् मुमुक्षा ही जिसके प्रति जागरूकता को आकार दें सकती हैं अतः मुक्ति की योग्य इच्छा ही इसके प्रति जागृति उपलब्ध करायेंगी, मतलब साफ हैं कि मेरी हर बात केवल योग्य मुमुक्षु के ही समझ आयेंगी अतएव मुमुक्षा लाओं, नहीं समझ आनें के बहानें मत बनाओं क्योंकि ऐसा करना खुद के प्रति लापरवाही हैं, जो खुद की परवाह के प्रति जागरूक नहीं, वह कहाँ से मुक्ति की तड़पन अर्थात् मेरी अभिव्यक्ति को अहसास यानी समझ में लानें की पात्रता लायेंगा और योग्यता के आभाव से निश्चित मर्म सें इसकें चूक जायेंगा, इशारें जिस ओर हैं वह दृश्य का अहसास, भावना, विचार, कल्पना यानी हर आकार के अहसासों से भी सूक्ष्म तथा परे यानी दूर का अहसास हैं, मेरे दर्शायें शब्द, उनके माध्यम् से लक्ष्य बनायें भावों, भावों के सहयोग से लक्षित विचारों और उनके माध्यम से हर काल्पनिकता की ओर संकेत दियें जा रहें हैं यानी हर आकारों को रचनें की योग्यता की मध्यस्थता उस अंतिम ध्येय तक सटीकता से इशारा करनें में ली जा रही हैं जिससें उस आकर रिक्तत्वता की योग्यता के परिणाम से आकार रिक्तता के अहसास पर सटीकता के साथ किसी भी जागरूकता या ध्यान को लें जाया जा सकें अतएव आपका ध्यान मन के सभी दायरों से परें देख पायेंगा तो ध्येय उसका हैं।

समय - १२:००, रविवार १४ मई २०२३

लेख

ऐकले चलों रें, अकेले बढ़ो रें ..! जब तक मजबूरी के कारण किसी पर भी निर्भर रहना पढ़े, तीखे तेज खौलते खून की तरह अपनें खुदके या दूसरों के द्वारा बनायें योग - सहयोग वश बनें शुभ चिंतकों की अनुकंपा को ग्रहण करना होगा तुम्हें, ताकि ऊपर से नीचें तक तुमसें संबंधित कतरा कतरा रूह से लेकर के शरीर का तुम्हारा कपकपाना चाहियें, जलन से जलना या चीखना चिल्लाना चाहियें, पर एक भी चीख होंठो से बाहर नहीं आना चाहियें, सारी ऊर्जा बटोरनी यानी संभाल कर रखनी हैं न क्योंकि तुम्हें, ऐसे ही जल करके तुम ऊर्जा के वो पुंज बनोंगे, जो सदैव उन असंख्य सूर्य की तरह तपोगे तो, पर सभी को सुविधा रूपी सुखदात्री जीवन ऊर्जा देने वाली रोशनी दोंगे।

किसी का बाप तुम्हारा शुभ होने में बाधा नहीं खड़ी कर सकता; सभी का बाप यानी कि सबसें बड़ा बाप; जो सच्चे मतलब में बाप हैं न .. वो ऊपर बैठा हैं तुम्हारें लियें ..! वो परम् यानी सर्वश्रेष्ठ (जिसके स्वार्थ में सभी पिता से लेकर संतान आती हैं हाँ!, वही असीमित यानी कि पूर्ण होने से सर्वश्रेष्ठ मतलब स्वार्थ या जरूरत यानी आवश्यकता वाला सर्वश्रेष्ठ स्वार्थ पूर्ति कर्ता अर्थात् परमार्थ पूरा करनें वाला कर्ता पिता, हाँ! वह परमात्मा, कोई कैसें तुम्हारी आदत बिगाड़ सकता हैं भला ..! वो किसी की नहीं चलने देंगा यानी कि न खुद तुम्हारा सहयोग करेंगा, न किसी को तुम्हारा सहयोग कर तुम्हारी आदत बिगाड़ने देंगा, तुम्हें आत्म निर्भर बना कर ही छोड़ेंगा, क्योंकि जो अपनी संतान को पाल लें, उसका पालन पोषण करें यह आदर्श अभिभावकों या आदर्श पिता या सभी आदर्श शुभ चिंतकों की सीमित परिभाषा हैं, पूर्ण परिभाषा यह हैं कि जो उस चील की भांति तुम्हें सबसें पहले पालन करके यानी खुद पर निर्भर करके तुम्हारी आदत बिगाड़े यानी तुमकों बड़े झूठ में डालें की तुम खुद से आसमान की ऊँचाई छू रहें हों और बाद में तुम कितने पानी में हों यह बताने के लियें तब तक आसमा तक लेजाकर नीचें गिरनें को छोड़-पकड़ करें जब तक कि तुम उड़ना सीख नहीं जातें यानी कि तुम्हारा अपनें पैरों पर झ तक खड़ा होना नहीं हों जाता हैं।

वास्तविकता में कोई किसी का नहीं, यह बहुत दर्दनाक वास्तविकता हैं, तो चलों इसको बदलतें हैं; कोई किसी का नहीं हुआ तो क्या ..? हम! हम जैसों के यानी कि उनके जिनका कोई नहीं हुआ उनके बनते हैं; अब आश्चर्य की बात हैं कि जो किसी के होते हैं, उनका तो कोई होता नहीं, बल्कि जो किसी के नहीं होते उनका भी कोई नहीं होता हैं, इसका मतलब आवश्यकता सभी का, हमारा होना ही पूरी कर सकता हैं; तो सभी का होने से कोई मुझें नहीं रोक सकता हैं, मुझें असुविधा यानी परेशानी सभी नें नहीं दी हैं बल्कि यह करतूत सभी के कन्धे या कंधों पर रख कर, गोलियों को दागने की खुदगर्जी नें की हैं, तो यदि हम भी यदि खुदगर्ज़ जो जायेंगे, तो हमारी खुद की अपराधिन को खत्म करनें की जगह उंसे तहस-नहस करनें की जगह अपनायेंगे और जिन्हें हमारी तरह जिस अपनो को धोखा करके हमारें विरुद्ध खड़ा कर दिया, उन्हें समझदार होकर भी हम, जो हमें परेशान करनें का गुनाह उन्होंने अनजानें में किया, खुदगर्जी की तरह ही हम भी उन्हें साथ गलती जानें-अंजाने करतें जायेंगे अतएव हमें चौकन्ना रहना होंगा, हमारी दुश्मन हमारें मन की शांति को प्रभावित कर हमारा ही बुरा करके, हमसे सजा पाने की जगह, हमें अपना सहयोगी नहीं बना लें; जिस मनहूस तथाकथित सीमित यानी ऐसा स्वार्थ जिसमें केवल एक इंसान ही समायें ऐसी संकुचित खुदगर्जी का हमें सहयोगी नहीं बल्कि परम् यानी सर्वश्रेष्ठ स्वार्थ वाला, ऐसा स्वार्थ जिसनें सभी लोग समा जायें यानी कि ऐसा बनना होगा हमें, खुदगर्जी का सहयोगी नहीं बल्कि उसका कट्टर विरोधी बनना होगा हमें; किसी ने हमें प्यार नहीं दिया तो क्या, सभी को प्यार करनें वाला बनना और ऐसा कर खुद के साथ अन्याय करनें वाला बनाने की जगह न्याय करनें वाला बनना होंगा हमें, तभी हम हमारें साथ हमें परेशान करके अन्याय करनें वाले कि जगह हम खुद के साथ न्याय करनें वालें होंगे; जो कि हमारे होना चाहियें ही चाहियें।

अब प्रश्न यह कि कोई किसी को भी सुविधा देने वाला कैसें बनें, जिससें कि वह गलती से भी यानी अंजाने में भी, दुश्मन के दोस्त के भेष में आने से, दुश्मन को ही दोस्त नहीं समझ बैठें; तो उत्तर यह कि सभी को अपने हाल पर ही छोड़ देना होंगा हमें ताकि सभी आत्म निर्भरता को उपलब्ध हों जायें; हम पर निर्भर करना किसी को भी, क्या हमारें द्वारा उसकी आदत ख़राब करना नहीं होयेंगा; बिल्कुल होंगा ..! उदाहरण उस मछली या बंदर का ही लें लिजिये, जो तैराकी या पेड़ पर चढ़ना जनता हों, जिससें की उसे यह करनें के लियें स्वाभाविक सी बात हैं कि किसी की जरूरत नहीं हैं, यानी कि वह हमारी तरह किसी से भी उमीद रखने वालें नहीं हैं, अब यदि वह मछली या बंदर दूसरी मछ्ली या बंदरो को जो कि अभी आत्म निर्भर नहीं हैं, यदि अपनें कंधे पर यानी ऊपर लाधते हैं तो क्योंकि उनके पास खुद की खुद पर ही निर्भरता का सामर्थ्य होंगा तो बोझ के तलें न वह आगें बढ़ पाना या ऊँचाई को जाना अपना कर पायेंगे और खुद तो डूबेंगे या गिरेंगे ही साथ ही असमर्थ खुद पर नहीं निर्भर हो सकनें वालों को भी डुबाकर या गिराकर मरवाएँगे या फिर उन यदि मछ्ली या बंदर के पास उन जैसे सभी को लाधने का भी यदि सामर्थ्य हुआ, तो भी जो सही मायने में समुद्र हैं उस समुद्र को नापना या असीम ऊँचे पेड़ हैं सही मायनों का पेड़ उसे ही कहा है सकता हैं, ऊँचाई पर जाना कभी खत्म नहीं होने वाला यानी जितना करो उतना कम हैं अतएव यदि सभी मछलियों या बंदरो के द्वारा भी यदि हम एक एक हिस्सा भी नापने में लगवायें, तब भी क्योंकि असीम सागर या असीम पेड़ के हिस्से भी क्योंकि असीमित ही होंगे, तो जिन मछलियों या बंदरों की नियति या लक्ष्य हैं वास्तविकता से भिज्ञता, उनके साथ और अपनें साथ भी घाटे का सौदा हुआ, इसके बजायें यदि आत्म निर्भर मछ्ली और बंदर यदि जैसे वह आत्म निर्भर हुयें यानी कि खुद से, वैसें ही सभी को हो जानें दें तो यही सच्चे मतलब की प्रीत निभाई यानी शुभ चिंतक का कर्तव्य निभाना कहूँगा मैं, हमारा परमात्मा सर्वसमर्थ बंदर या मछली की ही तरह हैं, वह इतना समर्थ हैं कि हमें कितनो को ही वह या हमारा कितनों का ही वह बोझ उठा सकता हैं, पर वह हमें अपने मोहताज़ नहीं बनाना चाहता हैं, वह आदर्श पिता, पति, माता, पत्नी हैं न हमारा या हमारी; कौन सर्वसमर्थ आदर्श पिता आदि इत्यादि ऐसा होंगा जो कि अपनी संतान को अपनें आप पर निर्भर रखना चाहेंगा? यदि कोई पिता आदि ऐसा मोह यानी अज्ञान के कारण से ऐसा अज्ञान की मजबूरी से करें, तो आदर्श पिता हम उसे इसलिये नहीं कह सकते यही कारण था कि दशरथ जी नें मर जाना कुबूल किया पर बन में जाकर के परिस्थितियों का खुद से सामना करनें से, पिता पर निर्भर यानी खैरात में या पिता के बदौलत राज पाठ लेंनें वाला यानी कि आत्म निर्भर राजा कहलानें वाला पुत्र बनाने के लियें, अपनें प्राणों यानी प्राण समान पुत्र को अपनें से दूर वन में भेजा आखिरकार असमर्थता को बेटे के अशुभ करनें वाली, एक आदर्श शुभ चिंतन नें अपनें बेटे का अहित नहीं करनें दिया।

समय - २१:५१ दिनांक - ०४:१०:२३
- © रुद्र एस. शर्मा
(विश्लेषक | सिद्धान्तकार (मनोविज्ञान) ०५ वर्षों के मनोविश्लेशात्मक / आत्‍मपरीक्षण-विषयक अनुभव के साथ)
(फाउंडर | इन्नोवेटर | ऐडमिनिस्ट्रेटर (शरुप्ररा आयाम) ०५ वर्षों के अनुभव के साथ)
(फाउंडर | सी.ई.ओ. | सी.एस.ए.ओ. (शरुप्ररा सॉल्यूशन्स) ०९ मही. का अनुभव)