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कलयुग के श्रवण कुमार - 5 - दुनिया मे क्या रखा है (2)

दुनिया मे क्या रखा है-2


भाग 1 से आगे......

'बाबू.. (सानिध्य के पैर टटोलते हुए) पीआस (प्यास) लगी बा.. पानी पिया (पिला) दा ।

वृद्ध महिला ने बड़ी मासूमियत से बोला था सानिध्य से।
जैसे पल भर पहले कुछ हुआ ही नहीं था।

भीड़ को हटाने को बोल, सानिध्य ने उस वृद्धा को सहारा देते अपने पोलिस वाहन तक ले आया।
' भोला कैम्पर (ठंडे शोधित पानी का पात्र) से पानी ला, और नारायण तू फस्ट - एड बॉक्स (प्राथमिक उपचार संदूक) ला। '
पास पड़ी कुर्सी पर वृद्ध महिला को बैठाते हुए बोला था सानिध्य।
छूटभैया नेता तो बस मुँह फैलाए आखें फाड़ घूर रहा था।

बड़े आराम से पहले खाने को बिस्कुट दिया, ऐसा लगा कई दिनों से भूखी थीं वो।
फिर पानी पिलाया गया महिला को।
फिर इत्मीनान से सानिध्य ने वृद्धा और स्वयं का उपचार किया। फिर वार्तालाप आरंभ किया।
'माता जी, आपका नाम क्या है।'
कुछ पल मौन रहने के बाद धीरे से कहा - रामकली नाम हौ हमार बेटवा। '
कहाँ रहती हो आप, पता है अभी आप को चोट लग जाती, और भी दुःखद हो सकता था।
' का होता बाबू जादा से जादा मर जाते, ऐसे जीने से त मर जाना है बाबू... ई दुनिया मे का रखा हौ बेटवा, '।
आवाक रह गया था, महिला का उत्तर सुन कर सानिध्य।
ऐसा क्यों अम्मा , घर मे बेटा बेटी नहीं है का... । पूछा था उसने।
बेटा सब हैन, लेकिन पति के जाय (गुजरने /मरने) के बाद जब से बेटवा के व्याह होई गवा, एक कमरा मे बंद कुकुर नियर (कुत्ते की तरह) कौरा (टुकड़े) पर जियत रहे।
कभो कुछ नाही कहे, मारते पीटते तबो नहीं बोले।

सानिध्य मौन बड़े ध्यान से उस वृद्धा के मन से छलकते दर्द को सुन रहा था।
माँ बाप ना होने दर्द क्या होता है यह सानिध्य से बेहतर कौन समझ सकता था, और जिसकी हैं उन्हें कदर नहीं।
जब वह 10 वर्ष का था तभी माता पिता का दुर्घटना मे देहांत हो गया था।
'फिर अम्मा' - पूछा था उसने।
'एक दिन गंगा नहवावे के नाम पर इहां छोड़ गए। हम आज तक कतौ बाहर नहीं गए है।
आज एक महीना से दर - दर की ढ़ोकर खात हौ बेटवा, ऐसन जिंदगी से मौत भल, पता नहीं विधाता हमार कागज कहाँ हेरवाय (गुम करना) देहेन, मुई मौतों नाही अवत हौ।
कुछ देर चुप रह कर सानिध्य ने कहा था।
'अपने घर जाबो अम्मा। '
ना बेटा, मर जाब पर ऊंहाँ ना जाबो। चार दिन का जिंदगी बा कहियों (किसी दिन) मर जाबे।
'अम्मा हमरे संग रहोगी, हमार अम्मा जैसन।'
'बाबू जब कोखें क औलाद दर दर के ठोकर खाय देत हौ तो, तू भला काहें कष्ट उठौबो बाबू, '।
काफी समझाने के बाद वह बुढ़ी महिला सानिध्य के साथ जाने को तैयार हुई।
सानिध्य ने भोला को कोर्ट ले जाने के लिए समझा कर, जरूरी कागजातों पर हस्ताक्षर करके ड्राइवर को घर चलने को बोला।
🔸🔸🔸
रास्ते मे सानिध्य ने वृद्ध अम्मा के लिए कुछ कपड़े खरीदे।
घर आ चुका था।
बुढ़ी अम्मा को नहाने को बोल, ड्राईवर चन्दर को खाना लाने भेज दिया।
अभी उसने शादी नहीं की थी, अकेला ही तो रहता था।
सो खाना अक्सर बाहर ही खाता था वह।
थोड़ी देर मे रामकली स्नान करके, सानिध्य के लाए कपड़े पहने।
खाना आ चुका था।
टेबल पर खाना लगा कर सानिध्य ने अम्मा को बैठाया, और खुद भी खाने बैठ गया।
बीच मे खाना खाते खाते अम्मा रो पड़ी।
शायद यह अपनों से ठुकराए जाने के बाद, अजनबी से मिले अपनेपन से अम्मा का कलेजा भर आया था और गला रुंध गया था।
डॉ मुकुल पांडेय को कॉल कर, संक्षिप्त मे सारी स्थिति बताई और चेकअप के लिए आग्रह किया।
बेहतर खान पान और उचित इलाज, और सानिध्य की देखभाल से वह अब पहले से काफी स्वस्थ्य हो गई थी।
अब वह भिखारी सरीखे नहीं बल्कि संभ्रांत भद्र महिला जैसी दिखने लगी थी।

समय अपनी गति से गुजरता जा रहा था।
अब तक दो माह बीत गए थे।
सानिध्य की दुनिया मे अलग ही प्रसन्नता का आगमन हो चुका था।
अब ड्यूटी और फिर घर आ कर अम्मा का ख्याल और उनसे ढेरों बातेँ करना यही रोजमर्रा की आदतों मे शामिल हो चुका था।
अब तो वो अम्मा को माँ कहने लगा था।
लग रहा था, कि सानिध्य के जीवन का खालीपन भर गया हो
कमोवेश अम्मा का भी यही हाल था, अब वे अपनी विगत जिंदगी को भुला कर सचमुच सानिध्य को बेटे के रूप मे स्वीकार चुकी थी।
उसे लगा जिंदगी मौत अपनी जगह है, किंतु यदि औलाद लायक हो तो दुनिया मे बहुत कुछ रखा है, जीवन एक उद्देश्य ले कर पैदा होता है, यह हम पर निर्भर है कि कैसे जीना है।
कोख का मोती ना सही पर हीरा था अम्मा की नजरों मे सानिध्य।
जिंदगी आहिस्ता आहिस्ता पटरी पर लौट आई थी।
सानिध्य की चोटें भी ठीक हो गई थी।
एक दिन जब अम्मा और सानिध्य बैठे चाय पी रहे थे।
तो अम्मा ने कहा - बेटवा हम सोंचत रहे, खुन की औलाद तो नकारा निकल गई, पूत कपूत तो का धन संचय, पूत सपूत तो का धन संचय
'माँ हम कुछ समझे नाही।'
' बात ई हौ की सारी जमीन जायदाद त हमरे नाम बा, तो विचार करत रहे की वोका (उसको) बेच कर कुछ पुन्न (पुण्य) कई लेई, मरै से पहिले।'
' अम्मा, काहे परेशान हो रही हो, कौनो जरूरत नहीं, बहुत कमा लेता हूँ, फिर तुमको कौनो दिक्कत है का।'
बेटा हम के कोनो दिक्कत नहीं है, बस दू दू बीघा पोता पोती के नाम कै के (कर के) बाकी एक बसेरा बनवावै के सोचत रहे, जहां हमरे जैसन कई लोगन के जिंदगी बा, उन सब के बसेरा और दू रोटी का व्यवस्था होई जाए।
अम्मा की सोच से बिना प्रभावित हुए ना रह सका सानिध्य।
फिर हँसते हँसते बोला - अम्मा दुनिया मे का रखा है, जो इतना करोगी।
रामकली अम्मा मुस्कान समेटते हुए बोली - बेटा बहुत कछु रखा है।
बेटा अब तुम भी बहुरिया (बहू) ला दो, अकेले घर काटने दौड़ता है।
सर नीचे कर मुस्करा उठा था वह बस।
🔹🔹🔹
निश्चित समय मे अम्मा ने जैसा कहा कर दिखाया, पोता पोती को दो दो बीघे लिख, बेटे बहू के नाम कुछ ना किया और कुछ जमीन बेंच कर "आसरा" नामक वृद्धाश्रम और एक संस्था "आसरा" के ही नाम से बना कर लघु उद्योग जिनमे विधवा महिलाओं, को रोजगार भी मिलता था और अचार, मसाले, सिले कपड़े आदि विक्री करते थे। आय से काम करने वाली महिलाओं को वेतन और बचे लाभ (प्रॉफिट) से वृद्धाश्रम के रखरखाव खानपान का खर्चा हो जाता था।
अम्मा और सानिध्य दोनों खुश थे।
एक साल मे ही सब सुव्यवस्थित हो गया।
हाल ही मे सानिध्य का विवाह रिद्धि के साथ हो गया।
रिद्धि बहुत ही प्यारी, कुशल और सुलझी हुई लड़की थी।
अम्मा से बहुत जल्दी घुल गई, और दोनों मिलकर "आसरा" को नयी बुलंदी देने लगे।
आने वाले वर्षों का लक्ष्य निर्धारित किया कि लघु उद्योग को बढ़ा कर उसकी आय से गरीब बच्चों के लिए निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करने का है।
आज अम्मा को लग रहा था, कि खुशियाँ और संस्कारी औलाद हो तो दुनिया मे क्या रखा है नहीं अपितु बहुत कुछ है।


(समाप्त)
आपको यह कहानी कैसी लगी, कृपया अपनी अमूल्य राय समीक्षा के माध्यम से आशीर्वाद के रूप मे अवश्य दीजिए ।
आज के लिए इतना ही अब दे अनुमति.....
✍🏻संदीप सिंह (ईशू)

(यह रचना पूर्णतः मौलिक है )
©सर्वाधिकार लेखकाधीन