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फादर्स डे - 50

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 50

शनिवार -12/02/2000

संकेत का नाम ले-लेकर जिधर देखो उधर ही गपशप का दौर चलने लगा था और उस गप्पबाजी का मुख्य केंद्र संकेत और सूर्यकान्त रहता था।

“ये लो...अब अमजद शेख को छोड़ दिया।”

“...संकेत को क्या सच में उठाया गया है? ”

“हां भाई...मुझे भी शंका ही हो रही है...”

“मुझे तो पहले से ही डाउट था कि कहीं तो कुछ गड़बड़ है...!”

“सूर्यकान्त ने ही कहीं छुपाकर रखा होगा...।”

“हो भी सकता है। इस तरह पब्लिसिटी करके राजनीति में पैर जमाने का रास्ता निकाल लिया सूर्यकान्त ने। बड़े-बड़े नेताओं से मेल-मुलाकात कर ली, अब उनका उपयोग कर लेगा। ”

“पुलिस पर ऊंगली उठाकर इस चालाक आदमी ने मशहूरी भी हासिल कर ली।”

“समझ में आ गया...! लाख रुपए कहीं गए ही नहीं। ”

“देख लेना, ये राजनीति में जाएगा।”

“उससे कहो पिक्चर बनाए, अच्छी एक्टिंग कर लेता है। ”

“वो तो सब ठीक है भाई, पर बाल-बच्चों का तो कुछ ख्याल करना चाहिए था या नहीं, कितनी उदास रहती है वह।”

“पुलिस पर दबाव क्या बनाता है...अजीतदादा पवार की बात...भुजबल कहां....है कि नहीं? उस सुपरिटेंडेंट को दौड़ लगवाई सो अलग....! आईडी का नाटक क्या किया....!और किसी के हाथ कुछ भी नहीं लगा? ये बात गले से उतरती भी नहीं और दिमाग को जंचती भी नहीं...”

“हां आबा...अपराध हुआ ही नहीं है, तो अपराधी मिलेगा कहां से?”

“अब तो संकेत को सामने लाना ही पड़ेगा।”

...................

शुक्रवार 15/02/2000

साई विहार से तो सभी लोगों से आनंद, खुशी, हंसी-मजाक, मौज-मस्ती, गप्प-ठहाका और विश्वास जैसे सामूहिक रूप से प्रस्थान कर गए थे। सभी लोग मशीनमानव जैसे घूम-फिर रहे थे। जान होकर भी बेजान जैसे एक के बाद एक दिन गुजारते चले जा रहे थे। गांव में चलने वाले कहानी-किस्से नए-नए अवतार लेकर भागते-दौड़ते घर में प्रवेश करते थे लेकिन किसी के भीतर भी उन कहानी-किस्सों का सामना करके उन पर चर्चा करने की हिम्मत नहीं थी।

रफीक़ मुजावार सुबह-शाम घर आकर सूर्यकान्त के साथ बैठता था। विष्णू मर्डेकर को तो ऐसा लगता था कि किडनैपर को देखते साथ गोली मार दी जाए। लेकिन किडनैपर था कहां? रात में रफीक़ और सूर्यकान्त के लिए चाय आई। सूर्यकान्त अपहरण के पुराने मामलों की कटिंग वाली फाइल की स्टडी करते हुए बैठा था। रफीक़ ने उसके काम में व्यवधान डालते हुए चाय सामने कर दी।

“भाऊ...चाय लीजिए जी...।”

“आप लें...मैं थोड़ी देर में....”

रफीक़ ने अपना कप उठा लिया। उसने अचानक धीमी सी आवाज सुनी। ध्यान से सुना। पास में पड़ा हुआ अखबार उठाया तो उसके नीचे सूर्यकान्त के मोबाइल फोन की घंटी बज रही थी। मोबाइल वाइब्रेट कर रहा था। रफीक़ ने मोबाइल उठाकर सूर्यकान्त के सामने किया।

“बोल दो..मैं नहीं हूं...” रफीक़ ने सूर्यकान्त की ओर देखते हुए फोन कॉल रिसीव कर लिया।

“हैलो...कौन? हां..हां...जी...? सचमुच? ...एक मिनट...एक मिनट...भाऊ को ही फोन देता हूं जी... ”

उसके चेहरे पर आनंद और चमक दिखाई पड़ रही थी। एक बार फिर से उसने मोबाइल फोन सूर्यकान्त के सामने रख दिया। सूर्यकान्त अपने काम में मगन था। उसने थके हुए अंदाज में रफीक़ का हाथ पीछे धकेल दिया।

“छोड़ो न रफीक़ भाई..बोल दो मैं नहीं हूं...”

“अरे...आप एक बार बात तो कर लीजिए...दिल बाग-बाग हो जाएगा...।”

रफीक़ की बात रखने के लिए सूर्यकान्त ने कॉल ले लिया।

“आप भी न समझते नहीं रफीक़ भाई....”

“जनाब पहले बात करो तो सही...”

सूर्यकान्त ने फोन कान से लगाया। जैसे-जैसे बातचीत आगे बढ़ रही थी उसके चेहरे के भाव भी तेजी से बदलते जा रहे थे। आवाज में उत्साह भी बढ़ गया।

“हां ...जी...हां ..हां ...तुरंत निकलते हैं जी...”

उसने प्रतिभा को आवाज देते हुए फोन काट दिया और घर के सभी लोगों को नाम से पुकारना शुरू किया...प्रतिभा...आई..बाबा...प्रतिभा...ऐ सौरभ...प्रतिभा सुन रही हो कि नहीं....? आई....बाबा...सभी जल्दी से भागकर आ गए।

“हम सभी को बीड जाना है...अभी...तुरंत अभी...”

विष्णु भांडेपाटील ने आश्चर्य से पूछा,

“अभी...तुरंत क्यों?  बीड़ किसलिए?”

“संकेत बीड में मिला है, उसे लेने के लिए जाना है।”

...........................

बुधवार 15/02/2000

“संकेत बीड में है। बालग्राम सहारा अनाथालय परिवार के मैनेजर का फोन आया था कि पुलिस द्वारा बनवाए गए पोस्टर में दिखने वाले बच्चे जैसा एक लड़का उनके अनाथालय में है। आप जल्दी से आकर उसे ले जाएं।”

संकेत के गुमने के बाद न जाने कितने धक्के और मानसिक यातनाएं सहन करने के बाद करीब-करीब 50 दिनों के बाद संकेत के बारे में जानकारी मिली थी।  अच्छी खबर मिली थी। वह एकदम ठीक था। अच्छी जगह पर था। खुशी इतनी थी कि आसमान में न समाए। सबके मन अधीर हो रहे थे।

साई विहार से सभी को बीड जाना था। बीड, शिरवळ से ढाई-पौने तीनसौ किलोमीटर दूर था। इतनी दूर सबको लेकर जाने का कोई मतलब नहीं था। सूर्यकान्त ने सभी को समझाने का प्रयास किया लेकिन कोई भी सुनने को तैयार नहीं था। सभी संकेत को देखना चाहते थे, उसके साथ बात करना चाहते थे। सभी की जिद को देखते हुए विष्णु और शामराव ने अपने वीटो पावर का प्रयोग किया।

“सूर्यकान्त के साथ केवल प्रतिभा को जाने दें।”

“बाकी सभी घर पर रहें, यहीं उसका इंतजार करें।”

रात के नौ बज गए थे। चारों ओर भले ही घनघोर अंधेरा छाया हुआ था, लेकिन साई विहार में सबके मन में आनंद का उजियारा फैला हुआ था। फरवरी की कड़कड़ाती ठंड में दिवाली जैसा आनंद का वातावरण तैयार हो गया था। सूर्यकान्त और प्रतिभा निकलने की तैयारी करने लगे। विष्णु और शामराव इस बात से खुश थे कि अंत भला तो सब भला। जनाबाई और शालन ने भगवान के सामने हाथ जोड़े। दीपक जलाया। किस-किस भगवान से कौन-कौन सी मन्नतें मांगी थीं, ये याद करने लगीं। शेखर और विवेक कल सुबह शिरवळ के सभी बच्चों को घर बुलाकर पार्टी देने की योजना बनाने लगे। सौरभ के व्यवहार में अद्भुत फर्क आ गया था। खुशी के मारे वह घर भर में दौड़ते फिर रहा था। पराग और पायल अंदर जाकर संकेत के खिलौनों को साफ करने लगे। पायल ने भोलेपन से पूछा, “संकेत के वापस आने पर घर में सत्यनारायण की पूजा होगी न? मुझे प्रसाद खाने की इच्छा है। लेकिन सबसे पहले प्रसाद संकेत को देंगे, वो भी सबसे ज्यादा।”

पायल की भोली बातें सुनकर जनाबाई की हंसी फूट पड़ी।

“हां...हां...फिर से सत्यनारायण की पूजा करेंगे। बहुत सारा प्रसाद बनाएंगे। खूब सारा। तुम सभी को जितना खाना हो, उतना पेट भर कर प्रसाद खाना...”

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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