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फादर्स डे - 51

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 51

बुधवार 15/02/2000

रात नौ बजे महिंन्द्रा जीप क्रमांक एमएच 11-5653 बीड के रास्ते पर चल पड़ी। सूर्यकान्त और प्रतिभा को घर वालों ने खुशी-खुशी विदा किया। सभी ने अलग-अलग शब्दों में एक ही हिदायत दी,

“संकेत से मिलते ही फोन पर हमारी उससे बात कराना। तुरंत फोन करना। हम राह देखेंगे।”

सूर्यकान्त के जीप स्टार्ट करते ही प्रतिभा ने भी संकेत से जुड़ी यादों का सिलसिला शुरू कर दिया। जीप शिरवळ पुलिस चौकी की ओर मुड़ी। सदानंद बेलसरे और रमेश देशमुख भी सूर्यकान्त और प्रतिभा के साथ बीड के लिए रवाना हो गए। बेलसरे ने हाथ मिलाकर सूर्यकान्त को बधाई दी। जीप चलने लगी। जीप में शांति थी। सूर्यकान्त ने प्रतिभा की ओर तिरछी नजरों से देखते हुए पूछा, “क्यों, चुप क्यों हो गईं? संकेत के बारे में बात कर रही थीं न ? सभी आपस में बातें करते रहो...एक तो हमें लंबी दूरी तय करनी है, दूसरे रात भी बहुत होनी है।”

प्रतिभा ने हंसते हुए जवाब दिया,

“ऐसा कुछ नहीं जी...वो तो अचानक फोन आ जाने की वजह से मैं खुशी के मारे संकेत के बारे में बात करने लगी थी।”

बेलसरे ने बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए प्रतिभा से कहा,

“भाभी, हमने संकेत को खूब खोजा है...उसके बारे में सुनने का हमें भी अधिकार है कि नहीं? सूर्यकान्त भाई को तो सब कुछ मालूम होगा ही। उन्हें एक बार फिर सुनने को मिलेगा। हम पुलिस वालों की भी कभी तो कद्र किया करें....”

जीप में हंसी फैल गई। वातावरण में आनंद और उत्साह था। सूर्यकान्त भी बातचीत में शामिल हो गया।

“खुशी तो होगी ही न...होनी भी चाहिए। हंसने-खेलने के दिन फिर से आने वाले हैं। प्रतिभा तुम संकेत की सभी यादों को बताना शुरू करो। वैसे तो मैं छठवीं-सातवीं बार सुनूंगा, पर बेलसरे भी तो जानें कि संकेत कितना मस्तीखोर है...बेलसरे सुन रहे हैं न...? हमारा संकेत कितना भी मस्तीबाज क्यों न हो, वह घर में सभी का लाड़ला है।”

झींगुरों की किरकिर और दूर कहीं से आ रही जंगली जानवरों की आवाजों के बीच रात के अंधेरे का परदा चीरते हुए सूर्यकान्त की जीप बड़े उत्साह के साथ बीड मार्ग पर सरसराती हुई बढ़ी जा रही थी। जीप को भी आज आनंद के पंख लग गए थे, ये कहना गलत न होगा। प्रतिभा रास्ते भर संकेत की यादों को दोहराती रही। वह थोड़ा चुप होती तो सूर्यकान्त उसे कोई बात याद दिला देता और प्रतिभा फिर से संकेत की यादों की चकरी घुमाने लगती।

बेलसरे और देशमुख की खाकी वर्दी के भीतर का पिता और सामान्य इंसान इस समय जाग गया था। कड़क पुलिस अफसर का रुपांतरण इस समय एक सामान्य पिता में हो गया था। पुलिस अफसर हुए तो क्या हुआ? संवेदनशील, प्रेम करने वाला वात्सल्य से भरा हुआ पिता का दिल तो उनके भीतर भी धड़कता था। प्रतिभा की बातें चुपचाप सुनते आ रहे बेलसरे के मन में विचार आया कि एक इंसान के गुम हो जाने की फरियाद पुलिस के रजिस्टर में दस से पंद्रह लाइनों में लिख ली जाती है लेकिन उस एक फरियाद के पीछ कितनी वेदनाएं छिपी होती हैं, आंसू छिपे होते हैं। देशमुख ने तय कर लिया था कि कामकाज और सरकारी नौकरी की भागदौड़ के कारण वह अपने बच्चों को वक्त देना ही भूल गया था, परंतु इस केस के क्लोज होते ही वह अपने कामकाज और भागदौड़ का तरीका निश्चित ही बदलेगा। पत्नी और बच्चों को समय देगा।

रात को तीन बजे बेलसरे के कहने पर सूर्यकान्त ने जीप रोकी। हेड कॉन्स्टेबल रमेश देशमुख चाय के कप लेकर आ गया। प्रतिभा ने विनम्रतापूर्वक चाय लेने से मना कर दिया। सूर्यकान्त ने दोनों पुलिस वालों के साथ चाय और बिस्किट के साथ न्याय किया। बिस्किट के दो-तीन पैकेट और पानी की बोतल खरीदी गई। जीप में बैठते-बैठते सूर्यकान्त को कुछ याद आया।

“प्रतिभा...तुमने तो रात में खाना भी नहीं खाया...हमारा भोजन होने के बाद तुम सभी महिलाएं खाना खाने ही वाली थीं कि फोन आ गया और तुम थाली वैसी ही छोड़कर निकल पड़ीं। कुछ बिस्किट ही खा लो, पेट को कुछ तो पड़ेगा।”

प्रतिभा ने मना कर दिया।

“मुझको चाय-पानी बिस्किट कुछ नहीं चाहिए। संकेत को देख लूं, फिर सबकुछ खाऊंगी। उसकी के साथ खाऊंगी। लौटते समय रास्ते में मैं और संकेत कुछ मजेदार खाना खाने वाले हैं। उस समय अच्छे से खिलाइएगा हमें। लेकिन अभी कुछ भी नहीं चाहिए...प्लीज रहने दें....मैं कुछ नहीं लूंगी।”

जीप फिर से दौड़ने लगी। देशमुख को झपकी आने लगी। आंखों पर नींद छाने लगी थी। देशमुख की नींद रोके नहीं रुक रही थी। प्रतिभा संकेत की यादों में गुम थी। गाड़ी चला रहे सूर्यकान्त को नींद न आ जाए इसलिए बेलसरे उसके साथ दुनिया भर की बातें कर रहे थे। फिल्म, राजनीति, समाजसेवा, माफिया डॉन, क्रिकेटर, काम-धंधा, उसकी दिनभर की भागदौड़ जैसे अनेक विषयों पर दोनों बातें कर रहे थे। उनका जागते रहना जरूरी था। बेलसरे ने एक-दो बार गी चलाने का आग्रह किया, लेकिन सूर्यकान्त ने मना कर दिया।

एक मोड़ पर गाड़ी में अचानक ब्रेक लगा, रमेश देशमुख की नींद खुल गई। हड़बड़ाकर जाग उठे देशमुख की ओर बेलसरे ने मुस्कुराते हुए देखा। देशमुख शर्मिंदा हो गया।

“सॉरी...सॉरी सर...जरा नींद लग गई थी।”

बेलसरे ने उसका कंधा थपथपाया।

“सॉरी कहने की आवश्यकता नहीं है। लौटते समय तुम ड्राइविंग करना। मैं और सूर्यकान्त आराम करेंगे।”

नॉनस्टॉप भाग रही जीप सुबह-सुबह बीड जाकर पहुंची। लंबी-चौड़ी जगह में खड़े बालग्राम सहारा अनाथालय के आंगन में जीप जाकर खड़ी हो गई। लगातार चल रहा इंजिन अभी भी धड़धड़ कर रहा था। अनाथालाय के अहाते में पहुंचते साथ प्रतिभा का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। इतनी सुबह ऑफिस खुला नहीं था।  किनारे एक वॉचमैन सो रहा था। सूर्यकान्त ने उसको जगाया तो मालूम हुआ कि ऑफिस सुबह साढ़े दस बजे खुलेगा। सदानंद बेलसरे ने वॉचमैन को आदेश दिया,

“जाओ, मैनेजर को बुलाकर लाओ।”

“साहब दस बजे आएंगे, कहा न?”

“लेकिन अभी त।क तुमको किसी ने बताया नहीं कि हम पुलिस वाले हैं”

“पुलिस?”

“हां...पुलिस...जाओ जल्दी से मैनेजर को बुलाकर लाओ।”

वॉचमैन भागते हुए मैनेजर के कमरे की ओर गया। पांच मिनट के भीतर ही मैनेजर हड़बड़ी में आता दिखाई दिया। सूर्यकान्त ने उसे अपना परिचय दिया। मैनेजर तुरंत बोला,

“हां, हां... मैंने ही आपको फोन किया था। मैंने कल ही पोस्टर देखा तो मुझसे रहा नहीं गया। मैंने रात में ही आपको फोन लगा दिया।”

प्रतिभा ने उसकी बकबक को बीच में ही रोक दिया।

“प्लीज, संकेत को बुलाइए ना जल्दी से।”

मैनेजर ने वॉचमैन को ऑर्डर दिया।

“जाओ...उस नए लड़के को लेकर आओ..देखो....यदि वह सो रहा होगा तो प्रेम से जगाना, समझ में आया कि नहीं?”

आज्ञाकारी इंसान की तरह वॉचमैन अपनी गर्दन हिलाता हुआ तेजी से रवाना हो गया। सभी लोग मैनेजर के ऑफिस में बैठ गए। मैनेजर ने बताना शुरु किया कि आश्रम किस तरह से संचालित होता है, उसका विस्तार कहां तक है, कार्यपद्धति कैसी है, बच्चों की तरफ कितनी अच्छी तरह से ध्यान रखा जाता है, बच्चों की देखरेख करने वाला स्टाफ कितना जागरूक है और कामकाज में ढिलाई बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं की जाती वगैरह, वगैरह। लेकिन उसकी बातों की ओर किसी का भी ध्यान नहीं था। प्रतिभा ने वॉचमैन को अपने साथ  एक लड़के का हाथ पकड़कर लाते हुए देखा। सामने की ओर से आते हुए दोनों अचानक बांईं ओर मुड़कर नजरों से ओझल हो गए। प्रतिभा की जान अटक गई। उसका धैर्य जवाब देने लगा था। सूर्यकान्त ने उसका हाथ धीरे-से दबाकर उसे शांत रहने को कहा।

बीड के बालग्राम सहारा अनाथालय कॉम्प्लेक्स में उगती सुबह की शांति छाई हुई थी। जागे हुए बच्चों की हलचल की भनक ऑफिस तक नहीं पहुंच पा रही थी। बाहर के वातावरण में थोड़ी ठंडक महसूस हो रही थी। लेकिन ऑफिस के भीतर उत्सुकता और उत्तेजना थी।

सूर्यकान्त थोड़ी-थोड़ी देर में रुमाल से अपना चेहरा पोंछता जा रहा था। उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। संकेत को देखने, उसे सीने से लगाने की भावना तेज होती जा रही थी। प्रतिभा की जान ऊपर-नीचे हो रही थी। वह कभी अपनी साड़ी के आंचल को मसल रही थी तो कभी उससे अपना चेहरा पोंछ रही थी। उसका सारा ध्यान अनाथालय की लॉबी की ओर लगा हुआ था। संकेत के आने की आहट पर कान टिके हुए थे। मॉं का दिल अब क्षण-भर भी इंतजार करने को तैयार नहीं था।

 

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह